ध्यानमूलं गुरुर्मूर्तिः
पूजामूलं गुरुर्पदम् ।
मन्त्रमूलं गुरुर्वाक्यं
मोक्षमूलं गुरूर्कृपा ॥
की व्याख्या ---
माता-पिता, गुरु, अतिथि, प्रकाश स्वरूप सूर्य, उष्मा और प्रकाश का श्रोत अग्नि और सर्वव्यापी आकाश ये सात प्रत्यक्ष मूर्तिमान देव प्रत्यक्ष उपलब्ध हैं। इसीलिए ध्यान के लिए अन्य किसी प्रतिमा की क्या आवश्यकता है।
इन्हीं की सेवा-पूजा ही पर्याप्त है किसी जड़ प्रतिमा की पूजा से क्या लाभ।
माता-पिता, गुरु, अतिथि द्वारा प्रदत्त ज्ञानोपदेश के बिना शास्त्र वचन समझना लगभग असम्भव इतना कठिन है। इसलिए माता-पिता, गुरु, अतिथि के वाक्य भी वेदमन्त्र के समान आदरणीय हैं।
आत्मा अर्थात परम आत्मा यानी परमात्मा को हम वरण करें और परमात्मा द्वारा हमें वरण किये जाने पर ही मोक्ष होता है। इसलिए उपनिषदों में अनुकम्पा को महत्वपूर्ण माना गया है।
जिस प्रकार पतिव्रता नारी और एक पत्नी व्रती नर के लिए एक बार वरण करने के पश्चात परस्पर पूर्ण समर्पण होता है। फिर अन्य का कोई महत्व नहीं रह जाता।
इसी प्रकार अन्तरात्मा जब प्रज्ञात्मा में ही लीन हो जाता है, तब वह विश्वात्मा हो जाता है। और अन्ततः परमात्मा ही रह जाता है।
यही मोक्ष है।
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