तिलक, केतकर, चुलेट आदि सभी विद्वानों नें वैदिक प्रमाणों से सिद्ध किया है कि, वैदिक काल में सूर्य जब उत्तर में स्थित रहकर और उत्तर में गति करता है तब उत्तरायण कहलाता था। सूर्य जब ठीक भूमध्य रेखा पर होकर भूमध्य रेखा से उत्तर में क्रान्ति करता था तब सायन मेष संक्रान्ति को उत्तरायण आरम्भ और वसन्त ऋतु आरम्भ तथा संवत्सर का आरम्भ माना जाता था। अर्थात सायन मेष संक्रान्ति (२०/२१ मार्च) से संवत्सरारम्भ, उत्तरायणारम्भ, वसन्त ऋतु आरम्भ एवम् मधुमास आरम्भ होता था। जब सूर्य दक्षिण गोलार्ध में रहकर दक्षिण में गति करता था तब दक्षिणायन कहलाता था।
तदनुसार सायन तुला संक्रान्ति (२२/२३ सितम्बर) से दक्षिणायन, शरद ऋतु आरम्भ, और इस मास आरम्भ होता था।
सूर्य की दक्षिण परम क्रान्ति होकर उत्तर की ओर गतिशील होना उत्तर तोयन कहलाता था। अर्थात उतर रोमन आरम्भ सायन मकर संक्रान्ति (२१/२२ दिसम्बर) से होता था। और सूर्य जब भूमि के दक्षिण गोलार्ध पर रहते हुए दक्षिण की ओर गतिशील रहता था तब दक्षिण रोमन कहलाता था। दक्षिण तोयन का आरम्भ सायन कर्क संक्रान्ति (२२/२३ जून) से होता था।
विष्णु पुराण के समय सूर्य की उत्तर में कर्क रेखा पर आने अर्थात परम उत्तर क्रान्ति से उत्तरायण आरम्भ बतलाया है। अर्थात वैदिक उत्तर तोयन को उत्तरायण में बदल दिया। दक्षिण तोयन को दक्षिणायन नाम दे दिया। और वैदिक उत्तरायण को उत्तरगोल तथा वैदिक दक्षिणायन को दक्षिणगोल नया नाम दे दिया। इस प्रकार उत्तरायण/ दक्षिणायन तीन महिने आगे (पहले) से आरम्भ बतला दिया।
इसे सन्तुलित करने हेतु विष्णु पुराण में विषुव सम्पात / सायन मेष संक्रान्ति को वसन्त ऋतु के मध्य में बतलाया है। तथा शरद सम्पात को शरद ऋतु के मध्य में बतला दिया। इस प्रकार ऋतुचक्र एक माह आगे खिसका दिया (पहले कर दिया)।
उत्तराखण्ड, कश्मीर, तुर्की स्थान, तुर्कमेनिस्तान, कजाकिस्तान में आज भी वसन्त ऋतु वसन्त सम्पात (२०/२१ मार्च) से ही आरम्भ होती है। भारत में और (प्राचीन ईरान के अवशेष) पारसियों में आज भी वसन्त सम्पात (२०/२१ मार्च) से ही नव संवत्सर आरम्भ होता है।
किन्तु कर्क रेखा के नीचे दक्षिण भारत में वसन्त ऋतु एक माह पहले सायन मीन संक्रान्ति (१८ फरवरी) से आरम्भ हो जाती है। वर्षा ऋतु भी सायन कर्क संक्रान्ति से आरम्भ हो जाती है। इसमें समारोह नहीं कर सकते अतः यह नवीन प्रयोग किया गया जो मध्य भारत और दक्षिण भारत में प्रचलित हो गया।
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