शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2021

क्या शंकराचार्य वास्तव में जगत को मिथ्या मानते थे? क्या मिथ्या और असत् पर्यायवाची है?

एक भारतीय के विचार

 क्या शंकराचार्य वास्तव में जगत को मिथ्या मानते थे? क्या मिथ्या और असत् पर्यायवाची है? 

क्या शंकराचार्य वास्तव में जगत को मिथ्या मानते थे?
 जी हाँ,आद्यशंकराचार्य जी वास्तव में जगत को मिथ्या ही मानते थे।
आद्यशंकराचार्य जी वेदज्ञ थे, वेदिकमतावलम्बी थे अतः उनने निरालम्बोपनिषद का वाक्यांश ब्रह्मसत्यम् जगत्मिथ्या;जीवो ब्रह्म ना परः का उल्लेख अपनी ब्रह्मज्ञानावलिमाला में किया है। 
 जगत जब मिथ्या है तो क्या जगत असत है? 
 उत्तर होगा नही। जगत असत भी नही है।
 यह प्रश्न स्वाभाविक है उत्पन्न होता है कि, प्रत्यक्ष अनुभव होनें वाला जगत असत तो हो नही सकता है। तो मिथ्या कैसे है?
 तो क्या उपनिषद वाक्य गलत है ?
 नही भाई! असत कहाँ कहा है?  मिथ्या कहा है। असत नही कहा।  मिथ्या और असत दो भिन्न अवधारणा है। 
 मिथ्या का तात्पर्य जो जैसा हो नही, वैसा दिखे। जैसा हो वैसा दिखे नही। जो दिखे, यथार्थ में वैसा हो नही। जो हो वह दिखे नही।
जैसे ट्रेन/ बस में यात्रा के समय पथ के किनारे के वृक्ष पीछे भागते दिखते हैं। और दूरस्थ वृक्षावली चाप बनाती हुई प्रतीत होती है।  यह आप भी जानते हैं कि, यह मात्र भ्रम है, यह दृष्य मिथ्या है फिरभी बच्चे उस दृष्य का मजा लेते हैं। और आप हाँ में हाँ मिलाने के बजाय आप उन्हें उसका विज्ञान समझाते हैं।  यही कार्य श्रुति वाक्य के सहारे से शंकराचार्य जी ने किया है।

मिथ्या शब्द असत से भिन्न है। *मिथ्या का मतलब असत्य नही होता।  प्रतीत होने वाली वस्तु असत नही सत्य सी लगती है। जबकि दिक, काल (अर्थात जगत) प्रतिक्षण बदलता रहता है। और हम अपने मस्तिष्क की मेधाशक्ति के बलपर उस सतत् परिवर्तनशील दिककाल (जगत) में सातत्य अनुभव करते हैं। बदलनें के पहले हम उस दृष्य को स्मृति में बिठा चुके होते हैं। यह इतना तिवृ और स्वाभाविक होता है कि, हम उसे अपना कर्म नही मान पाते हैं। यह प्रतीति है यही मिथ्यात्व है।
जगत हर क्षण बदल जाता है लेकिन उसमें सातत्य आभास के कारण वह सत्य भासता है अतः जगत मिथ्या ही है।
जैसे सिनेमा की रील को देखो तो उसमें दृष्य अनेक खण्ड में विभक्त है। क्योंकि, केमरा जड़ है, उसका कोई संस्कार नही है अतः केमरा प्रति क्षण के अलग अलग चित्र पकड़ता है। लेकिन जब मशीन से निर्धारित समय एक सेकण्ड में लगभग सोलह दृष्य क्रमबद्ध आँखों के सामने से गुजरते हैं तो वे हमें  चलायमान भासित  होते है। जबकि वे सब स्थिर और अलग अलग दृष्य हैं। इसीको मिथ्या कहते हैं। 
वेदान्त की भाषा में न रज्जु असत्य है न सर्प असत्य है  लेकिन अल्प प्रकाश की स्थिति में होने वाला सर्परज्जु भ्रम मिथ्या है।
 परमात्मा को ही जगत का निमित्तोपादान कारण कहने वाले, माया को विष्णु की शक्ति और विष्णु के अधीन बतलाने वाले, माया को सत असत अनिर्वचनीय कहने वाले, जीवो ब्रह्म न परः कहकर अद्वैत प्रतिपादित करनें वाले आद्यशंकराचार्य जी जगत को असत कहें यह सम्भव तो नही । जैसे सत्य और ऋत अति निकट होने के कारण कई विद्वान भी ऋत को सत्य मान बैठते हैं वैसे ही मिथ्या भ्रम के निकट का शब्द है। 
 हाँ यह निश्चित है कि माया समय का कारण विष्णु है अतः वे त्रेतवादियों के समान शंकराचार्य जी माया को अनादि अनन्त नही मानते थे। अर्थात जगत को भी अनादि, अनन्त नही मानते थे।
 शंकराचार्य जी के मत मे परमात्मा के अतिरिक्त कुछ है ही नही और परमात्मा तो परम सत्य है और जब परमात्मा ही जगतरूप में प्रकट हुआ तो परमात्मा का जगतरूप असत कैसे हो सकता है? लेकिन इसकी परिवर्तनशीलता के कारण यह मिथ्या भी है। 
 दृष्यमान परिवर्नशील जगत के दृष्यों में लगाव रखना तो अनुचित ही है ना? अतः इस अनुचित वर्ताव से सावधान करनें हेतु जगत का मिथ्यात्व दर्शाना आचार्य का महत्वपूर्ण कार्य था।

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