इसलिए अन्त्येष्टि/ दाह संस्कार करके दस दिन में समस्त अस्थियाँ तीर्थों में विसर्जित कर देना चाहिए।
दशाह-एकादश कर्म होने के बाद अशोच (सुतक) समाप्त हो जाता है। कर्मकाण्ड कर सकते हैं।
प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र और आकुति के पति रुचि प्रजापति ने श्राद्ध कर्म प्रारम्भ किया। जिसमें मुख्यतः भगवान विष्णु की आराधना होती है।
पौराणिक परम्परा अनुसार महर्षि वाल्मीकि के शिष्य, वाल्मीकि रामायण में उत्तर काण्ड जोड़ने वाले, तथा दुष्यन्त - शकुन्तला के उत्तराधिकारी महर्षि भरद्वाज ने श्राद्ध चलाया।
द्वादशाह में पिण्ड दान के बाद जीव तृप्त हो जाता है।
और अपवाद को छोड़कर अधिकांशतः जीव सम्बन्धियों को भूल जाता है। दूसरी योनि में प्रवेश कर लेता है।
मासिक, द्विमासिक, त्रेमासिक, षडमासी और वार्षिक श्राद्ध यदि तेरह दिन में ही कर दिये जाएँ तो केवल तृतीय वर्ष श्राद्ध पक्ष में पूर्णिमा को पितरों का आह्वान किया जाता है, फिर मृत्यु वाली तिथि को श्राद्ध में लिया जाता है। तब वह जीव पितर संज्ञा धारण कर लेता है। फिर उसकी गणना भी सप्त पितरः में होती है।
फिर गया श्राद्ध और बद्रीनाथ में ब्रह्म कपाली करने पर जीव की गणना देव योनि में होती है।
ध्यान रखें कि, वार सूर्योदय से सूर्योदय तक रहता है। अतः और दिन का समय सूर्योदय से सूर्यास्त तक रहता है एवम् रात सूर्यास्त से सूर्योदय तक रहती है।
सूर्यास्त समय के घण्टे-मिनट में से सूर्योदय समय के घण्टे-मिनट घटाकर दो का भाग देने पर मध्याह्न का समय आता है।
और अगले सूर्योदय के घण्टे-मिनट में से आज के सूर्यास्त के घण्टे-मिनट घटा कर जो घण्टे-मिनट आये उन घण्टे-मिनट को सूर्यास्त में जोड़ने पर मध्य रात्रि का समय आयेगा। यदि बारह से अधिक हो तो बारह घटा लें। या चौबीस घण्टे वाला समय लिया है तो चौबीस घटा लें।
रात बारह बजे केवल Day & Date ( डे और डेट) बदलते हैं। दिन और वार नहीं बदलते।
दिन और वार सूर्योदय से ही बदलते हैं।
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