(श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित रचित और हिन्दी समिति उ.प्र. शासन से प्रकाशित ग्रन्थ भारतीय ज्योतिष , श्री दीनानाथ शास्त्री चुलेट कृत वैदकाल निर्णय एवम् श्री पाण्डुरङ्ग काणे रचित धर्मशास्त्र का इतिहास से उद्धृत) -
*संवत्सर व्यवस्था -*
उत्तरायण की तीन ऋतु - वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा। -
*देवा ऋतवः वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु उत्तरायण में होती है।*
शतपथ ब्राह्मण 2/1/3 तथा तै.सं. 6/5/3 तथा नारायण उपनिषद अनु. 80
*उदगयन शब्द और देवयान / देवलोक शब्द स्पष्ट आये हैं।*
मैत्रायण्युपनिषद में उत्तरायण और नारायण उपनिषद अनु 80
(भा. ज्यो.पृष्ठ 44 एवम् 45)
*वसन्त को प्रथम ऋतु और संवत्सर का शिर, ग्रीष्म को दक्षिण पक्ष (पंख) और शरद को उत्तर पक्ष कहा है।*
तै.ब्रा. 1/1/2/6 एवम् 7 एवम् 3/10/4/1
*हेमन्त को संवत्सर का मध्य और वर्षा को पुच्छ कहा है।*
तै.ब्रा. 3/10/4/1
(भा. ज्यो. पृष्ठ 47)
उक्त आधार पर प्रमाणित होता है कि, वसन्त सम्पात से शरद सम्पात तक वैदिक उत्तरायण होता था। और शरद सम्पात से वसन्त सम्पात तक वैदिक दक्षिणायन होता था। वैदिक काल के उत्तरायण में वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु होती थी। और दक्षिणायन में शरद, हेमन्त और शिशिर ऋतु होती थी।
तदनुसार संवत्सर का प्रारम्भ वसन्त सम्पात, उत्तरायण, वसन्त ऋतु और मधुमास से होता था।
*तीन मौसम / ऋतु के नाम आये हैं।*
अग्निर्ऋतुः सूर्य ऋतुश्चन्द्रमा ऋतु।
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/10/1
(भा.ज्यो पृष्ठ 49)
इससे प्रमाणित होता है कि, वर्तमान के ही समान वैदिक युग में भी तीन मौसम मुख्य रहते थे १ गर्मी, वर्षा और ठण्ड।
*फाल्गुन पूर्णिमा/ पूर्वाफाल्गुनी के दिन को संवतर का अन्तिम दिन कहा है। और उसके अगले दिन उत्तराफाल्गुनी को संवतरारम्भ कहा है।*
वैदिक असमान विस्तार वाले नक्षत्र - पूर्वाफाल्गुनी और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र की सन्धि पर पूर्णिमा का चन्द्रमा होगा तो इससे १८०° पर स्थित नक्षत्र पर सूर्य होगा।
तैत्तिरीय संहिता 7/4/8 में तथा पृष्ठ 51 पर सामवेद के ताण्यब्राह्मण 5/9
तैत्तिरीय ब्राह्मण 7/4/8
(भा.ज्यो.पृष्ठ 50)
*अधिक मास वर्षान्त में जुड़ता था।*
वाजसनैय संहिता 22/30 एवम् 31
ऐतरेय ब्राह्मण 3/1 और 17 और तैत्तिरीय ब्राह्मण 3/8/3
(भा. ज्यो. पृष्ठ 40 एवम् 41)
अर्थात वर्तमान में निरयन सौर वर्ष या सायन सौर वर्ष से चान्द्र वर्ष को बराबर करने के लिए निर्धारित १९ वर्ष, १२२ वर्ष और १४१ वर्ष वाला चक्र प्रचलित नहीं था।
महाभारत काल में हर अट्ठावन माह बाद उनसठवाँ और साठवाँ माह अधिक मास करते थे। ऐसे ही वैदिक काल में वर्षान्त पश्चात तेरहवाँ माह अधिक मास करते थे। सम्भवतः कितने वर्ष पश्चात करते थे यह स्पष्ट नहीं है।
इससे सिद्ध होता है कि, सामान्यतः अमान्त मास भी प्रचलित थे लेकिन संवत्सर आरम्भ के लिए सायन मेष संक्रान्ति ही मुख्य थी। उस दिन पड़ने वाले चन्द्रमा जिस नक्षत्र के साथ होता था उस नक्षत्र से भी इंगित करते थे। साथ ही उदृष्टका (शुक्ल प्रतिपदा), एकाष्टका (शुक्लाष्टमी), पूर्णिमा, व्यष्टका (कृष्ण प्रतिपदा) और अष्टका (कृष्णाष्टमी) और अमावस्या तिथि से भी इंगित करते थे।
*शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्ष को अर्धमास कहा है।*
*अर्धमासों के नाम पवित्रादि हैं।*
अथ यदाह । पवित्रन् पवयिष्यन्त्सहस्वान्त्सहीयानरुणोरणरजा इति। एष एव तत्। ए ह्येव तेर्धमासाः एषः मासाः ।
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/6/3 ।
(भा. ज्यो.पृष्ठ 48)
इससे प्रमाणित होता है कि, छब्बीस पक्षों के भी नामकरण किया गया था।
तिथियाँ प्रचलित नहीं थी। केवल उदृष्टका (शुक्ल प्रतिपदा), एकाष्टका (शुक्लाष्टमी), पूर्णिमा, व्यष्टका (कृष्ण प्रतिपदा) और अष्टका (कृष्णाष्टमी) और अमावस्या तिथि का ही उल्लेख है।
*कृष्णपक्ष की प्रतिपदा को व्यष्टका और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को उदृष्ट कहा है।*
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/8/2 तथा ताण्ड्य ब्राह्मण 10/3/11 ।
*कृष्णपक्ष की अष्टमी को अष्टका और शुक्ल पक्ष की अष्टमी को एकाष्टका कहा है।*
तैत्तिरीय ब्राह्मण 1/5/12 तथा ताण्ड्य ब्राह्मण 10/3/11 ।
(भा.ज्यो.पृष्ठ 59)
इससे प्रमाणित होता है कि, तिथियाँ प्रचलित नही थी। लेकिन चन्द्रमा के चारो फेस का निर्धारण गणना करते थे। यानी अमावस्या, उदृष्यका या शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा, एकाष्टका (शुक्ल पक्ष की अष्टमी), पूर्णिमा, व्यष्टका (कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा), अष्टका (कृष्ण पक्ष की अष्टमी), और अमावस्या की गणना की जाती थी।
दिन के विभाग -
*दिन के पाँच विभाग - प्रातः, सङ्गव, मध्याह्न, अपराह्न और सायम्*
तै.ब्रा. 1/5/3 में
(भा.ज्यो.पृष्ठ 64)
*दिन के तीन विभाग - सङ्गव, मध्याह्न और अपराह्न चार प्रहरों की संधि या दिन के तीन विभाग बतलाये हैं।*
शतपथ ब्राह्मण 2/2/3/9 एवम् अथ. सं. 9/6/46 में
(भा.ज्यो.पृष्ठ 65)
इससे सिद्ध होता है कि, दिनमान और रात्रिमान के भी तीन- तीन और पाँच-पाँच विभाग किये गए थे।
सूर्यग्रहण की गणना अत्रि ऋषि ने की---
*ऋग्वेद में खग्रास सूर्यग्रहण वर्णन तथा सूर्यग्रहण की गणना सर्वप्रथम अत्रि ऋषि ने की थी। और आगामी सूर्य ग्रहण की सफल भविष्यवाणी की थी।*
*खग्रास सूर्यग्रहण वर्णन में कहा है* -- इन्द्र तुम द्यु के नीचे रहने वाली स्वर्भानु की मायाओं का नाश करते हो। *अपव्रत तम से आच्छादित सूर्य को अत्रि ने तूरीय ब्रह्म द्वारा प्राप्त किया।*
ऋग्वेद संहिता 5/40/ 6 ।
*सूर्य ने अत्रि और वरुण से अन्धकार से निगल न जाये अस्तु रक्षा याचना की जिस सूर्य को स्वर्भानु ने अन्धकार से आच्छादित किया उसे अत्रि ने प्राप्त किया।दुसरा कोई प्राप्त न कर सका।*
ऋग्वेद संहिता 5/40/ 7
*अत्रि नें ग्रावा की योजना कर देवताओं के लिए सोम निकाल कर स्तोत्रों से देवताओं का यजन कर नमस्कार कर स्वर्भानु की मायाएँ दूर की। और सूर्य के प्रकाश के स्थान पर अपना नैत्र रख दिया।*
ऋग्वेद संहिता 5/40/ 8 ।
*जिस सूर्य को स्वर्भानु ने अन्धकार से आच्छादित कर दिया था उसे अत्रि ने प्राप्त किया और कोई न कर सका।*
ऋग्वेद संहिता 5/40/ 9 ।
(भा.ज्यो. पृष्ठ 82)
ब्राह्मण ग्रन्थों में सूर्यग्रहण वर्णन --
ताण्डय ब्राह्मण 4/5/2, 4/6/13, 6/6/8, 14/11/14एवम् 15, 23/16/5 में सूर्य ग्रहण का उल्लेख है।
ताण्डय ब्राह्मण 6/6/8, 14/11/14एवम् 15 में उल्लेख है कि, *अत्रि ने भास (तेज) द्वारा अन्धकार का नाश किया।*
गोपथ ब्राह्मण 8/19 मे कहा है कि, *स्वर्भानु ने तम से सूर्य को वेधित किया और अत्रि ने उसका अपनोद किया।*
ताण्डय ब्राह्मण 4/5/2, 4/6/13,में कहा है कि, *देवों नें अन्धकार का नाश किया* तथा शतपथ ब्राह्मण 5/3/22 में कहा है कि, *सोम तथा रुद्र ने तम का नाश किया।*
(भा.ज्यो.पृष्ठ 83)
इससे सिद्ध होता है कि, महर्षि अत्रि ने सूर्यग्रहण और मौक्ष की ठीक ठीक गणना करना सीख लिया था।
ग्रहण की आवृत्ति ---
*6586 दिन अर्थात 223 चान्द्रमासों में अर्थात सौर 18 वर्ष 12 दिन में पहले के ग्रहण पुनः पुनः आते हैं। रीपीट होते रहते हैं।*
(भा.ज्यो.पृष्ठ 83)
पण्डित दीनानाथ शास्त्री चुलेट कृत वेदकाल निर्णय ग्रन्थ से उधृत---
निरयन गणना का आधार ---
स्थिर भचक्र के मध्य में चित्रा नक्षत्र अतएव चित्रा तारे से १८०° स्थित स्थिर बिन्दु भचक्र का प्रारम्भ बिन्दु।
वेदकाल निर्णय पृष्ठ २०
शुक्ल यजुर्वेदीय शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ आधारित पास्कर गृह्यसुत्र के व्याख्यकार कर्काचार्य ---
दक्षिणायने तु चित्रां यावदादित्य उपसर्फति। उदगयने स्वातिमेति। विषुवतीयेत्वहनि चित्रास्वात्योर्मध्य एवोदयः।अतस्तन्मध्ये शङकुगतैवच्छाया भवति। एवमम् च सति अहरन्तरेषु स़ैव प्राची न भवतीत्यत्रोच्यते। तं पाञ्चमुद्धरतित्यनेन प्राच्युद्धरणे कृतेऽनेकाहः साध्येपि कर्मणि तदेवोद्धरणमित्यहरन्तरे दोषो न भवति।
अर्थात -- जब तक सूर्य चित्रा पर नहीं आता है तस तक उसका दक्षिण में उदय होता है। अर्थात चित्रा तक दक्षिणायन रहता है। बाद में जब सूर्य स्वाती पर पर चला जाता है, यब उसका उदय उत्तर में होने लगता है। क्योंकि, स्वाती (तारे) के पास सूर्य आने पर उत्तरायण शुरू हो जाता है। इसलिए चित्रा तारे को जस सूर्य पार कर जाता है और स्वाती पर नही पहुँचता, इस चित्रा स्वाती के बीच के काल में सूर्य ठीक ठीक पूर्व में उदय होता है। क्योंकि, विषुवान् दिन में सूर्य ठीक चित्रा और स्वाती के बीच उदय होता है। इस कारण उस दिन द्वादशांङ्गुल शङ्कु की छाया से सीधी हुई पूर्व पश्चिम रेखा शङ्कु को पार कर जाती है। अन्य दिनों में भी शङ्कु की छाया का अग्रभाग के मण्डल में प्रवेश निर्गम चिह्नों से पूर्व पश्चिम रेखा होती है। किन्तु वह शङ्कु को पार नहीं करती। और संवत्सर में जिस दिन सूर्य चित्रा और स्वाती के बीच आता है उसके उदक्ष से साधित की हुई प्राची को अन्य दिनों में भी काम में ला सकते हैं।
वेदकाल निर्णय पृष्ठ २० पर स्पष्ट उल्लेख है कि, पास्कर गृह्यसुत्र के व्याख्याकार कर्काचार्य के समय जब तक सूर्य चित्रा से अश्विनी तक रहता है तब तक उत्तरायण रहता है। और चित्रा से स्वाती के बीच आने पर उत्तरायण होता है।
अर्थात मायासुर रचित सूर्य सिद्धान्त कथित अयनांश गति सीमा २७° का खण्डन हो जाता है। वैदिक ज्योतिष और आधुनिक एस्ट्रोनॉमी की समान मान्यता अयनांश चक्र ३६०° की ही है।
उल्लेखनीय है कि, सिद्धान्त ग्रन्थों की रचना पौराणिक काल की है। अतः सिद्धान्त ग्रन्थों में पौराणिक मान्यताओं, मिश्र, बेबीलोन (इराक) और यूनानी मान्यताओं का समावेश स्पष्ट झलकता है।
दीनानाथ शास्त्री चुलेट कृत वेदकाल निर्णय पृष्ठ ७०- ७१
व्यास तन्त्र और सिद्धान्त दैवज्ञ कामधेनु अध्याय २ श्लोक ४ एवम् ५
पूर्वार्धमुत्तरंगोल माचित्रार्दधमादिशेत।। चित्रान्ताऽर्द्धप्रहृत्यैव पश्चिमार्धञ्च दक्षिणम्।। १।।
पादोना तारकासप्त पाद इत्यत्र निश्चितः।। सपाद तारका द्वं द्वं राशि रित्यभिधीयते।।२।।
अर्थ --- चित्रा नक्षत्र के अर्ध विभाग पर्यन्त के क्रान्तिवृत के पूर्वार्ध (अश्विनी से चित्रा तक) को उत्तरगोल, और चित्रा नक्षत्र के अर्ध विभाग से क्रान्तिवृत के पश्चिमार्ध (चित्रा से रेवती तक) को दक्षिण गोल कहना चाहिये।१
यहाँ रेवती अश्विनी नक्षत्र सन्धि से चित्रा तारे तक सूर्य रहने पर उत्तरायण बतलाया है।
तथा यहाँ से पौने छः नक्षत्रों का एकपाद इस तरह साढ़े तेरह नक्षत्रों, सवा बीस नक्षत्रों और सत्ताइस नक्षत्रों के क्रम से दो, तीन और चार पाद होते हैं। और आरम्भ स्थान से सवा दो नक्षत्रों की एक राशि इस प्रकार सत्ताइस नक्षत्रों में बारह राशि हो जाती है।
तैत्तिरीय ब्राह्मण १-५-२/ १-२ मे भी
यो वै नक्षत्रियम् प्रजापतिम् वेद उभयो रेनं लोकयोर्विदुः। हस्त एविस्य हस्तः। चित्राशिरः निष्ट्या हृदयम्। उरू विशाखे। प्रतिष्ठानूराधाः।
अर्थात -- जो इस नक्षत्रीय प्रजापति को जानता है, वह जानता है कि, यह नक्षत्रीय प्रजापति देवासुर दोनों लोक के मध्य में है। हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा और अनुराधा इन्हें क्रमशः प्रजापति के हस्त, शिर, हृदय, ऊरू (जञ्घा), तथा पाद (चरण) माने हैं।
तात्पर्य यह कि, चित्रा नक्षत्र (तारे) का निरयन भोग १८०° ही रहता है । यह बात तेत्तरीय ब्राह्मण और व्यास तन्त्र और सिद्धान्त दैवज्ञ कामधेनु का मत है।
यहाँ चित्रा तारे को प्रजापति का शीर्ष (सिर) कहा है।
स्व. श्री दीनानाथ शास्त्री चुलेट कृत वेदकाल निर्णय पृष्ठ ९०-९१ से।
कृष्णम् नियानम् हरयः सुपर्णाऽअपो वसाना दिवमुत्पतन्ति।
अर्थात --- (कृष्ण नियानं) दक्षिण निरयण के (अपो वसना) तोयन स्थान को प्राप्त हुए (हरयः) छोटे हुए (सुपर्णाः) दिध प्रमाण (दिवं उत्पतन्ति) बड़े होने लगते हैं।
यान अर्थात गमन। नियान मतलब गमन का बन्द हो जाना।
उत्तर परम क्रान्ति दिवस (सायन कर्क संक्रान्ति) पर सूर्य का उत्तर गमन बन्द होकर सूर्य दक्षिण की ओर लौटने लगता है तथा दक्षिण परम क्रान्ति दिवस (सायन मकर संक्रान्ति) पर सूर्य का दक्षिण गमन बन्द होकर पुनः उत्तर की ओर लौटने लगता है।
इसलिए यास्काचार्य ने उक्त स्थान को निययण कहा है।
इसी प्रकार वसन्त सम्पात (सायन मेष संक्रान्ति) और शरद सम्पात (सायन तुला संक्रान्ति) के समय सूर्य का गोल में अयन होता है।
कृष्णम् नियानम् हरयः सुपर्णाऽअपो वसाना दिवमुत्पतन्ति।
मन्त्र पर निरुक्त उत्तर षटक अध्याय १ कण्डिका २४ के कथनानुसार वर्तमान ज्योतिः सिद्धान्त पद्यति से अन्वय ऐसा होता है ⤵️
नियानम् निरयणम् कृष्णम्
नियानम् दक्षिण गोलार्धे भवम् निरयणम् स्थानम्।
अपो वसनाः = अद्भय स्थानम् प्राप्तः हरयः हरणत्व मनुप्राप्ताः कृषीभूताः सुपर्णा दिवसां दिन प्रमाणानि दिवम् उत्पतन्ति उर्ध्व गच्छति वृद्धिंगता भवन्तीत्यर्थः।
नियान को अपम भी कहते हैं।
परम क्रान्ति को परम अपम और अर्क काष्ठा भी कहते हैं।
इति वैदिक संवत्सर वर्णन।
चित्रा नक्षत्र स्थिर भचक्र के मध्य में १८०° पर माना जाता था और माना जाता है।
इन्दौर पञ्चाङ्ग शोधन कमेटी रिपोर्ट भाग १ और २ ग्रन्थ से उधृत---
इन्दौर पञ्चाङ्ग शोधन कमेटी रिपोर्ट भाग २ से
पृष्ठ क्रमांक १९ - विधान ४ समाधान ०४ (अ)
सूर्यसिद्धान्त की रङ्गनाथ टीका में कहा है।- चित्रायाश्चत्वारिंशत
चित्रा कोठीक भार्ध (भचक्र का आधा) में राशिचक्र के ठीक-ठीक मध्य की सूर्य सिद्धान्त और ब्रह्म सिद्धान्त में लिखे भोगों रङ्गनाथ ने सिद्ध किया है। तब जो चित्रा के १८०° से दस कला कम हो और इसका करणागत भगणारम स्थान से मैल होता हो उसके, अर्थ में रङ्गनाथ ने रेवती कहा है।
पृष्ठ २० समाधान ४ (आ)
सोम सिद्धान्त में चित्रा को भगण के ठीक मध्य में बतलाया है। चित्रा तारे की नीज गति मात्र एक हजार वर्ष में १ कला ही है।
ऋग्वेद निविद अध्याय में चित्रा से गणना प्रारम्भ की है।
समाधान ४(इ)
चित्रा तारे को क्रान्तिवृत के ठीक मध्य में मानकर नक्षत्रों के वर्तमान में वेधोपलब्ध अन्तर शंकर बालकृष्ण दीक्षित जी ने भारतीय ज्योतिष में पृष्ठ ४५२-४५५ पर, व्यंकटेश बापूजी केतकर जी ने नक्षत्र विज्ञान में कोष्टक ६ में और श्री दीनानाथ शास्त्री चुलेट ने वेदकाल निर्णय पृष्ठ ८० पर मैंने योगताराओं के भोग शर लिखे हैं।
पृष्ठ २२ समाधान ४(ई)
भास्कराचार्य ने भचक्रेऽश्विनी मुखे कहा है।
सिद्धान्त शिरोमणि में विष्णु धर्मोत्तर का वचश लिखा है --- चैत्रादौ। अश्विन्यादौ काल प्रवृतिः। कहा है।
विधान ५
व्यास तन्त्र और सिद्धान्त दैवज्ञ कामधेनु अध्याय २ में लिखा है कि, पूर्व्वारधमुत्तरम् गोलमाचित्रा दर्ध मादिशेत्। चित्रान्तांर्ध्दे प्रह्वत्यैव पश्चिमार्धश्च दक्षिण म्।४
अर्थात राशिचक्र की पूर्वार्ध, उत्तरार्ध की मर्यादा चित्रा तारे तक और चित्रा तारे से ही प्रारम्भ करके राशि चक्र के पश्चिमार्ध, दक्षिणार्ध की गणना करना चाहिए।४
पृष्ठ 34 और 35 पर विधान ६ समाधान ६ (अ) और ६(आ)
चित्रा तारा को स्थिर भचक्र के ठीक मध्य में बतलाया गया है। जिससे प.सुधाकर द्विवेदी जी के भाष्य के आधार पर सिद्ध किया है।
३ पास्कर गृह्यसुत्र और ४ कात्यायन शुल्ब सुत्र का प्रमाण प्रस्तुत किया है। जिसे महामहोपाध्याय पंडित सुधाकर द्विवेदी जी के भाष्य से पुष्टि की है।
पृष्ठ ५४ (विधान ७ समाधान ७)
पेराग्राफ तीन में शक ४२७ में वराहमिहिर के अनुसार भी चित्रा तारे को भचक्र के मध्य में बतलाया है।
पृष्ठ १०६- १०७ विधान ३९-४० समाधान पूरा ही पठनीय है।
भूमि पर स्वर्ग जहाँ के सम्राट प्रजापति, राजा इन्द्र, सभासद आदित्य और वसु थे।और रुद्रों की सेना थी।⤵️
ब्रह्मावर्त में स्वर्ग।
कजाकिस्तान, किर्गिस्तान और किर्गिज़स्तान, उज़बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, तथा तिब्बत, गिलगित- बाल्टिकिस्तान, नेपाल , भूटान, लद्दाख और कश्मीर ब्रह्मावर्त कहलाता था। इसमें तिब्बत के कुछ भाग में स्वर्ग (सुवर्ग) कहलाता था। जहाँ कश्यप और दक्ष पुत्री अदिति पुत्रों अर्थात अष्ट आदित्यों का राज्य था। जिनके राजा इन्द्र कहलाते थे। कश्यप और दक्ष पुत्री वसु के पुत्र अष्ट वसु भी यहाँ वास करते थे।
भूमि पर पृथ्वी
ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, वर्तमान पाकिस्तान के बलुचिस्तान, उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त, सिन्ध, पञ्जाब और भारत का पञ्चाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश और उत्तरी, मध्यप्रदेश में सम्राट दक्ष प्रजापति, राजा स्वायम्भूव मनु थे।
यह वैज्ञानिक तथ्य है कि, दिक - काल का संयुक्त वर्णन ही सम्भव है।
यथा राजनितिक भुगोल में आपनें मोर्यकालीन भारत या गुप्त कालीन भारत के नक्षे देखे होंगे। अर्थात स्थान के विवरण के साथ समय दर्शाना आवश्यक है। इसी प्रकार ग्रीनविच मीन टाइम मा भारतीय मानक समय में समय के साथ स्थान दर्शाना आवश्यक है। ऋतुएँ अक्षांश और सूर्य की सायन संक्रान्तियों पर आधारित होती है।
अतः पहले वैदिक ऋषियों प्रजापतियों और राजन्यों का कार्यक्षेत्र समझ लिया जाना आवश्यक है। क्योंकि वैदिक ग्रन्थों में इन्ही स्थानों (अक्षांशों) की ऋतुकाल के अनुसार वर्णन मिलना स्वाभाविक है।
वेदव्यास जी के पिता महर्षि पराशर रचित विष्णु पुराण द्वितीय अंश/ प्रथम अध्याय / श्लोक ११ से ३३ के अनुसार हरियाणा का धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र (थानेसर जिला) वाला क्षेत्र प्राचीन ऋषि देश कहलाता है ।
क्योंकि, प्रजापति ब्रह्मा नें १अर्धनारीश्वर महारुद्र २ सनक, ३ सनन्दन, ४ सनत्कुमार, ५ सनातन, ६ नारद, ७ इस क्षेत्र के राजा धर्म, ८ अग्नि - स्वाहा की जोड़ी, ९ पितरः (अर्यमा) - स्वधा की जोड़ी, के अलावा तीन प्रजापति - १० दक्ष प्रजापति (प्रथम) - प्रसुति की जोड़ी, ११ रुचि प्रजापति - आकुति की जोड़ी, १२ कर्दम प्रजापति - देवहूति की जोड़ी उत्पन्न किए। इनके अलावा ब्रह्मर्षि गण उत्पन्न किए जिनका विवाह दक्ष- प्रसूति की पुत्रियों से हुआ और जिनकी सन्तान ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण हुए) -- १३ महर्षि भृगु - ख्याति (जो मैरे आदि पूर्वज हैं) तथा १४ मरिची - सम्भूति, १५ अङ्गिरा - स्मृति, १६ वशिष्ट-ऊर्ज्जा, १७ अत्रि - अनसुया, १८ पुलह - क्षमा, १९ पुलस्य - प्रीति, २० कृतु - सन्तति आदि ऋषियों तथा २१ स्वायम्भू मनु - शतरुपा की जोड़ी को कुरुक्षेत्र में ही उत्पन्न किया था ।
हरियाणा के इस मालवा प्रान्त के कुरुक्षेत्र, थानेसर क्षेत्र को गोड़ देश भी कहते हैं। पञ्जाब - हरियाणा के अन्य प्रान्त भी इससे लगे हुए है। और कुछ क्षेत्र तो कॉमन ही है।
मालवा प्रान्त से अफगानिस्तान तक और गुजरात से तजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, किर्गिस्तान, उज़्बेकिस्तान, तिब्बत, मङ्गोलिया के दक्षिण में पश्चिमी चीन पर स्वायम्भुव मनु के वंशज मनुर्भरतों का शासन था। अर्थात लगभग उत्तर अक्षांश २३° से ३५° विशेष क्षेत्र रहा।
(विक्रमादित्य के दादा जी महाराज नबोवाहन ने भी इसी क्षेत्र से आकर मध्यप्रदेश में सिहोर जिले के सोनकच्छ के निकट गन्धर्वपुरी में आकर गन्धर्वपुरी को राजधानी बनाया था। उनके बाद विक्रमादित्य नें अवन्तिकापुरी (उज्जैन) को राजधानी बनाया। राजा भोज के काका श्री मुञ्जदेव नें धारानगरी (धार) बसायी और राजा भोज ने धार को राजधानी बनाया। मालवा के पठार का नामकरण भी उक्त मालव प्रान्त के शासकों द्वारा शासित होनें के आधार पर ही हुआ। खेर यह विषयान्तर होगया।)
इससे निम्नांकित तथ्य प्रमाणित होते हैं।
१ ब्रह्मावर्त और उत्तरी आर्यावर्त में संवत्सर प्रारम्भ, उत्तरायण प्रारम्भ, वसन्त ऋतु प्रारम्भ, मधुमास प्रारम्भ सब सूर्य के वसन्त सम्पात पर होने के समय से प्रारम्भ होते थे।
२ वैदिक संवत्सरारम्भ विषुव सम्पात यानी सायन मेष संक्रान्ति (वर्तमान में २०/२१ मार्च) से होता था जिस दिन सूर्य भूमध्य रेखा पर होकर उत्तरी गोलार्ध में प्रवेश करता है। दिनरात बराबर होते हैं, उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय होता है और दक्षिण ध्रुव पर सूर्यास्त होता है।
३ इसी वसन्त सम्पात दिवस से उत्तरायण आरम्भ होता था।
४ वसन्त ऋतु का आरम्भ भी इसी वसन्त सम्पात दिवस से होता था।
वैदिक मास मधुमास का आरम्भ भी इसी वसन्त सम्पात दिवस से होता था।
५ चित्रा तारे को स्थिर भचक्र में मध्य में अर्थात १८०° पर कहा गया है। तदनुसार चित्रा तारे से १८०° पर स्थित बिन्दु स्थिर भचक्र का प्रारम्भ बिन्दु मान्य था।
६ उस समय रेवती तारा या अश्विनी नक्षत्र का प्रारम्भ भचक्र का प्रारम्भ बिन्दु मान्य था। किन्तु रेवती तारा लगभग ०४° खिसक गया और वर्तमान में वहाँ कोई तारा नही है।
७ प्रायः चन्द्रमा पूर्णिमा के समय जिस नक्षत्र पर रहता तदनुसार चान्द्रमासों के नाम रखे गए थे। क्योंकि पूर्णिमा के समय का नक्षत्र उस पूरे माह में रातभर दिखता है।
८ उक्त कारण पूर्णिमा के नक्षत्र से १८०° पर सूर्य रहता है। ऐसे ही पूर्णिमा के नक्षत्र से १८०° पर स्थित नक्षत्र पर अमावस्या का चन्द्रमा रहता है। चूंकि उस दिन सूर्य और चन्द्रमा साथ-साथ एक ही नक्षत्र पर रहते हैं इस लिए उस दिन चन्द्रमा नहीं दिखता है। उस दिन चन्द्रमा का वह भाग पृथ्वी के सामने रहता है जिसपर उस समय सूर्य प्रकाश न रहने से चन्द्रमा पर अन्धकार रहता है ।
०९ उक्त आधार पर चैत्र-वैशाखादि चान्द्रमास नाक्षत्रीय पद्यति से होने के कारण नाक्षत्रीय पद्यति के नीकटतम निरयन गणना अनुसार चलते हैं।
१० जिस चान्द्रमास में वसन्त सम्पात पड़ता है उसे संवत्सर का प्रथम मास कहते हैं।
ज्योतिष का सामान्य ज्ञान जो उक्त तथ्यों को समझनें में सहायक होंगे।⤵️
सूर्य ग्रहण के समय ही नये तथ्यों पर कार्य करने का अवसर मिलता है। 1968 में लार्कयर नामक वैज्ञानिक नें सूर्य ग्रहण के अवसर पर की गई खोज के सहारे वर्ण मण्डल में हीलियम गैस की उपस्थिति का पता लगाया था।
आईन्स्टीन का यह प्रतिपादन भी सूर्य ग्रहण के अवसर पर ही सही सिद्ध हो सका, जिसमें उन्होंने अन्य पिण्डों के गुरुत्वकर्षण से प्रकाश के पडने की बात कही थी।
चन्द्रग्रहण तो अपने सम्पूर्ण तत्कालीन प्रकाश क्षेत्र में देखा जा सकता है किन्तु सूर्यग्रहण अधिकतम 10 हजार किलोमीटर लम्बे और 250 किलोमीटर चौड़े क्षेत्र में ही देखा जा सकता है। सम्पूर्ण सूर्यग्रहण की वास्तविक अवधि अधिक से अधिक 11 मिनट ही हो सकती है उससे अधिक नहीं।
संसार के समस्त पदार्थों की संरचना सूर्य रश्मियों के माध्यम से ही सम्भव है। यदि सही प्रकार से सूर्य और उसकी रश्मियों के प्रभावों को समझ लिया जाए तो समस्त धरा पर आश्चर्यजनक परिणाम लाए जा सकते हैं। सूर्य की प्रत्येक रश्मि विशेष अणु का प्रतिनिधित्व करती है और जैसा कि स्पष्ट है, प्रत्येक पदार्थ किसी विशेष परमाणु से ही निर्मित होता है। अब यदि सूर्य की रश्मियों को पूँजीभूत कर एक ही विशेष बिन्दु पर केन्द्रित कर लिया जाए तो पदार्थ परिवर्तन की क्रिया भी सम्भव हो सकती है।
खगोल शास्त्रियों नें गणित से निश्चित किया है कि 18 वर्ष 18 दिन की समयावधि में 41 सूर्य ग्रहण और 29 चन्द्रग्रहण होते हैं। एक वर्ष में 5 सूर्यग्रहण तथा 2 चन्द्रग्रहण तक हो सकते हैं। किन्तु एक वर्ष में 2 सूर्यग्रहण तो होने ही चाहिए। हाँ, यदि किसी वर्ष 2 ही ग्रहण हुए तो वो दोनो ही सूर्यग्रहण होंगे। यद्यपि वर्षभर में 7 ग्रहण तक सम्भाव्य हैं, तथापि 4 से अधिक ग्रहण बहुत कम ही देखने को मिलते हैं। प्रत्येक ग्रहण 18 वर्ष 11 दिन बीत जाने पर पुन: होता है। किन्तु वह अपने पहले के स्थान में ही हो यह निश्चित नहीं हैं, क्योंकि सम्पात बिन्दु निरन्तर चल रहे हैं।
साधारणतय सूर्यग्रहण की अपेक्षा चन्द्रग्रहण अधिक देखे जाते हैं, परन्तु सच्चाई यह है कि चन्द्र ग्रहण से कहीं अधिक सूर्यग्रहण होते हैं। 3 चन्द्रग्रहण पर 4 सूर्यग्रहण का अनुपात आता है। चन्द्रग्रहणों के अधिक देखे जाने का कारण यह होता है कि वे पृ्थ्वी के आधे से अधिक भाग में दिखलाई पडते हैं, जब कि सूर्यग्रहण पृ्थ्वी के बहुत बड़े भाग में प्राय सौ मील से कम चौड़े और दो से तीन हजार मील लम्बे भूभाग में दिखलाई पडते हैं। उदाहरण के तौर पर यदि मध्यप्रदेश में खग्रास सूर्यग्रहण हो जो सम्पूर्ण सूर्य बिम्ब को ढकने वाला होता है तो गुजरात में खण्डग्रास सूर्यग्रहण ही दिखलाई देगा जो सूर्य बिम्ब के अंश को ही ढँकता है। और उत्तर भारत में वो दिखायी ही नहीं देगा।
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