परमात्मा से प्रजापति तक कहें या कहें प्रजापति से परमात्मा तक।
सुत्रात्मा प्रजापति ब्रह्मा (विश्वरूप), ब्रह्माण्ड स्वरूप, महादेव (देवों में सबसे महत , पितामह) हैं। प्रजापति की शक्ति अथवा पत्नी सरस्वती है। सुत्रात्मा प्रजापति की आयु हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का एक दिन अर्थात एक कल्प तुल्य है।
मुर्तिरहस्य में सुत्रात्मा प्रजापति को चतुर्मुख बतलाया जाता है। अर्थात चारों ओर मुख वाला मानते हैं। अर्थात पूर्ण गोलाकार स्वरूप में समझा जा सकता है।
इन्हे रेतधा - स्वधा युग्म या ओज - आभा और संज्ञान - संज्ञा अध्यात्मिक स्वरूप में समझा जा सकता है।
आधिदेविक स्वरूप में ये बाईस स्वरूप में प्रकट हुए। १ अर्धनारीश्वर स्वरूप महारुद्र शिवशंकर, २ सनक, ३ सनन्दन, ४ सनत्कुमार, ५ सनातन, ६ नारद, ७ इन्द्र - शचि, ८ अग्नि - स्वाहा, ९ पितरः अर्यमा - स्वधा, १० स्वायम्भूव मनु - शतरुपा, ११ दक्ष - प्रसुति, १२ रुचि - आकूति, १३ कर्दम - देवहूति, १४ धर्म और उनकी तेरह पत्नियाँ, १५ मरिची - सम्भूति, १६ महर्षि भृगु - ख्याति, १७ अङ्गिरा - स्मृति, १८ वशिष्ट-ऊर्ज्जा, १९ अत्रि - अनसुया, २० पुलह - क्षमा, २१ पुलस्य - प्रीति, २२ कृतु - सन्तति
(सुचना इनमें १ अर्धनारीश्वर स्वरूप महारुद्र शिवशंकर, २ सनक, ३ सनन्दन, ४ सनत्कुमार, ५ सनातन, ६ नारद (ये पाँचों ब्रह्मचारी रहे।), ७ इन्द्र - शचि, ८ अग्नि - स्वाहा, ९ पितरः अर्यमा - स्वधा देवस्थानी प्रजापति हैं। १० स्वायम्भूव मनु - शतरुपा, ११ दक्ष - प्रसुति, १२ रुचि - आकूति, १३ कर्दम - देवहूति (नामक प्रजापतियों के जोड़े भू स्थानी हुए। दक्ष, रुचि और कर्दम प्रजापति की पत्नियाँ प्रसुति, आकूति एवम् देवहूति तीनों स्वायम्भूव मनु - शतरुपा की पुत्रियाँ भी मानी गई है।), १४ धर्म और उनकी तेरह पत्नियाँ (जो दक्ष- प्रसूति की पुत्रियाँ थी।) एवम् १५ मरिची - सम्भूति, १६ महर्षि भृगु - ख्याति, १७ अङ्गिरा - स्मृति, १८ वशिष्ट-ऊर्ज्जा, १९ अत्रि - अनसुया, २० पुलह - क्षमा, २१ पुलस्य - प्रीति, २२ कृतु - सन्तति नामक ब्रह्मर्षि गण हुए (जिनकी पत्नियाँ दक्ष- प्रसूति की पुत्रियाँ है। इनकी सन्तान ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण हुए। सभी ब्राह्मण इनके वंशज और शिष्य मानें जाते हैं।)
चूँकि हिरण्यगर्भ से प्रजापति प्रकट हुए और प्रजापति ने स्वयम् को उक्त २२ स्वरूप में प्रकट किया अतः ये बाईस भी हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की ही सन्तान मानी जाती है। और चूँकि इनका प्रकटीकरण प्रजापति से हुआ इसलिए इन्हें कहीँ - कहीँ प्रजापति से उत्पन्न भी कहा जाता है। केवल कथन का ढङ्ग भिन्न है लेकिन तात्पर्य एक ही है पर लोग भ्रमित हो जाते हैं।
सुत्रात्मा प्रजापति के कारण भुतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, विश्वकर्मा हैं। पुरुष सुक्त के हिरण्यगर्भ प्रथमो जायते कहा है। अर्थात हिरण्यगर्भ जन्मलेनें वालों में प्रथम हैं। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की शक्ति अथवा पत्नी वाणी है।
जो महादिक, अधिभूत, हैं इनकी आयु दो परार्ध है। अर्थात इकतीस नील दस खरब, चालीस अरब सायन सौर वर्ष है। ये प्रथम भौतिक वैज्ञानिक तत्व हैं अर्थात ये अनुभव गम्य हैं। मुर्तिरहस्य मे इन्हें पञ्चमुखी बतलाया गया है। अर्थात ये अण्डाकार हैं। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा श्री लक्ष्मीनारायण की नाभी (केन्द्र) से उत्पन्न कमलासनस्थ बतलाया जाता है।
अध्यात्मिक स्वरूप में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा को देही - अवस्था , प्राण - धारयित्व और चेतना - धृति के युग्म मे जानते हैं।
आधिदेविक स्वरूप में ये त्वष्टा - रचना कहलाते हैं। वेदों में कहा गया है कि, त्वष्टा ने ही ब्रह्माण्डों के गोलों और लोकों, भुवनों को बढ़ाई (इंजीनियर) की भाँति घड़ा। किन्तु ये देवलोक के विश्वकर्मा (आर्किटेक्ट) से ये उच्चतर देव हैं। ईश्वरत्व या ईश्वर श्रेणी के देवताओं में ये अन्तिम हैं।
भूतात्मा हिरण्यगर्भ का कारण जीवात्मा अपरब्रह्म विराट है।
पुरुष सुक्त के विराट ये ही हैं। जो सर्वप्रथम उत्पन्न हुए। ये श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषद अध्याय 11 मन्त्र 32 में उल्लेखित काल हैं जिस स्वरूप का दर्शन करके अर्जुन भयभीत होगये थे। श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषद में इन्हे स्व भाव और अध्यात्म (अधि आत्म) , और क्षर कहा है। जीवात्मा अपरब्रह्म (विराट) को प्रकृतिजन्य गुणों का भोक्ता,और गुण सङ्गानुसार योनियों में भ्रमण करनें वाला कहा है।
विष्णु पुराण में जीवात्मा अपरब्रह्म (विराट) का वास स्थान शिशुमार चक्र (उर्सामाइनर) कहा गया है। यह प्रथम साकार स्वरूप है। जिसे तरङ्गाकार के रूप में समझा जा सकता है।
मानवीय सोच के अनुसार हम स्त्री-पुरुष या शक्ति और शक्तिमान के रूप में समझनें के आदि हैं तदनुरूप ---
जीवात्मा अपरब्रह्म विराट को जीव और आयु के युग्म में अध्यात्मिक स्वरूप में जानते हैं। इसे वेदों, उपनिषदों में अपर पुरुष- त्रिगुणात्मक अपरा प्रकृति भी कहा जाता है। या सांख्य दर्शन में अपर पुरुष और अपरा प्रकृति को पुरुष और प्रधान कहा गया है।
इस स्वरूप को ही विवेक और विद्या भी कहा गया है।
अपर पुरुष - त्रिगुणात्मक प्रकृति को वेदों में आधिदेविक स्वरूप में धातृ और धरित्री (नारायण - श्री एवम लक्ष्मी ) के स्वरूप में कहा गया हैं। ये जिष्णु अर्थात स्वाभाविक रूप से विजेता कहे गये हैं।
ऋग्वेद के अनुसार जो का 90× 4 = 360 अरों का नियती चक्र या संवत्सर चक्र है अर्थात काल वह भी ये ही हैं। नारायण और श्री एवम् लक्ष्मी के स्वरूप में पुराणों वर्णन किया गया है। ये प्रकृतिस्थ हैं इसलिए इन्हें नारायण कहागया। इन्हे जगत का ईश्वर या जगदीश कहा जाता है। पुराणों में इनका वासस्थान क्षीर सागर भी बतलाया गया है।
अवतारी पुरुषों के नियन्ता ये ही हैं। इनके निर्देशानुसार ही ब्रह्मज्ञ सिद्ध पुरुषों को निर्धारित कार्य पुर्ण करनें हेतु सिमित समय के लिए भूलोक की व्यवस्था बनाये रखनें हेतु युगान्त में भेजा जाता है।
जीवात्मा अपरब्रह्म विराट का कारण --
प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) , ब्रह्म, विधाता है। विधि विधाता स्वरूप में वेदों में वर्णित हैं। विधाता ही ऋत के अनुसार सृष्टि संचालन करते हैं। ये महाकाश हैं श्रीमद्भवद्गीतासूपनिषद में इन्हे क्षेत्र और अधिदेव कहा गया है। प्रत्यगात्मा ब्रह्म को सर्वगुण सम्पन्न, कालातीत, सुख दुःख का हेतु कहा गया हैं।
उपनिषद वाक्य सर्वखल्विदम् ब्रह्म, और महावाक्य - प्रज्ञानम् ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म, अहम ब्रह्मास्मि, तत्वमसि में इसी प्रत्यगात्मा ब्रह्म का निर्देश किया गया है।
आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान यहीँ से आरम्भ होता है। अर्थात ये प्रज्ञान हैं।
यह प्रत्यैक का नीज स्वरूप है। ये ही समाने वृक्षे द्वासुपर्णा का मधुर फल भक्षी पक्षी हैं।
प्रत्यगात्मा ब्रह्म विधाता को मानवीय स्वभावानुसार --
पुरुष और प्रकृति, प्रज्ञान और प्रज्ञा के अध्यात्मिक स्वरूप में जानते हैं। आधिदेविक दृष्टि से सवितृ - सावित्री कहलाते हैं। (गायत्री मन्त्र का देवता सवितृ है।)
पुराणों में हरि और कमला देवी (कमलासना) के रूप में वर्णित हैं।
ये अज (अजन्मा), और प्रभविष्णु जिनसे सब कछ हुआ ऐसा कहा जाता है। ये महेश्वर (महा ईश्वर) हैं।
मुर्ति रहस्य में इन्हें इन्हें साथ साथ बैठे नही बतलाते हुए दो अलग अलग कमल पुष्पों पर विराजित बतलाया जाता है। इनकी मुर्ति या चित्र प्रायः गौर वर्णी ही बतलाई जाती है। इन्हें ब्रह्म सावित्री भी बोला जाता है। इसकारण लोग इन्हें हिरण्यगर्भ ब्रह्मा और शारदा देवी / सरस्वती मान लेते हैं।
प्रत्यगात्मा ब्रह्म विधाता का कारण ---प्रज्ञात्मा परब्रह्म है।
प्रज्ञात्मा परब्रह्म सनातन, अव्यक्त, अव्यय, कुटस्थ, परमधाम, परमगति कहलाते हैं। "समाने वक्षे द्वासुपर्णा" मन्त्र के दृष्टा पक्षी ये ही हैं।
श्रीमद्भवद्गीतासूपनिषद में इन्हें अधियज्ञ और क्षेत्रज्ञ तथा उपदृष्टा, अनुमन्ता, भर्ता,भोक्ता महेश्वर कहा है जो भूतों के नष्ट होने पर भी नष्ट नही होता। अर्थात श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार प्रज्ञात्मा परब्रह्म का अस्तित्व समस्त उत्पन्न होने वाले/ प्रकट होनें वालों के नष्ट होनें पर यथावत बना रहता है। अन्त में प्रज्ञात्मा परब्रह्म ही शेष रहते हैं/ विद्यमान रहते हैं।
प्रज्ञात्मा परब्रह्म को मानवीय
प्रज्ञात्मा परब्रह्म सर्व गुणों वाला प्रथम सगुण स्वरूप है।
समझनें की दृष्टि से अध्यात्मिक स्वरूप में अक्षर, दिव्य, परम पुरुष तथा - परा प्रकृति के अध्यात्मिक स्वरूप में जाना जाता है। आधिदेविक स्वरूप में
प्रज्ञात्मा परब्रह्म को सर्वव्यापी विष्णु और सत् असत् अनिर्वचनिय माया कहाते है। विष्णु ही परमेश्वर हैं।
विष्णु अनन्त सुर्यों के समान अत्यन्त प्रकाश स्वरुप/ ज्ञानस्वरूप माया से आवृत्त होने से अपृकट /अप्रत्यक्ष है।
अर्थात माया का यह आवरण हटनें पर विष्णु प्रत्यक्ष हो जाते हैं।
चुँकि, विष्णु सगुण निराकार स्वरूप हैं। अतः विष्णु का साक्षात्कार होने पर ही विष्णु ॐ का साक्षात्कार करवा सकते हैं ।
प्रज्ञात्मा परब्रह्म परमात्मा के ॐ संकल्प के साथ प्रकट हुए। अर्थात प्रज्ञात्मा परब्रह्म का कारण परमात्मा का ॐ संकल्प को कह सकते हैं।
अर्थात विश्वात्मा ॐ को प्रज्ञात्मा परब्रह्म का कारण हैं। किन्तु प्रज्ञात्मा परब्रह्म के साथ ही कार्य - कारण सम्बन्ध का अन्त हो जाता है।
दिव्य अक्षर पुरुष विष्णु का ज्ञान होते ही विश्वात्मा ॐ तथा परमात्मा में स्थिति हो जाती है।
सृष्टि के स्वरूप में प्रकट होनें के लिए हुआ परमात्मा का संकल्प ॐ कहलाता हैं। परमात्मा के उस ॐ (कल्याण स्वरूप) संकल्प से ही अनन्त, सत, चित , आनन्द हुआ जो परमपुरुष, पुरुषोत्तम, सर्वव्यापी, विश्वात्मा कहलाता है। ॐ संकल्प ही ऋत है।
परमात्मा तो सत असत दोनों से परे है। परमात्मा का साक्षात्कार होते ही वास्तविक सत्य से साक्षात्कार अर्थात आत्म साक्षात्कार होकर अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है। केवल परमात्मा (परम आत्म) ही रह जाता है। वेदों में इसे ही मौक्ष कहा है।
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