रविवार, 13 दिसंबर 2020

सबका वास्तविक स्वरूप परम आत्म परमात्मा, सर्वाधिक प्रिय है; रौद्ररूप भयंकर नही।

*परमात्मा वास्तविक मैं, परम मैं, मेरा वास्तविक स्वरूप है। ईश्वर परमप्रिय है। भगवान प्रेमपात्र हैं रौद्र या भयंकर नही। मृत्यु नियत है, अवश्यम्भावी है, न एक पल पहले आयेगी न एक पल बाद होगी अतः मृत्यु अविचारणीय सत्य है।* 

*इष्ट का मतलब जिसकी इच्छा हो* / जैसे इष्ट मित्र, यथेष्ठ अर्थात जैसी इच्छा हो शब्दोंं मे स्पष्ट है।
 *सनातन धर्मियों के इष्ट भगवान होते है। सर्वाधिक प्रिय वह ईश्वर ही है। परम आत्म मतलब परम मैं अर्थात मेरा वास्तविक स्वरूप , वास्तविक मैं परमात्मा है ।* 
वे *सनातन धर्मी पापकर्म करने से डरते हैं। दुराचार करनें से डरते हैं। अनाचार अनीति पूर्ण कर्म से डरते हैं।पापियों, दुरात्माओं, दुष्टों, अनाचारियों, दुराचारियों के सङ्ग से दूर रहता है।* 
 *सनातन धर्मी मृत्यु को अवश्यम्भावी जानकर अमर होनें की चाह नही रखते।* इच्छा मृत्यु प्राप्त व्यक्ति भी अपनी मृत्यु का उपाय विपक्षी को स्वयम् बतलाता है। अर्थात सनातन धर्मी --
 *ईश्वर से/ भगवान से प्रेम करता है। अपना वास्तविक सत्य परमात्मा है यह जानता है। अवश्यम्भावी मृत्यु से भी नही डरता।* 
 *असुर लोग अनाचार दुराचार, पापाचार में सदैव सलग्न रहते हैं इसलिये असुर, दैत्य, दानव  ईश्वर से डरते हैं, भगवान से डरते हैं मृत्यु से डरते हैं।*
 सदाचारी सनातन धर्मी भगवान से प्रेम करते हैं। मित्रभाव से तो ठीक भगवान को पुत्र मानकर भी लाड़ प्यार करते हैं। नृसिंह मेहता और सुरदास तो भगवान से रुठ जाते थे और भगवान उन्हे मनाते थे। मीराबाई ने पति मानकर उपासना की तो अर्जुन ने मित्र मानकर द्रोपदी ने बन्धु और सखा भावसे उपासना की। ये लोग भगवान से क्यों डरनें वाले।
असुर,दैत्य दानव आज भी ही ईश्वर और मौत से डरते हैं। आज भी वे ही उपदेश देते हैं कि, ईश्वर से डरो, मौत से डरो । 
वेद कहते हैं ईश्वर सर्वाधिक प्रिय है ईश्वर से स्वाभाविक प्रेम होता है भय नही। मृत्यु समय पूर्व होना नही और समय होनें पर रुकना नही तो मृत्यु अविचारणीय सत्य है। हमें केवल अपने कर्तव्य पालन के प्रति सजग रहना है। वर्णाश्रम अनुकूल  स्वधर्म पालन में तत्पर रहना चाहिए न कि, भयभीत। डराहुआ व्यक्ति सदैव गलती ही करता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें