शक संवत का प्रारंभ कब किया गया था?
भारत में वेदिक काल में संवत्सरारम्भ वसन्त विषुव से होता था। जिस दिन सुर्य भुमध्य रेखा पर आकर उत्तरीगोलार्ध में प्रवेश करता है, पुरे विश्व में दिन रात बराबर होते हैं, उत्तरीध्रुव पर सुर्योदय और दक्षिणी ध्रुव पर सुर्यास्त होता है, सुर्योदय के समय सुर्य ठीक पुर्व में उदय होता है और सुर्यास्त के समय सुर्य ठीक पश्चिम में अस्त होता है उस दिन को वसन्त विषुव कहते हैं। तीनसौ साठ दिन के सावन वर्ष में अन्तिम पाँच/ छः दिन यज्ञ होता था तथा पाँच वर्ष उपरान्त पुरे माह यज्ञसत्र चला कर वसन्त विषुव से संवत्सरारम्भ करते थे।
महाभारत काल के ज्योतिष के अनुसार हर अट्ठावन माह पश्चात दो माह अधिक मास मान कर इकसठवें माह को नियमित मास माना जाता था। यह गणना कठिन थी जिसे भीष्म पितामह द्वारा समझाने पर भी दुर्योधन भी नही समझ पाया था।
आकाश की मध्य रेखा विषुववृत (Meridian) पर उत्तर की ओर जहाँ भूमि का परिभ्रमण मार्ग क्रान्तिवृत्त क्रास करता है उसे वसन्त सम्पात अर्थात सायन मेषादि बिन्दु कहते हैं। इसी बिन्दु पर भूमि के केन्द्र से सुर्य का केन्द्र दिखने को महा विषुव या वसन्त विषुव कहते हैं। यही समय वेदिक संवत्सरारम्भ का है। इस गणना का लाभ यह है कि यह ऋतु चक्र के बिल्कुल अनुकुल होने से इसके मास और मासांश दिवसों को ऋतु ठीक ठीक बैठती है। दिनमान रात्रिमान , सुर्योदयास्त समय प्रति वर्ष ठीक ठीक समान समय पर ही आवृत्ति होती है।
20 मार्च 2020 शुक्रवार को पुर्वाह्न 09:20 बजे वसन्त विषुव हुआ। इस समय सुर्य का सायन मेष संक्रमण हुआ। अर्थात वेदिक नव संवत्सर आरम्भ हुआ। कल्प संवत्सरारम्भ, सृष्टि संवत्सरारम्भ, और कलियुग संवत्सरारम्भ इसी दिन को माना जाना चाहिए।
महर्षि विश्वामित्र जी ने नवीन गणना प्रणाली का सुत्रपात किया जिसे नाक्षत्रीय गणना कहा जाता है। जब सुर्य के केन्द्र भू केन्द्र और चित्रा नक्षत्र के योग तारा (Spica Virginia) का केन्द्र एक रेखा में हो तब सुर्य अश्विनी नक्षत्र में प्रवेश करता है जिसे निरयन मेष संक्रान्ति कहते हैं। इस गणना का लाभ यह है कि, चलते रास्ते भी चन्द्रमा, और ग्रहों के नक्षत्रचार देखे जा सकते हैं। कौनसा ग्रह किस निरयन राशि और किस नक्षत्र पर है किसान भी बतला देते हैं। वर्तमान में निरयन मेष संक्रान्ति 13/14 अप्रेल को पड़ती है। इसी दिन वैशाखी मनाई जाती है।इस दिन से निरयन संवत्सरारम्भ माने जाना लगा।
इस वर्ष 13 अप्रेल 2020 सोमवार को 20:23 बजे (अपराह्न 08:23 बजे रात में) निरयन मेष संक्रान्ति से कल्पारम्भ गताब्ध संवत 1,97,29,49,121 का आरम्भ होगा , सृष्टिगताब्ध संवत 1,95,58,85,121 का आरम्भ होगा। एवम् युधिष्ठिर संवत तथा कलियुग संवत 5158 का आरम्भ होगा। पञ्जाब हरियाणा उड़िसा, दिल्ली में विक्रम संवत 2077 का आरम्भ मनाया जायेगा। पञ्जाब का मालव संवत भी इसीदिन आरम्भ होता है।
शक और कुषाण तिब्बत में तिब्बत के तरीम बेसिन और टकला मकान क्षेत्र में (उत्तर कुरु/ ब्रह्मावर्त) शिंजियांग उइगुर प्रान्त (चीनी तुर्किस्तान) के मूल निवासी थे।
मध्य चीन के तुर्फन के आसपास युएझी प्रान्त के निवासी युएझी कहलाते थे। वे लोग विजेता के रुप में पहले पश्चिम में ईली नदी पर पहूँच कर अकसास नदी की घाँटी घाँटी पामिर पठार की ओर फिर दक्षिण में हिन्दूकुश पर्वत, ईरान, अफगानिस्तान होते हुए सिन्ध में तक्षशिला,पञ्जाब होते हुए मथुरा तक पहूँच गये। गुर्जरों के कषाणा वंश या कसाणा कबीले को आत्मसात कर कोसोनो कहलाते थे तथा गुसुर कबिले के समान थे। भारत में कुषाण कहलाये । इनने पहले ग्रीक भाषा, फिर बेक्ट्रियाई भाषा और अन्त में पुरानी गुर्जर गांन्धारी और फिर संस्कृत भाषा अपनाई। तथा भारत में गुर्जर के रुप में भी प्रसिद्ध हुए।
इसी कुषाण वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कनिष्क हुआ। जिसका जन्म गान्धार प्रान्त के पुरुषपुर (पेशावर) में (वर्तमान पाकिस्तान) में 98 ई.पू. में हुआ। इसकी राजधानी पेशावर थी एवम् उप राजधानी कपिशा (अफगानिस्तान) और मथुरा उ.प्र. भारत) को बनाया। तथा मथुरा से अफगानिस्तान, दक्षिणी उज़्बेकिस्तान , ताजिकिस्तान से लेकर मध्यचीन के तुर्फन तक फैला था। जन्मसे यह सनातन धर्मी था किन्तु बाद में बौद्ध धर्म अपना लिया। अफगानिस्तान तथा चीन में महायान बौद्धधर्म फैलाने में विशेष योगदान दिया।
चीन में प्रचलित उन्नीस वर्षिय चक्र वाला सायन सौर संस्कारित चान्द्र केलेण्डर कुषाणों में प्रचलित था। इसी का भारतीय स्वरुप उन्नीस वर्ष, एकसौ बाईस वर्ष और एक सौ एकतीस वर्षिय चक्र वाला निरयन सौर संस्कारित चान्द्र केलेण्डर कनिष्क ने ही उत्तर भारत तथा गुजरात में में चलाया। दक्षिण में महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश के अलावा मध्यप्रदेश, और पुर्वी, दक्षिणी गुजरात में आन्ध्र प्रदेश के सातवाहन या शालिवाहन वंशी गोतमीपुत्र सातकर्णि ने प्रचलित किया। यह संवत उत्तर भारत में मथुरा विजय कर कनिष्क के सत्त्तारूढ़ होने की खुशी में और दक्षिण भारत में पूणे- नासिक क्षेत्र में पेठण में शकों पर शालिवाहन गोतमीपुत्र सातकर्णि की विजयोपलक्ष्य में इस्वी सन 78 में विक्रम संवत 135 में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से लागु किया गया।
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1 शक संभवतः उत्तरी चीन तथा यूरोप के मध्य स्थित झींगझियांग प्रदेश के निवासी थे। कुषाणों एवं शकों का कबीला एक ही माना जाता है।
2 पश्चिमी चीन के गांसु प्रदेश में जिउक्वान शहर क्षेत्र में डुहुआंग नगर, उत्तर अक्षांश 40 ° 08″32" N और पुर्व देशान्तर 94 ° 39 '43" E पर स्थित डुहुआंग नगर, (डुनहुआंग नगरपालिका क्षेत्र) को युझी जाती का मूल स्थानों में से एक माना जाता है। अर्थात कनिष्क आदि (भारतीय शकों) का मूल स्थानों में से एक माना जाता है।
3 शक प्राचीन मध्य एशिया में रहने वाली स्किथी लोगों की एक जनजाति या जनजातियों का समूह था, जो सीर नदी की घाटी में रहता था।
4 (आर। ५२२-४८६ ईसा पूर्व) के शासनकाल के लिए , कहा जाता है कि शक सोग्डिया की सीमाओं से परे रहते थे। [४४] इसी तरह ज़ेरक्सस I
5 (आर। ४८६-४६५ ईसा पूर्व) के शासनकाल के एक शिलालेख ने उन्हें मध्य एशिया के दहे लोगों के साथ जोड़ा है ।
6 सोग्डियन क्षेत्र आधुनिक उज्बेकिस्तान में समरकंद और बोखरा के आधुनिक प्रांतों के साथ-साथ आधुनिक ताजिकिस्तान के सुगद प्रांत से मेल खाता है
मध्य चीन के तुर्फन के आसपास युएझी प्रान्त के निवासी युएझी कहलाते थे। वे लोग विजेता के रुप में पहले पश्चिम में ईली नदी पर पहूँच कर अकसास नदी की घाँटी घाँटी पामिर पठार की ओर फिर दक्षिण में हिन्दूकुश पर्वत, ईरान, अफगानिस्तान होते हुए सिन्ध में तक्षशिला,पञ्जाब होते हुए मथुरा तक पहूँच गये। गुर्जरों के कषाणा वंश या कसाणा कबीले को आत्मसात कर कोसोनो कहलाते थे तथा गुसुर कबिले के समान थे। भारत में कुषाण कहलाये । इनने पहले ग्रीक भाषा, फिर बेक्ट्रियाई भाषा और अन्त में पुरानी गुर्जर गांन्धारी और फिर संस्कृत भाषा अपनाई। तथा भारत में गुर्जर के रुप में भी प्रसिद्ध हुए।
इसी कुषाण वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कनिष्क हुआ। जिसका जन्म गान्धार प्रान्त के पुरुषपुर (पेशावर) में (वर्तमान पाकिस्तान) में 98 ई.पू. में हुआ। इसकी राजधानी पेशावर थी एवम् उप राजधानी कपिशा (अफगानिस्तान) और मथुरा उ.प्र. भारत) को बनाया। तथा मथुरा से अफगानिस्तान, दक्षिणी उज़्बेकिस्तान , ताजिकिस्तान से लेकर मध्यचीन के तुर्फन तक फैला था। जन्मसे यह सनातन धर्मी था किन्तु बाद में बौद्ध धर्म अपना लिया। अफगानिस्तान तथा चीन में महायान बौद्धधर्म फैलाने में विशेष योगदान दिया।
चीन में प्रचलित उन्नीस वर्षिय चक्र वाला सायन सौर संस्कारित चान्द्र केलेण्डर कुषाणों में प्रचलित था। इससे मिलता जुलता उन्नीस वर्षीय चक्र मिश्र और मेसापोटामिया में भी प्रचलित था। इसी का भारतीय स्वरुप उन्नीस वर्ष, एकसौ बाईस वर्ष और एक सौ एकतीस वर्षिय चक्र वाला निरयन सौर संस्कारित चान्द्र केलेण्डर कनिष्क ने ही उत्तर भारत तथा गुजरात में तथा दक्षिण में महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश के अलावा मध्यप्रदेश, और पुर्वी, दक्षिणी गुजरात में सातवाहन या शालिवाहन वंशी गोतमीपुत्र सातकर्णि ने प्रचलित किया। यह संवत उत्तर भारत में कनिष्क के सत्त्तारूढ़ होने की खुशी में और दक्षिण भारत में शकों पर शालिवाहन गोतमीपुत्र सातकर्णि की विजयोपलक्ष्य में इस्वी सन 78 में विक्रम संवत 135 में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से लागु किया गया।
इसके पहले भारत में निरयन सौर मास और चन्द्रमा के नक्षत्र से वृतोत्सव मनाने का प्रचलन था जो दक्षिण भारत मेंअभी भी प्रचलित है। जैसे निरयन सिंह के सुर्य में श्रवण नक्षत्र पर चन्द्रमा हो तो वामनावतार जयन्ति ओणम मनाते हैं। गया में कन्या राशि के सुर्य में कृष्ण पक्ष में श्राद्ध का विशेष महत्व है। बंगाल में भी नवरात्रि में तुला राशि के सुर्य और मूल, पुर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा और श्रवण नक्षत्र के चन्द्रमा में ही देवी आव्हान, स्थापना, पुजन, बलिदान और विसर्जन होता है।
निरयन सौर संस्कृत चान्द्र केलेण्डर के चैत्रादि मास प्रचलित हो चुके थे। किन्तु तब केवल सुर्य चन्द्र ग्रहण और इष्टि के लिये अमावस्या, पुर्णिमा, तथा अर्ध चन्द्र दिवस उपरान्त अष्टका एकाष्टका के लिये अष्टमी तिथियाँ ही मुख्य रुप से प्रचलित थी। एकादशी का प्रचलन चन्द्रवंशी ययाति के समय हुआ। तिथी वार, नक्षत्र , योग और करण युक्त पञ्चाङ्गों का प्रचलन वराहमिहिर के बाद ही हुआ।
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