21-22 March या 13_14 April?
उत्तर -भौगोलिक संवत् अर्थात कलियुग संवत को 20/21 मार्च से प्रारम्भ मानना ही उचित है।
सूर्य की शुन्य क्रान्ति अर्थात वसन्त सम्पात अर्थात सायन मेष संक्रान्ति 20/21 मार्च से वैदिक उत्तरायण/ पौराणिक उत्तर गोल, वैदिक वसन्त ऋतु और वैदिक मधु मास का प्रारम्भ होता है।
शरद सम्पात अर्थात सायन तुला संक्रान्ति 23 सितम्बर से वैदिक दक्षिणायन/ पौराणिक दक्षिण गोल, वैदिक शरद ऋतु और वैदिक ईष मास प्रारम्भ होता है।
सूर्य की उत्तर परम क्रान्ति अर्थात सायन कर्क संक्रान्ति 22 जून से वैदिक उत्तर तोयन / पौराणिक दक्षिणायन और वैदिक शचि मास प्रारम्भ होता है।
दक्षिण परम क्रान्ति अर्थात सायन मकर संक्रान्ति 23 दिसम्बर से वैदिक दक्षिण तोयन / पौराणिक उत्तरायण और वैदिक सहस्य मास प्रारम्भ होता है।
वैदिक उत्तरायण में वसन्त, ग्रीष्म वर्षा ऋतु होती है तथा मधु, माधव शुक्र, शचि, नभः (नभस), नभस्य मास होते हैं। वैदिक दक्षिणायन में शरद, हेमन्त और शिशिर ऋतु होती है तथा ईष, उर्ज, सहस, सहस्य, तपस और तपस्य मास होते हैं। ये सब सायन पद्यति पर आधारित हैं।
सूर्योदयास्त, दिनमान, लग्न दशम भाव (मेरिडियन कॉइल) सब सायन गणना से ही बनते हैं।अतः भौगोलिक काल गणना का आधार सायन गणना ही है।
लेकिन विषुववृत और वसन्त सम्पात आकाश में नहीं दिखते हैं। इन्हें समझने के लिए एक साधारण कृषक या पथिक ठीक पूर्व में सूर्योदय, ठीक पश्चिम में सूर्यास्त, दिन- रात बराबर होना देखकर जान सकता है कि, आज-कल में ही संवत्सर प्रारम्भ दिन होगा । जानकार होगा तो मध्याह्न में खजुर नारियल के पेड़ या खम्बे की छाया देखकर वसन्त सम्पात/ शरद सम्पात/ उत्तरपरम क्रान्ति/ दक्षिण परम क्रान्ति अर्थात अयन- तोयन देख सकता है। इसी क्रिया को वैध लेने वाले ज्योतिषी शंकु खड़ा कर शंंकु की छाया की लम्बाई और कोण आदि मापन कर सिद्ध करते हैं।
ध्यान रहे ऋतुएँ काल अर्थात सायन सौर मास के साथ-साथ भौगोलिक अक्षांश पर भी निर्भर है। उल्लेखनीय है कि, मौसम / ऋतुएँ प्रकृति में भी दिखती है। वसन्त में सभी पेड़ पौधों का पुष्पित होना, ग्रीष्म में गर्मी होना, वर्षा ऋतु में पर्जन्य वर्षण होना, शरद में पुनः प्रकृति पुष्पित हो जाती है। शिशिर में कड़ाके की ठण्ड पड़ती है।
इन्हें देखकर स्थानीय व्यक्ति को अपने क्षेत्रानुसार ऋतुओं और मधु-माधवादि मास का सहज ही अनुमान हो जाता है। जैसे मध्यप्रदेश के मालवा प्रान्त में (उज्जैन के आसपास) वैदिक तपस्य और मधु मास (सायन मीन और मेष के सूर्य) में वसन्त ऋतु होती है। और ठेठ दक्षिण भारत में तो सायन कुम्भ- मीन के सूर्य (तपः - तपस्य मास में ही वसन्त ऋतु होती है।)
इसी प्रकार वर्तमान में हम ग्रेगोरी केलेण्डर के मार्च-अप्रैल आदि माहों से ऋतुएँ देखते हैं। क्योंकि ग्रेगोरी केलेण्डर भी सायन गणनाधारित है। लेकिन वर्ष और मासों का प्रारम्भ दिनांक मनमाने करके उसका मटियामेट कर रखा है।
राष्ट्रीय कैलेण्डर में एक- दो दिन की थोड़ी सी त्रुटि है लेकिन ऋतु बद्ध होने से बहुत उपयोगी है कृषि/उद्योग/ व्यापार/ बजट सब इसी पर आधारित हो सकते हैं। लेकिन सरकार इसे लागू करने में प्रयत्नशील नहीं है।
कलियुग संवत और मधु- माधव मास शुद्ध सायन गणनाधारित है। नेशनल कैलेण्डर और उसके ही चैत्र - वैशाख मास भी सायन गणनाधारित है। तथा Gregory कैलेण्डर भी सायन सौर कैलेण्डर ही हैं। इसलिए इन तीनों कैलेण्डर की गणना भौगोलिक दृष्टि से सही है।
इसलिए संवत्सर 20/21 मार्च से ही मानना ही उचित है।
नक्षत्रीय परिपथ की पट्टी के आधार पर क्रान्तिवृत आकाश में स्पष्ट दिखता हैं। क्योंकि क्रान्तिवृत के लगभग नौ-नौ अंश उत्तर- दक्षिण में फैला पूरा भचक्र अर्थात नक्षत्रीय परिपथ पट्टी (फिक्स्ड झॉडिएक) में असमान अंशात्मक विस्तार अर्थात असमान भोगांश वाले सत्ताइस नक्षत्र पहचाने जा सकते हैं। आधुनिक एस्ट्रोनॉमी में अठासी नक्षत्र माने गए हैं।
चित्रा तारा स्थिर भचक्र (नक्षत्रीय परिपथ) के ठीक मध्य में 180° पर स्थित है। अतः चलते रास्ते किसान भी चित्रा तारे का सूर्यास्त के समय उदय और सूर्योदय के समय अस्त होना देखकर, और मध्यरात्रि में ठीक सिर पर होना देखकर भी बतला सकता है कि, आज निरयन मेष संक्रान्ति (13/14 अप्रेल) है।
प्रश्न - क्या निरयन मेष संक्रांति ऋतु बद्ध नहीं है?
उत्तर - हाँ! निरयन मेष संक्रांति ऋतु बद्ध नहीं है।
निरयन मेष संक्रान्ति अर्थात सूर्य चित्रा तारे से 180° पर होना। इसका सम्बन्ध उत्तर क्रान्ति या दक्षिण क्रान्ति से नही है। निरयन भोगांश के साथ आकाशीय अक्षांश अर्थात शर बतलाया जाता है ताकि, चन्द्रमा और ग्रहों या उपग्रहों, धूमकेतु आदि की आकाशीय स्थिति स्पष्ट हो सके। सूर्य का शर सदैव शुन्य ही रहता है।
स्थिर भचक्र डॉयल है और पात, मन्दोच्च , शिघ्रोच्च, ग्रहचार आदि घड़ी की सूइयाँ है।
वसन्त सम्पात 50.3' प्रति वर्ष की वामावर्त गति से स्थिर भचक्र (नक्षत्रीय परिपथ) में पश्चिम की ओर खिसकता रहता है। इस कारण लगभग 25778 वर्ष में वसन्त सम्पात पूरे भचक्र (फिक्स्ड झॉडिएक) का परिभ्रमण कर लेता है। 22 मार्च 285 ईस्वी को वसन्त सम्पात चित्रा तारे से 180° पर निरयन मेषादि बिन्दु पर था। 21 मार्च 13174 ईस्वी को वसन्त सम्पात चित्रा तारे पर रहेगा।
नाक्षत्रिय नववर्ष या निरयन सौर नव वर्ष फिक्स्ड झॉडिएक पर आधारित है। इसलिए नाक्षत्रीय नववर्ष या निरयन नववर्ष खगोलीय नव वर्ष है। भौगोलिक नव-वर्ष नहीं है । इसलिए ऋतु आधारित नहीं है।
सुचना - आचार्य वराहमिहिर ने वृहत्संहिता में तेरह अरों का उल्लेख किया है। साथ ही वैदिक काल में प्रचलित अट्ठाइस नक्षत्रों का भी वर्णन किया है । लेकिन बाद में अभिजित नक्षत्र भचक्र अर्थात नक्षत्रीय परिपथ से बाहर (दूर) चला गया अतः वर्तमान में असमान भोगांश वाले केवल सत्ताइस नक्षत्र माने जाते हैं। जबकि आधुनिक एस्ट्रोनॉमी में तेरह राशियों (साइन) और अठासी नक्षत्र (कांस्टिलेशन) माने जाते हैं।
तीस अंश वाली बारह राशियाँ और 13°20' (तेरह अंश बीस कला) वाले राशि नक्षत्र केवल होरा शास्त्र/ जातक शास्त्र/ फलित ज्योतिष, ताजिक (वर्षफल) और वर्तमान मुहूर्त शास्त्र में ही चलते हैं।
वेदों, वैदिक ग्रन्थों, वाल्मीकि रामायण और महाभारत में उल्लेखित नक्षत्र असमान भोगांश वाले सत्ताइस या अट्ठाइस नक्षत्रों का उल्लेख ही है। उनमें कार्य के लिए उचित नक्षत्र या नक्षत्रों के आधार पर फल जगत का या स्थान विशेष का फल कथन इन्हीं असमान भोगांश वाले सत्ताइस/ अट्ठाइस नक्षत्रों के आधार पर ही कहे गए हैं। अर्थात मूलतः संहिता ज्योतिष में अर्थात मुहूर्त/ वास्तु और राष्ट्रीय भविष्य कथन में इन्ही असमान भोगांश वाले नक्षत्रों का प्रयोग होना चाहिए।
22 मार्च 285 में वसन्त सम्पात अर्थात सायन मेष संक्रान्ति और निरयन मेष संक्रान्ति दोनों एक साथ हुई थी।
तब से आज तक 24 दिन का अन्तर पड़ गया। यही अन्तर अयनांश कहलाता है। जबकि, वर्तमान में 13 -14 April को पड़ने वाली निरयन मेष संक्रांति विवेकानन्द जी के जन्म के समय 11/12 अप्रैल को होती थी। और निरयन मकर संक्रांति 12 जनवरी को होती थी। जो वर्तमान में 14 जनवरी को होती है।
पण्डित दीनानाथ शास्त्री चुलेट पण्डित शंकर बालकृष्ण दीक्षित और पण्डित व्यंकटेश बापूजी केतकर सभी ने वैदिक प्रमाणों के आधार पर वसन्त सम्पात से संवत्सर प्रारम्भ, उत्तरायण प्रारम्भ, वसन्त ऋतु प्रारम्भ तथा मधुमास प्रारम्भ मानते थे। क्योंकि वैदिक ऋषियों का वास स्थान उत्तरी आर्यावर्त और ब्रह्मावर्त में था अर्थात हरियाणा, पञ्जाब , कश्मीर, सिन्ध, बलुचिस्तान, उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त, ताजिकिस्तान कम्बोज, तुर्कमेनिस्तान, तिब्बत और कजाकिस्तान में था। इसलिए वेदों में अयन और ऋतुएँ तदनुसार दी है।
बाद में जब मध्यदेश अर्थात मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात बङ्गाल , उड़िसा और दक्षिण में महाराष्ट्र , कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, तेलङ्गाना, तमिलनाडु और करल तथा श्रीलंका में जनसंख्या वृद्धि हुई, विद्वान दक्षिण में भी बसे और फले-फुले तब पौराणिक काल में उज्जैन को केन्द्र मानकर वसन्त ऋतु और मधुमास सायन मीन संक्रान्ति से प्रारम्भ करने लगे। और सूर्य का उत्तरायण सूर्य की परम उत्तर क्रान्ति सायन मकर संक्रान्ति से प्रारम्भ करने लगे।
चुलेट शास्त्री जी अक्षांशों और सायन सौर मास से ऋतुओं को सम्बन्ध मानते थे। चान्द्रमास शुक्ल पक्ष से प्रारम्भ मानते थे।
चान्द्रमास ऋतु आधारित नहीं माने हैं।
लेकिन यह सबने माना है कि, स्थिर भचक्र (फिक्स्ड झॉडिएक) में जिस जिस नक्षत्र में वसन्त सम्पात होता था संवत्सर का प्रथम नक्षत्र माना जाता था। स्थिर भचक्र में अश्विनी ही प्रथम नक्षत्र मान्य था। लेकिन संवत्सर में प्रथम नक्षत्र और प्रथम निरयन सौर मास और प्रथम चान्द्रमास उसे ही माना जाता था जिसमें वसन्त सम्पात हो। किन्तु सायन सौर मधु मास प्रथम मास ही रहता था।
जब चान्द्रमास प्रचलन में आए तब पूर्णिमा को जिस नक्षत्र पर चन्द्रमा होता था उस चान्द्रमास का नाम उस पूर्णिमा के नक्षत्र के आधार पर रहता था।
अतः पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा जिस नक्षत्र के साथ रहता है, उसके आधार पर यह बतलाया जा सकता हैं कि, कौनसे मास की पूर्णिमा है।
श्री दीनानाथ शास्त्री चुलेट और श्री ग. वा. कविश्वर हो या तिलक जी हो या श्री व्यंकटेश बापूजी केतकर हो या शंकर बालकृष्ण दीक्षित हो सबने चान्द्रमास अमान्त ही माने हैं। लेकिन पौराणिक सन्दर्भ में चुलेट शास्त्री जी ने भी अपवाद स्वरूप कुछ स्थानों पर पूर्णिमान्त चान्द्र मास का उल्लेख भी माना है। स्व. श्री ग. वा. कविश्वर जी ने महाभारत में अपवाद स्वरूप कुछ स्थानों पर पूर्णिमान्त चान्द्र मास का उल्लेख भी माना है। सम्भवतः कुछ प्रयोजन विशेष में ही पूर्णिमान्त मास का उल्लेख किया जाता होगा। क्योंकि ऋग्वेद में तो चौबीस/ छब्बीस पक्षों के पवित्र आदि अलग-अलग नाम दिये हैं। मतलब तब चान्द्रमास नही चलते थे।
वैदिक काल में जिस चान्द्रमास में वसन्त सम्पात पड़ता था, उसी मास को संवत्सर का प्रथम मास माना जाता था।
इसी कारण वर्तमान में निरयन मेष मास को वैशाख कहते हैं। प्रथम मास चैत्र होने से आश्विन शुक्ल पक्ष में नवरात्र (रात्रि प्रारम्भ) होना माना जाता है। गुजरात में कार्तिकादि संवत्सर आज तक प्रचलित है। महाभारत भीष्म पर्व में भगवान श्रीकृष्ण गीता प्रवचन में वसन्त ऋतु और मार्गशीर्ष मास को अपनी विभूति बतलाते हैं। वेदाङ्ग ज्योतिष काल में माघ मास को भी प्रथम मास होने का उल्लेख मिलता है। लेकिन मधुमास में ही चैत्र मास रहेगा ऐसा कोई नियम नहीं मिलता। न ही ऐसा कोई नियम मिलता है कि, संवत्सर प्रारम्भ चैत्र मास से ही माना जाए।
यूरोपीय विज्ञान मुख्यतः युद्ध और यौद्धाओं तथा उद्योगों को ध्यान में रखते हुए विकसित किया गया। जबकि भारत में सम्पूर्ण समाज को दृष्टिगत रखते हुए विद्याओं का विकास हुआ। राज्य, कृषि, उद्योग, व्यापार ही नहीं अपितु कलाकारों तक को ध्यान में रखा जाता था।
इसलिए यूरोपीय एस्ट्रोनॉमी नाविकों को दृष्टिगत रखते हुए बनी। जबकि भारत में किसान से लेकर व्यापारियों तक, दर्शन, धर्म-कर्म और कर्मकाण्ड से लेकर सामाजिक उत्सव, व्रत, पर्व और त्योहारों तक को ध्यान में रखकर ब्रह्माण्ड विज्ञान, ग्रह गणित, संहिता ज्योतिष आदि का विकास हुआ।
अन्त में मैरा सुझाव है कि,
सायन सौर संक्रान्तियों, निरयन सौर संक्रान्तियों, पुर्णिमा, अमावस्या और अष्टमी तिथि सम्बन्धित व्रत,पर्वोत्सव मनाना।
केवल होली दिवाली जैसी इष्टियाँ, कोजागरी - शरदपुर्णिमा जैसे कुछ विशिष्ट वृतपर्वोत्सवों को छोड़ शेष सभी वृत पर्वोत्सव सायन सौर संक्रान्तियों, और उनके गतांश के अनुसार ही मनाये जावें।
इष्टियों और अष्टका-एकाष्टका वेदिक पर्व है।अतः इन विशिष्ट वृतपर्वोत्सवों को पुर्णिमा, अमावस्या और अष्टमी तिथि (अर्ध चन्द्रमा) पर ही किया जाता था अतः इन्हें दर्शाया जा सकता है।
चूंकि पौराणिक कथाओं में उल्लेखित स्थान कुरुक्षेत्र, अयोध्या, प्रयोग, काशी (वाराणसी), पटना, द्वारका, प्रभास (सोमनाथ), उज्जैन, नासिक और नागपुर जैसे मध्यदेश के ही हैं अतः पौराणिक व्रत-पर्व उत्सव-त्योहार मनाने के लिए वर्तमान प्रचलित निरयन सौर मासाधारित चान्द्रमासों - चैत्र वैशाख मास को राष्ट्रीय कैलेण्डर के चैत्र वैशाख मास मान लिया जाए। अर्थात वैदिक मधु मास के प्रारम्भ दिन वसन्त सम्पात, सायन मेष संक्रान्ति को चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि प्रारम्भ समय मानकर व्रत-पर्व उत्सव-त्योहार के दिनांक निर्धारित कर लिया जाए।
कृष्णपक्ष की तिथियों को 16, 17, 18 से 30 तक गिनती मानकर जो व्रत पर्वोत्स्व जिस तिथि को मनाया जाता है उसी वर्तमानांश या गतांश या दिनांक पर मनाया जाये। नागपञ्चमी, वटसावित्री जैसे कुछ व्रत पर्वोत्सवों में राजस्थान -उत्तर प्रदेश आदि गोड़ मतावलम्बियों और पश्चिम मध्यप्रदेश में मालवा- निमाड़, और महाराष्ट्र आदि हेमाद्रि, काल माधव, निर्णय सिन्धु- धर्म सिन्धु के मत में एक चान्द्र पक्ष अर्थात लगभग 15 दिन का अन्तर पड़ता है उनका निबटारा भी कर लिया जाए।
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