सायन सौर संक्रान्तियों, निरयन सौर संक्रान्तियों, पुर्णिमा, अमावस्या और अष्टमी तिथि सम्बन्धित व्रत,पर्वोत्सव मनाना।
केवल होली दिवाली जैसी इष्टियाँ, कोजागरी - शरदपुर्णिमा जैसे कुछ विशिष्ट वृतपर्वोत्सवों को छोड़ शेष सभी वृत पर्वोत्सव सायन सौर संक्रान्तियों, और उनके गतांश के अनुसार ही मनाये जावें।
इष्टियों और अष्टका-एकाष्टका वेदिक पर्व है।अतः इन विशिष्ट वृतपर्वोत्सवों को पुर्णिमा, अमावस्या और अष्टमी तिथि (अर्ध चन्द्रमा) पर ही किया जाता था अतः इन्हें दर्शाया जा सकता है।
कृष्णपक्ष की तिथियों को 16, 17, 18 से 30 तक गिनती मानकर जो व्रत पर्वोत्स्व जिस तिथि को मनाया जाता है उसी गतांश पर मनाया जाये। नागपञ्चमी जैसे कुछ व्रत पर्वोत्सवों में राजस्थान और शेष भारत में एक चान्द्र पक्ष अर्थात लगभग 15 दिन का अन्तर पड़ता है उनका निबटारा भी शास्त्रज्ञानियों की बैठक करवा कर करना होगा।
खालसा पन्थ के मनिषियों को भी समझाया जावे । वे भी यदि सायन सौर संक्रान्तियों से अपने व्रत पर्वोत्स्व जोड़ना उचित समझे तो अत्युत्तम होगा।
ऐसे ही जैन और बौद्ध सम्प्रदायों के आचार्यों, और उपाध्यायों को भी समझाया जावे। जैनों से तो आशा की जा सकती है।
पारसियों और ईसाइयों के कुछ व्रतपर्वोत्सव तो पहले से सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित है ही।
यदि इसाई क्रिसमस सायन मकर संक्रान्ति (22/23 दिसम्बर) को और नव वर्ष आरम्भ सायन मेष संक्रान्ति (21 मार्च) के सुर्योदय से आरम्भ करना स्वीकार करले तो अत्युत्तम।
भारत में यहूदी तो नगण्य ही शेष हैं।
यहूदियों की परम्परा पर चलनें वाले इस्लाम के कट्टर पन्थियों से कोई आशा नही है।
विशेषकर भारतीय मुस्लिमों के लिये प्राकृतिक और वैज्ञानिक तथ्यों का कोई मुल्य नही है केवल परम्पराओं के प्रति आस्था ही सबकुछ है। अतः उन्हें उनके हाल पर ही छोड़देना उचित होगा। यदि वे स्वतः समझदारी दिखाये तो उनका स्वागत किया जाये।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें