अपर ब्रह्म नारायण-नारायणी से हिरण्यगर्भ ब्रह्मा हुए।
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की मानस सन्तान (1) त्वष्टा-रचना के अलावा (2) सनक, (3) सनन्दन, (4) सनत्कुमार और (5) सनातन तथा (6) नारद , (7) प्रजापति, और (8) एकरुद्र (अर्धनारीश्वर महारुद्र) हुए।प्रजापति के पुत्र ---
(1) दक्ष प्रजापति (प्रथम)-प्रसुति, (2) रुचि प्रजापति-आकुति और (3) कर्दम प्रजापति-देवहूति।
प्रसुति, आकुति और देवहूति भी ब्रह्मा की मानस सन्तान है किन्तु इन्हे स्वायम्भुव मनु-शतरूपा की पुत्री भी कहा जाता है।
प्रजापति ब्रह्मा के इन मानस पुत्रों के अलावा ग्यारह मानस पुत्र और भी हैं। जिनमें से दो देवस्थानी प्रजापति (1) इन्द्र - शचि और (2) अग्नि - स्वाहा एवम् एक (3) देवर्षि नारद मुनि हैं अविवाहित होने से प्रजापति नहीं हैं।
आठ भूस्थानी प्रजापति ये हैं (4) मरीची-सम्भूति, (5) भृगु-ख्याति, (6) अङ्गिरा-स्मृति, (7) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (8) अत्रि-अनसुया, (9) पुलह-क्षमा, (10) पुलस्य-प्रीति, (11) कृतु-सन्तति। ये सभी ब्रह्मर्षि भूस्थानी प्रजापति हुए। और इनकी पत्नियाँ दक्ष प्रजापति (प्रथम) और उनकी पत्नी प्रसुति की पुत्रियाँ थी। इन ब्रह्मर्षियों का वासस्थान ब्रह्मर्षि देश कहलाता है। (ब्रह्मर्षि देश यानी हरियाणा में गोड़ देश अर्थात कुरुक्षेत्र के आसपास का क्षेत्र) एवम इनकी सन्तान ब्रह्मज्ञ ब्राह्मण हुए।
इन्द्र - शचि और अग्नि - स्वाहा और नारद जी के अलावा निम्नलिखित स्वर्गस्थानी देवगण हुए
(12) रुद्र- रौद्री (शंकर - सति पार्वती) - रुद्र मूलतः अन्तरिक्ष स्थानी देवता है लेकिन भूलोक में हिमालय में शंकरजी कैलाश वासी भी हैं।
(13) धर्म - और उनकी तेरह पत्नियाँ । (१) श्रद्धा, (२) लक्ष्मी, (३) धृति, (४) तुष्टि, (५) पुष्टि, (६) मेधा, (७) क्रिया, (८) बुद्धि, (९) लज्जा, (१०) वपु, (११) शान्ति, (१२) सिद्धि, (१३) कीर्ति ) ये देवस्थानी प्रजापति हैं। इनकी पत्नियाँ दक्ष प्रजापति (प्रथम) और प्रसुति की कन्याएँ थी । धर्म द्युलोक का अर्थात स्वर्गस्थानी देवता है। लेकिन भूमि पर कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहाजाता है। इनके अलावा (14) पितरः - स्वधा अन्तरिक्ष स्थानी प्रजापति हुए। पितरः ने स्वयम् सप्त पितरों और उनकी शक्ति (पत्नी) को में प्रकट किया। जिनमें से (१) अग्निष्वात (२) बहिर्षद और (३) कव्यवाह तीन निराकार और (४) अर्यमा, (५) अनल (६) सोम और (७) यम चार साकार हैं। अर्यमा इनमें मुख्य हैं।
प्रजापति ब्रह्मा के मानस पुत्र नारद बाल ब्रह्मचारी ही रहे। अतः प्रजापति के स्थान पर मुनि और देवर्षि ही कहे जाते हैं।
सप्तम मन्वन्तर में दस प्रचेताओं के पुत्र दक्ष द्वितीय हुए उनकी पत्नी असीक्नी है। ये शंकर जी के श्वसुर और उमा के पिता हैं। ये कनखल हरिद्वार के शासक भी थे। इनके समय जल प्रलय के नायक विवस्वान आदित्य के पुत्र श्राद्धदेव वैवस्वत मनु कहलाये और उनकी पत्नी श्रद्धा थी।
दक्ष प्रजापति वैदिक वर्णाश्रम धर्म के नियामक होते हैं ये ऋषियों के नेता हैं। इनकी सन्तान ब्रह्म ज्ञानी ब्राह्मण होती है और मनु वैदिक वर्णाश्रम धर्म के आधार पर शासन व्यवस्था स्थापित करने वाले राजा होते हैं। इनकी सन्तान समाज रक्षक क्षत्रिय होती हैं। वैश्य वर्ण भी इन्हीं की सन्तानों से निकला।
ये वर्णाश्रम धर्म वेद, विष्णु और यज्ञ प्रधान आचार संहिता है। ये देवताओं के लिए यझ कर देवताओं (प्रकृति) द्वारा प्रदत्त भोग आवश्यकता अनुसार ही भोग करते हैं। यही वैष्णव मत है। जो महाभारत के भागवत पन्थ से भिन्न है। दक्षिण भारतीय भागवत पन्थानुयाई हैं।
श्रोत्रिय, वैदिक, *याज्ञनिक या याज्ञिक* , स्मार्त, वैष्णवों में वर्णाश्रम व्यवस्था का समादर है। ये अभिषेक नहीं होम हवन-यज्ञ करते हैं। केवल जीवन के समस्त कर्तव्य पूर्ण कर वानप्रस्थ आश्रम के बाद मृत्यु निकट देखकर वन की ओर रुख कर संन्यास लेते हैं। वैष्णवों में गङ्गा का महत्व है वैसे ही शैवों में नर्मदा का महत्व है।
शैवों ने ही सर्वप्रथम मूर्ति पूजा, सकामोपासना, बचपन से ही संन्यासी होना और तन्त्र मत चलाया। ये यज्ञ नहीं अभिषेक और मूर्तिपूजा करते हैं। इब्राहीम का सबाइन पन्थ भी शैव पन्थ का ही रूप है।
बाद में त्वष्टा ने युनान के पास क्रीट में शाक्त पन्थ की स्थापना की जो सऊदी अरब तक फैला। शाक्त पन्थ शुद्ध तान्त्रिक मत है।
चीन में लाओत्से ने ताओ नाम से तन्त्र मत चलाया । जिसमें कुङ्गफु (कन्फ्युशियस) ने संशोधित किया। इन्हीं का परिवर्तित रूप जापान का शिन्तो मत है।
ऋषभदेव के पुत्र और भरत चक्रवर्ती के भाई बाहुबली जिसकी मुर्ती कर्नाटक में है, जहाँ समारोह पूर्वक महामस्त का अभिषेक होता है, उसने स्वायम्भूव मनु के वंशज भरत चक्रवर्ती की सन्तान मनुर्भरतों में अर्थात भारतियों में शंकर जी के शिष्य शुक्राचार्य, उनके पुत्र त्वष्टा और पौत्र विश्वरूप द्वारा स्थापित वेद विरोधी तान्त्रिक मत का प्रचार सिन्ध प्रान्त में किया। उसी परम्परा को शान्तिनाथ, ..., नेमीनाथ, श्रीकृष्ण के चचेरे भाई अरिष्ट नेमि, पार्श्वनाथ और वर्धमान महावीर ने आगे बढ़ाया। अरिष्ट नेमि तक यह बौद्ध मत कहलाता था।
वेद, ब्राह्मण ग्रन्थों, वेदाङ्ग, उपवेद, पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा, सांख्य, योग, वेशेषिक और न्याय दर्शन में शिक्षित सिद्धार्थ गोतम बुद्ध भी उक्त बौद्ध मतानुसार शरीर क्लेश वाले कठोर आसुरी तप करके अन्ततः लगभग इसी मत के अनुयाई हो गये थे।
बौद्ध मत की महायान शाखा की वज्रयान उपशाखा से निकले चौरासी सिद्धों में नव नाथ हुए। इन्हीं सिद्धों की शुद्धि कर आदि शंकराचार्य जी ने दशनामी अखाड़े के नागा साधुओं की सेना में परिवर्तित कर दिया। लेकिन नौ नाथों का रुझान इराक से आये यहुदियों के इब्राहिमी मत की ओर बढ़ गया।
नाथ सम्प्रदाय भी इसी मत का अनुसरण करता है। इसलिए नाथों को सनातनधर्मी नहीं माना जाता था। विगत इलाहबाद उप कुम्भ के पहले कुम्भ मेला में नाथ सम्प्रदाय नहीं आता था।
इनका प्रभाव सिद्धों पर भी पड़ा, लेकिन चार शंकराचार्यों के अधीन रहने के कारण नागाओं के कठोर अनुशासन में यह प्रभाव कम रहा ।
शंकर जी के ही शिष्य चन्द्रमा, दुर्वासा, दत्तात्रेय, दत्तात्रेय के शिष्य कार्तवीर्य सहस्त्रार्जून, रावण हुए।
दत्तात्रेय के अनुयाई उक्त चौरासी सिद्ध गण जिनमें से ही नौ नाथ भी निकले। इनकी गणना शिवगणों में भी होती है।
किन्तु महर्लोक वासी सिद्धों और इन सिद्धों में कहीँ कोई साम्य नही है। इनका क्षेत्र धर्म नही तन्त्र है। इनके परवर्ती जो वर्तमान में प्रसिद्ध है उनमें प्रमुख हैं⤵️
महावतार बाबा, श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय उनके तीन प्रमुख शिष्य युक्तेश्वर गिरि, केशवानन्द और प्रणवानन्द ने तथा युक्तेश्वर गिरि के शिष्य परमहंस योगानन्द , रामकृष्ण परमहन्स, विवेकानन्द, हेड़ाखान बाबा, नीम करोली बाबा, अक्कलकोट के स्वामी समर्थ,और उनके शिष्य बालप्पा महाराज, चोलप्पा महाराज, अलंदी के नृसिंह सरस्वती महाराज, वेङ्गुरला के आनन्दनाथ महाराज, मुंबई के स्वामीसुत महाराज, पुणे के शंकर महाराज, पुणे के रामानन्द बीडकर महाराज और उनके अनुयायी गजानन महाराज , शिरडी के साईं बाबा , आदि इन चौरासी सिद्धों के ही उत्तरवर्ती सिद्धगण हैं।
इसी क्रम में खण्डवा के अवधूत बड़े दादा महाराज जी और छोटे दादा महाराज जी भी हैं।
कर्नाटक में श्रमण बेलगोला में बाहुबली का महा मस्त का अभिषेक होता है। जैन-बौद्ध और नाथ और शैवों में सम्प्रदाय में वर्णाश्रम का नहीं सीधे संन्यास का महत्व है।
सन्यासी होकर भी नगरीय सीमा में ही रहते हैं। वन गमन नहीं करते।
शैवों में नर्मदा का महत्व है। इसलिए शैव लोग नर्मदा परिक्रमा करते हैं।
रावण खल घाट में नर्मदा स्नान करता था। उसके भाई खर ने खरगाँव (खरगोन) बसाया था।
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