कर्म का परिणाम देरी से दिखता है। फल तो तत्काल ही मिलता है।
आपके मन में कोई संकल्प उठा, तत्काल उसका कोई विकल्प भी उपस्थित हो जायेगा। इस संकल्प-विकल्प की उधेड़बुन में न पड़ते हुए आपनी बुद्धि से जाँचा- परखा और (निश्चयात्मिका बुद्धि से) विवेक पूर्वक उचित और सही निर्णय किया और कार्यान्वयन में जुट गये।
स्वाभाविक है कार्यान्वयन में भौतिक जैविक और मानव संसाधन जुटाने, उन्हें अपनी बात समझाने, उनको प्रशिक्षित करने, और कार्यपर लगानें और कार्यान्वित होनें तक बारम्बार निरीक्षण-परीक्षण करते रहनें पर ही अनुकूल परिणाम मिलेगा। जहाँ-जितनी छूट/ ढील दी उतनी ही कार्यान्वयन अवधि बड़ेगी और उसी अनुपात में कार्य बिगड़ेगा।
बहुत साधारण उदाहरण है आप घरपर बोलें कि, भूख लगी है भोजन करना चाहता हूँ। इसी में उक्त सभी चीजें परिलक्षित हो जायेगी।
आटा-दाल-सब्जी- मसाले-पानी- इंधन, बरतन कितने भौतिक जैविक संसाधन लगेगें! फिर इन संसाधनों को जुटाने वाला, भोजन बनाने वाला, परोसनें वाला मानव संसाधन । क्या खाना है? कैसे बनाना है? कितनी देरी में खाना है यह सब भी समझाना पड़ेगा। तब समय पर मनचाहा भोजन मिलेगा।
परिणाम में देरी हुई। लेकिन भोजन के निश्चय के साथ ही कर्मफल आरम्भ हो गया। अन्यथा क्रियान्वयन सम्भव ही नही। कर्म का संस्कार और अगली स्टेप (अगलाकर्म) फल ही है।
इसीलिए श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में समझाया कि, कर्मफल की चाह अनावश्यक है कर्मफल तो तत्काल मिलना ही है अतः केवल परिणामपेक्षित कर्म कर्तव्य है जबकि, फलाशा से कर्म करना मुर्खता है।
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