सायन सौर गणना आधारित वेदिक संवत्सर,वेदिक वर्ष या वेदिक अयन (जिसे पौराणिक गोल कहते हैं।) ,वेदिक तोयन (जिसे पौराणिक अयन कहते हैं।),वेदिक ऋतु, वेदिक मास - और उनके गतांश और गते, तथा सुर्योदयास्त, चन्द्रोदयास्त , ग्रहों के दर्शन - अदर्शन इसे भी उदय अस्त ही लिखा जाता है।अगस्तादि तारों का उदय - अस्त, तारों और ग्रहों के लोप -दर्शन, ग्रहण, होराशास्त्र के दशमभाव और लग्नादि की गणना सायन बिना नही हो सकती।
किसी योगतारा का सायन भोगांश और निरयन भोगांश दोनों उल्लेख करनें पर भविष्य में इतिहास लेखकों को समय निर्धारण आसान होगा।
ऐसे ही थोड़े से अभ्यास से सुर्योदय के पहलें पूर्व में लुप्त होनें के पहले और पश्चिम में क्षितिज के नीचे भूमि की आड़ में छुपनें को तैयार किसी तारों को देखकर और और सुर्यास्त के बाद पूर्व में उदय होनेंवाले तारों और पश्चिम में ठीक क्षितिज पर के तारों को देखकर निरयन मास और संक्रान्ति गतांश और गते अर्थात संक्रान्ति गत दिवस बतलाये जा सकते हैं। ग्रामीण किसान पहले यह आसानी से समझलेते थे।
चन्द्रमा की कला और कटा हुआ भाग पु्र्व और पश्चिम की और देखकर पक्ष का ज्ञान हो सकता है जबकि चन्द्रमा का आकार / कला देखकर तिथि का अनुमान किया जा सकता है। अतः चान्द्र गणना का भी अपना महत्व है।
हमारे सौर मण्डल का सुर्य मार्तण्ड भी गेलेक्सी के केन्द्र की परिक्रमा कर रहा है। ऐसे ही नक्षत्रमण्डल में कोई भी तारा अचल नही है। केन्द्र से दूरी के अनुसार सभी तारों की गति भी अलग अलग होती है। अतः
आकाश का नक्षा या दृष्य कभी एकसा नही रहता। जैसे कुछ दिनों और महिनों में तारों के सापेक्ष मे ग्रहों का स्थान बदलता बदलता रहता है। ठीक वैसे ही नक्षत्र मण्डल के और अन्य सभी तारे भी परस्पर / सापेक्ष अपना स्थान बदलते रहते हैं। इनके लिये बिन्दू रूप में ऐसा कोई नही खोजा जा सका जिसे आधार माना जा सके। समझनें के लिये भूमिवासी अपनें स्थान के ख स्वस्तिक (मेरेडियन कॉईल) के आधार पर ही तारासमुहों से निर्मित आकृतियों का सहारा लेते हैं। जिन्हे राशि नाम दे दिया गया। किन्तु,
न सायन राशियाँ अपनें पुरानें आकार में बची है भारतीय नक्षत्रों की आकृति और स्थान वैसे ही पुर्ववत नही रहे। और भविष्य में और बदल जायेंगे। एन्ट्रापी प्रभाव पूर्ण जगत में दिखता है।
तारे परस्पर भी और अपनें केन्द्र से दूर होते जा रहे हैं। गेलेक्सी भी अपनें केन्द्र से और एक दुसरे से दूर होती जा रही है। इस क्रम में कभी कभार परस्पर टकराव भी होता है। अतः आकाश की एकरूपता सम्भव ही नही है।
सभी आकाशीय पिण्डों का परिक्रमा मार्ग दीर्घवृत्ताकार है इसकारण मन्दोच्च शिघ्रोच्च का उल्लेख भी महत्वपूर्ण है। क्योकि मन्दोच और शिघ्रोच्च की भी चलनशिलता / गति होती है। व्यतिपात वैधृतिपात में भी चन्द्र नक्षत्रों के बीच चलनशिलता / गति है। इनका उल्लेख भी इतिहास काल गणना में सहायक होता है।
अतः इस / उक्त आधार पर सायध गणना और निरयन गणना का औचित्य निर्धारण और एक को सही और दुसरे को गलत ठहराया जाना सम्भव नही है।
सायन गणना का अपना उपयोग है, निरयन गणना का अपना उपयोग है।कोई किसी को प्रस्थापित नही कर सकता।
निष्कर्ष य की सबका अपना - महत्व है। किन्तु जहाँ जिसकी आवश्यकता हो वहाँ उसीका उपयोग करना चाहिए।
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