बुधवार, 18 सितंबर 2024

शास्त्रोक्त कर्म ही करें और शास्त्रोक्त कर्म भी शास्त्रीय विधि से ही करें।

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि,

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌॥ श्रीमद्भगवद्गीता 16/23
जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परमगति को और न सुख को ही ॥16/23
 तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥ श्रीमद्भगवद्गीता 16/24
इससे तेरे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है। ऐसा जानकर तू शास्त्र विधि से नियत कर्म ही करने योग्य है ॥16/24॥
केवल शास्त्रीय विधि से ही शास्त्रीय कर्म ही करे। अतः शास्त्र ज्ञान प्राप्त करना सभी का कर्तव्य है।

सम्पूर्ण रूपेण ईश्वरार्पण होकर ही केवल निष्काम भाव से केवल परमात्मा की ही आराधना - उपासना  करें।
क्योंकि,
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसा: ।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जना: श्रीमद्भगवद्गीता 17/4
सत्वगुणी लोग देवताओं की पूजा करते हैं, रजोगुणी लोग यक्षों और राक्षसों की पूजा करते हैं, और तमोगुणी लोग पञ्चमहाभूतों, और मृतकों की कब्र में स्थित प्रेतों (पिशाचों) की पूजा करते हैं. 

प्रश्न उठता है कि कर्म बन्धन से छूटकर परम शान्ति लाभ करने के लिये मनुष्य को क्या करना चाहिये? इस पर भगवान् उसका कर्तव्य बतलाते हुए कहते हैं-

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् श्रीमद्भगवद्गीता 18/ 62

हे भारत ! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा 18/62
 
 इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात कही है --- 
 तमेव शरणं गच्छ सर्व भावेन भारतः। 
 तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा।

सभी लोगों को शास्त्र ज्ञान नहीं है; इसलिए मैं व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहारों का शास्त्रोक्त कर्मकाल / पर्वकाल/ पूजा का दिनांक और समय बतला देता हूँ।
मैरी सास ऐसा करती थी, मैरे पापा ऐसा करते थे। हम तो केवल चौघड़िया देखते हैं, या हम कोई मुहूर्त नहीं देखते। ऐसा मानने वाले अपने कर्मों के लिए स्वयम् उत्तरदाई हैं न कि, उनके पापा या सास।
सप्तर्षियो द्वारा महर्षि वाल्मीकि को समझाया गया ज्ञान इस बात का प्रमाण है।
वैदिक/ श्रोत्रिय तो दुर्लभ हो गये हैं। सनातनियों में स्मार्त, वैष्णव, सौर, शैव, शाक्त, गाणपत्य और कौमार (कार्तिकेय उपासक) अपनी-अपनी परम्पराओं का पालन करते हैं। और आर्य समाजी, कबीर पन्थी आदि जीते जी माता-पिता और बुजुर्गो की सेवा ही श्राद्ध मानते हैं। ये सब सनातनधर्मी भी जी रहे हैं। और
नाथ, खालसा,जैन, बौद्ध, नवबौद्ध, चीनी, पारसी, यहुदी, इसाई और मुस्लिम अपने-अपने केलेण्डर के अनुसार और उनके शास्त्रों में बतलाई गई विधि से श्राद्ध करते हैं। वे भी जी रहे हैं। 
इसलिए मानना- न मानना व्यक्तिगत स्वातंत्र्य है।

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