शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

विक्रम संवत एवम् शकाब्द

महाराज नाबोवाहन ने कुरुक्षेत्र हरियाणा के मालव प्रान्त से आकर (भोपाल के निकट सोनकच्छ से लगभग २० कि.मी. दर) गंधर्वपुरी को राजधानी बनाया था। बाद में नाबोवाहन के पुत्र गन्धर्वसेन गन्धर्वपुरी के राजा हुए। जिन्हें महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था। उनकी पत्नी सोम्यदर्शना थी जिनका अन्य नाम वीरमती था।
भृतहरि और विक्रमादित्य के पिता गन्धर्व पूरी के शासक  गन्धर्वसेन कट्टर वेदिक धर्मावलम्बी और विष्णु भक्त थे। इस कारण जैन आचार्य महेसरा सूरी उर्फ कालकाचार्य उनसे रुष्ट थे। जैन आचार्य महेसरा सूरी/ आचार्य कालक ने अफगानिस्तान तक पैदल जाकर शक राजा/ कुषाण क्षत्रप के दरबार में गंधर्वसेन के विरुद्ध गुहार लगाई तथा उज्जैन पर आक्रमण हेतु आमन्त्रित किया। शक शासक/ कुषाण क्षत्रप ने महाराज गन्धर्वसेन पर अनेक अत्याचार किये परिणाम स्वरूप गंधर्वसेन की मृत्यु जंगल में होगई। ईसापूर्व ५० में प्राकृत भाषा में रचित जैन कल्प सूत्र में कालकाचार्य कथा में इसका उल्लेख है। इस कथा में गन्धर्वसेन को गर्दभिल्ल, गदर्भ भिल्ल, गदर्भ वेश भी कहा गया है।
जैनाचार्य ने अफगानिस्तान तक पैदल यात्रा कर गन्धर्व पूरी के राजा गन्धर्व सेन पर आक्रमण करनें के लिए शकराज को आमन्त्रित किया। गन्धर्व सेन के पुत्र भृतहरि की पत्नी को पर भ्रष्टकर भृतहरि को नाथ सम्प्रदाय में सम्मिलित करने की कुटिल चाल तान्त्रिकों ने चली। बौद्धाचार्यों ने चन्द्रगुप्त द्वितीय के भाई रामगुप्त के विरुद्ध चीन के शकराज को समर्थन दिया और समझोते में रामगुप्त की पत्नी ध्रुव स्वामिनी को शकराज के हवाले करनें का दुष्ट समझोता करवाया। जिसे चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने असफल कर शकराज का वध किया।
इस प्रकार वास्तविक विक्रमादित्य और चन्द्रगुप्त द्वितीय में अन्तर स्पष्ट करनें के बाद मूल विषय पर आते हैं।

सामान्यतः तो पञ्चाङ्गों में दोनो संवत एक साथ लिखे जाते हैं।
निरयन सौर विक्रम संवत लागु होने के मात्र 135 वर्षों बाद ही निरयन सौर संस्कृत चान्द्र गणनात्मक शकाब्ध लागु होगया। उत्तर भारत में शक वंशी कुशाणों ने इसे लागु किया और दक्षिण भारत में सातवाहनों ने इसे लागू किया।

कुशाणों में कनिष्क और सातवाहनों में गोतमीपुत्र सातकर्णि बड़े लोकप्रिय और निरङ्कुश शासक हुए। जनता में इनका प्रभाव बहुत था। बौद्ध शकों के काफी निकट थे और उज्जेन के एक जैनाचार्य अफगानिस्तान से कुशाणों को स्वयम् आमन्त्रित कर भारतीय मुख्य भूमि में लाये थे अतः इन दोनों सम्प्रदायों में शक संवत की गहरी पैठ रही। सातवाहनों को दक्षिण भारतीय ब्राह्मण मानते थे इसलिए दक्षिण भारतीय सनातन धर्मियों में भी यह अधिमान्य होगया। बादमें सातवाहनों के उत्तराधिकारी के रुप में पेशवाओं के नेत्रत्व में मराठा साम्राज्य उत्तर भारत तक फैल गया।

परिणाम स्वरूप निरयन सौर विक्रम संवत के वैशाखी / बैसाखी पर्व मनाने वाले मालव गणों के उत्तरवर्ती पञ्जाब - हरियाणा और हिमाचल प्रदेश तक ही विक्रम संवत के साथ निरयन सौर केलेण्डर सिमट गया। पुर्व में उड़िसा, बङ्गाल, असम, और दक्षिण में तमिलनाड़ु और केरल में निरयन सौर गणनात्मक केलेण्डर प्रचलित रहा किन्तु विक्रम संवत के साथ केवल पञ्जाब हरियाणा तक सीमित रहा।

निरयन सौर विक्रम संवत निरयन मेष संक्रमण से प्रारम्भ होता है। इसका प्रथम माह वैशाख कहलाता है। दिनांक के लिए संक्रान्ति गत दिवस का उपयोग होता है। ज्योतिर्गणना और धर्मशास्त्र में गतांश का प्रयोग होता है। वर्तमान में 13/14 अप्रेल को निरयन सौर मेष संक्रमण होता है। हर इकहत्तर वर्ष में यह अगले दिनांक को होने लगेगी । थोड़े वर्षों में आप 15 अप्रेल को निरयन मेष संक्रमण होते हुए देखेंगे।  अभी निरयन मिथुन राशि के 19°08'25" पर भूमि सुर्य से सर्वाधिक दूर रहती है इस कारण इसके आसपास के 90° -90° तक के माह 31 दिन के होते हैं। मिथुन मास तो 32 दिन तक का हो जाता है और निरयन धनु राशि के 19°08'25" के पर भूमि सुर्य के निकट होने के कारण शेष मास प्रायः 30 दिन के होते हैं। स्वयम् धनुर्मास तो 29 दिन का ही रहता है।

निरयन सौर मेष संक्रमण आधारित चान्द्र वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (गुड़ीपड़वा) से आरम्भ होता है। इसमें प्रायः तीसरे वर्ष (अट्ठाइस से अड़तीस माह के अन्तराल से) एक अधिक मास होता है और 19 वर्ष, 122 वर्ष और 141 वर्ष के क्रम में एक क्षय मास होता है। जिस वर्ष क्षय मास होता है उसी क्षय मास के आगे पीछे एक एक अधिक मास पड़ता है। इस प्ररकार 282 वर्ष मेंइस  पञ्चाङ्ग की पुनरावरृत्ति होती रहती है।

अमावस्या से अमावस्या तक चान्द्रमास होता है। मा मतलब चन्द्रमा अतः अमा मतलब जिसदिन आकाश में चन्द्रमा न दिखे और पुर्णिमा मतलब जिसदिन  चन्द्रमा पूर्ण दिखे। इस बीच शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष होते हैं। सुर्य और चन्द्रमा में 12° का अन्तर तिथि कहलाता है। सुर्य और चन्द्रमा में 06 ° का अन्तर करण कहलाता है। चित्रा तारे से 180° पर स्थित निरयन मेषादि बिन्दु से आरम्भ कर चन्द्रमां के प्रत्यैक 13°20' एक नक्षत्र कहलाता है। सूर्य के अंशादि और चन्द्रमा के अंशादि के योग का सत्ताइसवाँ भाग योग कहलाता है। दो सुर्योदयों की बीच की अवधि वासर या वार कहलाती है। तिथि,वार, नक्षत्र, योग, करण ये पाँचो मिलकर पञ्चाङ्ग कहलाती है।

इस तिथि पत्रक से व्रत, पर्व उत्सव मनाने का मुख्य आधार मास और पर्वकाल की तिथि है। पर कभी कभी विष्टि करण (भद्रा) को छोड़ कर शेष आधी तिथि में ही व्रत पर्व उत्सव मनाते हैं। तिथि के साथ नक्षत्र के योग का भी धर्मशास्त्रीय महत्व है। कुछ व्रत पर्व उत्सवों में इस योग का भी ध्यान रखा जाता है। कभी कभार शुभ वार भी महत्व रखते हैं। मुहुर्त में पूर्व दिशा में उदय हो रही राशि अर्थात लग्न सबसे महत्वपूर्ण होता है।

इस विषय में मेरे अन्य आलेख भी देखनें का कष्ट करेंगे तो विस्तृत जानकारी मिलेगी। इस आलेख में वे सब क्लिष्ट गणनाएँ हैं छोड़ रहा हूँ।
उल्लेखनीय है कि, नेटपर सर्च करने पर भी निम्नलिखित तथ्य मिलेंगे।
शक संभवतः उत्तरी चीन तथा यूरोप के मध्य स्थित झींगझियांग प्रदेश के निवासी थे। कुषाणों एवं शकों का कबीला एक ही माना जाता है
पश्चिमी चीन के गांसु प्रदेश में जिउक्वान शहर क्षेत्र में  डुहुआंग नगर,  उत्तर अक्षांश 40 ° 08″32"  N और पुर्व देशान्तर  94 ° 39 '43" E  पर स्थित डुहुआंग नगर, (डुनहुआंग नगरपालिका क्षेत्र) को युझी जाती  का मूल स्थानों में से एक माना जाता है। अर्थात कनिष्क आदि  (भारतीय शकों) का मूल स्थानों में से एक माना जाता है।
3 शक प्राचीन मध्य एशिया में रहने वाली स्किथी लोगों की एक जनजाति या जनजातियों का समूह था, जो सीर नदी की घाटी में रहता था
 4 (५२२-४८६ ईसा पूर्व) के शासनकाल के लिए , कहा जाता है कि शक सोग्डिया की सीमाओं से परे रहते थे।  इसी तरह ज़ेरक्सस I
5 (४८६-४६५ ईसा पूर्व) के शासनकाल के एक शिलालेख ने उन्हें मध्य एशिया के दहे लोगों के साथ जोड़ा है । 
6 सोग्डियन क्षेत्र आधुनिक उज्बेकिस्तान में समरकंद और बोखरा के आधुनिक प्रांतों के साथ-साथ आधुनिक ताजिकिस्तान के सुगद प्रांत से मेल खाता है
मध्य चीन के तुर्फन के आसपास युएझी प्रान्त के निवासी युएझी कहलाते थे। वे लोग विजेता के रुप में पहले पश्चिम में ईली नदी पर पहूँच कर अकसास नदी की घाँटी घाँटी पामिर पठार की ओर फिर दक्षिण में हिन्दूकुश पर्वत, ईरान, अफगानिस्तान होते हुए सिन्ध में तक्षशिला,पञ्जाब होते हुए मथुरा तक पहूँच गये। गुर्जरों के कषाणा वंश या कसाणा कबीले को आत्मसात कर कोसोनो कहलाते थे तथा गुसुर कबिले के समान थे। भारत में कुषाण कहलाये । इनने पहले ग्रीक भाषा, फिर बेक्ट्रियाई भाषा और अन्त में पुरानी गुर्जर गांन्धारी और फिर संस्कृत भाषा अपनाई। तथा भारत में गुर्जर के रुप में भी प्रसिद्ध हुए।

इसी कुषाण वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कनिष्क हुआ। जिसका जन्म गान्धार प्रान्त के पुरुषपुर (वर्तमान पाकिस्तान के पेशावर) में 98 ई.पू. में हुआ। और निधन 44 ई. मे हुआ। इसकी राजधानी पेशावर थी एवम् उप राजधानी कपिशा (अफगानिस्तान) और मथुरा उ.प्र. भारत को बनाया। तथा मथुरा से अफगानिस्तान, दक्षिणी उज़्बेकिस्तान , ताजिकिस्तान से लेकर मध्यचीन के तुर्फन तक फैला था। जन्म से यह सनातन धर्मी था किन्तु बाद में बौद्ध धर्म अपना लिया। अफगानिस्तान तथा चीन में महायान बौद्धधर्म फैलाने में विशेष योगदान दिया।

चीन में प्रचलित उन्नीस वर्षिय चक्र वाला सायन सौर संस्कारित चान्द्र केलेण्डर कुषाणों में प्रचलित था। इससे मिलता जुलता उन्नीस वर्षीय चक्र मिश्र और मेसापोटामिया में भी प्रचलित था।  इसी का भारतीय स्वरुप उन्नीस वर्ष, एकसौ बाईस वर्ष और एक सौ एकतीस वर्षिय चक्र वाला निरयन सौर संक्रमण पर आधारित चान्द्र केलेण्डर कनिष्क ने ही उत्तर भारत तथा गुजरात में लागू किया तथा दक्षिण में महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश के अलावा मध्यप्रदेश, और पुर्वी, दक्षिणी गुजरात में सातवाहन या शालिवाहन वंशी गोतमीपुत्र सातकर्णि ने शालिवाहन शक नाम से प्रचलित किया। यह संवत उत्तर भारत में कनिष्क के सत्त्तारूढ़ होने की खुशी में लागू किया गया जबकि दक्षिण भारत में शकों पर शालिवाहन गोतमीपुत्र सातकर्णि की विजयोपलक्ष्य में इस्वी सन 78 में विक्रम संवत 135 में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से लागु किया गया।
उक्त जानकारी स्पष्ट कर देती है कि, 19 वर्ष,122 वर्ष और 141 वर्ष में आवृत्ति वाला निरयन सौर संक्रमण आधारित शकाब्द पञ्चाङ्ग (केलेण्डर) विदेशी परम्परा है। जबकि वैदिक परम्परा में सायन सौर संवत्सर और सायन सौर मधुमाधवादि मासके साथ गतांश और संक्रान्ति गत दिवस  चलते थे। कभी कभी कुछ विशिष्ठ धार्मिक प्रकरणों में सायन सौर मधुमाधवादि मासके साथ चन्द्रमा का नक्षत्र को ध्यान रखा जाता था। जबकि अन्वाधान और इष्टि भें पुर्णिमा/ अमावस्या एवम् अष्टका एकाष्टका में अर्धचन्द्र की तिथि जिसे वर्तमान में हम अष्टमी तिथि कहते हैं देखी जाती थी। वेदों में केवल अमावस्या, पूर्णिमा, एकाष्टका और अष्टका (शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की अष्टमी) तथा व्यष्टिका (शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा) तथा बालेन्दु (प्रथम चन्द्र दर्शन) का ही उल्लेख है।
तथाकथित उत्तरवैदिक काल में चान्द्रमास के मध्य की तिथि पूर्णिमा के नक्षत्र के आधार पर बने चैत्र- वैशाखादि मास और तिथियाँ प्रचलित हुई। लेकिन तब भी संवतरारम्भ सायन सौर मेष संक्रान्ति को आधार मानकर सायन सौर मीन संक्रान्ति और सायन सौर मेष संक्रान्ति के बीच पड़ने वाली अमावस्या के बाद वाली शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से ही संवत्सर आरम्भ करते थे। जैसा कि, वर्तमान में आचार्य दार्शनेय लोकेश श्री मोहनकृति आर्ष पत्रकम् ग्रेटर नोएडा से प्रकाशित करते हैं। 



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