सोमवार, 30 सितंबर 2024

आर्य समाज और संघ में अन्तर

संघ परिवार हमेशा कहता है कि, हमें इज्राइल से सीखना चाहिए, यहुदियों से सीखना चाहिए, मुस्लिमों से सीखना चाहिए, यूरोप, अमेरिका और चीन से सीखना चाहिए।
महर्षि दयानन्द सरस्वती कहते थे कि, हमें वेदों से सीखना चाहिए वापस वेदों की ओर चलो विश्व को श्रेष्ठ, सदाचारी, सद्धर्म में प्रवर्त आर्य बनाओ (कृण्वन्तम विश्वार्यम्) आर्यसमाज भी हमेशा कहता है कि हमें वैदिक शिक्षा ही ग्रहण करना चाहिए। वेदों से ही शिक्षा मिल सकती है। वेदों से ही सीखो।
ऐसा कभी संघ या संघ परिवार कहना तो दूर सोच भी नहीं सकता। क्योंकि उनके आदर्श मुसोलिनी और फ़ासिज़्म है, तान्त्रिक हैं वैदिक नहीं।
उधर 
इज्राइल कहता है कि, यह युद्ध कौशल हमने शिवाजी से सीखा।
सम्भवतः शिवाजी मानते हों कि, यह युद्ध कला हमने भगवान श्रीकृष्ण की नारायणी सेना से सीखी।
भगवान श्रीकृष्ण कहते थे कि, उन्होंने वेदों से शिक्षा ग्रहण की। नारायणी सेना यजुर्वेद और धनुर्वेद के सिद्धान्तों पर आधारित संगठन था।
अन्त में दिल्ली आर्यसमाज के डॉक्टर विवेक आर्य के शब्दों में ⤵️

धार्मिक क्षेत्र में संघ अभी तक अपनी मान्यताएं स्थापित नहीं कर पाया है । 
 संघ ने ऐसा कार्य नहीं किया, जिससे कोई बड़ा सामाजिक/धार्मिक परिवर्तन किया हो ।
परन्तु, आर्यसमाज के ऐसे अनेक कार्य हैं जो संघ ने स्वयं आर्यसमाज से उधार लिया है  । 
संघ की सबसे बड़ी अशक्तता उसका सनातन वैदिक धर्मियों  के धार्मिक मामलों में किसी भी प्रकार का कोई मार्गदर्शन नहीं दे पाना है । जैसे ,  संघ ने परम्परागत हिन्दुओं को ना कभी मजारों/ कब्रों पर सर पटकने से रोका है, और ना ही साईं बाबा उर्फ़ चाँद मियां को ईश्वर के रूप में पूजने से | ना ही रामरहीम, रामपाल, राधे माँ के पाखंड में फंसने से रोका, और ना ही वेद ज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए कुछ किया है । 
जबकि संघ के पास देश, प्रदेश की सरकार से लेकर नगर निकायों की सत्ता, हजारों विद्यालय, लाखों स्वयंसेवक, मजबूत संगठन आदि सब कुछ है । 
आर्यसमाज के युवा हजारों की संख्या में दिन-रात बिना किसी लोभ, प्रलोभन, पद, नेतागिरी के सनातन धर्मी समाज को वो बात सिखला रहा है , जो वो पिछले 1200 वर्षों में भी नहीं समझ पाया है ।
स्वामी दयानन्द सरस्वती जो समझाना चाहते थे, वह सनातन धर्मी समाज समझने को तैयार नहीं है । 
संघ का चर्चा में रहना, और जुमलेबाजी करना कि 2021 में भारत विश्व गुरु बन जायेगा हम जानते हैं । परन्तु संघ को भी स्वयम् यह ज्ञात नहीं है कि, कैसे बनेगा ? और धरातल पर यथार्थ कार्य करने में और जुमले बाजी करने में बहुत अंतर है। 
आर्यसमाज को भी अपनी प्रचार शैली में परिवर्तन की आवश्यकता है । सरल, प्रभावशाली रूप में स्वामी दयानन्द सरस्वती की मान्यताओं को प्रचारित किया जाये ।
मैं संघ की संगठन क्षमता की प्रशंसा करना चाहूँगा, जिसकी आर्यसमाज में कमी है । 
आशा है कि आप मेरी बात को अन्यथा न लेकर मेरे चिंतन को समझेगें । मैं व्यर्थ में किसी की निंदा करने में अपना समय व्यर्थ नहीं करता । परन्तु मैंने जो वर्षों में देखा, समझा वो आपसे साझा किया है ।

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