रविवार, 12 दिसंबर 2021

अष्टाङ्ग योग का अधिकारी कौन?

अष्टाङ्ग योग स्वयम् पञ्चमहायज्ञ के ब्रह्म यज्ञ का अङ्ग है। जब-तक यम, नियम पालन में दृढ़ता न आये तब-तक अष्टाङ्ग योग सिद्ध नहीं होता।

जब-तक तन कम से कम एक एक घड़ी (२४ मिनट) से एक मुहुर्त (४८ मिनट) एक ही आसन पर स्थिर स्थित नहीं रह सके तब- तक प्राणायाम का अभ्यास भी आरम्भ नहीं होता ? प्राणायाम आसन सिद्ध व्यक्ति द्वारा की जाने वाला योगाङ्ग है।
तो बिना आसन सिद्ध व्यक्ति द्वारा किया गया प्राणायाम काहे का प्राणायाम?
 जब तक प्राणायाम सिद्ध न हो जाए, प्राणों को आयाम न मिल जाते तब तक कैसा प्रत्याहार?
जब-तक प्रत्याहार न बने, सिद्ध न हो जाते, विचार आते जाते रहे, बहाव समाप्त न हो तब-तक धारणा कैसे सम्भव है?
जब-तक  कम से कम एक घड़ी, आधी घड़ी, आधी में पुनि आधी (६ मिनट से २४ मिनट तक) चित्त वृतियाँ एक ही संकल्प में (विचार में) दृढ़तापूर्वक स्थिर न रह पाये तब तक ध्यान का आरम्भ भी सम्भव नहीं। और
 
जब-तक एक मुहुर्त (४८ मिनट) से तीन मुहुर्त (२ घण्टा २४ मिनट) चित्त वृत्तियाँ एकीभाव में न रह पाये तब-तक कैसी समाधि? और 
जब-तक एक अहोरात्र से तीन अहोरात्र तक चित्तवृत्ति निरुद्ध रहनें का अभ्यास न होजाये तब-तक संयम नहीं होता।
और बिना यम, नियम, संयम के योगी नहीं कहलाता/ युक्त नहीं होता।

शनिवार, 11 दिसंबर 2021

क्रियमाण, सञ्चित, प्रारब्ध, और नियति।


आरम्भ सबकी सुनी हुई अत्यन्त सुमधुर सुन्दर कहानी से करता हूँ।
रचनाकार का नामोल्लेख कहीँ पढ़ने को नहीं मिला अतः उन कथाकार महोदय को सादर प्रणाम कर धन्यवाद सहित साभार प्रस्तुत है। कथा में किसी प्रकार का परिवर्तन न हो अतः कॉपी पेस्ट किया है। इस कथा को समझनें पर आपको श्रीमद्भगवद्गीता के नौवें अध्याय का बाइसवाँ मन्त्र का यथार्थ ज्ञान हो सकता है।

*प्रारब्ध* 

    एक गुरूजी थे । हमेशा ईश्वर के नाम का जाप किया करते थे । काफी बुजुर्ग हो गये थे । उनके कुछ शिष्य साथ मे ही पास के कमरे मे रहते थे ।

     जब भी गुरूजी को शौच; स्नान आदि के लिये जाना होता था; वे अपने शिष्यो को आवाज लगाते थे और शिष्य ले जाते थे ।

    धीरे धीरे कुछ दिन बाद शिष्य दो तीन बार आवाज लगाने के बाद भी कभी आते कभी और भी देर से आते ।

    एक दिन रात को निवृत्त होने के लिये जैसे ही गुरूजी आवाज लगाते है, तुरन्त एक बालक आता है और बडे ही कोमल स्पर्श के साथ गुरूजी को निवृत्त करवा कर बिस्तर पर लेटा जाता है । अब ये रोज का नियम हो गया ।

    एक दिन गुरूजी को शक हो जाता है कि, पहले तो शिष्यों को तीन चार बार आवाज लगाने पर भी देर से आते थे । लेकिन ये बालक तो आवाज लगाते ही दूसरे क्षण आ जाता है और बडे कोमल स्पर्श से सब निवृत्त करवा देता है ।

    एक दिन गुरूजी उस बालक का हाथ पकड लेते है और पूछते कि सच बता तू कौन है ? मेरे शिष्य तो ऐसे नही हैं ।

    वो बालक के रूप में स्वयं ईश्वर थे; उन्होंने गुरूजी को स्वयं का वास्तविक रूप दिखाया।

     गुरूजी रोते हुये कहते है : 
हे प्रभु आप स्वयं मेरे निवृत्ती के कार्य कर रहे है । यदि मुझसे इतने प्रसन्न हो तो मुक्ति ही दे दो ना ।

     प्रभु कहते है कि जो आप भुगत रहे है वो आपके प्रारब्ध है । आप मेरे सच्चे साधक है; हर समय मेरा नाम का जप करते है इसलिये मै आपके प्रारब्ध भी आपकी सच्ची साधना के कारण स्वयं कटवा रहा हूँ ।

     गुरूजी कहते है कि क्या मेरे प्रारब्ध आपकी कृपा से भी बडे है; क्या आपकी कृपा, मेरे प्रारब्ध नही काट सकती है ।

     प्रभु कहते है कि, मेरी कृपा सर्वोपरि है; ये अवश्य आपके प्रारब्ध काट सकती है; लेकिन फिर अगले जन्म मे आपको ये प्रारब्ध भुगतने फिर से आना होगा । यही कर्म नियम है । इसलिए आपके प्रारब्ध स्वयं अपने हाथो से कटवा कर इस जन्म-मरण से आपको मुक्ति देना चाहता हूँ ।

ईश्वर कहते है: 
*प्रारब्ध तीन तरह* के होते है।

*मन्द*, *तीव्र*, तथा *तीव्रतम*

*मन्द प्रारब्ध* 
मेरा नाम जपने से कट जाते है । 
*तीव्र प्रारब्ध* 
किसी सच्चे संत का संग करके श्रद्धा और विश्वास से मेरा नाम जपने पर कट जाते है । पर *तीव्रतम प्रारब्ध* 
भुगतने ही पडते है।

लेकिन जो हर समय श्रद्धा और विश्वास से मुझे जपते हैं; उनके प्रारब्ध मैं स्वयं साथ रहकर कटवाता हूँ और तीव्रता का अहसास नहीं होने देता हूँ ।

*प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा शरीर ।*
*तुलसी चिन्ता क्यों करे, भज ले श्री रघुबीर।।*

*।। जय श्री कृष्णा ।।*

कथा पूर्ण हुई। कथाकार को पुनः बहुत बहुत धन्यवाद। एवम् उनके प्रति पुनः आभार व्यक्त करता हूँ।

मूल आलेख 

क्रियमाण, सञ्चित, प्रारब्ध, और नियति।

प्रारब्ध कब और कैसे खत्म होता है इसका उत्तर तो उक्त कहानी में दिया जा चुका है किन्तु यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि, 
प्रारब्ध क्या होता है? क्यों होता है? कैसे बनता है? 
प्रारब्ध का अर्थ - प्रारब्ध का तात्पर्य है पूर्व जन्मों में किये गये कर्मों के सञ्चित कर्मों में से इस जन्म में भोगे जा सकने योग्य कर्म फलों का उदित हुआ समुच्चय (समुह)। जो उदित हो चुका है और अब जिसे भोगना ही होगा।
अब प्रश्न उपस्थित हुआ कि,  
पिछले जन्मों में किये गये कर्मों का   फल उसी जन्म में क्यों नहीं मिल पाया? उनका सञ्चय क्यों हुआ?
किसी भी क्रिया-प्रतिक्रिया को हम जिस उद्देश्य से करते हैं, उस कर्म का उद्देश्य उस क्रिया के पूर्ण होते ही प्राप्त हो जाता है। जैसे आपने स्मरण हेतु लगन पूर्वक पाठ पढ़ा, वह स्मरण है गया।  मतलब उद्देश्य पूर्ण हुआ। यही क्रियमाण है।
परीक्षा के समय वह पाठ याद न आना, उपयोग करते समय वह सीखा हुआ ज्ञान विस्मृत हो जाना किसी अन्य कर्म का परिणाम हो सकता है। 
जैसे गुरु द्रोणाचार्य की अवहेलना कर छल पुर्वक मिथ्या बोलकर, स्वयम् को ब्राह्मण बतलाकर कर्ण द्वारा परशुराम जी से अस्त्र-शस्त्र विद्या ज्ञान को अर्जुन वध के लिए उपयोग न करपाना, उपयोग करते समय भूल जाना इसका उदाहरण है।
छल पूर्वक गलत जानकारी देकर कोई रोजगार प्राप्त करले और रहस्योद्घाटन सोनें पर दण्डित हो तो उसमें डिग्री/ प्रमाण-पत्र का क्या दोष। प्रमाण-पत्र सही उपयोग हेतु जारी किते जाते हैं। छल-कपट का परिणाम मिलते समय हम यह भूल जाते हैं कि, यह परिणाम छल-कपट का है।
यदि कोई जीवन भर बचा रहे तो उसका फल सञ्चित हो जायेगा और कभी न कभी प्रारब्ध रूप में  उदय होना ही है।
कुशलतापूर्वक किये गये कर्मों के उद्देश्य सफल होते हैं। अकुशल कर्मों के परिणाम पारिस्थितिक होते हैं। पूर्ण सफल, आंशिक सफल, कुछ परिवर्तन के साथ सफल या असफल परिस्थितियों और कौशल के अनुरूप हो सकता है। 
किन्तु फल और परिणाम में भिन्नता होती है। 
फल निर्भर करता है कर्म करते समय उस कर्म को किये जानें के प्रयोजन पर, उस कर्म को किये जानें के हेतु पर। उस समय आपनें जिस आशय से कर्म किया, जो मानकर कर्म किया, जो सोचकर कर्म किया तदनुसार उस कर्म का फल निर्धारित होगा।
अमर शहीद चन्द्रशेखर, भगतसिंह, द्वारा अंग्रेजों का खजाना लूट लेना और डाकुओं द्वारा की गई डकेती का अन्तर सब जानते हैं? अमर शहीद चन्द्रशेखर, भगतसिंह, द्वारा अंग्रेजों का खजाना लूट लेना देश के स्वातन्त्र्य संग्राम का अङ्ग था; न कि, डकेती। स्वतन्त्रता सैनानियों द्वारा किया गया अंग्रेजों का वध या किसी सैनिक द्वारा युद्ध में आक्रान्ताओ का वध करना हत्या नहीं कहलायेगी, बल्कि देशभक्ति पूर्ण कार्य कहे जाते हैं और पुरस्कार के योग्य कर्म माना जाते हैं।
क्रियाओं और कर्मों में यही अन्तर स्पष्ट है। क्रिया समान है पर कर्म भिन्न भिन्न है। परिणाम क्रियाओं और कौशल के अनुसार होते हैं। लेकिन कर्मफल  कर्म के हेतु और प्रयोजन के अनुसार मिलते हैं; न कि, गतिविधियों या क्रियाओं के अनुसार।
आप किसी भी प्रयोजन से, किसी भी हेतु से आग में हाथ डालें परिणाम स्वरूप हाथ जलना स्वाभाविक है। किन्तु किसी के जान-माल की सुरक्षार्थ आग में हाथ डालने पर कर्मफल शुभफल के रूप में ही मिलेगा। और अन्य प्रयोजन और हेतु का फल भी तदनुसार ही होगा।
कर्मफल सञ्चित क्यों होते हैं? सञ्चित प्रारब्ध में परिवर्तित कैसे होते हैं?
प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा प्रतिदिन अनेकानेक कर्म किये जाते हैं। उन सबके फल उसी जन्म में मिलना सम्भव नहीं होता। अतः ये कर्म फल भोग हेतु सञ्चित होते रहते हैं। और बहुत से फलों के फल भोगने योग्य समुच्चय (समुह) बनने पर तदनुसार देश (स्थान) में, तदनुसार काल (समय) में, तदनुसार योनि में, तदनुसार कुल और परिवार में, तदनुसार देहयष्टि वाले शरीर में जन्म होना सुनिश्चित है। 
तो क्या केवल हमारे कर्मफल भोगार्थ ही संसार चल रहा है। या यहाँ कुछ नियत भी है?
जगत उत्पत्ति, सञ्चालन और प्रलय के प्राकृतिक नियमों अर्थात ऋत के अनुसार ही यह संसार चल रहा है, न कि, आपके कर्मफल भोगार्थ। सृष्टि, पालन और जगत सब नियत है। इसी को नियति कहते हैं। 
किन्तु आप सुख-दुःख क्या भोगें या कब सुखी होंगे, कब दुःखी रहेंगे, क्यों सुखी-दुःखी होंगे इससे नियन्ता ईश्वर को कोई लेना-देना नहीं है। ऐसा कोई लेख विधाता अकारण नहीं लिखता।  विधाता अकारण  आपका भला-बुरा नहीं लिखता। बल्कि भाग्य मतलब इस जन्म में जो कर्मफल भोगना होगा जाना है सञ्चित थे उनका उदय होना है।
इस प्रकार स्पष्ट हो गया कि,
क्रियमाण- जो वर्तमान में हम कर्म कर रहे हैं इसे क्रियमाण कहते हैं। 
सञ्चित - पूर्व जन्मों और इस जन्म के जिन कर्मों के भोग भोगना शेष है उसे सञ्चित कहते हैं। 
प्रारब्ध -  सञ्चित कर्मों के इस जन्म में उदित फलों को प्रारब्ध कहते हैं।
नियति -  किन्तु प्राकृतिक कर्म नियत होते हैं। अतः उन्हें नियति कहते हैं।

बुधवार, 1 दिसंबर 2021

वैदिक अयन/ तोयन एवम् ऋतुचक्र तथा पौराणिक गोल/ अयन तथा ऋतु चक्र ।

तिलक, केतकर, चुलेट आदि सभी विद्वानों नें वैदिक प्रमाणों से सिद्ध किया है कि, वैदिक काल में सूर्य जब उत्तर में स्थित रहकर और उत्तर में गति करता है तब उत्तरायण कहलाता था। सूर्य जब ठीक भूमध्य रेखा पर होकर भूमध्य रेखा से उत्तर में क्रान्ति करता था तब सायन मेष संक्रान्ति को उत्तरायण आरम्भ और वसन्त ऋतु आरम्भ तथा संवत्सर का आरम्भ माना जाता था। अर्थात सायन मेष संक्रान्ति (२०/२१ मार्च) से संवत्सरारम्भ, उत्तरायणारम्भ, वसन्त ऋतु आरम्भ एवम् मधुमास आरम्भ होता था।  जब सूर्य दक्षिण गोलार्ध में रहकर दक्षिण में गति करता था तब दक्षिणायन कहलाता था। 
तदनुसार सायन तुला संक्रान्ति (२२/२३ सितम्बर) से दक्षिणायन, शरद ऋतु आरम्भ, और इस मास आरम्भ होता था।
 सूर्य की दक्षिण परम क्रान्ति होकर उत्तर की ओर गतिशील होना उत्तर तोयन कहलाता था। अर्थात उतर रोमन आरम्भ सायन मकर संक्रान्ति (२१/२२ दिसम्बर) से होता था। और सूर्य जब भूमि के दक्षिण गोलार्ध पर रहते हुए  दक्षिण की ओर गतिशील रहता था तब दक्षिण रोमन कहलाता था। दक्षिण तोयन का आरम्भ सायन कर्क संक्रान्ति (२२/२३ जून) से होता था।
विष्णु पुराण के समय सूर्य की उत्तर में कर्क रेखा पर आने अर्थात परम उत्तर क्रान्ति से उत्तरायण आरम्भ बतलाया है। अर्थात वैदिक उत्तर तोयन को उत्तरायण में बदल दिया। दक्षिण तोयन को दक्षिणायन नाम दे दिया। और वैदिक उत्तरायण को उत्तरगोल तथा वैदिक दक्षिणायन को दक्षिणगोल नया नाम दे दिया। इस प्रकार उत्तरायण/ दक्षिणायन तीन महिने आगे (पहले) से आरम्भ बतला दिया।
इसे सन्तुलित करने हेतु विष्णु पुराण में विषुव सम्पात / सायन मेष संक्रान्ति को वसन्त ऋतु के मध्य में बतलाया है।  तथा शरद सम्पात को शरद ऋतु के मध्य में बतला दिया। इस प्रकार ऋतुचक्र एक माह आगे  खिसका दिया (पहले कर दिया)।
उत्तराखण्ड, कश्मीर, तुर्की स्थान, तुर्कमेनिस्तान, कजाकिस्तान में आज भी वसन्त ऋतु वसन्त सम्पात (२०/२१ मार्च) से ही आरम्भ होती है। भारत में और (प्राचीन ईरान के अवशेष) पारसियों में आज भी वसन्त सम्पात (२०/२१ मार्च) से ही नव संवत्सर आरम्भ होता है।
किन्तु कर्क रेखा के नीचे दक्षिण भारत में वसन्त ऋतु एक माह पहले सायन मीन संक्रान्ति (१८ फरवरी) से आरम्भ हो जाती है। वर्षा ऋतु भी सायन कर्क संक्रान्ति से आरम्भ हो जाती है। इसमें समारोह नहीं कर सकते अतः यह नवीन प्रयोग किया गया जो मध्य भारत और दक्षिण भारत में प्रचलित हो गया।

मंगलवार, 30 नवंबर 2021

मुहुर्त

*मुहुर्त*

प्रायः मुहुर्त पूछने वाले निम्नलिखित गलतियाँ करते हैं।

1 आज वाहन क्रय करना है, मुहुर्त बतला दीजिए।
अरे भाई जब आज दिनांक का मुहुर्त तो तुमने स्वयम् ही निकाल लिया है फिर पूछा क्यों रहे हो? 
साहब समय बतला दीजिए।
यदि वाहन पर सवारी करनें का मुहुर्त आज नहीं हुआ तो समय कैसे बतला पाऊँगा?
मूलत: मुहुर्त वाहन क्रय करनें का नहीं होता। मुहुर्त होता है वाहन पर सवार होकर सवारी करने का। राइडिंग का मुहुर्त होता हो, बुक करना, पेमेण्ट करना ये व्यापारिक गतिविधियाँ है। आप चलते रास्ते बहुत सी व्यापारिक गतिविधियाँ करते रहते हैं, उनमें कोई मुहुर्त विचार नही करते। करना आवश्यक भी नहीं है तो वाहन क्रय करने का मुहुर्त विचार क्यों? व्यर्थ विचार है। मुहुर्त विचारना होगा सवारी करनें का, गाड़ी अधिग्रहित कर/टेक ओवर कर शोरूम से गाड़ी बाहर निकालकर उसे सड़क पर चलाने का। फिर विचार करें वाहन लेकर सर्वप्रथम कहाँ जायें, किसको दिखायें। मतलब मन्दिर जायें, या माता-पिता या गुरुजनों को दिखायेंगे आदि-आदि।
तो वाहन क्रय करना हो या कोई भी मुहुर्त पूछना हो तो पर्याप्त समय पहले मुहुर्त निकलवा लें फिर वाहन क्रय करने करें।

2 कुछ मुहुर्त ऐसे हैं जो मास विशेष में ही होते हैं। हर समय नहीं होते। जैसे गृह प्रवेश मुहूर्त वैशाख, ज्यैष्ठ, श्रावण,कार्तिक, मार्गशीर्ष,माघ और फाल्गुन सौर मास में ही होते हैं।

विष्णु-माया, श्री हरि-कमला, नारायण- श्रीलक्ष्मी, हिरण्यगर्भ-वाणी, प्रजापति-सरस्वती, ब्रहस्पति, इन्द्र-शचि, ब्रह्मणस्पति, द्वादश आदित्य, वाचस्पति, अष्ट वसु, श्री राम अवतार, श्री कृष्ण अवतार  आदि सात्त्विक देवताओं की प्राण प्रतिष्ठा उत्तरायण में (परम्परागत उत्तरायण 22/23 दिसम्बर से 22/23जून तक)  होती है जबकि, रुद्र, काली, दुर्गा, विनायक, भैरव आदि तामसिक देवताओं की प्राण प्रतिष्ठा दक्षिणायन में (परम्परागत दक्षिणायन 22/23 जून से 22/23 दिसम्बर तक)  होती हैं।
कई बार नये मन्दिर निर्माण करने वाले आयोजक सात्विक और तामसिक दोनों प्रकार के देवताओं की स्थापना करते हैं और दोनों की प्राण प्रतिष्ठा एक ही दिन करना चाहते हैं। अब आप ही सोचें एक ही दिन सात्विक और तामसिक देवताओं की प्राण-प्रतिष्ठा मुहुर्त कैसे निकलेगा?

चोल-मुण्डन संस्कार, उपनयन/ यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह संस्कार गृहारम्भ, गृह-प्रवेश के मुहुर्त अति बारीकी से देखना होते हैं। इनमे अलग-अलग दोषों और चक्रों का ध्यान रखते हुए मुहुर्त देखना होता है। (अर्थात इनमें बहुत सी टर्म्स एण्ड कण्डिशन्स ध्यान रखना होती है।) अतः मुहुर्त शोधन में अधिक समय लगता है। लोग चार-पाँच जोड़ों का विवाह एक साथ करना चाहते हैं। साथ ही एकादशी, प्रदोष उद्यापन आदि भी साथ ही करने का आग्रह करते हैं। ऐसे मुहुर्त खोजना कई बार लगभग असम्भव हो जाता है।

3 चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी तिथि  रिक्तता तिथि होती है। तथा अष्टमी तिथि भी शुभ नहीं मानी जाती है। मुहुर्त में शारदीय नवरात्र भी अच्छे नहीं माने जाते हैं। (अतः गणेश चतुर्थी,महा अष्टमी, महा नवमी,राम नवमी, शिवरात्रि को मुहुर्त नहीं निकलते।) विवाह में पुष्य नक्षत्र निषेध है। श्राद्धपक्ष में भी शुभ कर्म निषिद्ध हैं। किन्तु पितरों और दुर्गा देवी, शिवजी के भक्त गण इन तिथियों में मुहुर्त चाहते हैं। किन्तु हमें इनकार करना पड़ता है। लोग मानने को तैयार नहीं होते।

4 मुहुर्त निकालने में कर्म करनें वाले (पूजा में बैठनें वाले) की जन्म कुण्डली में  जन्म के समय की सूर्य,  चन्द्रमा और लग्न के राशि/ नक्षत्र को ध्यान में रखकर तिथि और लग्न (समय) निकाला जाता है। अतः मुहुर्त सबके लिए अलग-अलग निकालना होता है। पूर्व दिशा में उदयीमान राशि को लग्न कहते हैं। मुहुर्त में लग्न का ही महत्व है। चौघड़िया या होरा का नहीं। होरा का उपयोग तब मान्य है जब कोई कार्य किसी विशेष वार में करना हो लेकिन उस वार में मुहुर्त नहीं निकल रहे हों तब यदि शुभ लग्न के समय सम्बन्धित वार के ग्रह का होरा मिल जाते तो उसे ग्राह्य कर लिया जाता है। पर बहुत से ज्योतिषियों को भी ऐसे विकल्पों का ज्ञान नहीं होता।
व्रत-उपवास, जयन्तियों और उत्सवों में पूजा का समय निर्धारित रहता है। उसी निर्धारित समयावधि में ही शुभ लग्न/ स्थिर लग्न देखा जाता है। जैसे श्राद्ध अपराह्न में ही होते हैं। गणेश स्थापना मध्याह्न में ही होना चाहिए। नवरात्र में घटस्थापना सूर्योदय से चार घण्टे में ही होती है। दीपावली को दीपमाला की पूजा प्रदोषकाल में ही होती है। हनुमज्जन्मोत्सव सूर्योदय के समय होना चाहिए न कि, सुबह छः बजे।  रामजन्म मध्याह्न में होना चाहिए न कि दिन के बारह बजे। नृसिंह जन्म सूर्यास्त के समय मनाना चाहिए न कि, नाम छः बजे। जन्माष्टमी का महोत्सव मध्यरात्रि में होना चाहिए न कि, रात बारह बजे। पर कोई मानने को तैयार ही नहीं।

इसलिए किसी भी कार्य की योजना बनाने के पहले सम्भावित मुहुर्त की सुचि तैयार करवा लेवें।फिर योजना बनायें।

बद्रिनाथ मन्दिर में नारायण की पद्मासनस्थ ध्यान मुद्रा में प्रतिमा।

कुछ लोग बद्रिनाथ की पद्मासनस्थ ध्यान मुद्रा में नारायण अवतार की प्रतिमा को ऋषभदेव जी की मूर्ति सिद्ध कर उसे जैन मन्दिर मानने का आग्रह करते हैं।
सनातन धर्मियों की सबसे बड़ी कमजोरी शास्त्राध्ययन का अभाव है। इसलिए वे उत्तर नहीं दे पाते हैं।

स्वायम्भूव मनु के पुत्र प्रियव्रत, प्रियव्रत के पुत्र आग्नीध्र (जम्बूद्वीप के शासक), आग्नीध्र के पुत्र अजनाभ या नाभि  (हिमवर्ष के शासक) जिनने हिमवर्ष का नाम  अजनाभ वर्ष या नाभि वर्ष रखा, और नाभि के पुत्र हुए ऋषभदेव । ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती जिनने अपने नाम पर हिमवर्ष या अजनाभ वर्ष या नाभि वर्ष का नाम भारतवर्ष रखा।
आदिनाथ मतलब उक्त वैदिक ऋषि ऋषभदेव हैं। ऋषभदेव स्वयम् राजर्षि थे । वैदिक ऋषि थे। चौविस अवतारों में अष्टम अवतार ऋषभदेव जी हैं।  ऋषभदेव के समय तक जैन सम्प्रदाय का नामोनिशान तक नहीं था। 
नर नारायण भी चौथे अवतार ही हैं। ऋषभदेव आठवें अवतार हैं। नर नारायण भी तपस्वी थे। ऋषभदेव भी संन्यास आश्रम में तपस्वी हुए।
तो मानलो वह मूर्ति नारायण की न होकर ऋषभदेव की हुई तो है तो भी है तो किसी विष्णु अवतार की ही ना?
इन्दौर जिले की देपालपुर तहसील के बनेडिया का चौबीस अवतार मन्दिर जिसके पास ही जैन मन्दिर भी है, या देपालपुर का सबसे नवीन चौवीस अवतार मन्दिर हो; सभी जगह अवतार ऋषभदेव जी की मूर्ति है। तो क्या वे सभी मन्दिर भी जैनों के हो गये ?
पद्मासन पर ध्यान मुद्रा में भगवान शंकरजी की सेंकड़ों मूर्तियाँ है तो क्या वे सब जैनों की हो गई?
कल से मुसलमान कहने लगे कि, सनातन धर्मी तो अन्त्यैष्टि में शवदाह करते हैं। इसलिए सभी साधु महात्माओं की समाधि मुस्लिमों की है, तो कौन मुर्ख मानेगा?

मंगलवार, 16 नवंबर 2021

पारसियों, यहुदियों, ईसाइयों और इस्लाम का ईश्वर कौन है?

पारसियों का ईश्वर -अहुरमज्द, ऋषि -जरथुस्त्र, ग्रन्थ-जेन्द अवेस्ता।
आदित्य वरुण, पुषा आदि को प्राणवान होने/बलिष्ठ होने तथा सुरापान न करने के कारण वेदों में असुर कहा गया है। अग्नि को विश्वैदेवाः का मुख माना गया है। दस विश्वैदेवाः में एक पुरुरवा भी है। 
पारसियों का ईश्वर अहुरमज्द यानी असुर महत या महाअसुर हैअग्नि को वे अहुरमज्द का प्रतीक/ प्रतिमा मानते हैं। ऋग्वेद में अग्नि को प्रथम पुज्य और यह्व कहा गया है। यह्व का अर्थ होता है महादेव अर्थात देवताओं में वरिष्ठ । मतलब देवताओं में अग्नि बड़ा होनें के कारण प्रथम पूज्य है।

जैसे सवितृ की प्रतिमा सूर्य को माना गया है, वैश्वानर अग्नि को विश्वैदेवाः का मुख माना गया है। विष्णु की प्रतिमा आकाश को माना जाता है। वैसे ही पारसी सम्प्रदाय के अनुसार ईश्वर तो अहुर्मज्द अर्थात महाअसुर है और ईश्वर का प्रतिक चिह्न अग्नि है।
अर्थात पारसियों के लिए अग्नि उनके ईश्वर अहुर मज्द की प्रतिमा है। दस विश्वैदेवाः में एक पुरुरवा भी है। अग्नि को विश्वैदेवाः का मुख माना गया है। अर्थात पुरुरवा से पारसियों का सम्बन्ध भी अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हुआ लगता है।
चन्द्रमा के पुत्र बुध का विवाह वैवस्वत मनु की पुत्री इला से हुआ। इला और बुध का पुत्र पुरुरवा हुआ। बुध की पत्नी इला का पुत्र होनें के कारण पुरुरवा को एल कहा जाता है।

ब्राह्मण ग्रन्थ रचनाकाल तक असीरिया (इराक) के असुरोपासक अर्थात असुर तान्त्रिक भी वेद को पूर्णतः नकारते भी नही थे और पूर्णतः स्वीकारते भी नही थे।  
पाणिनि ने वैदिक भाषा को छन्दस कहा है। पारसी शब्द जेन्द वैदिक  शब्द छन्द का ही रूप लगता है। 
ऐसी मान्यता है कि, अथर्वेद के  ब्राह्मणग्रन्थ अवेस्ता की रचना महर्षि अङ्गिरा ने की थी।अवेस्ता पर  जेन्द व्याख्या/ टीका जरथुस्त्र द्वारा की गई। इसलिए पारसियों का मुख्य धर्मग्रन्थ जो उपलब्ध है वह ग्रन्थ जेन्दावेस्ता कहलाता है। जरथुस्त्र इराक से लगी सीमा के निवासी थे इस कारण असीरिया का  असूरोपासना का प्रभाव उन पर भी था। इस कारण जरथुस्त्र असुरोपासक थे।
अथर्ववेद के ब्राह्मण ग्रन्थ अवेस्ता पर जेन्द व्याख्या असूरोपासक जरथुस्त्र द्वारा की गई। उस जेन्दावेस्ता के ग्रन्थ के आधार पर पारसी सम्प्रदाय का आरम्भ हुआ इसलिए पारसी ईश्वर को अहुरमज्द कहते है।
जैसे यजुर्वेद में ब्राह्मण भाग मिश्रित होनें के कारण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता को कृष्ण यजुर्वेद कहा जाता है उसी आधार पर  जेन्द अवेस्ता की स्थिति भी अथर्ववेद के कृष्ण ब्राह्मण ग्रन्थ जैसी हो गई। क्योंकि, जरथुस्त्र ने अथर्ववेद के ब्राह्मण ग्रन्थ अवेस्ता में जेन्द व्याख्या/ टीका मिश्रित कर दी।इस कारण अवेस्ता का स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। 
चूँकि, मूल ग्रन्थ अवेस्ता अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ था अर्थात अवेस्ता अथर्ववेद का भाष्य ग्रन्थ था। अतः अवेस्ता में वैदिक भाषा और वैदिक मान्यताएँ होना स्वाभाविक ही है। 

यहुदियों और ईसाइयों का ईश्वर-याहवेह (यहोवा), यहुदियों के ऋषि - इब्राहिम, सुलेमान राजा, दाउद, और मूसा । यहुदियों के ग्रन्थ ---  तनख  दाऊद की किताब जुबेर, मूसा की किताब तोराह (बायबल ओल्ड टेस्टामेंट)। ये पुस्तकें सीरिया खाल्डिया  और बेबीलोनिया (इराक) की पुरानी अरामी भाषा ( पश्चिमी आरमाईक) भाषा में लिखित है। हिब्रू भाषा भी अरामी भाषा का रूप ही है।
"हिब्रू बाइबल या तनख़ यहूदियों का मुख्य धार्मिक ग्रन्थ है।[1][2] इसकी रचना 600 से 100 ईसा पूर्व के समय में विभिन्न लेखकों द्वारा विभिन्न देशों में की गई है।[3] असल में हिब्रू बाइबल तीन अलग अलग शास्त्रों का संकलन है। जो कि प्राचीन यहूदी परम्परा का आधार हैं। अतः तनख़ के तीन भाग हैं-"

"निम्नांकित 39 किताबे प्रोटेस्टेंट बाइबिल के पूर्वार्ध (पुराना नियम/ ओल्ड टेस्टामेंट) में हैं, 
"विधान -- १ उत्पत्ति, २ निर्गमन, ३ लैव्य व्यवस्था, ४ गिनती और ५ व्यवस्था विवरण"
"इतिहास --- १ यहोशु २ न्यायियों ३ रूत ४ प्रथम शमुऐल ५ द्वितीय शमुऐल ६ प्रथम राजाओं का व्रतांत ७ द्वितीय राजाओं का व्रतांत ८ इतिहास प्रथम ९ इतिहास द्वितीय"।
"भजन ---  १ एज्रा २ नहेम्याह ३ ऐस्तर ४ अय्यूब ५ भजन संहिता ६ नीति वचन ७ सभोपदेशक ८ श्रेष्ठगीत"।
"नबी --- १ यशायाह २ यिर्मयाह ३ विलापगीत ४ यहेजकेल ५ दानिय्येल ६ होशे ७ योएल ८ आमोस ९ ओबध्याह १० योना ११ मीका १२ नहूम १३ हबक्कूक १४ सपन्याह १५ हाग्गै १६ जकर्याह १७ मलाकी।"
५+९+८+१७ =३९ पुस्तकें।
"यह 39 किताबे प्रोटेस्टेंट बाइबिल के पूर्वार्ध में हैं, तथा कैथोलिक बाइबिल के पूर्वार्ध में 46, जबकि ऑर्थोडॉक्स बाइबिल के पूर्वार्ध में 49 किताबें शामिल हैं। ये चार भागों में विभाजित हैं
ईसाइयों के ऋषि उपर्युक्त के अलावा यीशु। और ईसाइयों के ग्रन्थ उपर्युक्त के अलावा एन्जिल (बायबल नया नियम) यह ग्रीक (युनानी) भाषा में लिखित है।

चन्द्रमा का पुत्र बुध हुआ। और वैवस्वत मनु की पुत्री इला हुई। चन्द्रमा के पुत्र बुध का विवाह वैवस्वत मनु की पुत्री इला से हुआ। इला और बुध का पुत्र पुरुरवा हुआ।  बुध की पत्नी इला का पुत्र होनें के कारण पुरुरवा को एल कहा जाता है।
दस विश्वैदेवाः में एक पुरुरवा भी है। वेदों में अग्नि को विश्वैदेवाः का मुख माना गया है। 
इला का पुत्र एल पुरुरवा चन्द्रमा का पौत्र था। इसलिए पुरुरवा से उत्पन्न जातियों को चन्द्रवंशी  कहा जाता है। जिन्हें अंग्रेजी में सेमेटिक (चन्द्रवंशी) कहते हैं।
ऋग्वेद में अग्नि को प्रथम पुज्य और यह्व कहा गया है। जिसका मतलब महादेव / देवताओं में वरिष्ठ होता है। )
बाइबल पुराना नियम में उत्पत्ति नामक प्रथम पुस्तक से ही यहुदियों (और ईसाइयों) के ईश्वर का नाम याहवेह या यहोवा है।जो संस्कृत के यह्व शब्द से बना है ।
बायबल पुराना नियम में एल ईश्वरवाचक शब्द (जातिवाचक सञ्ज्ञा) है। बाइबल पुराना नियम के अनुसार यहोवा उपर आसमान से उतरता है और मूसा को दर्शन देता है। मुसा उसका तेज नही सह पाता अतः दण्डवत प्रणाम करता है।
बाइबल नया नियम के अनुसार यहोवा ईसा मसीह को अपने सिहासन पर साथ मे बिठाता है।
मतलब यहोवा एकदेशी है, एक लोक विशेष का निवासी है। सिंहासन पर विराजमान होता है अर्थात सर्वव्यापक नही। यहोवा सर्वव्यापी नहीं है अतः जनक, प्रेरक रक्षक नही हो सकता।

इस्लाम का ईश्वर-अल्लाह / इलाही। इस्लाम के ऋषि- मोह मद, इस्लाम की पुस्तके - मुख्य पुस्तक - कुरान, अन्य पुस्तकें- हदीसें।
इस्लाम का ईश्वर (इलाही) को अल्लाह कहा गया है। ईलाही शब्द स्पष्ट रूप से ईला पुत्र पुरुरवा से सम्बन्धित है। और अल्लाह भी ईलाही का दुसरा रूप है। जो सातवें आसमान (स्थान विशेष) पर बैठता है। अतः सर्वव्यापी नही है। अतः जनक, प्रेरक और रक्षक नही हो सकता।
सारांश में निष्कर्ष ---
उक्त सभी में पुरुरवा एक समान रूप से सम्बन्धित है। पुरुरवा के पुत्र आयु का पालन पोषण स्वयम् पुरुरवा को ही करना पड़ा। क्योंकि अप्सरा उर्वशी आयु को जन्म देकर, पुरुरवा को सोपकर इन्द्रलोक/ स्वर्ग को लौट गई थी।
बाइबल पुराना नियम की उत्पत्ति नामक पुस्तक में आदम को भी एल यहोवा के द्वारा उत्पन्न और पालित बतलाया गया है। 

मिश्र के पिरामिड मृगशीर्ष नक्षत्र के ओरायन के प्रतीक हैं। मृगशीर्ष का स्वामी सोम है। मतलब सूर्य पूजा मिश्र का धर्म भी सोम प्रधान है। यहुदियों के मुख्य पेगम्बर मूसा मिश्र में ही जन्में, पले और बड़े थे।

यीशु स्वयम् यहूदी थे।अतः बायबल का ओल्ड टेस्टामेण्ट यहूदी और ईसाई दोनों मत /पन्थों का धर्मग्रन्थ है। जिसे इस्लाम भी स्वीकारता है। इस्लाम बायबल न्यु टेस्टामेण्ट को भी स्वीकारते हैं। तीनों मत/ पन्थों को मुस्लिम भी शरियत में शरीक मानते हैं।
अर्थात तीनों मत/पन्थ एल पुरुरवा को ही ईश्वर मानते हैं।



उक्त लेख का संक्षिप्त रूप में देख सकते हैं, इस ब्लॉग में।⤵️
महा असुर से अहुर मज्द, एल से एल, अल, अल्लाह, इलाही और यह्व से याहवेह (यहोवा)
http://jitendramandloi.blogspot.com/2022/10/blog-post_19.html

"चन्द्रवंश के विस्तृत वर्णन हेतु कृपया मेरा ब्लॉग देखें-
वैदिक सृष्टि उत्पत्ति सिद्धान्त के अन्तर्गत वंश वर्णन विष्णु पुराण के आधार पर।"
http://jitendramandloi.blogspot.com/2021/09/blog-post_22.html

सोमवार, 15 नवंबर 2021

भारत को पुर्ण स्वतन्त्रता 26 जनवरी 1950 को मिली न कि, 2014 में

निर्विवादित रूप से वर्तमान के वामपन्थी (जिन्हें तथाकथित मार्क्सवादी कहा जाता है), वर्तमान में वे भारत विरोधी, भारतीय सनातन संस्कृति और  सनातन वैदिक धर्म के न केवल विरोधी अपितु शत्रु भी हैं यह माननें में मुझे किञ्चित मात्र संकोच नही है।
वहीँ स्वातन्त्र्य आन्दोलन में मुख्य पुरोधा अमर शहीद लाला लाजपतराय, चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह,सुभाषचन्द्र बोस आदि सभी क्रान्तिकारी मार्क्सवादी थे। यह माननें में दक्षिणपन्थियों को संकोच करना गलत है।
क्रान्तिकारी दल का नाम ही हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन था। जिसमें कट्टर आर्यसमाजी और शुद्धिकरण आन्दोलन में मुस्लिमों को पुनः वैदिक धर्म में लानें वाले रामप्रसाद बिस्मिल भी थे उन्हे दक्षिणपन्थी तो कतई नही माना जा सकता।
कार्लमार्क्स प्रथम गैरभारतीय विचारक थे जिनने आर्य आक्रमण थ्योरी और आर्य द्रविड़ थ्योरी का खण्डन कर भारत के मूल निवासी आर्यों को ही माना।जिसे बाद में अम्बेडकर ने भी सही सिद्ध किया।
अब आज के वामपन्थी और भीम-मीम समर्थक बहुजन समाज पार्टि वाले इससे विपरीत मत रखते हैं अतः न उन्हें मार्क्सवादी कहा जा सकता है न अम्बेडकर वादी कहा जा सकता है।
भारतीय स्वातन्त्र्य आन्दोलन में आज के दक्षिणपन्थियों का योगदान से इन्कार नही करता लेकिन उनका योगदान प्रतिशत नगण्य था।
दक्षिणपन्थियों की एक मुख्य संस्था के संस्थापक को ही क्रान्तिकारी सावरकर भी अंग्रेजों का एजेण्ट कहते थे, जिनने सुभाषचन्द्र बोस को सहयोग देनें को राजी नही होकर उन्हें अपना मार्ग बदलकर हिन्दू एकता के लिए कार्य करनें का उपदेश देकर पल्ला छुड़ालिया हो, जिनने क्रान्तिकारियों के लिए तन, मन धन किसी से भी कुछ भी सहयोग नही किया  उन्हें ब्रिटिश विरोधी स्वतन्त्रता आन्दोलन में सहयोगी बोलना सम्भव नही। लेकिन वे लोग सही बोल नही सकते तो बात घुमा रहे हैं।
इसलिए वे स्वतन्त्रता को भीख में मिली घोषित करके आत्मसन्तुष्टि कर रहे हैं।

कंगना उनके ये समर्थक 26 जनवरी 1950 से 2014 के बीच की तुलना नही करते।
15 अगस्त 1947 से 26 जनवरी 1950 तक की स्थिति को ही 15 अगस्त 1947 से 26 जनवरी 1950 के बजाय सीधे 2014 में मान लेते हैं। ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा हमारे देश पर थोपा इण्डियन इण्डिपेण्डेण्ट एक्ट 1947 निरस्त करके 26 जनवरी 1950 का संविधान की अन्तिम धारा अनुच्छेद 395 भारत को पूर्ण स्वतन्त्र सम्प्रभुता सम्पन्न भारत घोषित करता है।
यहाँ कुछ ब्रिटिश भक्त लोग आपत्ति उठाते हैं कि, अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अन्तर्गत इण्डियन इण्डिपेण्डेण्ट एक्ट 1947 निरस्त करने का अधिकार केवल ब्रिटिश पार्लियामेंट को ही है। भारतीय संसद निरस्त नही कर सकती। उसका उत्तर है कि,  इकहत्तर वर्ष पूर्ण हो चुके बहत्तर वर्ष पूर्ण होनें में मात्र दो ढाई माह शेष हैं , ब्रिटेन की सरकार ने अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में आजतक यह आपत्ति नही उठाई। कृपया वे दास जन बतलायें कि, लिमिटेशन एक्ट में ऐसे कितने वर्ष तक का प्रावधान है कि, कोई आपत्ति न लेने पर भी उसका कब्जा बरकरार माना जायेगा। कनाड़ा पर तो ब्रिटेन ने तत्काल सैन्य कार्रवाई कर दी और विजय हाँसिल की। भारत पर क्यों नही की?
वे दासजन चाहते हैं कि, ब्रिटश पार्लियामेंट इण्डियन इण्डिपेण्डेण्ट एक्ट 1947 निरस्त कर देती तो उनकी यह बात प्रमाणित हो जाती की आजादी भीख में मिली। जबकि सच्चाई वे स्वयम जानते हैं कि, ब्रिटेन की सरकार  सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज तथा  भारतीय नौसेना में हुए विद्रोह जिसमें कामरेड डांगे का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा के चलते बिना दस लाख युरोपियन सेन्यबल के भारत पर नियन्त्रण नही रखा जा सकता ; इसी दबाव के चलते अंग्रेजों को भारत छोड़नें के लिए विवश होना पड़ा। और इसी कारण ब्रिटिश शासन-प्रशासन अंग्रेजों के भारत छोड़नें की विवशता में गान्धी कांग्रेस के कार्यक्रमों को महत्वपूर्ण नही मानती।
भारत को आज भी ब्रिटेन का गुलाम घोषित करने वाले ऐसे बेतुके देशद्रोही बयान जारी करनें वाले दासजन विदेशमन्त्री रहकर विदेशी मामलों के विशेषज्ञ मानेजाने वाले भू.पू. प्रधान मन्त्री अटल बिहारी वाजपेई और चाणक्य माने जाने वाले प्रधानमन्त्री नरेन्द्रभाई मोदी पर भी अविश्वास प्रकट कर रहे हैं।
इन्दिरा गान्धी ने बयालीसवें संविधान संशोधन जो 01 अप्रेल 1977 से लागू हुआ तबसे समाजवादी और सेकुलर राष्ट्र घोषित किया। ऐसा 2014 में संविधान में क्या नया हुआ जो पहले नही था। मतलब कुछ नही हुआ। आज भी वही और वैसा ही है जो 1977 में था। यह बात भी कुछ अंग्रेज भक्त दासजन स्वीकारते है।
विदेशनीति परिस्थितियों के अनुसार परिवर्नशील होती है। इसमें किसी भी एक पक्ष का सम्पूर्ण योगदान नही होता। तो विदेशनीति में हुए आंशिक परिवर्तन को स्वतन्त्रता घोषित करना स्वतन्त्रता के अर्थ को ही बदलने का प्रयास मात्र है।
यदि इसे मान्यता दी गई तो भविष्य में भी ऐसे परिवर्तनों पर स्वतन्त्रता प्राप्ति कहा जायेगा।
अतः भारत शासन का दायित्व है कि, वह स्पष्ट करे कि, पूर्ण स्वतन्त्रता 26 जनवरी 1950 को मिली। और उसके बाद सम्प्रभुता में कोई परिवर्तन नही हुआ और सम्पूर्ण सम्प्रभु होने के बाद सम्प्रभुता में कोई और विकास होना सम्भव ही नही है।

मंगलवार, 2 नवंबर 2021

हनुमान जयन्ती

हनुमान जयन्ती की वास्तविक तिथि के विषय में बहुत भ्रम है।

उत्तर भारतीय चैत्र पूर्णिमा को सूर्योदय के समय हनुमान जयन्ती मनाते है। इस दिन प्रायः चन्द्रमा चित्रा नक्षत्र पर रहता है।

उड़ीसा में निरयन मेष संक्रान्ति (वर्तमान में 13/14 अप्रेल) को मनाते हैं। इस दिन सूर्य केन्द्रीय ग्रहों में (मध्यम ग्रह) में भूमि चित्रा नक्षत्र पर रहती है।

अयोध्या के हनुमान गड़ी मन्दिर में अमान्त आश्विन पूर्णिमान्त कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी (काली चौदस/ रूप चौदस) को सूर्यास्त के समय मेष लग्न में हनुमान जयन्ती मनाते हैं। इस दिन भी प्रायः चन्द्रमा चित्रा नक्षत्र पर रहता है।
मतलब चित्रा तारे का हनुमान जन्म से घनिष्ठ सम्बन्ध है।
लेकिन;
कर्नाटक में मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी को हनुमान व्रतम् मनाते हैं। ज्ञातव्य है कि, हनुमान जी का कार्यक्षेत्र कर्नाटक के हम्पी क्षेत्र में ही रहा। सम्भवतः कर्नाटक के हम्पी से 15 किलोमीटर दूर अनेगुड़ी (अञ्जनी) गाँव में स्थित अञ्जनाद्री पर्वत पर पर्वतीय किलेनुमा स्थान पर स्थित मन्दिर को हनुमानजी का जन्मस्थान मानते हैं। रा.स्व.से.संघ नें वहाँ हनुमान जन्मस्थली मन्दिर बनाने हेतु एक सौ बीस करोड़ रुपए का फण्ड तैयार कर रखा है।

तमिलनाडु में अमान्त मार्गशीर्ष अमावस्या* को हनुमथ जयन्ती पर्व मनाया जाता है।

*आन्ध्र* प्रदेश और *तेलङ्गाना* मे चैत्र पूर्णिमा से दीक्षा आरम्भ कर 41 से दिन पश्चात *अमान्त वैशाख पूर्णिमान्त ज्येष्ठ कृष्ण दशमी* को हनुमान जयन्ती मनाते हैं। और पर्व का समापन करते हैं। तो
ध्यातव्य है कि, तिरुमला तिरुपति देवस्थानम तिरुमला स्थित अञ्जनाद्री पर्वत पर स्थित अञ्जनी मन्दिर को हनुमान जन्मस्थली मानता है।

अस्तु;
हनुमानजी का जन्म के समय चित्रा नक्षत्र महत्वपूर्ण माना जा रहा है अतः जिस समय मध्यम ग्रह (सूर्य केन्द्रीय ग्रहों) में भूमि चित्रा नक्षत्र पर रहती है अर्थात निरयन मेष संक्रान्ति को हनुमान जी का जन्म दिन माना जा सकता है। या निरयन तुला संक्रान्ति को हनुमानजी का जन्म दिन मान सकते हैं जिस दिन सूर्य चित्रा तारे पर रहता है। काली चौदस/ रूप चौदस इसी समय पड़ती है।
या फिर चैत्र पूर्णिमा तो है ही, जिस दिन चन्द्रमा चित्रा नक्षत्र पर रहता है। या
निष्कर्ष ---
वसन्त सम्पात के समय सायन मेष संक्रान्ति (20/21 मार्च) को हनुमानजी का जन्म हुआ हो सकता है। और श्री रामचन्द्र जी का जन्म भी वसन्त सम्पात के समय   सायन मेष संक्रान्ति (20/21 मार्च) को हुआ था।  
जिसदिन सूर्य भूमध्य रेखा पर होनें से दिनरात बराबर होते हैं। उत्तरीध्रुव पर सूर्योदय होता है, दक्षिण ध्रुव पर सूर्यास्त होता है।

सूर्य क्रान्तिवृत्त में जिस तारे से आरम्भ होता है अगले वर्ष उस तारे से 50.3' पीछे (पश्चिम में)  आता है। इस अयन चलन के कारण 25778 वर्ष में सूर्य क्रान्तिवृत्त में पूरा 360° घूम जाता है। इससे निरयन मेष संक्रान्ति और सायन मेष संक्रान्तियों में लगभग 71 वर्ष में एक अंश का अन्तर होने से लगभग एक दिन का अन्तर पड़ जाता है। ग्रेगोरियन केलेण्डर सायन मान से चलता है अतः निरयन संक्रान्ति एक दिन बाद होती है। सन 285 ई. में 22 मार्च को वसन्त सम्पात  अर्थात् सायन मेष संक्रान्ति और निरयन मेष संक्रान्ति एक साथ पड़ी थी। जिसमें अब 24° अर्थात 24 दिन से अधिक का अन्तर पड़ गया। 
चूँकि, चैत्र वैशाखादि निरयन सौर संस्कृत चान्द्रमास भी निरयन संक्रान्तियों पर आधारित है अतः वर्तमान में सायन संक्रान्तियों की तुलना में 24 दिन का अन्तर पड़ता है। इसी अन्तर के परिणाम स्वरूप सायन मेष संक्रान्ति कभी चैत्र पूर्णिमा को तो कभी मार्गशीर्ष अमावस्या को पड़ती रही है। इस कारण हनुमान जयन्ती कि तिथियों में बहुत अन्तर देखनें को मिलता है।
हनुमान जी का जन्म यदि त्रेता युग समाप्त होने के मात्र सौ वर्ष पहले भी माना जाए तो;
 त्रेता के अन्तिम सौ वर्ष+ द्वापर युग के आठ लाख चौंसठ हजार वर्ष + वर्तमान कलियुग संवत 5125 वर्ष कुल मिलाकर आठ लाख उनहत्तर हजार दो सौ पच्चीस वर्ष (8,69,225 वर्ष) से अधिक समय पहले हनुमान जी का जन्म हुआ होगा।
फिर भी एक जन्मस्थान आन्ध्र प्रदेश का तिरुमला तिरुपति हो या कर्नाटक में हम्पी के निकट अनेगुड़ी (अञ्जनी) गाँव कोई एक स्थान और निरयन मेष संक्रान्ति (14 अप्रैल) या सायन मेष संक्रान्ति (21 मार्च)या चैत्र पूर्णिमा नियत किया जावे।

बुधवार, 13 अक्टूबर 2021

नवरात्र मे देव्याराधन-उपासना में किन किन देवियो के नामोल्लेख मिलते हैं?


देवियों के नामों सुची -- जिनकी पूजा नवरात्र में होती है।

वैदिक दृष्टि से सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति का निमित्तोपादान कारण परमात्मा ही है। परमात्मा ने अपने ॐ संकल्प से स्वयम् को प्रज्ञात्मा परब्रह्म स्वरूप में प्रकट किया। इसी प्रज्ञात्मा को अध्यात्मिक दृष्टि से परम दिव्य पुरुष और पराप्रकृति कहते हैं और परब्रह्म को विष्णु और माया के आधिदैविक स्वरूप में जानते हैं।

ये विष्णु माया ही प्रथम आदिदेवी हैं। अन्य सभी देवियाँ इन माया देवी के ही अंशभूत स्वरूप हैं। जो क्रमशः (पराप्रकृति) माया -> (प्रकृति) सावित्री-> (अपरा त्रिगुणात्मक प्रकृति) श्रीलक्ष्मी-> (धारयित्व) रचना (वाणी/ब्राह्मी)  -> (आभा) सरस्वती -> (विद्युत) शचि -> (वृति/ चेत) प्रभा -> (मेधा) देवी -> (अस्मिता) उमा -> (संकल्प) शतरूपा -> (स्वभाव) भारती -> (स्वाहा) मही, (वषट) सरस्वती, (स्वधा) ईळा -> तुषिताएँ, मरुताएँ, रौद्रियाँ,-> सिद्धियाँ, रचना और वैनायकी।

तन्त्रशास्त्र का सर्वस्वीकृत प्रामाणिक ग्रन्थ दुर्गा सप्तशती जो मार्कण्डेय पुराण से उद्धृत है।
दुर्गा सप्तशती के अनुसार  भी

 1 मधुकैटभ से रक्षा के लिए नारायण को योगनिद्रा से जाग्रत करने हेतु हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी ने योगनिद्रा की स्तुति की। नारायण के नैत्रों से योगनिद्रा दशभुजा महाकाली स्वरूप में प्रकट हुई। इन्हें दुर्गासप्तशती में महाकाली अवतार भी कहा है। ये महाकाली (श्रीलक्ष्मी) देवी ही आदि शक्ति मानी गई है।  प्राकृतिक रहस्य में इनके अन्यनाम योगमाया, योगनिद्रा, तामसी और नन्दा (नन्द यशोदाजी की पुत्री / विन्द्यवासीनि देवी) भी कहा है।
अन्य सभी देवियाँ इन्ही आदिशक्ति योगमाया अपरा प्रकृति श्रीलक्ष्मी के ही स्वरूप या अवतार हैं। जो क्रमशः इस प्रका है।

2  महामाया के  परम्परागत प्रचलित स्वरूप - सावित्री देवी, श्री देवी, लक्ष्मी देवी, सरस्वती देवी (ब्राह्मी), उमा - पार्वती (माहेश्वरी) देवी, ऐन्द्री, (कार्तिकेय की शक्ति) कौमारी, तथा अवतारों की शक्ति वाराही और नारसिंही के अलावा निम्नांकित देवियोंका वर्णन है।
3 महिषासुर से रक्षार्थ देवताओं की स्तुति पर देवताओं के तेज के संयुक्तिकरण से प्रकट हुई महालक्ष्मी अवतार। 
दुर्गासप्तशती अध्याय दो मध्यम चरित्र में इनको चण्डिका, अम्बिका, और जगदम्बा भी कहा है। प्राकृतिक रहस्य में रक्त दन्तिका भी महालक्ष्मी अवतार को ही बतलाया गया है। इनकी सहस्त्रों भुजाएँ बतलाई गई है लेकिन मुर्तिरहस्य के अनुसार प्रतिमाओं और चित्रों में  बहुरङ्गी, अष्टादश भुजा वाली बतलाई जाती है। द्वितीय अध्याय मध्यम चरित्र के अनुसार चण्डिका ने तलवार से महिषासुर का सिरकाटा था किन्तु प्रतिमाओं में प्रायः शूल (भाले) से महिषासुर का सीना बिन्धते हुए बतलाते हैं।
महिषासुर वध के पश्चात देवताओं की स्तुति पर भविष्य में भी देवताओं के आव्हान पर प्रकट होकर सहायता का आशिर्वाद प्रदान किया था। अतः
 
4 शुम्भ निशुम्भ से रक्षणार्थ हिमालय पर एकत्र हो देवताओं को पुकार करते देख पार्वतीजी ने देवताओं से पुछा कि, आपलोग किसका स्तवन कर किसको पुकार रहे हैं? तब देवताओं के उत्तर देनें के पूर्व ही पार्वतीजी के शरीर कोश से अत्यन्त गौरवर्ण अति सुन्दर, कौशिकी देवी प्रकट हुई; उन कौशिकी देवी ने ही पार्वतीजी को उत्तर दिया कि, ये स्तुति द्वारा मुझे पुकार रहे हैं। पार्वती जी के शरीर कोश से प्रकट होनें के कारण ही इनका नाम कौशिकी पड़ा।
कौशिकी को दुर्गा सप्तशती अध्याय तीन, पाँच, सात, आठ और ग्यारह तथा प्राकृतिक रहस्य में कात्यायनी, चण्डी, दुर्गा और शाकम्भरी भी कहा गया है।

5 पार्वतीजी के शरीर कोश से कौशिकी के प्रकटीकरण से माता पार्वतीजी एकदम काली पड़ गई। शिवजी उन्हें कृष्णा (कालीका) कहकर चिड़ाते थे। ये चूँकि हिमालय के गड़ में विचरती थी अस्तु गड़कालिका भी कहलाई। इसप्रकार पार्वती देवी का ही नाम कालिका और गड़कालिका हुआ।

6 उक्त कौशिकी चण्डी, कात्यायनी, दुर्गा के आव्हान पर  पूर्व से अस्तित्व में रही निम्नलिखित  देवियाँ कौशिकी चण्डी देवी के शरीर से प्रकट हुई और पुनः उनमें ही लय होगई। ---
(क) दक्षयज्ञ विध्वन्स के लिये शिवजी नें पार्वतीजी की प्रसन्नता के लिए जिन वीरभद्र और भद्रकाली को नियुक्त किया था वे ही भद्रकाली
सप्तमोsध्याय मे - चण्डी देवी के क्रोध से तुरन्त कालीदेवी के रूप में प्रकट हुई। इन कालीदेवी का स्वरूप ऐसा बतलाया गया है मानो अस्थिकंकाल पर चर्म लिपटा हो। ये अत्यन्त काली हैं। इनका मुख अति विशाल और भयंकर है। ये नरमुण्डों की माला धारण करती हैं। इनका शस्त्र तलवार, पाश और खट्वाङ्ग है। और चीते के चर्म की साड़ी पहनतीं हैं। ये रथ सहित दैत्यों का भक्षण कर जाती हैं। इन्हे ही प्राकृतिक रहस्य में  कालरात्रि, निऋति, दुरत्यया, एकवीरा, महामारी, निद्रा,तृष्णा, क्षुधा, तृषा कहा है। ये ही ज्यैष्ठा,  अलक्ष्मी, शीतला (ज्वर) भी कहलाती है। चण्ड मुण्ड की गरदन काटकर उनके मुण्ड चण्डी को भेट करने के कारण चण्डी कौशिकी ने इन्हें चामुण्डा नाम दिया।

7 अष्टमोsध्याय मे- ब्राह्मी (ब्रह्माणी), शिवा (माहेश्वरी), कौमारी (कार्तिकेय जी की शक्ति), नारायणी (वैष्णवी), वाराही, नारसिंही और ऐन्द्री भी सहायतार्थ उपस्थित हुई।

8 अष्टमोsध्याय मे ही-  चण्डिका शक्ति जिन्हें  शुम्भ निशुम्भ के पास शिवजी को  दूत बनाकर भेजने के कारण शिवदूती भी कहा गया है प्रकट हुई। ये चण्डिका शक्ति/ शिवदूती सेकड़ों गिदड़ियों के समान उच्च स्वर निकालती है।ये चौसठ योगिनियों की प्रमुख हे। प्राकृतिक रहस्य मे उल्लेखित भ्रामरी देवी भी ये ही ह़ै। भ्रामरी देवी के छः पेर हैं। 
इस प्रकार दुर्गा सप्तशती में उक्त देवियों के चरित्र वर्णन हैं। इन सबकी आराधना-उपासना नवरात्र में होती है।

देव्य कवच में देवी के  निम्नलिखित नाम  दुर्गासप्तशती में उल्लेखित नामों के अलावा आये हैं।
लेकिन वर्ष 2000 ईसवी के बाद से मिडिया ने ना जानें क्यों  केवल तृतीय से पञ्चम श्लोक तक में उल्लेखित नौ दुर्गा के नामों का महत्व बड़ा दिया है।
"प्रथमम् शैलपुत्री, च द्वितीयम् ब्रह्मचारिणी, तृतीयम् चन्द्रघण्टेति, कुष्माण्डेति चतुर्थकम् ।3
पञ्चम स्कन्दमातेति, षष्टम कात्यायनीति च,सप्तम कालरात्रीति, महागौरीति चाष्टकम्।4
नवमम् सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः, उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना।5"
बिना किसी आधार के देवी के उक्त अलग-अलग नौ नामों को देवी न उक्त अलग-अलग देवियाँ घोषित कर दिया। फिर उन्हें नवरात्र की नौ तिथियों की अलग-अलग तिथियों की अलग अलग पूजनीय देवी घोषित कर दिया गया। इसका सिरपेर आजतक कोई भी नही बतला पाया कि, नौदुर्गा के इन नामों का अलग-अलग तिथियों से क्या सम्बन्ध है? पर जन समान्य नें इसे आँखमून्द कर मान लिया।
कवच में आये देवी के  नाम  ---
1 शैलपुत्री (माहेश्वरी), 2 ब्रह्मचारिणी (ब्रह्माणी), 3 चन्द्रघण्टा (सम्भवतया वाराही), 4 कुष्माण्डा (वैष्णवी), 5 स्कन्दमाता (पार्वतीजी या स्कन्द शक्ति कौमारी), 6 कात्यायनी (लक्ष्मी),7 कालरात्रि (चामुण्डा), 8महागौरी ( कौशिकी), 9सिद्धिदात्री ( ऐन्द्री या वैनायकी) हैं। इनके अलावा भी कवच में निम्नलिखित नाम और उल्लेख हैं। ---
10 स्वाहा (अग्निशक्ति),11 वारुणी, 12 मृगवाहना, 13 शूलधारिणी, 14जया, 15 विजया, 16अजिता, 17 अपराजिता, 18 उद्योतिनी, 19 उमा, 20मालाधरी, 21 यमघण्टा, 22 शंखिनी, 23 द्वारवासिनी, 24 सुगन्धा, 25 चर्चिका, 26 अमृतकला, 27  चित्रघण्टा, 28 कामाक्षी, 29  सर्वमङ्गला, 30 भद्रकाली, 31 धनुर्धरी, 32 नीलग्रीवा, 33 नलकुबरी,  34 खड्गिनी, 35 वज्रधारिणी,  36 दण्डिनी, 37 शुलेश्वरी, 38 कुलेश्वरी, 39 महादेवी, 49 शोकविनाशिनी, 41 ललिता, 42 गुह्येश्वरी, 43 पुतना, 44 कामिका, 45 महिषवाहिनी, 46 भगवती, 47 विन्द्यवासीनी,  48 महाबला, 49 तैजसी, 50 श्रीदेवी, 51 द्रंष्टाकराली, 52 उर्ध्वकेशिनी, 53 कौबेरी, 54 वागीश्वरी, 55 पार्वती,  56 मुकुटेश्वरी, 57 पद्मावती, 58 चूड़ामणि, 59  ज्वालामुखी, 60 अभेद्या, 61 छत्रेश्वरी,  62 धर्मधारिणी, 63  वज्रहस्ता, 64 कल्याणशोभना, 65 योगिनी, 66 नारायणी, 67 वैष्णवी, 68 चक्रिणी, 69 इन्द्राणी, 70 सुपथा, 71 क्षेमकरी नाम  आये हैं।

इनके अलावा कुछ कष्टकारी योनियों के नाम भी आये हैं-- भूचर (ग्रामदेवता), खेचराः (आकाशचारी), जलज,उपदेशिका (उपदेश मात्र से सिद्ध होजाने वाले), सहजा, (जन्म के साथ प्रकट होनें वाले देवता), कुलजा (कुलदेवता), माला (कण्ठमाला), डाकिनी, शाकिनी (शक जाति की), महाबला, ग्रह, भूत, पिशाच, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, ब्रह्मराक्षस, वैताल, कुष्माण्ड (विनायक), भैरव आदि।

और अर्गलास्तोत्रम्  के प्रथम श्लोक 
ॐ जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी, दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते।
की ग्यारह देवियों को कोई महत्व क्यों नही दिया गया? यह भी समझ से परे है। और अष्टोत्तरशतनाम में तो 108 नाम हैं। उनका क्या तर्क। क्या उन्हें नक्षत्र चरण से जोड़ोगे?
वस्तुतः पूरे नवरात्र की सभी नौ तिथियों में उक्त सभी देवियों की पूजा, आराधना, उपासना होती है।

शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2021

क्या शंकराचार्य वास्तव में जगत को मिथ्या मानते थे? क्या मिथ्या और असत् पर्यायवाची है?

एक भारतीय के विचार

 क्या शंकराचार्य वास्तव में जगत को मिथ्या मानते थे? क्या मिथ्या और असत् पर्यायवाची है? 

क्या शंकराचार्य वास्तव में जगत को मिथ्या मानते थे?
 जी हाँ,आद्यशंकराचार्य जी वास्तव में जगत को मिथ्या ही मानते थे।
आद्यशंकराचार्य जी वेदज्ञ थे, वेदिकमतावलम्बी थे अतः उनने निरालम्बोपनिषद का वाक्यांश ब्रह्मसत्यम् जगत्मिथ्या;जीवो ब्रह्म ना परः का उल्लेख अपनी ब्रह्मज्ञानावलिमाला में किया है। 
 जगत जब मिथ्या है तो क्या जगत असत है? 
 उत्तर होगा नही। जगत असत भी नही है।
 यह प्रश्न स्वाभाविक है उत्पन्न होता है कि, प्रत्यक्ष अनुभव होनें वाला जगत असत तो हो नही सकता है। तो मिथ्या कैसे है?
 तो क्या उपनिषद वाक्य गलत है ?
 नही भाई! असत कहाँ कहा है?  मिथ्या कहा है। असत नही कहा।  मिथ्या और असत दो भिन्न अवधारणा है। 
 मिथ्या का तात्पर्य जो जैसा हो नही, वैसा दिखे। जैसा हो वैसा दिखे नही। जो दिखे, यथार्थ में वैसा हो नही। जो हो वह दिखे नही।
जैसे ट्रेन/ बस में यात्रा के समय पथ के किनारे के वृक्ष पीछे भागते दिखते हैं। और दूरस्थ वृक्षावली चाप बनाती हुई प्रतीत होती है।  यह आप भी जानते हैं कि, यह मात्र भ्रम है, यह दृष्य मिथ्या है फिरभी बच्चे उस दृष्य का मजा लेते हैं। और आप हाँ में हाँ मिलाने के बजाय आप उन्हें उसका विज्ञान समझाते हैं।  यही कार्य श्रुति वाक्य के सहारे से शंकराचार्य जी ने किया है।

मिथ्या शब्द असत से भिन्न है। *मिथ्या का मतलब असत्य नही होता।  प्रतीत होने वाली वस्तु असत नही सत्य सी लगती है। जबकि दिक, काल (अर्थात जगत) प्रतिक्षण बदलता रहता है। और हम अपने मस्तिष्क की मेधाशक्ति के बलपर उस सतत् परिवर्तनशील दिककाल (जगत) में सातत्य अनुभव करते हैं। बदलनें के पहले हम उस दृष्य को स्मृति में बिठा चुके होते हैं। यह इतना तिवृ और स्वाभाविक होता है कि, हम उसे अपना कर्म नही मान पाते हैं। यह प्रतीति है यही मिथ्यात्व है।
जगत हर क्षण बदल जाता है लेकिन उसमें सातत्य आभास के कारण वह सत्य भासता है अतः जगत मिथ्या ही है।
जैसे सिनेमा की रील को देखो तो उसमें दृष्य अनेक खण्ड में विभक्त है। क्योंकि, केमरा जड़ है, उसका कोई संस्कार नही है अतः केमरा प्रति क्षण के अलग अलग चित्र पकड़ता है। लेकिन जब मशीन से निर्धारित समय एक सेकण्ड में लगभग सोलह दृष्य क्रमबद्ध आँखों के सामने से गुजरते हैं तो वे हमें  चलायमान भासित  होते है। जबकि वे सब स्थिर और अलग अलग दृष्य हैं। इसीको मिथ्या कहते हैं। 
वेदान्त की भाषा में न रज्जु असत्य है न सर्प असत्य है  लेकिन अल्प प्रकाश की स्थिति में होने वाला सर्परज्जु भ्रम मिथ्या है।
 परमात्मा को ही जगत का निमित्तोपादान कारण कहने वाले, माया को विष्णु की शक्ति और विष्णु के अधीन बतलाने वाले, माया को सत असत अनिर्वचनीय कहने वाले, जीवो ब्रह्म न परः कहकर अद्वैत प्रतिपादित करनें वाले आद्यशंकराचार्य जी जगत को असत कहें यह सम्भव तो नही । जैसे सत्य और ऋत अति निकट होने के कारण कई विद्वान भी ऋत को सत्य मान बैठते हैं वैसे ही मिथ्या भ्रम के निकट का शब्द है। 
 हाँ यह निश्चित है कि माया समय का कारण विष्णु है अतः वे त्रेतवादियों के समान शंकराचार्य जी माया को अनादि अनन्त नही मानते थे। अर्थात जगत को भी अनादि, अनन्त नही मानते थे।
 शंकराचार्य जी के मत मे परमात्मा के अतिरिक्त कुछ है ही नही और परमात्मा तो परम सत्य है और जब परमात्मा ही जगतरूप में प्रकट हुआ तो परमात्मा का जगतरूप असत कैसे हो सकता है? लेकिन इसकी परिवर्तनशीलता के कारण यह मिथ्या भी है। 
 दृष्यमान परिवर्नशील जगत के दृष्यों में लगाव रखना तो अनुचित ही है ना? अतः इस अनुचित वर्ताव से सावधान करनें हेतु जगत का मिथ्यात्व दर्शाना आचार्य का महत्वपूर्ण कार्य था।

बुधवार, 6 अक्टूबर 2021

आश्विन शुक्लपक्ष के तिथि, व्रतपर्वोत्सव निर्णय। निर्णय सिन्धु के अनुसार।

निर्णयसिन्धु के द्वितीय परिच्छेद /  आश्विन शुक्लपक्ष/ नवरात्र आरम्भ निर्णय प्रकरण पृष्ठ 330 
तिथितत्त्व में और देवीपुराण में भी कहा है कि - प्रातःकाल में देवी का आवाहन करे। प्रातःकाल में ही प्रवेश करे। प्रातःकाल में ही पूजन करे और प्रातःकाल में ही विसर्जन करे।
प्रष्ठ 331 लल्ल ने कहा है कि,  तिथि ही शरीर है, तिथि ही कारण है, तिथि ही प्रमाण है और तिथि ही साधन है।
पृष्ठ 334  नवरात्र में तिथि क्षय होने के कारण  आठ रात होने मे दोष नही है।
प्रकरण - कलशस्थापनम् रात्रो न कार्यम्। पृष्ठ 335 
 मत्स्य पुराण का कथन है कि, --- कलशस्थापन रात्रि में न करे।
रात्रि में कलश स्थापना और कुम्भाभिषेचन नही करना चाहिए।
विष्णुधर्म में कहा है कि, सूर्योदय से आरम्भ कर दशनाड़ी (दस घड़ी) तक (अर्थात चार घण्टा के अन्दर ही)  स्थानारोपण आदि करें। स्थानारोपण आदि के लिए प्रातःकाल कहा है।
पृष्ठ 345 
यदि नवरात्र पूजन का संकल्प ले चुके हो और उसके बाद जन्म, मरण अशोच (सूतक) लगने पर भी नवरात्र पूजन दानादि यथावत जारी रखें। किन्तु रजस्वला स्त्री दूसरे से पूजन करावे।
हेमाद्रि व्रत खण्ड में गरुड़ पुराण का वचन है कि, 
सौभाग्यवती स्त्रियों को नवरात्र में गन्ध, अलंकार,  ताम्बूल(पान), आदि चबाने, पुष्पमाला, अनुलेपन, दन्तधावन, और अभ्यञ्जन की अनुमति है। सौभाग्यवती स्त्रियों के द्वारा नवरात्र में गन्ध, अलंकार,  ताम्बूल(पान), आदि चबाने, पुष्पमाला, अनुलेपन, दन्तधावन, और अभ्यञ्जन से उपवास दूषित नही होता है।
पृष्ठ346   निर्णयामृत में देवी पुराण का वचन है कि, शिष्टमत यह है कि,
आश्विन शुक्ल पक्ष के मूल नक्षत्र के आद्यपाद में दुर्गासप्तशती पुस्तक में सरस्वती का स्थापन करे। पूर्वाषाढ़ा में पूजन करे। उत्तराषाढ़ा में बलि दे (धार्मिक कर अदा करे।) तथा श्रवण नक्षत्र के प्रथम पाद में सरस्वती का विसर्जन करे।
पृष्ठ 347 विद्यापति का लिखित वचन है कि, देवता का शरीर तिथि है।और तिथि में नक्षत्र आश्रित है।इसलिए। तिथि की प्रशंसा करते हैं। तिथि के बिना नक्षत्र की प्रशंसा नही करते हैं।
यही बात देवल ने कही है कि, तिथि तथा नक्षत्र के योग में दोनों ही का पालन करे। दोनों का योग न हो तो देवी पूजनकर्म में तिथि को ही ग्रहण करना चाहिए।
पृष्ठ 347 हेमाद्री में कहा है कि, 
प्रतिपदा से नवमी तक उपवास करनें में असमर्थ हो तो सप्तमी, अष्टमी और नवमी तिथियों में त्रिरात्र मे उपवास करें।
पृष्ठ 349 गोविन्दार्णव में देवीपुराण का मत है कि, नवरात्र करनें मैं अशक्त हो तो त्रिरात्र (सप्तमी, अष्टमी, नवमी) या एकरात्र (केवल नवमी तिथि)  को जो भक्त करता है उसे इच्छित फल देती हूँ।
मुर्तिस्थापनेदिकविचारः   प्रकरण  पृष्ठ 350
दुर्गा भक्ति तरङ्गिणी में देवी पुराण का मत है कि, देवी मुर्ति स्थापना में दक्षिणाभिमुखी दुर्गा की मुर्ति सदा स्थापना के लिए उत्तम है। तथा उत्तराभिमुखी दुर्गा की मुर्ति स्थापना न करे।
पृष्ठ 354 355 शरदकाल में नवमीतिथि से युक्त महाअष्टमी पूज्य होती है। सप्तमी युक्त अष्टमी तिथि नित्य शोक तथा सन्ताप करनें वाली होती है।पुत्र पौत्र, पशुओं और राज्य का नाश करती है।  
घटिका मात्र भी औदयिकी अष्टमी तिथि ग्रहण करें।
देवल ने भी कहा है कि, व्रत और उपवास में एक घड़ी भी उदिया तिथि ग्रहण करें।
मदनरत्न का वचन है कि, अष्टमी तिथि में सूर्योदय होने पर तथा दिनान्त में नवमी तिथि हो तथा उसदिन यदि मङ्गलवार भी हो तो उस दिन प्रयत्न करके भी पूजन अवश्य करें।
पद्मपुराण का मत है कि,अष्टमी तिथि नवमी से युक्त हो या नवमी तिथि अष्टमी तिथि से युक्त हो और यही तिथि मूल नक्षत्र से युक्त हो तो उसे महानवमी कहते हैं।
हेमाद्रि का वाक्य है कि, आश्विन शुक्ल पक्ष में मूल नक्षत्र से युक्त अष्टमी तिथि नवमी युक्त अष्टमी महानवमी कहलाती है।
निर्णयामृत के दुर्गोत्सव में कहा है कि, मूल नक्षत्र युक्त भी लेशमात्र भी सप्तमी तिथि से युक्त अष्टमी तिथि त्याज्य है।
प्रष्ठ 356 अष्टमी तिथि में ही सूर्यास्त हो जाये तब भी अष्टमी युक्त नवमी तिथि में ही पूजा होती है। दशमी युक्त नवमी में नही।

पृष्ठ 357
हेमाद्री में और निर्णयामृत में भविष्य पुराण का मत है कि, कन्या के सूर्य में शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से युक्त और मूल नक्षत्र से युक्त आश्विन शुक्ल पक्ष की  नवमी महा नवमी कहलाती है।
पृष्ठ 365
 उदिया नवमी तिथि मे महानवमी पूजन तभी करें जब उदिया नवमी तिथि सूर्यास्त के तीन मुहूर्त (2 घण्टा 24 मिनट) के बाद समाप्त होकर दशमी तिथि लगे।
यद्यपि हेमाद्री मत में दो मुहुर्त का भी वेध है।तथापि वह सूर्योदय से ही है। सायंकाल में तो तीन मुहूर्त का ही वेध होता है। उसी बात को दीपिका में भी कहा है कि, सायंकाल में तीन मुहुर्त तिथि हो तो सम्पूर्ण तिथि जाने। माधव ने भी कहा है कि, सायंकाल में तो इससे तीन मूहुर्त के योग में पहली/ उदिया नवमी तिथि लें।
अन्यथा नवमी तिथि दशमीतिथि से युक्त कभी भी न करें।  स्कन्दपुराण में भी परा (उदिया) नवमी तिथि का निषेध है।
निर्णय -  तीन मुहूर्त का योग न होने से तो निषिद्धा भी परा ही(उदिया नवमी तिथि)ही करे यह निष्कर्ष (सिद्धान्त) है।
संग्रह में कहा हैकि,  मे, जप तथा होम नवमी तिथि या श्रवण नक्षत्र में समाप्त करे।
देवी पुराण में कहा है कि, व्रत, जागरण तथा विधिवत (धार्मिक कर अदायगी रूप) बलि नवमी में करें।
पृष्ठ 366
कामरूप निबन्ध में कहा है कि, अष्टमी तिथि के अवशिष्ठ भाग (बचे हुए भाग) में और नवमी तिथि के पूर्वभाग में ही की हुई पूजा महाफल को देनें वाली है।
नवरात्र पारण निर्णय पृष्ठ 372
हेमाद्री में धौम्य का वचन है कि, आश्विन मास के शुक्लपक्ष में नवमी तिथि समाप्ति तक नवरात्र करें या सप्तमी, अष्टमी, नवमी का त्रिरात्र करें। नवरात्र पारण दशमी तिथि में करें।
नवमी तिथि पर्यन्त वृद्धि से पूजा जप  (कन्या भोज) आदि करें। नवमी पर्यन्त भूतपूजादि प्रधान कर्म है। उपवास तो पूजा का अङ्ग है।
कोई शंका करे कि, तिथि के ह्रास (घट जाने) में आठ उपवास होंगे -  यथा समाख्या (नाम) कैसे होगा।
इसमें कर्म विशेष में नवरात्र शब्द रूढ़ है। इसलिए देवी पुराण में कहा है कि, तिथि वृद्धि मेंऔर तिथि के ह्रास में नवरात्र शब्द ठीक नही है।
तिथि के ह्रास में भी नव तिथियों का उपोष्यत्व होनें से (अर्थात नौ दिन) मानना मूर्ख का कथन परास्त हुआ।
पृष्ठ 374
यज्ञ में वरण का प्रारम्भ होना, व्रत और सत्रयाग में संकल्प का होना, विवाह आदि में नान्दीमुख श्राद्ध होना और श्राद्ध में पाक (पिण्ड का पाक बनना) की क्रिया होनें पर अशौच (सूतक) नही होता।
विजया दशमी निर्णय -- पृष्ठ 377
सूर्योदय कालीन आश्विन शुक्ल दशमी विजयादशमी कहलाती है। इसमें मुख्य कर्म अपराह्न का है। प्रदोष तो गौण है।
दोनो दिन अपराह्न व्यापि हो तो पूर्वा (उदिया दशमी) में विजया दशमी होगी। इसमें प्रदोष व्याप्त में आधिक्य होने से।
दोनों दिन प्रदोष व्यापि हो तो परा ग्रहण करें। क्योंकि अपराह्न व्याप्ति के आधिक्य होने से।
दोनो दिन में अपराह्न के अस्पर्श में तो पूर्वा (उदिया दशमी तिथि) ही लें। किन्तु दोनो दिन में अपराह्न के अस्पर्श में यदि दूसरे दिन श्रवण नक्षत्र का योग हो तो ही परा ही लें।
आश्विन पूर्णिमा निर्णय -- पृष्ठ 378
 आश्विन पूर्णिमा परा ही ग्रहण करें।
दीपिका में कहा है कि, (वट) सावित्री व्रत को छोड़कर तो पूर्णिमा और अमावस्या परा ग्रहण करें।

गुरुवार, 30 सितंबर 2021

परिणाम मिलने में समय लगता है पर कर्मफल तत्काल होता है।

कर्म का परिणाम देरी से दिखता है। फल तो तत्काल ही मिलता है।
आपके मन में कोई संकल्प उठा, तत्काल उसका कोई विकल्प भी उपस्थित हो जायेगा। इस संकल्प-विकल्प की उधेड़बुन में न पड़ते हुए आपनी बुद्धि से जाँचा- परखा और  (निश्चयात्मिका बुद्धि से)  विवेक पूर्वक उचित और सही निर्णय किया और कार्यान्वयन में जुट गये
स्वाभाविक है कार्यान्वयन में भौतिक  जैविक और मानव संसाधन जुटाने, उन्हें अपनी बात समझाने, उनको प्रशिक्षित करने, और कार्यपर लगानें और कार्यान्वित होनें तक बारम्बार निरीक्षण-परीक्षण करते रहनें पर ही अनुकूल परिणाम मिलेगा। जहाँ-जितनी छूट/ ढील दी उतनी ही कार्यान्वयन अवधि बड़ेगी और उसी अनुपात में कार्य बिगड़ेगा।

बहुत साधारण उदाहरण है आप घरपर बोलें कि, भूख लगी है भोजन करना चाहता हूँ। इसी में उक्त सभी चीजें परिलक्षित हो जायेगी।
आटा-दाल-सब्जी- मसाले-पानी- इंधन, बरतन  कितने भौतिक जैविक संसाधन लगेगें! फिर इन संसाधनों को जुटाने वाला, भोजन बनाने वाला, परोसनें वाला मानव संसाधन । क्या खाना है? कैसे बनाना है? कितनी देरी में खाना है यह सब भी समझाना पड़ेगा। तब समय पर मनचाहा भोजन मिलेगा।
परिणाम में देरी हुई। लेकिन भोजन के निश्चय के साथ ही कर्मफल आरम्भ हो गया। अन्यथा क्रियान्वयन सम्भव ही नही। कर्म का संस्कार और  अगली स्टेप (अगलाकर्म) फल ही है।
इसीलिए श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में समझाया कि, कर्मफल की चाह अनावश्यक है कर्मफल तो तत्काल मिलना ही है अतः केवल परिणामपेक्षित कर्म कर्तव्य है  जबकि, फलाशा से कर्म करना मुर्खता है।

बुधवार, 29 सितंबर 2021

नक्षत्रों के देवताओं के आधार पर राशियों, नक्षत्रों के स्वामी ग्रह, तत्व, वर्ण, लिङ्ग, दिशा आदि।

नक्षत्रों के देवताओं के आधार पर नक्षत्रों के स्वामी ग्रह, वर्ण, तत्व, दिशा, लिङ्ग आदि।

क्रमांक,नक्षत्र ।स्वामी । देवता। तत्व । वर्ण । लिङ्ग । दिशा।


अश्विनी - शनि ।अश्विनौ । वायु । वैश्य । पुरुष । दक्षिणपूर्व।
2 भरणी - शनि । यम । वायु। शुद्र ।पुरुष ।दक्षिण ।
3  कृतिका- मंगल। अग्नि । अग्नि।  क्षत्रिय। पुरुष । आग्नैय।
4  रोहिणी- ब्रहस्पति। प्रजापति । आकाश । ब्राह्मण। पुरुष । उत्तर 
5  मृगशीर्ष - चन्द्रमा । सोम । जल । वैश्य । स्त्री । पश्चिमोत्तर ।
6  आर्द्रा - शुक्र । रुद्र ।जल। शुद्र। उभय।  उत्तर पूर्व (ईशान)।
पुनर्वसु - नेपच्युन् ।अदिति ।जल । क्षत्रिय । स्त्री । पूर्वोत्तर ।
8  पुष्य- ब्रहस्पति । ब्रहस्पति ।  आकाश । ब्राह्मण । पुरुष । उत्तर पश्चिम।
9  आश्लेषा - युरेनस । सर्प । भूमि । म्लैच्छ। उभय । पश्चिम दक्षिण
10   मघा - यूरेनस । पितृ । भूमि ।पञ्चम । उभय । दक्षिण पश्चिम ।
11  पूर्वाफाल्गुनी । मंगल । भग ।अग्नि । क्षत्रिय । स्त्री । दक्षिण पूर्व।
12 उत्तराफाल्गुनी -शनि । अर्यमा । वायु । शुद्र । उभय । दक्षिण पश्चिम।
13  हस्त - सूर्य । सवितृ । आकाश । ब्राह्मण । पुरुष । उर्ध्व (आकाश)।
14  चित्रा -सूर्य । त्वष्टा । आकाश । ब्राह्मण । पुरुष । मध्य ।
15  स्वाती - बुध । वायु । वायु । विप्र ।पुरुष । वायव्य ।
16  विशाखा - नेपच्युन् । इन्द्राग्नि । अग्नि । क्षत्रिय । पुरुष । पूर्व दक्षिण।
17 अनुराधा- बुध । मित्र । वायु । क्षत्रिय । पुरुष । पश्चिमोत्तर ।
18 ज्यैष्ठा-चन्द्रमा । वरुण / इन्द्र । जल । वैष्य । पुरुष । पश्चिम । 
19  मूल - युरेनस । निऋति । भूमि । म्लेच्छ । नपुन्सक ।  दक्षिण पश्चिम (नैऋत्य)। 
20 पूर्वाषाढ़ा - चन्द्रमा । अप् । जल । वैष्य । स्त्री । पश्चिम दक्षिण
21 उत्तराषाढ़ा - मंगल । विश्वैदेवाः । अग्नि । वैश्य । उभय । दक्षिण पूर्व।
22 श्रवण - सूर्य - विष्णु - आकाश । ब्राह्मण । पुरुष । आकाश/पाताल। 
23 धनिष्टा - बुध । वसु । वायु । क्षत्रिय । पुरुष । उत्तर पश्चिम।
24 शतभिषा - नेपच्युन् ।  इन्द्र/ वरुण । अग्नि ।क्षत्रिय । पुरुष । पूर्व ।
25 पूर्वाभाद्रपद - शुक्र । अजेकपात । भूमि । शुद्र । उभय । उत्तर पूर्व।
26 उत्तराभाद्रपद - शुक्र ।  अहिर्बुधन्य । भूमि । शुद्र । उभय । पूर्वोत्तर ।
27 रेवती - ब्रहस्पति । पूषा । आकाश । ब्राह्मण । पुरुष । उत्तर पूर्व।
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नक्षत्रों के देवताओं के आधार पर राशियों, नक्षत्रों के स्वामी ग्रह, वर्ण, तत्व, दिशा, लिङ्ग आदि।

क्रमांक, राशि/ नक्षत्र ।स्वामी । (आदित्य)/ देवता। तत्व । वर्ण । लिङ्ग । दिशा।

मेष - शनि। अर्यमा । वायु । वैश्य/ शुद्र। पुरुष । दक्षिण।
अश्विनी - शनि ।अश्विनौ । वायु । वैश्य । पुरुष । दक्षिणपूर्व।
भरणी - शनि । यम । वायु। शुद्र ।पुरुष ।दक्षिण ।
कृतिका- मंगल। अग्नि । अग्नि।  क्षत्रिय। पुरुष । आग्नैय।

वृष - ब्रहस्पति । धातृ । क्षत्रिय । वायु । पुरुष ।  उत्तर पश्चिम ।
कृतिका- मंगल। अग्नि । अग्नि । क्षत्रिय। पुरुष । आग्नैय।
रोहिणी- ब्रहस्पति। प्रजापति । आकाश । ब्राह्मण। पुरुष । उत्तर 
मृगशीर्ष - चन्द्रमा । सोम । जल । वैश्य । स्त्री । पश्चिमोत्तर ।

मिथुन- शुक्र । विवस्वान ।  जल । शुद्र । स्त्री । पूर्वोत्तर।
मृगशीर्ष - चन्द्रमा । सोम । जल । वैश्य । स्त्री । पश्चिमोत्तर ।
आर्द्रा - शुक्र । रुद्र ।जल। शुद्र। उभय।  उत्तर पूर्व (ईशान)।
पुनर्वसु - नेपच्युन् ।अदिति ।जल । क्षत्रिय । पूर्वोत्तर ।

 कर्क -  ब्रहस्पति । अंशु । आकाश । विप्र ।  पुरुष / उभय। पाताल 
/ उत्तर ।
10 पुनर्वसु - नेपच्युन् ।अदिति ।जल । क्षत्रिय । स्त्री । पूर्वोत्तर ।
11 पुष्य- ब्रहस्पति । ब्रहस्पति ।  आकाश । ब्राह्मण । पुरुष । उत्तर पश्चिम।
12 आश्लेषा - युरेनस । सर्प । भूमि । म्लैच्छ। उभय । पश्चिम दक्षिण

सिंह- मङ्गल । भग । अग्नि । क्षत्रिय । उभय ।पुर्व दक्षिण (आग्नैय) ।
13  मघा - यूरेनस । पितृ । भूमि ।पञ्चम । उभय । दक्षिण पश्चिम ।
14 पूर्वाफाल्गुनी । मंगल । भग ।अग्नि । क्षत्रिय । स्त्री । दक्षिण पूर्व।
15 उत्तराफाल्गुनी -शनि । अर्यमा । वायु । शुद्र । उभय । दक्षिण पश्चिम।

कन्या - सूर्य । सवितृ । आकाश ।  क्षत्रिय । पुरुष । मध्य ।
16 उत्तराफाल्गुनी -शनि । अर्यमा । वायु । शुद्र । उभय । दक्षिण पश्चिम।
17 हस्त - सूर्य । सवितृ । आकाश । ब्राह्मण । पुरुष । उर्ध्व (आकाश)।
18 चित्रा -सूर्य । त्वष्टा । आकाश । ब्राह्मण । पुरुष । मध्य ।

तुला - बुध । त्वष्टा । वायु । विप्र । पुरुष । वायव्य (उत्तरपूर्व) ।
19 चित्रा -सूर्य । त्वष्टा । आकाश । ब्राह्मण । पुरुष । मध्य ।
20 स्वाती - बुध । वायु । वायु । विप्र ।पुरुष । वायव्य ।
21 विशाखा - नेपच्युन् । इन्द्राग्नि । अग्नि । क्षत्रिय । पुरुष । पूर्व दक्षिण।

वृश्चिक - चन्द्रमा । वरुण । जल । क्षत्रिय । पुरुष । पश्चिमोत्तर ।
22 विशाखा - नेपच्युन् । इन्द्राग्नि । अग्नि । क्षत्रिय । पुरुष । पूर्व दक्षिण।
23 अनुराधा- बुध । मित्र । वायु । क्षत्रिय । पुरुष । पश्चिमोत्तर ।
24 ज्यैष्ठा-चन्द्रमा । वरुण / इन्द्र । जल । वैष्य । पुरुष । पश्चिम । 

धनु - युरेनस । मित्र । जल । शुद्र ।  उभय / स्त्री। दक्षिण पश्चिम (नैऋत्य)।
25 मूल - युरेनस । निऋति । भूमि । म्लेच्छ । नपुन्सक ।  दक्षिण पश्चिम (नैऋत्य)। 
26 पूर्वाषाढ़ा - चन्द्रमा । अप् । जल । वैष्य । स्त्री । पश्चिम दक्षिण
27 उत्तराषाढ़ा - मंगल । विश्वैदेवाः । अग्नि । वैश्य । उभय । दक्षिण पूर्व।

मकर - सूर्य । विष्णु । आकाश । ब्राह्मण । पुरुष । आकाश/ पाताल ।
28 उत्तराषाढ़ा - मंगल । विश्वैदेवाः । अग्नि । वैश्य । उभय । दक्षिण पूर्व।
29 श्रवण - सूर्य - विष्णु - आकाश । ब्राह्मण । पुरुष । आकाश/पाताल। 
30 धनिष्टा - बुध । वसु । वायु । क्षत्रिय । पुरुष । उत्तर पश्चिम।

कुम्भ - नेपच्युन् । इन्द्र ।  अग्नि  (वायु )। क्षत्रिय । पुरुष । पूर्व ।
31 धनिष्टा - बुध । वसु । वायु । क्षत्रिय । पुरुष । उत्तर पश्चिम।
32 शतभिषा - नेपच्युन् ।  इन्द्र/ वरुण । अग्नि ।क्षत्रिय । पुरुष । पूर्व ।
33 पूर्वाभाद्रपद - शुक्र । अजेकपात । भूमि । शुद्र । उभय । उत्तर पूर्व।

मीन - शुक्र । पुषा । भूमि। विप्र। उभय/ स्त्री। उत्तर पूर्व  (ईशान) ।
34 पूर्वाभाद्रपद - शुक्र । अजेकपात । भूमि । शुद्र । उभय । उत्तर पूर्व।
35 उत्तराभाद्रपद - शुक्र ।  अहिर्बुधन्य । भूमि । शुद्र । उभय । पूर्वोत्तर ।
36 रेवती - ब्रहस्पति । पूषा । आकाश । ब्राह्मण । पुरुष । उत्तर पूर्व।

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नक्षत्रों के देवताओं के आधार पर राशियों के स्वामी ग्रह, आदित्य/ देवता, तत्व, वर्ण, लिङ्ग, दिशा आदि।

क्रमांक - राशि ।स्वामी । आदित्य। तत्व । वर्ण । लिङ्ग । दिशा।

1 मेष - शनि। अर्यमा । वायु । वैश्य/ शुद्र। पुरुष । दक्षिण।

2 वृष - ब्रहस्पति । धातृ । क्षत्रिय । वायु । पुरुष ।  उत्तर पश्चिम ।

3 मिथुन- शुक्र । विवस्वान ।  जल । शुद्र । स्त्री । पूर्वोत्तर।

कर्क -  ब्रहस्पति । अंशु । आकाश । विप्र ।  पुरुष / उभय। पाताल 
/ उत्तर ।

5 सिंह- मङ्गल । भग । अग्नि । क्षत्रिय । उभय ।पुर्व दक्षिण (आग्नैय) ।

6 कन्या - सूर्य । सवितृ । आकाश ।  क्षत्रिय । पुरुष । मध्य ।

7 तुला - बुध । त्वष्टा । वायु । विप्र । पुरुष । वायव्य (उत्तरपूर्व) ।

8 वृश्चिक - चन्द्रमा । वरुण । जल । क्षत्रिय । पुरुष । पश्चिमोत्तर ।

9 धनु - युरेनस । मित्र । जल । शुद्र ।  उभय / स्त्री। दक्षिण पश्चिम (नैऋत्य)।

10  मकर - सूर्य । विष्णु । आकाश । ब्राह्मण । पुरुष । आकाश/ पाताल ।

11 कुम्भ - नेपच्युन् । इन्द्र ।  अग्नि  (वायु )। क्षत्रिय । पुरुष । पूर्व ।

12 मीन - शुक्र । पुषा । भूमि। विप्र। उभय/ स्त्री। उत्तर पूर्व  (ईशान) ।

शनिवार, 25 सितंबर 2021

नामकरण के लिए कौनसी पद्यति सही है? ; अवकहड़ा चक्र और कीरो न्युमरोलॉजी या प्राचीन संस्कृत पद्यति ?

नामकरण के लिए क्या सही ? अवकहड़ा चक्र और कीरो अंकविद्या? या प्राचीन संस्कृत पद्यति?

जन्म नाम जानने का  या अवकहोड़ा चक्र जिसका नाम ही विचित्र है और आधारहीन है।

राशि /नक्षत्र चरण    १  २    ३   ४  
  
मेष  /   अश्विनि      चु  चे   चो  ला                              मेष  /    भरणी      ली  लू  ले   लो                              मेष  /   कृतिका      अ    
                 
                            १  २    ३   ४

वृष   / कृतिका            इ    उ    ए
वृष   / रोहिणी      ओ   वा  वी   वु
वृष   / मृगशिर्ष     वे  वो  

                           १   २   ३   ४

मिथुन/ मृगशिर्ष               का  की
मिथुन/ आर्द्रा         कु   ङ    ग   छ
मिथुन/पुनर्वसु       के  को  ह 

                          १   २    ३   ४

कर्क  / पुनर्वसु                      ही
कर्क  / पुष्य           हु  हे   हो  ड़ा 
कर्क  / आश्लेषा    डि  डु    डे  डो

                               १   २   ३   ४

सिंह  / मघा               मा  मे  मी  मू
सिंह/पुर्वाफाल्गुनि       मो  टा  टी  टू
सिंह/उत्तराफाल्गनि     टे

                                   १  २   ३  ४

कन्या/उत्तराफाल्गुनि          टो  पा  पी
कन्या  /  हस्त               पु   ष  ण   ठ
कन्या  /  चित्रा              पे  पो   

                                  १  २   ३  ४

तुला  /    चित्रा                      रा  री
तुला  /    स्वाती           रु  रे   रो  ता
तुला  /  विशाखा          ति  तू  ते  

                                 १   २    ३  ४

वृश्चिक/ विशाखा                         तो
वृश्चिक/ अनुराधा           ना  नी   नू  ने
वृश्चिक/ ज्यैष्ठा               नो  या  यी यू

                                  १  २   ३   ४

धनु   /  मुल                ये  यो  भा  भी
धनु   / पुर्वाषाढ़ा          भू  धा फा  ढ़ा
धनु  / उत्तराषाढ़ा         भे

                                 १   २   ३   ४

मकर/ उत्तराषाढ़ा              भो जा जी
मकर/ अभिजित          जू  जे जो  खा
मकर /  श्रवण             खी खू  खे खो
मकर / धनिष्ठा             गा  गी             

                                  १   २   ३   ४

कुम्भ / धनिष्ठा                         गु   गे
कुम्भ / शतभिषा            गो  सा सी  सू
कुम्भ / पुर्वाभाद्रपद         से  सो  दा  

                                      १  २  ३  ४

मीन /  पुर्वाभाद्रपद                        दी
मीन / उत्तराभाद्रपद          दू   थ  झ ञ
मीन /  रेवती                    दे  दो चा ची

जो महानुभाव उक्त  अवकहोड़ा/अवकहड़ा चक्र को भारतीय ऋषि मुनियों की रचना मानते हैं कृपया विचार कर बतलायें कि, कौन से भारतीय ऋषि संस्कृत नही जानते थे। जिन्हें यह नही पता था कि, 
1 संस्कृत में ङ (आर्द्रा 2),ण (हस्त 3), से कोई शब्द नही बनता। किसी शब्द का प्रथमाक्षर ङ और ण नही होता।
2 पूरे अवकहड़ा चक्र में ब वर्ण है ही नही। ब के लिए कोई राशि/ नक्षत्र/ नक्षत्र चरण मे स्थान नही है?
कृपया बतलायें कि, बबीता की राशि/ नक्षत्र/ चरण कौनसा है। वृष राशि/ रोहिणी नक्षत्र/ तृतीय चरण तो "वा" वाणी के लिये है न कि, "ब" बबीता के लिए। ऐसा क्यो?
3 कौनसा संस्कृत विद्वान ऐसी बे सिर पेर की अक्षर व्यवस्था बनायेगा? जबकि संस्कृत वर्ण प्रधान भाषा है न कि, अक्षर प्रधान।

ऐसे महान ऋषि और उनके अनुयायियों के लिए हमारे पास कोई शब्द नही है।

सम्भवतया वराहमिहिर के समय प्रचलित हुई उपर्युक्त यमन पद्यति / यवन पद्यति है इसके ही समान ही कीरो की आंग्ल / चाल्डियन / हिब्रु पद्यति (और तथाकथित भारतीय कश्मीरी पद्यति) द्वारा नामाक्षरों के अंको के योगांक वाली पद्यति है। जिसका कोई आधार सिद्ध नही होता। ⤵️

जन्म नाम कीअंग्रेजी स्पेल्लिंग के अक्षरों के अंको का योग का योग या योग कें अंकों का  योगांक ग्रेगोरियन केलेण्डर की सुर्योदय वाली दिनांक एक ही हो।
जन्म नाम कीअंग्रेजी स्पेल्लिंग के अक्षरों के अंक

1 = A. I. J. Q. Y     = 1
2 = B. K. R.            = 2
3 = C. G. L. S.        = 3
4 = D. M. T             = 4
5 = E. H. N. X         = 5
6 = U. V. W             = 6
7 = O. Z                  = 7
8 = F. P                   = 8


अब नीचे देखिए।⤵️

जन्मनाम निर्धारण प्राचीन संस्कृत पद्यति से।

देखिये अग्निपुराण अध्याय 293 श्लोक 10 से 15 तक।
यह विधि अग्नि पुराण  मन्त्र - विद्या  के अन्तर्गत नक्षत्र - चक्र, राशि चक्र और सिद्धादादि मन्त्र शोधन प्रकार में दी गई है उसमे नामकरण की दृष्टि से आवश्यक संशोधन कर तैयार गई है।
जन्मलग्न के नक्षत्र चरण के अनुसार जन्मनाम/ देह नाम रखें।
नही बने तो अपवाद में दशम भाव स्पष्ट के नक्षत्र चरणानुसार कर्मनाम भी रख सकते हैं।
सुर्य के नक्षत्र चरणानुसार गुरु प्रदत्त अध्यात्मिक नाम / आत्म नाम।
तन्त्र क्रिया हेतु तान्त्रिक आचार्य प्रदत्त नाम मानस नाम जन्म कालिक चन्द्रमा के नक्षत्र चरणानुसार रखें

प्राचीन संस्कृत पद्यति -- 

राशि /नक्षत्र चरण     १  २    ३   ४  
मेष  /   अश्विनी      अ  अ   अ  अ                          मेष  /    भरणी      आ आ  आ आ                          मेष  /   कृतिका      इ                  
                             १  २    ३   ४
वृष   / कृतिका            इ    ई   ई
वृष   / रोहिणी         उ  उ   ऊ ऊ
वृष   / मृगशिर्ष       ऋ ऋ  
                             १   २   ३    ४
मिथुन/ मृगशिर्ष                ऋ  ऋ
मिथुन/ आर्द्रा          ए    ए  ऐ   ऐ
मिथुन/पुनर्वसु         ओ ओ औ 
                              १   २    ३   ४
कर्क  / पुनर्वसु                        औ
कर्क  / पुष्य             अं  अं  अः अः
कर्क  / आश्लेषा       क का  ख खा 
                               १   २   ३   ४
सिंह  / मघा               ग गा  घ  घा
सिंह/पुर्वाफाल्गुनि      च चा छ  छा
सिंह/उत्तराफाल्गनि    ज
                                 १   २  ३   ४
कन्या/उत्तराफाल्गुनि      जा  झ झा
कन्या  /  हस्त             ट  टा   ठ  ठा
कन्या  /  चित्रा            ड  डा   
                                 १  २   ३  ४
तुला  /    चित्रा                     ढ  ढा
तुला  /    स्वाती           त ता  थ था
तुला  /  विशाखा          द  दा ध    
                                  १   २   ३  ४
वृश्चिक/ विशाखा                       धा
वृश्चिक/ अनुराधा          न  न  ना  नृ
वृश्चिक/ ज्यैष्ठा              प पा  फ फा
                                   १   २   ३   ४
धनु   /  मुल                  ब  बा  भ भा
धनु   / पुर्वाषाढ़ा            म  म  मा  मृ
धनु  / उत्तराषाढ़ा           य
                                    १  २   ३  ४
मकर/ उत्तराषाढ़ा               य   य या
मकर /  श्रवण                र   र   रा  रृ
मकर / धनिष्ठा                ल ल
                                     १  २   ३  ४
कुम्भ / धनिष्ठा                         ला लृ
कुम्भ / शतभिषा              व  व   वा वृ
कुम्भ / पुर्वाभाद्रपद          श  शा ष  
                                      १  २   ३   ४
मीन /  पुर्वाभाद्रपद                        षा
मीन / उत्तराभाद्रपद        स  स   सा सृ
मीन /  रेवती                  ह   ह   हा  हृ

मात्रा लगाने की विधि / नियम --

प्रथम एवम् त्रतीय चरण में मुल स्वर हैं। द्वितीय और चतुर्थ चरण में आ से औ तक की मात्रा वाले अक्षर  जन्मनाम का प्रथमाक्षर रहेगा।

जिन नक्षत्रों में प्रथम और त्रतीय चरण में अलग अलग वर्ण हो उनमें द्वितीय चरण में प्रथम चरण के वर्ण में और चतुर्थ चरण में त्रतीय चरण के वर्ण में ००ं-००' से ००ं-२०' तक ा की मात्रा लगायें। तदनुसार ही आगे भी ००ं-२१' से ००-४०' तक ि  की मात्रा लगायें।००ं-४१' से ०१ं-००' तक ई की मात्रा ।०१ं-०१' से ०१ं-२०' तक ु की मात्रा।०१ं-२१' से ०१ं-४०' तक ू की मात्रा।०१ं-४१' से ०२ं-००' तक ृ की मात्रा।०२ं-०१' से ०२ं-२०'  तक   े की मात्रा।०२ं-२१ से ०२ं-४०' तक ै की मात्रा। ०२ं-४१' से ०३ं-००' तक ो की आत्रा । और , ०३ं-००' से ०३ं-२०' तक ौ की मात्रा लगाकर नाम का प्रथमाक्षर रखें।

जबकि, जिन नक्षत्रों में चारों चरणों में एक ही व्यञ्जन हो वहाँ प्रथम एवम् द्वितीय चरण में मुल वर्ण से नाम का प्रथमाक्षर रहेगा।जबकि, तृतीय और चतुर्थ चरण में ००ं-००' से ००ं-४०' तक ा की मात्रा लगायें। तदनुसार ही आगे भी ००ं-४१' से ०१-२०' तक  ि  की मात्रा लगायें। ०१ं-२१' से ०२ं-००' तक ई की मात्रा ।०२ं-०१' से ०२ं-४०' तक ु की मात्रा । ०२ं-४१' से ०३ं-२० तक ू की मात्रा।और चतुर्थ चरण में ०३ं-२१' से ०४ं-००' तक ृ की मात्रा।०४ं-०१' से ०४ं-४०'  तक   े की मात्रा।०४ं-४१ से ०५ं-२०' तक ै की मात्रा। ०५ं-२१ से ०६ं-००' तक ो की आत्रा । और , ०६ं-०१' से ०६ं-४०' तक ौ की मात्रा लगाकर नाम का प्रथमाक्षर रखें।

नाम की संस्कृत, / हिन्दी या मराठी वर्तनी के अक्षरों के अंक।

नाम सरनेम सहित जन्म नाम के अंको को जोड़कर प्राप्त योगफल का ईकाई अंक जन्मसमय के सायन सौर गतांश के ईकाई अंक दोनों  एक ही हो।

0-   अ,  क,  ट,  प,  ष,  अः, क्ष, ऽ  0

1-  आ,  ख,  ठ,  फ,  स,  त्र ,         1

 2-   इ,   ई,   ग,   ड,  ब,  ह ,         2

 3-   उ,   ऊ,  घ,   ढ,  भ,              3

 4-   ऋ,   ङ, ण,  म,                    4
  
 5-    ए,   च,  त,  य,                    5

 6-    ऐ,   छ,  थ,  र,  ज्ञ,               6

 7-   ओ,  ज,  द,  द,  ल,  ड़,ॉ       7

 8-   औ,  झ,  ध,  व,  ढ़                8
 
 9-    अं,  ञ,   न,  श,                   9

  0-    अ, अः, क,   ट,  प,  ष, ऽ      0

शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

नक्षत्र देवताओं के आधार पर ग्रहों के नक्षत्र स्वामित्व, (देवता), राशि स्वामित्व,(आदित्य), दिशा, तत्व और वर्ण; होराशास्त्रीय नवीन अनुप्रयोग।

ग्रहों के नक्षत्र स्वामित्व, (देवता), राशि स्वामित्व,(आदित्य), दिशा, तत्व और वर्ण

1 चन्द्रमा - मृगशीर्ष (सोम), ज्यैष्ठा (वरुण), पूर्वाषाढ़ा (अप्)।अंक 1 (एक)। वृश्चिक राशि। वरुण आदित्य।  स्त्रीलिङ्ग।पश्चिम दिशा।जलतत्व। वैश्य वर्ण।

2 बुध - स्वाती (वायु), अनुराधा (मित्र), धनिष्टा (वसु)। अंक 6 (छः)। तुला राशि।वायव्य दिशा। उभयलिङ्गि। वायु तत्व। वैश्य वर्ण।

3 शुक्र - आर्द्रा (रुद्र), पूर्वाभाद्रपद (अजेकपात), उत्तराभाद्रपद (अहिर्बुधन्य)। अंक 2 (दो)। मिथुन राशि (विवस्वान आदित्य), और मीन राशि (पूषा आदित्य)। ईशान दिशा।उष्ण जल तत्व (अम्लीय जल)। क्षत्रिय वर्ण।

सूर्य - हस्त (सवितृ), चित्रा (त्वष्टा), श्रवण (विष्णु)। अंक 0 सूर्य का एवम् 5 भूमि के सापेक्ष सूर्य का।

मङ्गल - कृतिका (अग्नि), पूर्वाफाल्गुनी (भग),उत्तराषाढ़ा (विश्वेदेवाः)। अंक 4 (चार)। सिंह राशि। भग आदित्य। आग्नैय कोण दिशा। पुर्लिङ्ग। अग्नि तत्व। क्षत्रिय वर्ण।

ब्रहस्पति - रोहिणी (प्रजापति), पुष्प (ब्रहस्पति), रेवती (पुषा)। अंक 7 (सात)। वृष राशि (धातृ आदित्य), कर्क राशि (अंशु आदित्य)। उत्तर दिशा। पुर्लिङ्ग। आकाश तत्व। ब्राह्मण वर्ण।

शनि - अश्विनी (अश्विनौ), भरणी (यम), उत्तराफाल्गुनी (अर्यमा)। अंक 3 (तीन)। मेष राशि (अर्यमा आदित्य)। दक्षिण दिशा। उभयलिङ्गि।   उष्णवायु तत्व (पित्तवात भी)। शुद्र वर्ण। 

युरेनस (निऋति) - आश्लेषा (सर्प), मघा (पितृ), मूल (निऋति)। अंक 8 (आठ) । धनु राशि (मित्र आदित्य)। नैऋत्य कोण दिशा। नपुंसक लिङ्ग।भूमि तत्व ।पञ्चम/ म्लेच्छ वर्ण।

नेपच्युन् (इन्द्र)  - पुनर्वसु (अदिति), विशाखा (इन्द्राग्नि), शतभिषा (इन्द्र)। अंक 9 (नौ) । कुम्भ राशि  (इन्द्र आदित्य)।  पूर्व दिशा । स्त्रीलिङ्ग। अग्नि तत्व। क्षत्रिय वर्ण।

नक्षत्र देवताओं के आधार पर राशियों, नक्षत्रों और नक्षत्र चरणों (नवांशों) के स्वामी;जन्मनाम, अंकविद्या,दशाह के वासर, होरा शास्त्र में नवीन अनुप्रयोग।

नक्षत्रों के देवताओं के आधार पर राशियों, नक्षत्रों और नक्षत्र चरणों (नवांशों) के स्वामी, नक्षत्र चरणानुसार जन्मनाम, और अंक विद्या। ---

 नक्षत्र स्वामी ---
क्रमांक,नक्षत्र ,स्वामी, देवता
1 अश्विनी - शनि- अश्विनौ (शनि के सोतेले भाई।)
2 भरणी - शनि - यम (शनि के सोतेले भाई।)
3 कृतिका- मंगल- अग्नि (मंगल का नाम ही अङ्गारक है। )
4 रोहिणी- ब्रहस्पति- प्रजापति (दोनों देवगुरु हैं।)
5 मृगशीर्ष - चन्द्रमा - सोम (चन्द्रमा का नाम सोम है।)
6 आर्द्रा - शुक्र - रुद्र (शुक्राचार्य रुद्रोपासक और शंकर जी के शिश्य हैं।)
7 पुनर्वसु - नेपच्युन् (वरुण या इन्द्र)  - अदिति (दोनों आदित्यों की माता,नेपच्युन्  स्त्रैण ग्रह है।)
8 पुष्य- ब्रहस्पति - ब्रहस्पति (निर्विवाद।)
9 आश्लेषा - युरेनस - सर्प (वत्रासुर,राहु, नहुष और ड्रेगन भी सर्प है।)।
10  मघा - यूरेनस - पितृ (नहुष)
11 पूर्वाफाल्गुनी - मंगल-भग (ऊर्जा।)
12 उत्तराफाल्गुनी -शनि- अर्यमा (यम से सम्बधित आदित्य।)
13 हस्त - सूर्य -सवितृ (निर्विवाद।)
14 चित्रा -सूर्य- त्वष्टा (निर्विवाद/ दो पर्वतों के बीच उदयीमान सूर्य ।)
15 स्वाती - बुध - वायु (बुध वायवीय ग्रह है।)
16 विशाखा - नेपच्युन् - इन्द्राग्नि (इन्द्र।)
17 अनुराधा- बुध- मित्र (मैत्र ग्रह।)
18 ज्यैष्ठा-चन्द्रमा - वरुण / इन्द्र (सजल ग्रह/ पश्चिम दिशा।)
19 मूल-युरेनस - निऋति (आसुरी सम्पदा।)
20 पूर्वाषाढ़ा - चन्द्रमा - अप्.(सजल ग्रह।)
21 उत्तराषाढ़ा - मंगल- विश्वैदेवाः (पितरों के साथी, स्वधा से सम्बद्ध, स्वधा स्वाहा से सम्बद्ध।)
22 श्रवण - सूर्य - विष्णु (आदित्य।)
23 धनिष्टा - बुध - वसु (बुध धन सम्पत्ति का कारक ग्रह।)
24 शतभिषा - नेपच्युन् - इन्द्र/ वरुण (इन्द्र, सजल ग्रह।)
25 पूर्वाभाद्रपद - शुक्र - अजेकपात (रुद्र।)
26 उत्तराभाद्रपद - शुक्र- अहिर्बुधन्य (रुद्र।) 
27 रेवती - ब्रहस्पति- पूषा (प्राचीन देव पुरोहित वृद्ध पुषा।)

उक्त आधार पर नक्षत्र स्वामी निर्धारित किये गये।

अब देखिये राशि स्वामी भी इन्ही नक्षत्रों के आधार पर निर्धारित किये है। जिस राशि में जिस ग्रह के नक्षत्रों का प्राधान्य वही राशि स्वामी है। ता कि, राशि और नक्षत्र मण्डल में उस राशि और नक्षत्र का कम से कम 13°20' का  क्षेत्र का स्वामी एक ही रहे; में द्विविधता न हो (दुविधा न हो।)
सूर्य (केन्द्र, सूर्य और भूमि दोनों का प्रतीक, सूर्यकेन्द्रीय ग्रहों में भूमि और भू केन्द्रीय ग्रहों में सूर्य सदा 180° पर रहते हैं।), 
ब्रहस्पति बड़ा ग्रह है, भविष्य का सूर्य है।  और 
चन्द्रमा सबसे निकटतम , मन का कारक
इस कारण इन तीनों ग्रहों को दो दो राशियाँ दी है। शेष को एक एक राशि। जबकि परम्परागत राशि स्वामी में सूर्य और चन्द्रमा को एक-एक राशि ही दी है।

राशियों के स्वामी ग्रह---

क्रमांक राशि, राशि स्वामी, सम्बन्धित नक्षत्र (जिनके स्वामी ही राशि के स्वामी माने हैं।)

1 मेष - शनि- अश्विनी (अश्विनौ), भरणी (यम)।
2 वृष - ब्रहस्पति - रोहिणी (प्रजापति)।
3 मिथुन - शुक्र - आर्द्रा (रुद्र)।
4 कर्क - ब्रहस्पति - पुष्य (ब्रहस्पति)।
5 सिंह - मंगल- पूर्वाफाल्गुनी (भग)।
6 कन्या - सूर्य - हस्त (सवितृ), चित्रा (त्वष्टा)।
7 तुला - बुध - स्वाती (वायु)।
8 वृश्चिक - चन्द्रमा - ज्यैष्ठा (वरुण/ इन्द्र)।
9 धनु - युरेनस - मूल (निऋति)।
10 मकर - सूर्य - श्रवण (विष्णु)।
11 कुम्भ - नेपच्युन् - शतभिषा (इन्द्र/ वरुण)। 
12 मीन - शुक्र- पूर्वाभाद्रपद (अजेकपात), उत्तराभाद्रपद (अहिर्बुधन्य)।

नक्षत्र चरणों (नवांशों) के स्वामी --

क्रमांक,नक्षत्र ,नक्षत्र चरण स्वामी, नक्षत्र स्वामी, देवता।
1 अश्विनी - 1शनि, 2 बुध,  3 चन्द्रमा 4 शनि। (शनि- अश्विनौ )
2 भरणी -1शनि, 2 शनि, 3 शनि, 4 शनि। (शनि - यम )
3 कृतिका- 1 मंगल, 2 मंगल 3 मंगल,4 मंगल। (मंगल- अग्नि )
4 रोहिणी- 1ब्रहस्पति,  2 ब्रहस्पति 3  नेपच्युन्, 4 बुध। (ब्रहस्पति- प्रजापति )
5 मृगशीर्ष - 1चन्द्रमा, 2 चन्द्रमा, 3 चन्द्रमा, 4 चन्द्रमा।  (चन्द्रमा - सोम )
6 आर्द्रा -1शुक्र,2 शुक्र,3 शनि 4 चन्द्रमा। (शुक्र - रुद्र )
7 पुनर्वसु - 1नेपच्युन्, 2नेपच्युन्, 3नेपच्युन्, 4 नेपच्युन्।(नेपच्युन्   - अदिति )
8 पुष्य-1ब्रहस्पति, 2 ब्रहस्पति 3, ब्रहस्पति, 4 ब्रहस्पति।  (ब्रहस्पति - ब्रहस्पति )
9 आश्लेषा - 1युरेनस, 2 यूरेनस, 3 युरेनस, 4 यूरेनस। (युरेनस - सर्प) 
10  मघा - 1युरेनस, 2 युरेनस 3शनि, 4 चन्द्रमा। (युरेनस- पितृ)
11 पूर्वाफाल्गुनी - 1मंगल, 2 मंगल, 3 ब्रहस्पति 4 शुक्र।  ( भग- मंगल )
उत्तराफाल्गुनी -1शनि, 2 शनि, 3 शुक्र, 4  चन्द्रमा।(शनि- अर्यमा )
13 हस्त -1सूर्य, 2 सूर्य, 3 सूर्य, 4 सूर्य। (सूर्य -सवितृ )
14 चित्रा -1सूर्य, 2सूर्य, 3 सूर्य,4 सूर्य। (सूर्य- त्वष्टा)
15 स्वाती -1बुध, 2 बुध, 3 बुध, 4 बुध। (बुध - वायु)
16 विशाखा -1नेपच्युन्,  2 नेपच्युन्,  3 मंगल ,4 मंगल ।  (नेपच्युन् - इन्द्राग्नि) 
17 अनुराधा- 1बुध, 2 चन्द्रमा 3 शुक्र 4 बुध। (बुध- मित्र) 
18 ज्यैष्ठा- 1चन्द्रमा -2 नेपच्युन्, 3 बुध 3 शुक्र । (चन्द्रमा- वरुण) 
19 मूल -1युरेनस 2 युरेनस 3 युरेनस 4 युरेनस। (यूरेनस-  निऋति) 
20 पूर्वाषाढ़ा -1बुध, 2 चन्द्रमा, 3 शुक्र, 4 शुक्र।  (चन्द्रमा - अप्)
21 उत्तराषाढ़ा -1मंगल, 2 मंगल, 3 ब्रहस्पति, 4 ब्रहस्पति।  (मंगल- विश्वैदेवाः) 
22 श्रवण - 1सूर्य, 2 सूर्य,  3 सूर्य 4 सूर्य। (सूर्य - विष्णु)
23 धनिष्टा -1बुध, 2 बुध, 3 मंगल 4 ब्रहस्पति। (बुध - वसु) 
24 शतभिषा - 1 नेपच्युन्,2 नेपच्युन्, 3 नेपच्युन्, 4 नेपच्युन्। (नेपच्युन् - इन्द्र)
25 पूर्वाभाद्रपद - 1 शुक्र, 2 शनि,3 युरेनस, 4 शुक्र।   शुक्र - अजेकपात 
26 उत्तराभाद्रपद -1 शुक्र,2 शनि, 3 युरेनस,  4 शुक्र।  (शुक्र- अहिर्बुधन्य) 
27 रेवती - 1ब्रहस्पति, 2 ब्रहस्पति, 3 मंगल, 4 बुध। (ब्रहस्पति- पूषा)

 शास्त्रों में ग्रहों के अधिदेवता प्रत्यधिदेवता ग्रहशान्ति प्रयोग के अन्तर्गत दिये गये है। उनके अतिरिक्त उनमे ये तीन और जोड़े जा सकते हैं।⤵️

भूमि की अधिदेवता श्रीदेवी और प्रत्यधिदेवता भूदेवी
युरेनस (हर्षल) के अधिदेवता निऋति और प्रत्यधिदेवता विरोचन
नेपच्युन के अधिदेवता इन्द्र और प्रत्यधिदेवता वरुण

2 - वैदिक कालीन दशाह पद्यति को इस रूप में पूनर्प्रचलित किया जाना उचित होगा।
(उल्लेखनीय है कि, वेदों में सप्ताह का उल्लेख नही मिलता क्योंकि, वैदिक काल में दशाह प्रचलित था।)
दशाह के वासर --
1रविवासर, 2 सौम्य वासर, 3 बुधवासर, 4 शुक्र वासर, 5 भूमिवासर, 6 मंगलवासर, 7 ब्रहस्पति वासर,8 शनिवासर, 9 निऋति वासर, 10 अदिति वासर।

जन्मनाम निर्धारण संस्कृत पद्यति से।
देखिये अग्निपुराण अध्याय 293 श्लोक 10 से 15 तक।
यह विधि अग्नि पुराण  मन्त्र - विद्या  के अन्तर्गत नक्षत्र - चक्र, राशि चक्र और सिद्धादादि मन्त्र शोधन प्रकार।से ली गई है।

जन्मलग्न के नक्षत्र चरण के अनुसार जन्मनाम/ देह नाम रखें।
नही बने तो अपवाद में दशम भाव स्पष्ट के नक्षत्र चरणानुसार कर्मनाम भी रख सकते हैं।
सुर्य के नक्षत्र चरणानुसार गुरु प्रदत्त अध्यात्मिक नाम / आत्म नाम।
तन्त्र क्रिया हेतु तान्त्रिक आचार्य प्रदत्त नाम मानस नाम जन्म कालिक चन्द्रमा के नक्षत्र चरणानुसार रखें।

राशि/नक्षत्र के चरणानुसार जन्म नाम का प्रथम वर्ण


राशि /नक्षत्र चरण    1   2    3   4  
  
मेष  /   अश्विनि       अ  अ   अ  अ                              मेष  /    भरणी       आ आ  आ  आ                            मेष  /   कृतिका      इ    
                 
                          1   2    3   4  

वृष   / कृतिका            इ    ई    ई
वृष   / रोहिणी      उ   उ   ऊ   ऊ
वृष   / मृगशिर्ष     ऋ  ऋ  

                          1   2    3   4  

मिथुन/ मृगशिर्ष               ऋ  ऋ
मिथुन/ आर्द्रा         ए   ए    ऐ   ऐ
मिथुन/पुनर्वसु       ओ  ओ  औ 

                           1   2    3   4  

कर्क  / पुनर्वसु                      औ
कर्क  / पुष्य           अं  अं  अः अः
कर्क  / आश्लेषा      क  क  ख  ख 

                             1  2    3   4  

सिंह  / मघा             ग  ग    घ  घ
सिंह/पुर्वाफाल्गुनि     च  च   छ  छ
सिंह/उत्तराफाल्गनि   ज

                                1  2    3   4  

कन्या/उत्तराफाल्गुनि     ज  झ  झ
कन्या  /  हस्त               ट  ट    ठ  ठ
कन्या  /  चित्रा              ड  ड   

                                  1  2    3   4  

तुला  /    चित्रा                         ढ  ढ
तुला  /    स्वाती              त  त   थ  थ
तुला  /  विशाखा             द   द   ध    

                                    1  2    3   4  

वृश्चिक/ विशाखा                             ध
वृश्चिक/ अनुराधा              न  न    न   न
वृश्चिक/ ज्यैष्ठा                  प  प   फ  फ

                                     1  2    3   4  

धनु   /  मुल                     ब  ब   भ  भ
धनु   / पुर्वाषाढ़ा               म  म   म   म
धनु  / उत्तराषाढ़ा              य

                                      1  2    3   4  

मकर/ उत्तराषाढ़ा                   य    य   य
मकर /  श्रवण                    र   र    र   र
मकर / धनिष्ठा                    ल  ल

                                      1   2    3   4  

कुम्भ / धनिष्ठा                               ल  ल
कुम्भ / शतभिषा                 व   व    व  व
कुम्भ / पुर्वाभाद्रपद             श  श   ष  

                                       1  2    3   4  

मीन /  पुर्वाभाद्रपद                              ष
मीन / उत्तराभाद्रपद            स  स    स   स
मीन /  रेवती                      ह  ह     ह   ह


मात्रा लगाने की विधि / नियम --

प्रथम एवम् त्रतीय चरण में मुल स्वर हैं। द्वितीय और चतुर्थ चरण में आ से औ तक की मात्रा वाले अक्षर  जन्मनाम का प्रथमाक्षर रहेगा।

जिन नक्षत्रों में प्रथम और त्रतीय चरण में अलग अलग वर्ण हो उनमें द्वितीय चरण में प्रथम चरण के वर्ण में और चतुर्थ चरण में त्रतीय चरण के वर्ण में ००ं-००' से ००ं-२०' तक ा की मात्रा लगायें। तदनुसार ही आगे भी ००ं-२१' से ००-४०' तक ि  की मात्रा लगायें।००ं-४१' से ०१ं-००' तक ई की मात्रा ।०१ं-०१' से ०१ं-२०' तक ु की मात्रा।०१ं-२१' से ०१ं-४०' तक ू की मात्रा।०१ं-४१' से ०२ं-००' तक ृ की मात्रा।०२ं-०१' से ०२ं-२०'  तक   े की मात्रा।०२ं-२१ से ०२ं-४०' तक ै की मात्रा। ०२ं-४१' से ०३ं-००' तक ो की आत्रा । और , ०३ं-००' से ०३ं-२०' तक ौ की मात्रा लगाकर नाम का प्रथमाक्षर रखें।

जबकि, जिन नक्षत्रों में चारों चरणों में एक ही व्यञ्जन हो वहाँ प्रथम एवम् द्वितीय चरण में मुल वर्ण से नाम का प्रथमाक्षर रहेगा।जबकि, तृतीय और चतुर्थ चरण में ००ं-००' से ००ं-४०' तक ा की मात्रा लगायें। तदनुसार ही आगे भी ००ं-४१' से ०१-२०' तक  ि  की मात्रा लगायें। ०१ं-२१' से ०२ं-००' तक ई की मात्रा ।०२ं-०१' से ०२ं-४०' तक ु की मात्रा । ०२ं-४१' से ०३ं-२० तक ू की मात्रा।०३ं-२१' से ०४ं-००' तक ृ की मात्रा।०४ं-०१' से ०४ं-४०'  तक   े की मात्रा।०४ं-४१ से ०५ं-२०' तक ै की मात्रा। ०५ं-२१ से ०६ं-००' तक ो की आत्रा । और , ०६ं-०१' से ०६ं-४०' तक ौ की मात्रा लगाकर नाम का प्रथमाक्षर रखें।】

नामकरण की सुविधार्थ अक्षरों के अंक⤵️

नाम की संस्कृत, / हिन्दी या मराठी वर्तनी के अक्षरों के अंक।

नाम सरनेम सहित जन्मसमय के सायन सौर गतांश का ईकाई अंक और नाम सरनेम सहित जन्म नाम के अंको को जोड़कर प्राप्त योगफल का ईकाई अंक  एक ही हो।

0-   अ,  क,  ट,  प,  ष,  अः, क्ष, ऽ     0

1-  आ,  ख,  ठ,  फ,  स,  त्र ,           1

 2-   इ,   ई,   ग,   ड,  ब,  ह ,           2

 3-   उ,   ऊ,  घ,   ढ,  भ, ळ            3

 4-   ऋ,   ङ, ण,  म,                       4
  
 5-    ए,   च,  त,  य,                       5

 6-    ऐ,   छ,  थ,  र,  ज्ञ,                  6

 7-   ओ,  ज,  द,  द,  ल, ड़,ॉ           7

 8-   औ,  झ,  ध,  व,  ढ़ ऴ                8
 
 9-    अं,  ञ,   न,  श,                        9

  0-    अ,  क,  ट,  प,  ष,  अः, क्ष, ऽ     0  

इसी प्रकार अंकविद्या में अंको का स्वामित्व भी इसप्रकार निर्धारित कर संस्कृत पद्यति से जन्मनाम निकालकर अंकविद्या अनुसार नाम निर्धारण किया जाना उचित होगा।
अनको के देवता और स्वामी ग्रह -- 
अंक स्वामी ग्रह। अधिदेवता / प्रत्यधिदेवता
0      सूर्य          सवितृ / त्वष्टा                            00
1      चन्द्रमा      वरुण / सोम                              01
2      शुक्र          रुद्र / अहिर्बुधन्य                        02
3      शनि          यम / अश्विनौ                            03
4      मङ्गल        अग्नि / विश्वैदेवाः                       04
5      भूमि          विष्णु / विष्णु (सूर्य से 180° पर) 05
6       बुध           वायु / वसु                               06
7       ब्रहस्पति    ब्रहस्पति / प्रजापति                   07
8       युरेनस       निऋति/ सर्प/ पितृ                    08
9       नेपच्युन      इन्द्र /अदिति                            09     


सुचना -- मेरी मंशा तो असमान भोगांश वाले अट्ठाइस नक्षत्रों के चरणों के अनुसार नामकरण करनें की विधि विकसित करनें की थी। किन्तु  तैत्तरीय संहिता आदि प्राचीन वैदिक खगोलशास्त्रिय ग्रन्थों में स्थिर भृचक्र (Fixed Zodiac) में नक्षत्रों की दर्शाई गई आकृति के असमान भोगांश वाले अट्ठाइस नक्षत्रों के योगतारा को केन्द्र मानकर नक्षत्र योगतारा के आसपास असमान भोगांश वाले नक्षत्र के चरणानुसार नाम का प्रथमाक्षर निर्धारण करने की थी। 
किन्तु ऐसे असमान भोगांश वाले अट्ठाइस नक्षत्रों की दर्शाई गई आकृति के आरम्भ और समाप्ति वाले भोगांश की सुची और नक्षत्र चरणों के आरम्भ और समाप्ति वाले भोगांश की सुची उपलब्ध न होनें से आधुनिक 13°20' के समान भोगांश वाले सत्ताईस नक्षत्र और 03°20' के समान भोगांश वाले नक्षत्र चरणानुसार जन्मनाम के प्रथम वर्ण निर्धारित करना पड़े।