निर्णयसिन्धु के द्वितीय परिच्छेद / आश्विन शुक्लपक्ष/ नवरात्र आरम्भ निर्णय प्रकरण पृष्ठ 330
तिथितत्त्व में और देवीपुराण में भी कहा है कि - प्रातःकाल में देवी का आवाहन करे। प्रातःकाल में ही प्रवेश करे। प्रातःकाल में ही पूजन करे और प्रातःकाल में ही विसर्जन करे।
प्रष्ठ 331 लल्ल ने कहा है कि, तिथि ही शरीर है, तिथि ही कारण है, तिथि ही प्रमाण है और तिथि ही साधन है।
पृष्ठ 334 नवरात्र में तिथि क्षय होने के कारण आठ रात होने मे दोष नही है।
प्रकरण - कलशस्थापनम् रात्रो न कार्यम्। पृष्ठ 335
मत्स्य पुराण का कथन है कि, --- कलशस्थापन रात्रि में न करे।
रात्रि में कलश स्थापना और कुम्भाभिषेचन नही करना चाहिए।
विष्णुधर्म में कहा है कि, सूर्योदय से आरम्भ कर दशनाड़ी (दस घड़ी) तक (अर्थात चार घण्टा के अन्दर ही) स्थानारोपण आदि करें। स्थानारोपण आदि के लिए प्रातःकाल कहा है।
पृष्ठ 345
यदि नवरात्र पूजन का संकल्प ले चुके हो और उसके बाद जन्म, मरण अशोच (सूतक) लगने पर भी नवरात्र पूजन दानादि यथावत जारी रखें। किन्तु रजस्वला स्त्री दूसरे से पूजन करावे।
हेमाद्रि व्रत खण्ड में गरुड़ पुराण का वचन है कि,
सौभाग्यवती स्त्रियों को नवरात्र में गन्ध, अलंकार, ताम्बूल(पान), आदि चबाने, पुष्पमाला, अनुलेपन, दन्तधावन, और अभ्यञ्जन की अनुमति है। सौभाग्यवती स्त्रियों के द्वारा नवरात्र में गन्ध, अलंकार, ताम्बूल(पान), आदि चबाने, पुष्पमाला, अनुलेपन, दन्तधावन, और अभ्यञ्जन से उपवास दूषित नही होता है।
पृष्ठ346 निर्णयामृत में देवी पुराण का वचन है कि, शिष्टमत यह है कि,
आश्विन शुक्ल पक्ष के मूल नक्षत्र के आद्यपाद में दुर्गासप्तशती पुस्तक में सरस्वती का स्थापन करे। पूर्वाषाढ़ा में पूजन करे। उत्तराषाढ़ा में बलि दे (धार्मिक कर अदा करे।) तथा श्रवण नक्षत्र के प्रथम पाद में सरस्वती का विसर्जन करे।
पृष्ठ 347 विद्यापति का लिखित वचन है कि, देवता का शरीर तिथि है।और तिथि में नक्षत्र आश्रित है।इसलिए। तिथि की प्रशंसा करते हैं। तिथि के बिना नक्षत्र की प्रशंसा नही करते हैं।
यही बात देवल ने कही है कि, तिथि तथा नक्षत्र के योग में दोनों ही का पालन करे। दोनों का योग न हो तो देवी पूजनकर्म में तिथि को ही ग्रहण करना चाहिए।
पृष्ठ 347 हेमाद्री में कहा है कि,
प्रतिपदा से नवमी तक उपवास करनें में असमर्थ हो तो सप्तमी, अष्टमी और नवमी तिथियों में त्रिरात्र मे उपवास करें।
पृष्ठ 349 गोविन्दार्णव में देवीपुराण का मत है कि, नवरात्र करनें मैं अशक्त हो तो त्रिरात्र (सप्तमी, अष्टमी, नवमी) या एकरात्र (केवल नवमी तिथि) को जो भक्त करता है उसे इच्छित फल देती हूँ।
मुर्तिस्थापनेदिकविचारः प्रकरण पृष्ठ 350
दुर्गा भक्ति तरङ्गिणी में देवी पुराण का मत है कि, देवी मुर्ति स्थापना में दक्षिणाभिमुखी दुर्गा की मुर्ति सदा स्थापना के लिए उत्तम है। तथा उत्तराभिमुखी दुर्गा की मुर्ति स्थापना न करे।
पृष्ठ 354 355 शरदकाल में नवमीतिथि से युक्त महाअष्टमी पूज्य होती है। सप्तमी युक्त अष्टमी तिथि नित्य शोक तथा सन्ताप करनें वाली होती है।पुत्र पौत्र, पशुओं और राज्य का नाश करती है।
घटिका मात्र भी औदयिकी अष्टमी तिथि ग्रहण करें।
देवल ने भी कहा है कि, व्रत और उपवास में एक घड़ी भी उदिया तिथि ग्रहण करें।
मदनरत्न का वचन है कि, अष्टमी तिथि में सूर्योदय होने पर तथा दिनान्त में नवमी तिथि हो तथा उसदिन यदि मङ्गलवार भी हो तो उस दिन प्रयत्न करके भी पूजन अवश्य करें।
पद्मपुराण का मत है कि,अष्टमी तिथि नवमी से युक्त हो या नवमी तिथि अष्टमी तिथि से युक्त हो और यही तिथि मूल नक्षत्र से युक्त हो तो उसे महानवमी कहते हैं।
हेमाद्रि का वाक्य है कि, आश्विन शुक्ल पक्ष में मूल नक्षत्र से युक्त अष्टमी तिथि नवमी युक्त अष्टमी महानवमी कहलाती है।
निर्णयामृत के दुर्गोत्सव में कहा है कि, मूल नक्षत्र युक्त भी लेशमात्र भी सप्तमी तिथि से युक्त अष्टमी तिथि त्याज्य है।
प्रष्ठ 356 अष्टमी तिथि में ही सूर्यास्त हो जाये तब भी अष्टमी युक्त नवमी तिथि में ही पूजा होती है। दशमी युक्त नवमी में नही।
पृष्ठ 357
हेमाद्री में और निर्णयामृत में भविष्य पुराण का मत है कि, कन्या के सूर्य में शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से युक्त और मूल नक्षत्र से युक्त आश्विन शुक्ल पक्ष की नवमी महा नवमी कहलाती है।
पृष्ठ 365
उदिया नवमी तिथि मे महानवमी पूजन तभी करें जब उदिया नवमी तिथि सूर्यास्त के तीन मुहूर्त (2 घण्टा 24 मिनट) के बाद समाप्त होकर दशमी तिथि लगे।
यद्यपि हेमाद्री मत में दो मुहुर्त का भी वेध है।तथापि वह सूर्योदय से ही है। सायंकाल में तो तीन मुहूर्त का ही वेध होता है। उसी बात को दीपिका में भी कहा है कि, सायंकाल में तीन मुहुर्त तिथि हो तो सम्पूर्ण तिथि जाने। माधव ने भी कहा है कि, सायंकाल में तो इससे तीन मूहुर्त के योग में पहली/ उदिया नवमी तिथि लें।
अन्यथा नवमी तिथि दशमीतिथि से युक्त कभी भी न करें। स्कन्दपुराण में भी परा (उदिया) नवमी तिथि का निषेध है।
निर्णय - तीन मुहूर्त का योग न होने से तो निषिद्धा भी परा ही(उदिया नवमी तिथि)ही करे यह निष्कर्ष (सिद्धान्त) है।
संग्रह में कहा हैकि, मे, जप तथा होम नवमी तिथि या श्रवण नक्षत्र में समाप्त करे।
देवी पुराण में कहा है कि, व्रत, जागरण तथा विधिवत (धार्मिक कर अदायगी रूप) बलि नवमी में करें।
पृष्ठ 366
कामरूप निबन्ध में कहा है कि, अष्टमी तिथि के अवशिष्ठ भाग (बचे हुए भाग) में और नवमी तिथि के पूर्वभाग में ही की हुई पूजा महाफल को देनें वाली है।
नवरात्र पारण निर्णय पृष्ठ 372
हेमाद्री में धौम्य का वचन है कि, आश्विन मास के शुक्लपक्ष में नवमी तिथि समाप्ति तक नवरात्र करें या सप्तमी, अष्टमी, नवमी का त्रिरात्र करें। नवरात्र पारण दशमी तिथि में करें।
नवमी तिथि पर्यन्त वृद्धि से पूजा जप (कन्या भोज) आदि करें। नवमी पर्यन्त भूतपूजादि प्रधान कर्म है। उपवास तो पूजा का अङ्ग है।
कोई शंका करे कि, तिथि के ह्रास (घट जाने) में आठ उपवास होंगे - यथा समाख्या (नाम) कैसे होगा।
इसमें कर्म विशेष में नवरात्र शब्द रूढ़ है। इसलिए देवी पुराण में कहा है कि, तिथि वृद्धि मेंऔर तिथि के ह्रास में नवरात्र शब्द ठीक नही है।
तिथि के ह्रास में भी नव तिथियों का उपोष्यत्व होनें से (अर्थात नौ दिन) मानना मूर्ख का कथन परास्त हुआ।
पृष्ठ 374
यज्ञ में वरण का प्रारम्भ होना, व्रत और सत्रयाग में संकल्प का होना, विवाह आदि में नान्दीमुख श्राद्ध होना और श्राद्ध में पाक (पिण्ड का पाक बनना) की क्रिया होनें पर अशौच (सूतक) नही होता।
विजया दशमी निर्णय -- पृष्ठ 377
सूर्योदय कालीन आश्विन शुक्ल दशमी विजयादशमी कहलाती है। इसमें मुख्य कर्म अपराह्न का है। प्रदोष तो गौण है।
दोनो दिन अपराह्न व्यापि हो तो पूर्वा (उदिया दशमी) में विजया दशमी होगी। इसमें प्रदोष व्याप्त में आधिक्य होने से।
दोनों दिन प्रदोष व्यापि हो तो परा ग्रहण करें। क्योंकि अपराह्न व्याप्ति के आधिक्य होने से।
दोनो दिन में अपराह्न के अस्पर्श में तो पूर्वा (उदिया दशमी तिथि) ही लें। किन्तु दोनो दिन में अपराह्न के अस्पर्श में यदि दूसरे दिन श्रवण नक्षत्र का योग हो तो ही परा ही लें।
आश्विन पूर्णिमा निर्णय -- पृष्ठ 378
आश्विन पूर्णिमा परा ही ग्रहण करें।
दीपिका में कहा है कि, (वट) सावित्री व्रत को छोड़कर तो पूर्णिमा और अमावस्या परा ग्रहण करें।
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