जब वेधशालाएँ सीमित थी। सबको उपलब्ध नहीं थी, आज जैसे घर बैठे डेटा नहीं मिल पाते थे। तब ग्रह गणित विकासशील था। अब कॉफी विकसित हो चुका है। सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं।
तो भाव स्पष्ट और ग्रह स्पष्ट बिल्कुल सही सही गणना हो जाती है, षडबल आसानी से रेडीमेड मिल जाते हैं। तब चन्द्र राशि और सूर्य की राशि या भावेश जिस राशि में बैठा होता है, उस राशि को लग्न मान कर देखने की कोई आवश्यकता नहीं रही।
फिर भी मानसिक फिटनेस हेतु चन्द्र कुण्डली, आत्मबल देखने हेतु सूर्य कुण्डली, पुरुष का देहिक बल हेतु मंगल जिस राशि में बैठा हो उस राशि को लग्न मानकर, स्त्री का देहिक बल देखने हेतु शुक्र जिस राशि में बैठा हो उस राशि को लग्न मानकर देखते हैं।
गणित ज्ञान, कम्प्यूटर और अकाउंट्स ज्ञान हेतु बुध को, बुद्धिमत्ता हेतु गुरु ब्रहस्पति को, नीति निपुणता और चातुर्य के लिए शुक्र को, कष्ट और तकनीकी निपुणता के लिए शनि को लग्न मानकर देखते हैं।
सम्बन्धित विषय के लिए सम्बन्धित भाव को लग्न मानकर देखते हैं जैसे विवाह हेतु सप्त भाव को लग्न मानकर देखते हैं।
बुद्धिमान ज्योतिषी ये सब लग्न कुण्डली में ही देख लेता है।
श्री के एस कृष्णमूर्ति जी के अनुसार ग्रह जिस ग्रह के नक्षत्र में स्थित हो तदनुसार फल देता है।
चलित चक्र में जो ग्रह जिस भाव में स्थित हो उसी भाव का फल बतलाता है। आंशिक प्रभाव लग्न चक्र में जहाँ बैठा हो उसका फल भी मानते हैं।
भाव कुण्डली में ग्रह जिन जिन भाव का स्वामी हो अर्थात भाव स्पष्ट के अनुसार ग्रह जिस जिस भाव का स्वामी हो उन्ही भावों का फल बतलाता है।
ग्रह स्पष्ट में ग्रह जिस राशि, नक्षत्र, नवांश मे या कृष्णमूर्ति के सबलार्ड या सब सब में स्थित हो तदनुसार फल दर्शाता है।
सबसे प्रबल भावस्थ ग्रह के नक्षत्र में स्थित ग्रह, फिर भावस्थ ग्रह फिर भावेश के नक्षत्र में स्थित ग्रह, फिर भावेश ग्रह का बल होता है।
वृहत्पराषर होरा शास्त्र और केशवी जातकोक्त षडबल ---
स्थान बल :
जब ग्रह अपने उच्चांश में > या उच्च राशि में > या मूल त्रिकोण में >या स्वराशि में> या अधिमित्र की राशि में >या मित्र की राशि में हो तो स्थान बली होता है। साथ ही ग्रह षोडशवर्ग में अपनी उच्च राशि में या मूल त्रिकोण राशि में या स्वराशि में या अधिमित्र की राशि में हो या मित्र की राशि में हो तो स्थान बली होता है।
नीचांश से उच्चांश की ओर बढ़ते हुए उच्चाभिलाषी बल बढ़ता है और उच्चांश से नीचांश की ओर बढ़ने पर क्रमशः घटता है।
दिग बल :
सूर्य और मंगल को दशम भाव में दिगबली होते हैं।
चंद्र और शुक्र चतुर्थ भाव में।
बुध और गुरु लग्न में शनि सप्तम भाव में दिग्बली होता है।
इन भावो से 180° पर इन भावों के सपतम भाव में दिग्बल शुन्य होता है। स्थान बल के समान आनुपातिक बल ज्ञात होता है।
काल बल :
शुभ ग्रह शुक्ल पक्ष में बलवान होते हैं।पाप ग्रह कृष्ण पक्ष में बलवान होते हैं। चंद्र, मंगल और शनि रात्रि में बली होते हैं सूर्य, शुक्र और गुरु दिन बली हैं। बुध दिन रात्रि में बली होते हैं।
चेष्टा बल :
मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि को वक्री होने पर चेष्ठा बली होते हैं।उत्तरायण में सूर्य और चंद्रमा चेष्ठा बली होते हैं।
दृष्टि बल :
शुभ ग्रह की दृष्टि से दृष्ट ग्रह का बल बढ़ता है और पाप ग्रह की दृष्टि से दृष्ट ग्रह का बल घटता जाता है।
नैसर्गिक बल :
सूर्य सर्वाधिक बली होता है, वहीं शनि सबसे कम बली होता है। सूर्य> चंद्रमा> शुक्र> गुरु> बुध> मंगल > शनि क्रमशः कम बली होते हैं।
*भाव बल - भाव स्पष्ट पर भाव की राशि का स्वामी या भावेश का मित्र ग्रह या शुभग्रह हो तो उस भाव का बल बढ़ जाता है। भाव स्पष्ट से सन्धि की ओर उक्त ग्रह हो तो भाव का बल घट जाता है। ऐसे ही भावव की राशि के स्वामी का शत्रु ग्रह भाव के बल को कम कर देता है।*
*भाव का स्वामी यदि उक्त प्रकार से जितना अधिक षडबली हो तो भाव बलवान होता है । और भावेश का षडबल कम हो तो भाव भी कमजोर हो जाता है।*
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