गुरुवार, 19 नवंबर 2020

दान देने के नियम।

दान देनें के नियम।

दान देनें के लिये सुयोग्य पात्र मिलनें पर दानगृहिता द्वारा दान गृहण करनें की स्वीकृति प्रदान करनें पर दानगृहिता का आभार मानना चाहिए
जिन्हे दान गृहण करनें हेतु निवेदन करने, निमन्त्रण देनें और आमन्त्रित करनें जा रहे हैं वे , या बलिवैश्वदेव कर्म के समय बिना बुलाये अचानक उपस्थित अतिथि और याचक जिसकी प्रार्थना या यााचना पर दान देनें जा रहे हैं इन तीनों की जाँच परख करना अत्यावश्क है।

दान देने के पूर्व यह निश्चित करलें कि, दान गृहिता निर्व्यसनी, अहिंसक, सत्यवादी, सदाचारी, निर्लोभ, अपरिग्रही (अकारण संग्रह न करने वाला न हो), ब्रह्म की ओर चलनेवाला ब्रह्मचारी, स्वच्छ, पवित्र, शुद्ध अन्तःकरण वाला, प्राप्ति में सन्तुष्ट, विद्यध्ययन , दान देनें, परमार्थ कर्म और सेवा करने यानी यज्ञ करने में, ईश्वर भक्ति करनें में सदा असन्तूष्ट हो। स्वधर्म पालन में आनेवाली बाधाओं का सक्षमता पुर्वक सामना कर निवारण करनें में होनें वाले कष्टों को सहर्ष सहन करनें वाला तपस्वी, सत्शास्त्राध्ययन, मनन, चिन्तन और अनुशिलन करनें वाला योगाभ्यासी, और परमात्मा में एकनिष्ठ समर्पित हो ऐसा व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ दान देनें के लिए सुपात्र होता है।

1- दानगृहिता का आभार मानना चाहिए ।क्योंकि दानगृहिता नें  हमे इस योग्य माना कि, वे दान गृहण करें/ हमसे दान स्वीकार करलें। इस प्रकार उननें हमारा सम्मान किया है।

2 - नियमानुसार दानदाता को दानगृहिता के पास स्वयम् जाना चाहिए। यदि उन्हे घर बुलाकर दान देना चाहे तो उन्हें पहले सादर निमन्त्रित करें, फिर मार्गव्यय और उनके समय की क्षतिपूर्ति पहले ही करके आमन्त्रित करना चाहिए। दानगृहण करने पर आभार प्रदर्शन कर उनके द्वारा दान गृहण क्रिय और कर्म के लिये पारिश्रमिक स्वरूप योग्य दक्षिणा देना चाहिए।

3 - यदि वे बिना बुलाये अतिथि स्वरूप उपस्थित होगये हों तो बिन्दु 2 में उल्लेखित भार अधिक मानकर सवाया दान दक्षिणा देना चाहिए।

4 - आमन्त्रित और अतिथि दोनों को घर के बाहर दस कदम छोड़नें जाना और चरण वन्दन और पुनः आभार प्रदर्शन कर बिदा करना चाहिए।
5 सन्तुष्ट होनें पर ही दान गृहिता आपको शुद्ध अन्तःकरण से शुभाशीष प्रदान करेंगे।

सज्जन और दुर्जन की परीक्षा का एक आसान उपाय श्लेष अलंकार में बतलाया गया है।
मंगत देखत देत पट। 
यहाँ पट शब्द के दो अर्थ हैं प्रथम (धारण किये हुए) वस्त्र और द्वितीय (घर के) द्वार
सज्जन वह जो याचक को देखकर अपने पहने हुए वस्त्र (पट) तक उतार कर दे दे। और
दुर्जन वह जो याचक / भिक्षुक को देखकर  घर के पट (द्वार) बन्द करदे।

तुलसीदास जी और रहीम का निम्नांकित संवाद स्मरणीय है।⤵️

ऐसी देनी देन जू - कित सीखे हो सैन।
  ज्यों-ज्यों कर ऊँचे करो, त्यों-त्यों नीचे नैन॥
                          #तुलसीदास

 देनहार कोई और है, देवत है दिन रैन।
 लोग भरम हम पर करें, याते नीचे नैन॥
                              #रहीम

अर्थ
हम कहाँ किसी को कुछ देते हैं। देने वाला तो दूसरा ही है, जो दिन-रात भेजता रहता है इन हाथों से दिलाने के लिए। लोगों को व्यर्थ ही भरम हो गया है कि रहीम दान देता है। मेरे नेत्र इसलिए नीचे को झुके रहते हैं कि माँगने वाले को यह भान न हो कि उसे कौन दे रहा है, और दान लेकर उसे दीनता का अहसास न हो।

पहले भगवान/ ईश्वर हमें धन,धान्य, सम्पदा, सामर्थ्य और सहृदयता का भाव देता है, तभी तो हम किसी को कुछ दे पाते हैं, किसी की कुछ सहायता कर पाते हैं। तो इसमें हमारा महत्व कुछ भी नही है। यह तो ईश्वरीय कृपा है जो उसनें हमें माध्यम बनाया।
अतः देनें वाला /कर्ता यह भ्रम कभी न पाले कि, मैं दे रहा हूँ या मैं मैं कर रहा हूँ।

दान, दक्षिणा, सहायता और भिक्षा में अन्तर।
ये सभी कर्तव्य है।

१ आय का १०% दान और उसपर दान ग्रहिता द्वारा दान प्राप्त करने हेतु किये गए श्रम के लिए उपयुक्त दक्षिणा देना नित्य कर्म है। क्योंकि, दान ग्रहिता दान लेकर आप पर उपकार करता है।
दान किसी व्यक्ति या संस्था या दोनों को दिया जाता है।

२ अबला, बालक, वृद्ध,  असहाय, रुग्ण, अपङ्ग, दरीद्र, दुःखी की बिना माँगे/ अयाचित करुणार्द्र होकर की गई सहायता दान नही कहलाता।  क्योंकि इसमें कोई दक्षिणा का प्रावधान नही है। यह सहायता कहलाती है। शरण देना भी इसी श्रेणी में आता है। इसका कोई निर्धारित समय नही हो सकता। ये अवसर मिलने पर ईश्वरीय कृपा समझना चाहिए।

३ उक्त कथित ये लोग ही यदि  याचक बनकर माँगे तब, इनको दी गई वस्तु भिक्षा कहलाती है। इसमें भी कोई दक्षिणा नही दी जाती। इसका समय भी निश्चित नही है। उनने आपको योग्य समझा यह उनकी कृपा है।

४ किसी कर्मकाण्ड की क्रिया करवानें के उपरान्त दी गई दक्षिण (फीस) भी दान नही है, बल्कि श्रम मुल्य है। जैसे ट्युटर, डॉक्टर, इञ्जिनयर, कारीगर आदि को फीस दी जाती है।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें