शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

श्राद्धकर्म का यथार्थ

अन्तरात्मा जैसे ही देह छोड़ती है।उसीके साथ ही जीवात्मा से लिङ्ग शरीर तक रहते हैं।
अतः अधिकतम दस दिन तक कारण शरीर, सुक्ष्म शरीर और लिङ्ग शरीर  ही प्राण / देही की देह रह पाती है। जिसके  आकार के कारण ही उस प्राणी / देही को पहचाना जासकता है । परिवार को झलक दिखलाने वाला लिङ्ग शरीर ही होता है। ऐसी कहानियाँ सुनी होगी कि,   ही  दुर्घटना में मरनें वाले व्यक्ति के परिवार वालों को  अपनी दुर्घटना सुचना देता है वह लिङ्ग शरीर ही होता है। 
सुक्ष्म शरीर स्वप्न और सम्मोहन में यात्रा करता है।और कारण शरीर केवल दृष्टाभाव से उस यात्री सुक्ष्मशरीर की पीठ और आँख भी देख पाता है।
इस लिङ्ग शरीर को देह के प्रति लगाव त्यागने के निर्देश देनें हेतु तिर्थ स्थान पर जाकर दशाह कर्म के अन्तर्गत विसर्जन से के उपरान्त अवशिष्ट अस्थी को देह मानकर उसका पुनः दाह कर अन्त्येष्टि की जाती है। दसवें की क्रियाओं से लिङ्ग शरीर नही रहा यह मान लिया जाता है।
एकादशाह में मृतक की अतृप्त इच्छाओं के के रहते आसक्ति समाप्त करनें हेतु ब्राह्मणों के लिए चाँवल का पिण्ड बनाकर उसके टुकड़े टुकड़े कर उसे इस जीवन की स्मृतियों की आसक्ति छोड़ने का सन्देश और  गौ दान, भूमि दान आदि कर  उसके शेष रहे संकल्पों, निश्चयों और कामनाओं की पुर्ति कर सुक्ष्म शरीर को बिदाई दी जाती है। और मान लिया जाता है कि सुक्ष्म शरीर नष्ट होगया।
द्वादशाह श्राद्ध में  घर पर आकर दशाह एकादशाह कर्म की क्रियाओं के दृष्य की प्रतिकात्मक पुनरावृत्ति कर  वैसे ही पिण्ड निर्माण कर पुनः उनको विसर्जित कर घर में बचे उस जीव की स्मृतियाँ, लगाव का विसर्जन कर कारण शरीर को बिदा कर दिया जाता है। और मानलिया जाता है कि, अब उस जीव का हमसे सम्बन्ध विच्छेद हो गया।
तृयोदशाह कर्म में तो बारह दिनों से जारी शोक की निवृत्त कर बन्द हुए माङ्गलिक कार्य आरम्भ के प्रतिक रूप मंगल श्राद्ध, तथा तथा कथित पगड़ी रस्म के माध्यम से उत्तराधिकार घोषणा  की जाती है।
इसके बाद भी हमारी स्मृति में रहने के कारण स्पप्न आदि में दिखनें के कारण दो वर्ष तक यह माना जाता है कि,हम उसके प्रति प्रत्यक्ष उत्तरदायी हैं अतः मासिक कुम्भ, त्रेमासिक, अर्धवार्षिक और वार्षिक तथा द्विवार्षिक श्राद्ध कर पिण्डोदक आदि क्रियाओं के द्वारा यह आश्वस्त किया जाता है कि, हम आपको भूले नहीँ हैं। आपकी शिक्षाओं का पालन कर रहे हैं। कुआ, बावड़ी, तालाब, बगीचा, धर्मशाला निर्माण जैसी दिर्घकालिक योजनाओं की पुर्ति इन दो वर्षों में कर ली जाती है। फिर तीसरे वर्ष श्राद्ध तिथि में पुनः श्राद्ध कर यह मान लिया जाता है कि, अब वे देव रूप सप्त पितरः के रूप में हमारे द्वारा अर्पित नित्य श्राद्ध को ग्रहण कर सकेंगे। 
अस्थि विसर्जन उपरान्त गृहशुद्धि यज्ञ के उपरान्त की जानें वाली उक्त सभी क्रियाएँ चन्द्रवंशियों , नागों, और आग्नेयों के साथ भारत में आई। और दुष्यन्त - शाकुन्तल चन्द्रवर्षिय सम्राट भरत के उत्तराधिकारी  महर्षि भारद्वाज नें वैवस्वत मन्वन्तर में  आरम्भ की।
बलिवैश्वदेव कर्म के साथ सप्त पितर और विश्वेदेवाः के निमित्त स्वधा अर्पण रूप नित्य श्राद्ध, तर्पण और शुभकार्यारम्भ के पहले होनें वाले नान्दिमुख सांकल्पिक श्राद्ध आदि गृह्य सुत्रों के अनुसार शोत्रिय विधि से की जानेंवाली क्रियाएँ वेदिक कर्म है।
 ऋग्वेद का वचन है कि, दस दिन में ही या अधिकतम ग्यारहवें दिन जीवात्मा और देही (प्राण) सहित अन्तरात्मा (प्रत्यगात्मा) , किसी भी योनि में प्रवेश कर लेता है यानि गर्भ में स्थापित हो जाता है।
स्मृति निर्माताओं और पुराणकारों नें स्वयम् स्वीकार किया है कि, स्मृतियों और  पुराणों में वेदवाह्य और वेद विरुद्ध कई वचन निहित है। साथ ही मनिषियों के लिए स्मृति निर्माताओं और पुराणकारों नें स्वयम् निर्देश दिये हैं कि स्मृतियों और  पुराणों में उल्लेखित केवल वेदिक मत और तथ्य ही स्वीकार किये जायें। वेद विरुद्ध और वेदवाह्य मत त्याज्य हैं।
अतः समय समय पर प्रविष्टि कुरीतियाँ त्यागी जाना ही उचित और धर्म है।

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