१ पहली वैदिक नाक्षत्रीय पद्यति जिसमे क्रान्तिवृत के ३६०° के परिपथ के आसपास उत्तर-दक्षिण में लगभग नौ-नौ अंशों की चौड़ी पट्टी में निश्चित आकृति बनाने वाले तारामण्डल के असमान भोग वाले अट्ठाइस नक्षत्र थे लेकिन बाद में अभिजित नक्षत्र नक्षत्रीय परिपथ (भचक्र) से बाहर हो गया इसलिए सत्ताइस नक्षत्र ही मान्य रहे।
उनमें किसी भी नक्षत्र का भोग १३°२०' नही है। जो केपी सहित वर्तमान में प्रचलित है।
२ दूसरी है आधुनिक खगोलीय (एस्ट्रोनॉमीकल) पद्यति।
जिसमें क्रान्तिवृत के ३६०° के परिपथ के आसपास उत्तर-दक्षिण में लगभग नौ-नौ अंशों की चौड़ी पट्टी के स्थिर भचक्र (झॉडिएक) में निश्चित आकृति बनाने वाले तारामण्डल के असमान भोग वाले अठासी (८८) नक्षत्र हैं। इनमें भी किसी भी नक्षत्र का भोग १३°२०' नही है।
इसके अलावा आधुनिक एस्ट्रोनॉमी में स्थिर भचक्र में असमान भोग वाली निश्चित आकृति की तेरह राशियों को अपनाया गया है।
चूंकि वे विषुववृत में ग्रहों आदि के भोगांश सायन गणनानुसार दर्शाते हैं, इसलिए उन्हें नाविक पञ्चाङ्ग (नॉटकिल अल्मनॉक) में हर समय तेरह राशियों और अठासी नक्षत्रों के प्रारम्भ और अन्त के भोगांश बदलना पड़ते हैं।
भारतीय वैदिक ग्रन्थों में इसमें एक अनुठा प्रयोग निरयन गणना में किया जिसे पौराणिकों और ग्रह गणित के सिद्धान्त ग्रन्थों में भी अपनाया गया। निरयन गणना में चित्रा नक्षत्र को स्थिर भचक्र में मध्य में १८०° पर मानकर गणना की जाती है। इससे भचक्र में नक्षत्रों के आदि और अन्त के निरयन भोगांश अपरिवर्तनशील और स्थाई हैं। इसलिए हर वर्ष पञ्चाङ्गो में बदल कर नहीं छापना पड़ते हैं।
लेकिन वराहमिहिर युग में बेबीलोन , मिश्र और यूनानी बारह राशियों को भारतीय ज्योतिष में समायोजित करने के चक्कर में हमारे अपने नक्षत्र खो दिए। अब सभी नक्षत्र एक समान १३°२०' भोग वाले २७ नक्षत्र मान लिए गए। जिसमें एक की भी वह आकृति और वह नियत स्थान नहीं बैठता जो वैदिक नक्षत्रों के थे। न घर के रहे न घाँट के।
इसलिए वेदों, ब्राह्मण आरण्यकों सुत्र ग्रन्थों में निर्देशित समय फॉलो नहीं हो पाते। न उत्तरायण दक्षिणायन वैदिक बचे, न ऋतुएँ वैदिक बची न महिने वैदिक बचे न नक्षत्र पर नाम वैदिक ज्योतिष है। यह हिन्दू ज्योतिष है- वैदिक कदापि नहीं।
रामायण महाभारत जैसे ग्रन्थों में जिन नक्षत्रों में ग्रहचार के आधार पर जो मेदिनी (जगत के सम्बन्ध में जो) फल कथन कहे हैं, उसके आधार पर फल कथन नहीं कर सकते।
वृहद संहिता, वृहत् जातक, लघु जातक, वृहत्पराषर होरा शास्त्र, लघु पाराशरी, केशवी जातक, कालीदास कृत उत्तरकालामृत आदि ग्रन्थों में हिन्दू ज्योतिष नें फलित की अपनी नवीन पद्यति तैयार की। जिसमें यूनानी और बेबीलोन की पद्यति को अपनाया गया।
इसके अलावा भी इन पुस्तकों का अपना-अपना योगदान है।⤵️
फलदीपिका, जातकापारिजात, जातक तत्वम् सारावली, मानसागरी, ज्योतिष रत्नाकर आदि।
सुचना ---
उत्तरायण की तीन ऋतु - वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा। -
*देवा ऋतवः वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु उत्तरायण में होती है।*
शतपथ ब्राह्मण 2/1/3 तथा तै.सं. 6/5/3 तथा नारायण उपनिषद अनु. 80
*उदगयन शब्द और देवयान / देवलोक शब्द स्पष्ट आये हैं।*
मैत्रायण्युपनिषद में उत्तरायण और नारायण उपनिषद अनु 80
(भा. ज्यो.पृष्ठ 44 एवम् 45)
*वसन्त को प्रथम ऋतु और संवत्सर का शिर, ग्रीष्म को दक्षिण पक्ष (पंख) और शरद को उत्तर पक्ष कहा है।*
तै.ब्रा. 1/1/2/6 एवम् 7 एवम् 3/10/4/1
*हेमन्त को संवत्सर का मध्य और वर्षा को पुच्छ कहा है।*
तै.ब्रा. 3/10/4/1
(भा. ज्यो. पृष्ठ 47)
उक्त आधार पर प्रमाणित होता है कि, वसन्त सम्पात से शरद सम्पात तक वैदिक उत्तरायण होता था। और शरद सम्पात से वसन्त सम्पात तक वैदिक दक्षिणायन होता था। वैदिक काल के उत्तरायण में वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु होती थी। और दक्षिणायन में शरद, हेमन्त और शिशिर ऋतु होती थी।
तदनुसार संवत्सर का प्रारम्भ वसन्त सम्पात, उत्तरायण, वसन्त ऋतु और मधुमास से होता था।
इन्दौर पञ्चाङ्ग शोधन कमेटी रिपोर्ट भाग २ से
पृष्ठ क्रमांक १९ - सूर्यसिद्धान्त की रङ्गनाथ टीका में कहा है।- चित्रायाश्चत्वारिंशत
चित्रा कोठीक भार्ध (भचक्र का आधा) में राशिचक्र के ठीक-ठीक मध्य की सूर्य सिद्धान्त और ब्रह्म सिद्धान्त में लिखे भोगों रङ्गनाथ ने सिद्ध किया है। तब जो चित्रा के १८०° से दस कला कम हो और इसका करणागत भगणारम स्थान से मैल होता हो उसके, अर्थ में रङ्गनाथ ने रेवती कहा है।
पृष्ठ २० सोम सिद्धान्त में चित्रा को भगण के ठीक मध्य में बतलाया है। चित्रा तारे की नीज गति मात्र एक हजार वर्ष में १ कला ही है।
ऋग्वेद निविद अध्याय में चित्रा से गणना प्रारम्भ की है।
चित्रा तारे को क्रान्तिवृत के ठीक मध्य में मानकर नक्षत्रों के वर्तमान में वेधोपलब्ध अन्तर शंकर बालकृष्ण दीक्षित जी ने भारतीय ज्योतिष में पृष्ठ ४५२-४५५ पर, व्यंकटेश बापूजी केतकर जी ने नक्षत्र विज्ञान में कोष्टक ६ में और श्री दीनानाथ शास्त्री चुलेट ने वेदकाल निर्णय पृष्ठ ८० पर मैंने योगताराओं के भोग शर लिखे हैं।
पृष्ठ २२ भास्कराचार्य ने भचक्रेऽश्विनी मुखे कहा है।
सिद्धान्त शिरोमणि में विष्णु धर्मोत्तर का वचश लिखा है --- चैत्रादौ। अश्विन्यादौ काल प्रवृतिः। कहा है।
व्यास तन्त्र और सिद्धान्त दैवज्ञ कामधेनु अध्याय २ में लिखा है कि, पूर्व्वारधमुत्तरम् गोलमाचित्रा दर्ध मादिशेत्। चित्रान्तांर्ध्दे प्रह्वत्यैव पश्चिमार्धश्च दक्षिण म्।४
अर्थात राशिचक्र की पूर्वार्ध, उत्तरार्ध की मर्यादा चित्रा तारे तक और चित्रा तारे से ही प्रारम्भ करके राशि चक्र के पश्चिमार्ध, दक्षिणार्ध की गणना करना चाहिए।४
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