सूर्य से चन्द्रमा के प्रत्येक बारह अंश (12°) के अन्तर को तिथि कहते हैं। और सूर्य से चन्द्रमा के प्रत्येक छः अंश (6°) के अन्तर को करण कहते हैं।
चन्द्रमा भू परिभ्रमण में 27 तारा मण्डल के सम्मुख से निकलता है। जिस तारा मण्डल के सम्मुख से निकलता है उस अवधि को चन्द्र नक्षत्र कहते हैं।
तिथियों के अतिरिक्त नक्षत्रों के श्राद्ध भी होता है। इसमें भरणी श्राद्ध मुख्य है। इसके अलावा मघा श्राद्ध भी होता है।
कारण यह है कि, भरणी नक्षत्र के देवता यम हैं। और यम सप्त पितरों में से एक हैं।
मघा नक्षत्र के देवता पितरः हैं।
इसलिए इन नक्षत्रों के अपराह्न व्यापी होने के दिन श्राद्ध होता है।
इनके अतिरिक्त उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के देवता अर्यमा तो सप्त पितरों के राजा हैं। जिनका अधिकार कव्य में है। अर्थात अर्यमा को भी श्राद्ध भाग प्राप्त होता है।
और
उत्तराषाढ़ नक्षत्र के स्वामी विश्वेदेवाः को भी श्राद्ध भाग दिया जाता है।
दो सूर्योदय के बीच के समय (प्रायः 24घण्टे) को वार कहते हैं।
सूर्य स्पष्ट और चन्द्र स्पष्ट के योग का सत्ताइसवाँ भाग योग कहलाता है। ये सब पञ्चाङ्ग के अङ्ग है।
श्राद्ध प्रकरण में इन सबके श्राद्ध का भी उल्लेख है। लेकिन प्रचलित केवल तिथियों के श्राद्ध ही हैं शेष प्रचलित नहीं है। फिर भी भरणी श्राद्ध प्रचलित है।
अब मूल मुद्दे *भरणी श्राद्ध पर ही विचार किया जाएगा।*
सनातन धर्म के स्मृति ग्रन्थों के अनुसार प्रत्येक मानव को जीवन में तीर्थ यात्रा करना ही चाहिए।
चार प्राचीन तीर्थ ये हैं-
सतयुग का तीर्थ पुष्कर तीर्थ (अजमेर के पास)।
त्रेता का तीर्थ नैमिशारण्य (निमिस उत्तर प्रदेश),
द्वापर का तीर्थ कुरुक्षेत्र (हरियाणा)। और
कलियुग का तीर्थ गङ्गा।
सौरों (पश्चिम उत्तर प्रदेश), प्रयागराज, काशी (वाराणसी), हरिद्वार, ऋषिकेश, गङ्गोत्री, और गौ मुख, गङ्गा ग्लेशियर और गङ्गासागर ये गङ्गा के प्रमुख तीर्थ हैं।
ऐसे ही चार अर्वाचीन तीर्थ हैं---
बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, डाकोर और द्वारका पुरी तथा रामेश्वरम (तमिलनाडु) या परशुरामेश्वर (कर्नाटक-केरल सीमा पर गुरवायुर के निकट)।
इन तीर्थ स्थानों पर जीवन में एकबार स्नान, दान, होम-हवन, यज्ञ, श्राद्ध, तर्पण और तपस्या करना चाहिए।
जो लोग तीर्थ यात्रा पर नहीं ज पाये उनका श्राद्ध पक्ष में भरणी श्राद्ध भरणी नक्षत्र के दिन किया जाता है।
जो पूरे जीवन काल में तीर्थ यात्रा नहीं कर पाये उसके लिए, और तीर्थ स्थल पर मृत्यु नहीं होने, मृत्यु के समय गोबर से लेपन की हुई भूमि पर पद्मासन में बैठकर ॐ मन्त्रोच्चार के साथ परमात्मा का ध्यान करते हुए मृत्यु न होने या उत्तर में सिर करके चित लेटकर ॐ मन्त्रोच्चार के साथ परमात्मा का चिन्तन न करते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए मानव का, मरते समय मुख में गङ्गा जल और तुलसी पत्र नहीं था, ख़राब तिथि, वार, नक्षत्र योग करण, मुहूर्त , घटि या लग्न में मृत्यु होने के लगे दोष के लिए दशाह, एकादशाह, द्वादशाह, मङगलश्राद्ध तृयोदशाह, मासिक श्राद्ध, द्विमासिक श्राद्ध, त्रेमासिक श्राद्ध, अर्ध वार्षिक श्राद्ध (छः मासी), वार्षिक श्राद्ध (बरसी), द्वि वार्षिक श्राद्ध और श्राद्ध में लेने के लिए विष्णु पूजा के समय प्रायश्चित किया जाता है।
बाद में गया श्राद्ध, और बद्रीनाथ में ब्रह्म कपाली में भी इनका प्रायश्चित होता है। अतः बाद में वापस करना आवश्यक नहीं है। लेकिन भयभीत वंशज फिर भी ये श्राद्ध करते हैं।
भरणी श्राद्ध भरणी नक्षत्र में मातृ गया (सिद्धपुर- गुजरात)/ पितृ गया (बिहार), ब्रह्मकपाली - बद्रीनाथ (उत्तराखण्ड) में श्राद्ध पक्ष में अपराह्न व्यापी भरणी नक्षत्र के दिन किया जाता है।
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