मुर्तिपूजा के पक्ष - विपक्ष में तर्क।
जो व्यक्ति जिस भाव से जिस विधि से जिस आस्था - विश्वास से परमात्मा के जिस स्वरूप में श्रद्धा पुर्वक जिस किसी देवता की आराधना उपासना करता है, उस व्यक्ति की उसी परमात्मा के उसी स्वरूप में, उसी देवता में, उसी विधि विधान में, वैसी ही आस्था - विश्वास और भावना दृढ़ हो जाती हैं।
प्रकारान्तर से यही बात श्रीमदभगवदगीता 04/11 एवम् 12 तथा 09/22 एवम् 23 में भी कही है।
वेदों में ईशावास्यमिदम् सर्वम यत्किञ्च जगत्याम् जगत कहकर सर्वखल्विदम् ब्रह्म की घोषणा की है। परमात्मा ही इस जगत इस सृष्टि का निमित्तोपादन कारण कहा है। प्रज्ञानम् ब्रह्म, अयमात्माब्रह्म (अयम्आत्मा ब्रह्म) , तत्वमसि (तत् त्वम् असि) और अहम्ब्रह्मास्मि (अहम् ब्रह्म अस्मि) कहकर जीवन्मात्र का भी परमात्मा से अभेद प्रतिपादित किया है।
जब परमात्मा को छोड़ कर अन्य कुछ है ही नही तो कौन पूज्य और कौन पूजारी? क्या मूल और क्या प्रतिमा? सबकुछ वही (परमात्मा) ही तो है। उसके (परमात्मा के) सिवा कुछ है ही नही।
यजुर्वेद अध्याय 32 मन्त्र 3 में न तस्य प्रतिमा अस्ति कहकर परमात्मा की प्रतिमा की कल्पना को ही स्पष्ट नकार दिया है।
तान्त्रिक लोगों द्वारा शिष्ण और योनि को जगत्कारण बतला कर शिष्ण और योनि को लिङ्ग (पहचान चिह्न) के रूप में की जानें वाली प्रतिमा पूजन के कारण उन्हें शिश्णेदेवाः कहकर उनके कृत्य को दोषपूर्ण निषिद्ध कर्म बतला कर स्पष्ट कहा है कि,यज्ञकरते समय लिङ्गपूजकों की छाँया भी यज्ञ में पड़़ जाये तो यज्ञ बन्द कर स्नानादि से शुद्ध हो पुनः यज्ञ आरम्भ करें।
वेदों में मुर्तिपूजा निषेध होनें का कारण यह है कि,
1 सर्वव्यापी को सिमित बतलाना,
2 वैष्णवों के मत में मुर्ति के सामने या मन्दिर में सुरापान, हिन्सा और अश्लीलता निशेध बतला कर अप्रत्क्ष रूप से ऐसे दुष्कर्मों को अन्यत्र करने की छूट देदी गई।
3 उसमें भी विशेषता यह कि, तान्त्रिकों द्वारा तो पञ्चमकार (मुद्रा,मदिरा सेवन कर, मत्स्य, मान्स खाकर, माता, बहन, बैटी, पुत्रवधु आदि को भैरवी बनाकर उसे भी मदिरा सेवन करवा कर मत्स्य - मान्स खिलाकर अश्लील मुद्राएँ दिखाकर उनके साथ मैथून कर उसी अपवित्र अवस्था में) में ही लिङ्ग (योनि में समाये हूए शिश्ण की प्रतिमा) की पूजन की जाती है। (देखिये पाण्डुरङ्ग वामन काणे रचित धर्मशास्त्र का इतिहास पञ्चम भाग / अध्याय 26)।
4 विधर्मी आक्रान्ताओं द्वारा मुर्ति भञ्जन से अश्रद्धा, अनास्था उत्पन्न होना। और आक्रांताओं का पन्थ ग्रहण करना।
5 सनातन वेदिक धर्म में ही मुर्ति, पूजन विधि आदि के आधार पर सेकड़ों पन्थ/ सम्प्रदाय बनगये और बन रहे हैं।
अतः मुर्तिपूजन गलत तो है ही।
भारत में प्रतिमा पूजन का इतिहास।
तान्त्रिकों द्वारा लिङ्ग अर्थात शिष्ण और योनि, एवम् योगीराज और योगिनी , शंकर और मात्रका की मुर्तियों/ प्रतिमाओं की पूजा और शत्रु का पुतला बना कर उसे प्रताड़ित करनें की प्रथा तन्त्र के आरम्भ अर्थात वेदिक काल के उत्तरार्ध से ही त्वष्टापुत्र विश्वरूप, शंकर -पार्वती, शुक्राचार्य और उनके पुत्र त्वष्टा ने कर दी थी। जिसे बादमें अत्रिपुत्र दत्तात्रय और उनके शिष्य कार्तवीर्य सहस्त्रार्जून एवम् रावण ने बढ़ाया। फिर जैनों और बौद्धों ने इसका अति विकास किया। अन्त में गिरनार पर्वत और आबु शिखर पर एक मुखी दत्तात्रेय ने नाथ सम्प्रदाय में नेपाल के मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ, जालन्धर नाथ आदि उनके आठ शिष्यों के माध्यम से बहुत व्यापक प्रचारित कर दिया।
उनकी प्रतिस्पर्धा में नागा सम्प्रदाय नें भी अपने अपने मठों में अपने आराध्य की प्रतिमा और प्रतीक रखकर पूजना प्रारम्भ कर दिया। नागाओं के मठों में देवी देवताओं की सात्विक मुर्तियाँ लोक लुभावन रही।
फिर भी मुर्तिपूजा के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि, भारत भूमि में ईस्वी सन की सातवीँ - आठवीँ सदी के पहले वैष्णव और सौर सम्प्रदायों की प्रतिमाएँ नही मिलती।
लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व जैन सम्प्रदाय नें तिर्थंकरों और यक्षों की प्रतिमाएँ गड़ना और पूजना आरम्भ की। जिसमें तान्त्रिकों का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।
बाद में बौद्धों नें गोतम बुद्ध की पूजा हेतु विशिष्ट प्रकार का लिङ्ग (प्रतीक चिह्न) बनाकर पूजा आरम्भ की।
दोनों सम्प्रदायों में चैत्यालय बनानें की होड़ लग गई जो, जैनों में आजतक जारी है।
फिर सनातन धर्म में शैवों ने शिवलिङ्ग ( प्रतीक चिह्न) की पूजा आरम्भ हुई। इसमें तान्त्रिकों के लिङ्ग यानी शिश्ण - योनि का सभ्यस्वरूप निर्धारित किया गया।
विनायक गजानन की प्रतिमा निर्माण पश्चिम एशिया से सीखकर गजानन विनायक की मुर्तियाँ बनने लगी। यह प्रतिमा बनाना सबसे आसान माना जाता है।
सातवीँ सदी के अन्त में और आठवीँ सदी के अन्त में मुर्तिकला का विकास होनें के साथ ही वैष्णव और सौर प्रतिमाएँ बनने लगी।
साथ ही काली, दुर्गा आदि की मुर्तियाँ बनने लगी।
मानवी स्वरूप की प्रतिमा निर्माण कठिन है। इस कला में युनानी विशेषज्ञ थे।अतः सिकन्दर आक्रमण के पश्चात युनानी सम्पर्क से वैष्णव, सौर शैव शाक्तों नें मानवीय स्वरूप गड़ना आरम्भ किया। और मुर्तिपूजा सम्पूर्ण जोर शोर से सनातन धर्म में भी आरम्भ होगई।
अब मुर्तिपूजकों के पक्ष में तर्कों पर भी विचार किया जाये --
1 ,हरियाणा के ऋषिदेश और पञ्जाब, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिन्ध, राजस्थान, गुजरात, उत्तरी मध्य प्रदेश, उत्तर पश्चिमी महाराष्ट्र, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, अफगानिस्तान, और पूर्वी ईरान तक बसे पञ्चमहायज्ञों के माध्यम से प्रकृति की सेवा करनें वाले मूल वेदिक धर्मी प्रजापतियों की सन्तानों और स्वायम्भुव मनु के वंशज मनुर्भरतों के देश वासियों का सम्पर्क; (तिब्बत कश्मीर में आकर बसे कश्यप की सन्तान) द्वादश आदित्यों में से एक विवस्वान की सन्तान सुर्य वंशियों से और ( मृगशीर्ष नक्षत्र / ओरायन में स्थित सोमलोकपति) सोम के उपासक (चन्द्रमा- तारा के पुत्र बुध की पत्नी ईला जो वैवस्वत मनु की सन्तान थी के पुत्र) पुरुरवा (की पत्नी उर शहर में जन्मी इन्द्र के दरबार की नर्तकी अप्सरा उर्वशी) के पुत्र आयु के वंशज चन्द्रवंशियों से हुआ जो दक्षिण पूर्व टर्की से भारत में कश्मीर तरफ आये थे और सिरिया से आये नागवंशियों तथा पश्चिमी तुर्कीस्तान, तुर्कमेनिस्तान, तजाकिस्तान, कजाकिस्तान की ओर से आये आग्नेयों के बीच जब परस्पर संयोग हुआ तो; ऐसे सम्पर्कों सें सांस्कृतिक घालमेल होनें से वेदिक धर्म में पर्वतों, नदियों, सागर, कूप - तड़ाग (तालाब), पेड़-पौधों, वक्षोंं की पूजा आरम्भ हूई।
2 जब हम उक्त प्रकार से पूर्ण प्रकृति में ही परमात्म भाव रखते हुए प्रकृति पूजन कर सकते हैं तो उसी प्रकृति से निर्मित प्रतिमा में परमात्मा का भाव क्यों नही रख सकते?
3 मुर्तिपूजा में मुर्तिपूजक जीते जागते लीलामय अपनें ईष्ट को ही देखते हैं किसी पाषाणादि में निर्मित किसी प्रतिमा की।
इन तर्कों को भी एकदम नकारना भी सम्भव नही है। अतः मुर्तिपूजा में केवल दोष दर्शन भी तो अनुचित ही है।
निष्कर्ष
जब हम विवशता में नाग - असुर, यक्ष - राक्षसों ,दैत्य- दानवों के आराधकों उपासकों को सह सकते हैं तो देवों - देवताओं को ईष्ट मानकर उनकी मुर्ति बनाकर पूजनें वालों को क्यों नहीँ सह सकते।
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