सोमवार, 30 सितंबर 2024

आर्य समाज और संघ में अन्तर

संघ परिवार हमेशा कहता है कि, हमें इज्राइल से सीखना चाहिए, यहुदियों से सीखना चाहिए, मुस्लिमों से सीखना चाहिए, यूरोप, अमेरिका और चीन से सीखना चाहिए।
महर्षि दयानन्द सरस्वती कहते थे कि, हमें वेदों से सीखना चाहिए वापस वेदों की ओर चलो विश्व को श्रेष्ठ, सदाचारी, सद्धर्म में प्रवर्त आर्य बनाओ (कृण्वन्तम विश्वार्यम्) आर्यसमाज भी हमेशा कहता है कि हमें वैदिक शिक्षा ही ग्रहण करना चाहिए। वेदों से ही शिक्षा मिल सकती है। वेदों से ही सीखो।
ऐसा कभी संघ या संघ परिवार कहना तो दूर सोच भी नहीं सकता। क्योंकि उनके आदर्श मुसोलिनी और फ़ासिज़्म है, तान्त्रिक हैं वैदिक नहीं।
उधर 
इज्राइल कहता है कि, यह युद्ध कौशल हमने शिवाजी से सीखा।
सम्भवतः शिवाजी मानते हों कि, यह युद्ध कला हमने भगवान श्रीकृष्ण की नारायणी सेना से सीखी।
भगवान श्रीकृष्ण कहते थे कि, उन्होंने वेदों से शिक्षा ग्रहण की। नारायणी सेना यजुर्वेद और धनुर्वेद के सिद्धान्तों पर आधारित संगठन था।
अन्त में दिल्ली आर्यसमाज के डॉक्टर विवेक आर्य के शब्दों में ⤵️

धार्मिक क्षेत्र में संघ अभी तक अपनी मान्यताएं स्थापित नहीं कर पाया है । 
 संघ ने ऐसा कार्य नहीं किया, जिससे कोई बड़ा सामाजिक/धार्मिक परिवर्तन किया हो ।
परन्तु, आर्यसमाज के ऐसे अनेक कार्य हैं जो संघ ने स्वयं आर्यसमाज से उधार लिया है  । 
संघ की सबसे बड़ी अशक्तता उसका सनातन वैदिक धर्मियों  के धार्मिक मामलों में किसी भी प्रकार का कोई मार्गदर्शन नहीं दे पाना है । जैसे ,  संघ ने परम्परागत हिन्दुओं को ना कभी मजारों/ कब्रों पर सर पटकने से रोका है, और ना ही साईं बाबा उर्फ़ चाँद मियां को ईश्वर के रूप में पूजने से | ना ही रामरहीम, रामपाल, राधे माँ के पाखंड में फंसने से रोका, और ना ही वेद ज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए कुछ किया है । 
जबकि संघ के पास देश, प्रदेश की सरकार से लेकर नगर निकायों की सत्ता, हजारों विद्यालय, लाखों स्वयंसेवक, मजबूत संगठन आदि सब कुछ है । 
आर्यसमाज के युवा हजारों की संख्या में दिन-रात बिना किसी लोभ, प्रलोभन, पद, नेतागिरी के सनातन धर्मी समाज को वो बात सिखला रहा है , जो वो पिछले 1200 वर्षों में भी नहीं समझ पाया है ।
स्वामी दयानन्द सरस्वती जो समझाना चाहते थे, वह सनातन धर्मी समाज समझने को तैयार नहीं है । 
संघ का चर्चा में रहना, और जुमलेबाजी करना कि 2021 में भारत विश्व गुरु बन जायेगा हम जानते हैं । परन्तु संघ को भी स्वयम् यह ज्ञात नहीं है कि, कैसे बनेगा ? और धरातल पर यथार्थ कार्य करने में और जुमले बाजी करने में बहुत अंतर है। 
आर्यसमाज को भी अपनी प्रचार शैली में परिवर्तन की आवश्यकता है । सरल, प्रभावशाली रूप में स्वामी दयानन्द सरस्वती की मान्यताओं को प्रचारित किया जाये ।
मैं संघ की संगठन क्षमता की प्रशंसा करना चाहूँगा, जिसकी आर्यसमाज में कमी है । 
आशा है कि आप मेरी बात को अन्यथा न लेकर मेरे चिंतन को समझेगें । मैं व्यर्थ में किसी की निंदा करने में अपना समय व्यर्थ नहीं करता । परन्तु मैंने जो वर्षों में देखा, समझा वो आपसे साझा किया है ।

रविवार, 29 सितंबर 2024

पौराणिकों ने सदाचारी, सच्चरित्र श्रीकृष्ण को हिन्दू अर्थात काला-कलूटा, चौर- लुटेरा, लुच्चा-लफंगा-बदमाश, दास-दस्यु, डाकू और बलात्कारी सिद्ध कर दिया।

धूर्त यूरोपीय लोगों ने ईरान के स्थान पर हमेशा पर्शिया शब्द का उपयोग किया जिसमें ईरान के साथ इराक (असीरिया और बेबीलोन) आ जाता है। और अधिक विस्तार देखें तो सीरिया और पूर्वी टर्की भी आ जाता है। जिससे चन्द्रवंशियों अर्थात आदमियों (खातियों और यादवों) को असली आर्य सिद्ध कर सकें।

चन्द्रवंशियों में एकमात्र अपवाद।
जो सदाचारी थे। जिन्हें वास्तव में आर्य कहा जा सकता है।
लेकिन 
हमारे पौराणिकों नें तो श्रीकृष्ण को भी नहीं छोड़ा, उन्हें पक्का हिन्दू अर्थात काला-कलूटा, चोर (चोल), लूटेरा, सेंधमार, लुच्चा- लफंगा, बदमाश, दास- दस्यु (दृविड़), डाकू, बलात्कारी
सिद्ध कर दिया।

यह है तो, थोथा तर्क, लेकिन इस परिकल्पना को आसानी से सिद्ध किया जा सकता है कि,
जरथ्रुस्त्र से अथर्ववेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ अवेस्ता पर शास्त्रार्थ करने भारत से ईरान गये श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी को अवेस्ता के जेन्द भाष्य में श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी को कृष्ण वर्णिय देखकर हिन्दू अर्थात काला  (कृष्ण) लिखा है।
इससे प्रेरित होकर पारसी शब्द हिन्दू के अर्थ काला-कलूटा, चोर (चोल), लूटेरा, सेंधमार, लुच्चा- लफंगा, बदमाश, दास- दस्यु (दृविड़), डाकू, बलात्कारी जान समझकर  पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के चरित्र पर उक्त सभी आरोप लगा कर श्रीकृष्ण चरित्र लिख दिया हो।

रविवार, 22 सितंबर 2024

श्राद्ध पक्ष में कुतप मुहूर्त मतलब दिन का आठवाँ मुहूर्त और रोहिण मुहूर्त मतलब दिन का नौवा मुहूर्त।

सूर्यास्त समय में से सूर्योदय समय घठाएँ। जो अन्तर घण्टा मिनट आयेगा, वह दिनमान कहलाता है।
दिनमान में पन्द्रह का भाग दें।
भागफल के जो घण्टा मिनट सेकण्ड आये वह एक मुहूर्त का मान होगा। जो लगभग 48 मिनट के आसपास होता है।
भागफल के घण्टा मिनट सेकण्ड में सात का डुणा करें। 
गुणनफल के जो घण्टा मिनट आये उसमें उस दिन का सूर्योदय समय जोड़ दें। योग फल के घण्टा मिनट कुतप काल का प्रारम्भ आयेगा।
कुतप मुहूर्त के प्रारम्भ होने के समय में एक मुहूर्त का मान के घण्टा मिनट जोड़ दें। तो कुतप मुहूर्त का समाप्त होने और रोहिण मुहूर्त का प्रारम्भ समय आयेगा।
रोहिण मुहूर्त में पुनः मुहूर्त मान के घण्क मिनट जोड़ दें तो रोहिण काल आ जाएगा।
धर्मशास्त्र के अनुसार धार्मिक कार्यों में सूर्योदय समय और सूर्यास्त गणितागत भूकेन्द्रीय सूर्योदय समय ही मान्य होता है।
गूगल पर, मौसम एप वाले या समाचारपत्रों में भूपृष्ठ पर उपरी बिम्ब दृष्य सूर्योदय समय और भूपृष्ठ पर उपरी बिम्ब दृष्य सूर्यास्त बतलाया जाता है।
गणितागत सूर्योदय अर्थात धार्मिक सूर्योदय और सूर्यास्त में और भूपृष्ठ पर उपरी बिम्ब दृष्य सूर्योदय/ सूर्यास्त समय में लगभग साढ़े तीन मिनट का अन्तर रहता है। जो ऋतुओं के साथ घटता बढ़ता है।
इसके अलावा एक मुहूर्त के मान में क्रमशः 
7 का गुणा कर गुणनफल नोट करलें।
फिर 
8 का गुणा कर गुणनफल नोट करलें।
और फिर 
9 का गुणा कर गुणनफल नोट करलें।
फिर 
सूर्योदय + 7का गुणनफल = कुतप मुहूर्त का प्रारम्भ समय।=11 बजकर 55 मिनट।
फिर 
सूर्योदय + 8 गुणनफल = कुतप मुहूर्त का प्रारम्भ समय + मुहूर्त मान= कुतप मुहूर्त का समाप्त होने का समय। और रोहिण मुहूर्त का प्रारम्भ समय = 12 बजकर 44मिनट।
फिर 
सूर्योदय + 9 गुणनफल = रोहिण मुहूर्त का प्रारम्भ होने का समय + मुहूर्त मान= रोहिण मुहूर्त का समाप्त होने का समय। अपराह्न काल प्रारम्भ होने का समय।13 बजकर 32 मिनट



उदाहरणार्थ 
दिनांक 28 सितम्बर 2024 को 
धार में गणितागत सूर्यास्त - धार में गणितागत सूर्योदय= दिनमान।
18h22m-6h17m=12h05m

दिनमान ÷15 = मुहूर्त मान।
12h05m÷15=0h48m20s

मुहूर्त मान × 7 = गुणनफल।
0h48m15s ×7= 5h38m20s

सूर्योदय समय+ गुणनफल= कुतप मुहूर्त का प्रारम्भ समय।=11 बजकर 55 मिनट ⤵️
06h17m+5h38m20s=11h55m20s

कुतप मुहूर्त का प्रारम्भ समय + मुहूर्त मान= कुतप मुहूर्त का समाप्त होने का समय। और रोहिण मुहूर्त का प्रारम्भ समय = 12 बजकर 44मिनट⤵️
11h55m20s+0h48m20s= 12h43m40s

रोहिण मुहूर्त का प्रारम्भ होने का समय + मुहूर्त मान=  रोहिण मुहूर्त का समाप्त होने का समय। अपराह्न काल प्रारम्भ होने का समय।13 बजकर 32 मिनट⤵️
12h43m40s+ 0h48m20s=13h32m00s

शनिवार, 21 सितंबर 2024

जो जीवन भर तीर्थ यात्रा पर नहीं जा पाये उनके लिए भरणी श्राद्ध।

भरणी श्राद्ध 
सूर्य से चन्द्रमा के प्रत्येक बारह अंश (12°) के अन्तर को तिथि कहते हैं। और सूर्य से चन्द्रमा के प्रत्येक छः अंश (6°) के अन्तर को करण कहते हैं।
चन्द्रमा भू परिभ्रमण में 27 तारा मण्डल के सम्मुख से निकलता है। जिस तारा मण्डल के सम्मुख से निकलता है उस अवधि को चन्द्र नक्षत्र कहते हैं।
तिथियों के अतिरिक्त नक्षत्रों के श्राद्ध भी होता है। इसमें भरणी श्राद्ध मुख्य है। इसके अलावा मघा श्राद्ध भी होता है।
कारण यह है कि, भरणी नक्षत्र के देवता यम हैं। और यम सप्त पितरों में से एक हैं।
मघा नक्षत्र के देवता पितरः हैं।
इसलिए इन नक्षत्रों के अपराह्न व्यापी होने के दिन श्राद्ध होता है।
इनके अतिरिक्त उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के देवता अर्यमा तो सप्त पितरों के राजा हैं। जिनका अधिकार कव्य में है। अर्थात अर्यमा को भी श्राद्ध भाग प्राप्त होता है।
और 
उत्तराषाढ़ नक्षत्र के स्वामी विश्वेदेवाः को भी श्राद्ध भाग दिया जाता है।

दो सूर्योदय के बीच के समय (प्रायः 24घण्टे) को वार कहते हैं।

सूर्य स्पष्ट और चन्द्र स्पष्ट के योग का सत्ताइसवाँ भाग योग कहलाता है। ये सब पञ्चाङ्ग के अङ्ग है।

श्राद्ध प्रकरण में इन सबके श्राद्ध का भी उल्लेख है। लेकिन प्रचलित केवल तिथियों के श्राद्ध ही हैं शेष प्रचलित नहीं है। फिर भी भरणी श्राद्ध प्रचलित है।

अब मूल मुद्दे *भरणी श्राद्ध पर ही विचार किया जाएगा।* 
सनातन धर्म के स्मृति ग्रन्थों के अनुसार प्रत्येक मानव को जीवन में तीर्थ यात्रा करना ही चाहिए।
चार प्राचीन तीर्थ ये हैं- 
सतयुग का तीर्थ पुष्कर तीर्थ (अजमेर के पास)।
त्रेता का तीर्थ नैमिशारण्य (निमिस उत्तर प्रदेश), 
द्वापर का तीर्थ कुरुक्षेत्र (हरियाणा)। और
कलियुग का तीर्थ गङ्गा। 
सौरों (पश्चिम उत्तर प्रदेश), प्रयागराज, काशी (वाराणसी), हरिद्वार, ऋषिकेश, गङ्गोत्री, और गौ मुख, गङ्गा ग्लेशियर और गङ्गासागर ये गङ्गा के प्रमुख तीर्थ हैं।
ऐसे ही चार अर्वाचीन तीर्थ हैं---
बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, डाकोर और द्वारका पुरी तथा रामेश्वरम (तमिलनाडु) या परशुरामेश्वर (कर्नाटक-केरल सीमा पर गुरवायुर के निकट)। 
इन तीर्थ स्थानों पर जीवन में एकबार स्नान, दान, होम-हवन, यज्ञ, श्राद्ध, तर्पण और तपस्या करना चाहिए।
जो लोग तीर्थ यात्रा पर नहीं ज पाये उनका श्राद्ध पक्ष में भरणी श्राद्ध भरणी नक्षत्र के दिन किया जाता है।
जो पूरे जीवन काल में तीर्थ यात्रा नहीं कर पाये उसके लिए, और तीर्थ स्थल पर मृत्यु नहीं होने, मृत्यु के समय गोबर से लेपन की हुई भूमि पर पद्मासन में बैठकर ॐ मन्त्रोच्चार के साथ परमात्मा का ध्यान करते हुए मृत्यु न होने या उत्तर में सिर करके चित लेटकर ॐ मन्त्रोच्चार के साथ परमात्मा का चिन्तन न करते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए मानव का, मरते समय मुख में गङ्गा जल और तुलसी पत्र नहीं था, ख़राब तिथि, वार, नक्षत्र योग करण, मुहूर्त , घटि या लग्न में मृत्यु होने के लगे दोष के लिए दशाह, एकादशाह, द्वादशाह, मङगलश्राद्ध तृयोदशाह, मासिक श्राद्ध, द्विमासिक श्राद्ध, त्रेमासिक श्राद्ध, अर्ध वार्षिक श्राद्ध (छः मासी), वार्षिक श्राद्ध (बरसी), द्वि वार्षिक श्राद्ध और श्राद्ध में लेने के लिए विष्णु पूजा के समय प्रायश्चित किया जाता है।
बाद में गया श्राद्ध, और बद्रीनाथ में ब्रह्म कपाली में भी इनका प्रायश्चित होता है। अतः बाद में वापस करना आवश्यक नहीं है। लेकिन भयभीत वंशज फिर भी ये श्राद्ध करते हैं।
भरणी श्राद्ध भरणी नक्षत्र में मातृ गया (सिद्धपुर- गुजरात)/ पितृ गया (बिहार), ब्रह्मकपाली - बद्रीनाथ (उत्तराखण्ड) में श्राद्ध पक्ष में अपराह्न व्यापी भरणी नक्षत्र के दिन किया जाता है।

शुक्रवार, 20 सितंबर 2024

श्राद्ध प्रकरण में पार्वण श्राद्ध और एकोद्दिष्ट श्राद्ध का अन्तर तथा दिन रात के विभाग।


 पार्णव श्राद्ध का मतलब क्या है?
उत्तर --
श्राद्ध के मुख्य दो प्रकार हैं - पार्वण श्राद्ध और एकोद्दिष्ट श्राद्ध।
तीर्थ श्राद्ध, विवाह, यात्रा आदि अवसर पर नान्दिमुख श्राद्ध के कर्म सब एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत ही आते हैं।
जो श्राद्ध - श्राद्धपक्ष में किया जाता है, अथवा पूर्णिमा, अमावस्या या संक्रान्ति पर्व पर किया जाता है वह श्राद्ध पार्णव श्राद्ध कहलाता है।
इसमें माता-पिता की मृत्यु तिथि जिस दिन अपराह्न व्यापी हो उस दिन ही श्राद्ध होता है। या अपराह्न व्यापी पूर्णिमा-अमावस्या के दिन श्राद्ध होता है। 
लेकिन श्राद्ध का प्रारम्भ मध्याह्न में करके अपराह्न समाप्ति के पहले तर्पण आदि करके श्राद्ध पूर्ण कर लिया जाना चाहिए।
 जिस दिन कोई पर्व हो या नहीं हो, लेकिन व्यक्ति की मृत्यु तिथि हो, या तीर्थ स्थल पर या विवाह आदि अवसर पर, या यात्रा आदि के पहले किसी कार्यवश किसी एक ही व्यक्ति का श्राद्ध हो तो उसे एकोद्दिष्ट श्राद्ध कहते हैं। यह मध्याह्न काल व्यापी तिथि में किया जाता है।

दुसरा प्रश्न है कि, पूर्वाह्न काल, मध्याह्न काल, अपराह्न काल आदि कैसे ज्ञात करें?
उत्तर -
सामान्यतः सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन कहलाता है। और सूर्यास्त से सूर्योदय तक रात्रि कहलाती है।
उक्त दिन और रात के विभिन्न प्रकार से विभाग किये गए हैं। जैसे दिन के तीन भाग - पूर्वाह्न, मध्याह्न और अपराह्न। साधारणतः इनका ही प्रयोग होता है। विशेष कर देवकर्म में ये ही विभाग उपयोग किये जाते हैं।
दिन के पाँच भाग - प्रातः काल, सङ्गव काल, मध्याह्न काल, अपराह्न काल और सायाह्न काल। ये प्रायः पितृ-कर्म अर्थात श्राद्धादि में ही अधिक उपयोग होते हैं।
सूर्यास्त समय में से सूर्योदय का समय घटाने पर दिनमान आता है।
दिनमान में पाँच का भाग देने पर एक-एक काल की अवधि ज्ञात होती है। उदाहरणार्थ दिनमान यदि बारह घण्टे का हो तो 12÷5= 2 घण्टे 24 मिनट।
अर्थात दिन का प्रत्येक काल 02 घण्टे 24 मिनट का ही होता है। 
सूर्योदय समय में 2 घण्टे 24 मिनट जोड़ने पर सूर्योदय से योगफल तक प्रातः काल।
फिर प्रातः काल के समाप्ति समय में पुनः 2 घण्टे 24 मिनट जोडें तो सङ्गव काल का समाप्ति समय आयेगा। सङ्गव काल का समाप्ति समय में 2 घण्टे 24 मिनट जोडें तो मध्याह्न काल का समाप्त होने का समय मिलेगा। मध्याह्न काल का समाप्त होने का समय में 2 घण्टे 24 मिनट जोडें तो अपराह्न काल का समाप्त होने का समय आयेगा ।अपराह्न काल का समाप्त होने का समय में 2 घण्टे 24 मिनट जोडें तो सायाह्न काल समाप्ति का समय मिलेगा अर्थात सूर्यास्त समय आयेगा।
ऐसे ही रात्रि के भी पाँच विभाग होते हैं। लेकिन अन्तर केवल इतना ही है कि, रात्रि के काल समान न होकर भिन्न-भिन्न होते हैं।
यदि अगले सूर्योदय समय में से आज का सूर्यास्त समय घटाय जाए तो रात्रि मान आयेगा।
रात्रि मान में पन्द्रह का भाग देने पर एक मुहूर्त की अवधि मिलेगी। जो प्रायः 48 मिनट के आसपास होगा।
यदि रात्रि मान 12 घण्टे हुआ तो---
एक मुहूर्त=00 घण्टा 48 मिनट।
दो मुहूर्त = 1 घण्टा 36 मिनट।
तीन मुहूर्त= 02 घण्टे 24 मिनट।
चार मुहूर्त= 3 घण्टे 12 मिनट।
पाँच मुहूर्त= 04 घण्टे।

सूर्यास्त से तीन मुहूर्त (02 घण्टे 24 मिनट) तक प्रदोषकाल।
फिर अगले चार मुहूर्त (3 घण्टे 12 मिनट) तक पूर्व रात्रि काल।
फिर अगला एक मुहूर्त (00 घण्टा 48 मिनट) निशा/ निशिता काल (या महानिशिथ काल)।
फिर अगले पाँच मुहूर्त (4 घण्टे 00 मिनट) तक उत्तर रात्रि।
अन्त में दो मुहूर्त (1 घण्टा 36 मिनट) जोड़ने पर अरुणोदय काल का समाप्ति समय अर्थात अगले सूर्योदय का समय आ जाएगा।
ऐसे सामान्य घण्टा मिनट का जोड़ने का अभ्यास करने पर कोई भी ज्ञात कर सकता है।

ऐसे ही दिनमान के तीन भाग पूर्वाह्न मध्याह्न और अपराह्न भी ज्ञात कर सकते हैं।

स्पष्ट मध्याह्न अर्थात दिनमान के ठीक मध्य का समय।
दिनमान ÷2= अर्ध दिवस।
सूर्योदय+अर्ध दिवस= स्पष्ट मध्याह्न।

स्पष्ट मध्य रात्रि मतलब रात्रि मान का ठीक मध्य का समय।

रात्रि मान ÷2= अर्ध रात्रि।
सूर्यास्त+अर्ध रात्रि= स्पष्ट मध्यरात्रि।

निशा या निशिता काल को ही कालाष्टमी, मास शिवरात्रि, पूर्णिमा, अमावस्या और विशेषकर शरद पूर्णिमा, दीपावली और महाशिवरात्रि पर्व की रात में महानिशिथ काल कहलाता है।
अरुणोदय का उत्तरार्ध अर्थात रात्रि की अन्तिम घटि (लगभग 24 मिनट) या अगले सूर्योदय के पहले की घड़ी (लगभग 24 मिनट) को उषाकाल कहते हैं।
और सूर्यास्त के ठीक बाद की घड़ी (लगभग 24 मिनट) को सन्ध्या कहते हैं।
दिनमान और रात्रि मान का पन्द्रहवाँ भाग (दिनमान या रात्रि मान÷ 15=लगभग 48 मिनट के आसपास का समय) मुहूर्त मान होता है।
और दिनमान और रात्रि मान का तीसवाँ भाग (दिनमान या रात्रि मान÷ 30= लगभग 24 मिनट के आसपास का समय) घटि मान होता है।
प्रत्येक दिन और रात्रि में अथर्व वेदोक्त पन्द्रह-पन्द्रह मुहूर्त होते है।

बुधवार, 18 सितंबर 2024

शास्त्रोक्त कर्म ही करें और शास्त्रोक्त कर्म भी शास्त्रीय विधि से ही करें।

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि,

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌॥ श्रीमद्भगवद्गीता 16/23
जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परमगति को और न सुख को ही ॥16/23
 तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥ श्रीमद्भगवद्गीता 16/24
इससे तेरे लिए इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है। ऐसा जानकर तू शास्त्र विधि से नियत कर्म ही करने योग्य है ॥16/24॥
केवल शास्त्रीय विधि से ही शास्त्रीय कर्म ही करे। अतः शास्त्र ज्ञान प्राप्त करना सभी का कर्तव्य है।

सम्पूर्ण रूपेण ईश्वरार्पण होकर ही केवल निष्काम भाव से केवल परमात्मा की ही आराधना - उपासना  करें।
क्योंकि,
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसा: ।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जना: श्रीमद्भगवद्गीता 17/4
सत्वगुणी लोग देवताओं की पूजा करते हैं, रजोगुणी लोग यक्षों और राक्षसों की पूजा करते हैं, और तमोगुणी लोग पञ्चमहाभूतों, और मृतकों की कब्र में स्थित प्रेतों (पिशाचों) की पूजा करते हैं. 

प्रश्न उठता है कि कर्म बन्धन से छूटकर परम शान्ति लाभ करने के लिये मनुष्य को क्या करना चाहिये? इस पर भगवान् उसका कर्तव्य बतलाते हुए कहते हैं-

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् श्रीमद्भगवद्गीता 18/ 62

हे भारत ! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा 18/62
 
 इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात कही है --- 
 तमेव शरणं गच्छ सर्व भावेन भारतः। 
 तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा।

सभी लोगों को शास्त्र ज्ञान नहीं है; इसलिए मैं व्रत, पर्व, उत्सव और त्योहारों का शास्त्रोक्त कर्मकाल / पर्वकाल/ पूजा का दिनांक और समय बतला देता हूँ।
मैरी सास ऐसा करती थी, मैरे पापा ऐसा करते थे। हम तो केवल चौघड़िया देखते हैं, या हम कोई मुहूर्त नहीं देखते। ऐसा मानने वाले अपने कर्मों के लिए स्वयम् उत्तरदाई हैं न कि, उनके पापा या सास।
सप्तर्षियो द्वारा महर्षि वाल्मीकि को समझाया गया ज्ञान इस बात का प्रमाण है।
वैदिक/ श्रोत्रिय तो दुर्लभ हो गये हैं। सनातनियों में स्मार्त, वैष्णव, सौर, शैव, शाक्त, गाणपत्य और कौमार (कार्तिकेय उपासक) अपनी-अपनी परम्पराओं का पालन करते हैं। और आर्य समाजी, कबीर पन्थी आदि जीते जी माता-पिता और बुजुर्गो की सेवा ही श्राद्ध मानते हैं। ये सब सनातनधर्मी भी जी रहे हैं। और
नाथ, खालसा,जैन, बौद्ध, नवबौद्ध, चीनी, पारसी, यहुदी, इसाई और मुस्लिम अपने-अपने केलेण्डर के अनुसार और उनके शास्त्रों में बतलाई गई विधि से श्राद्ध करते हैं। वे भी जी रहे हैं। 
इसलिए मानना- न मानना व्यक्तिगत स्वातंत्र्य है।

मंगलवार, 10 सितंबर 2024

तिथि और वार के योग से महत्वपूर्ण पर्व शिव पुराण और वीर मित्रोदय के अनुसार।

वायु महापुराण के एक भाग शिव पुराण में कुल छः संहिताएँ हैं।
1 विद्येश्वर संहिता, 2 रुद्र संहिता, 3 शत्रुद्र संहिता , 4 कोटिरुद्र संहिता , 5 उमा संहिता और  6 कैलाश

 शिव पुराण की विद्यश्वर संहिता के में
वार और तिथि के संयोग से बने निम्नांकित चार योगों को सूर्यग्रहण के समान धार्मिक महत्व की कही गई है और कहा गया है कि, इन तिथियों में किया गया स्नान, दान, श्राद्ध, जप और ध्यान अक्षय होता है।
लेकिन ध्यान रखें कि, वार सूर्योदय से सूर्योदय तक रहता है। अगले सूर्योदय से ही वार बदलता है। रात बारह बजे Day & Date (डे और डेट) ही बदलते हैं, वार नहीं।
ये चार तिथि -वार के योग हैं ---
1 रविवारीय सप्तमी,  2 सोमवारी (सोमवती) अमावस्या, 3 मंगलवारी चतुर्थी (अङ्गारकी चतुर्थी) और 4 बुधवारी अष्टमी (बुधाष्टमी) ।
अमावस्या तु सोमेन सप्तमी भानुना सह।

चतुर्थी भूमिपुत्रेण सोमपुत्रेण चाष्टमी।।

चत्सरस्तिथयो स्त्वेताः सूर्यग्रह सन्निभाः।

स्नानं दानं तथा श्राद्धं सर्वं तत्राक्षयं भवेत्।।

सोमवारी अस्त, रविवारी सप्तमी, मंगलवारी चतुर्थी एवं रविवारी अष्टमी तिथियां सूर्य ग्रह के समान फल देने वाली कही गयीं। इन तिथियों में स्नान, दान, जप, तर्पण/श्राद्ध आदि अनंत फल कहा गया है।

इस दिन पवित्र नदियों और झीलों में स्नान करना विशेष शुभ कहा गया है।

अमावस्या तु सोमेन सप्तमी भानुना सह।

चतुर्थी भूमिपुत्रेण बुधवारेण अष्टमी ॥

चत्सरस्तिथयः पुण्यास्कुल्याः सूर्य्ग्रहादिभिः।

सर्वमक्षयमत्रोक्तं स्नानदानजपादिकम् ॥

"वीरमित्रोदय समयप्रकाश"

वीरमित्रोदय समय प्रकाश के अनुसार सोमवार की अमावस्या, रविवार की सप्तमी, मंगल वार की चतुर्थी और रविवार की अष्टमी तिथि, ग्रहण काल ​​के समान पुण्य माना गया है। इस दिन दिए गए पुण्य कर्म नदी स्नान, जपादि अक्षय फल प्रदान करता है।

शास्त्रकारों का निर्णय है कि यह दिन ग्रहण काल ​​के समान होता है। बुधाष्टमी के दिन पवित्र अनुष्ठान, पवित्र स्नान, दान, तर्पण व जपादि पुण्य कर्म अक्षय फल प्रदान करता है।

इस बुधवार की अष्टमी को ही  दुर्वा अष्टमी कहा जाता है।
ऐसी मान्यता है कि, राक्षसों के संहार से थके गणेशजी ने अष्टमी बुधवार के दिन नर्मदा तट पर दुर्वा पर लेट कर विश्राम किया था। जिससे उन्हें अत्यन्त सुखद अनुभव हुआ था।
चतुर्थी और मंगलवार दोनों ही अष्ट विनायक से सम्बन्धित दिन हैं।
रविवार और सप्तमी तिथि दोनों का स्वामी सूर्य है।
और सोम अर्थात चन्द्रमा का वार सोमवार और चन्द्रमा रहित रात्रि अमावस्या ( अमा मतलब चन्द्रमा रहित) दिन चन्द्रमा सम्बन्धित हैं।
यह तो प्रमाण भी है और तर्क भी है।
ऐसे प्रमाण सुने-सुनाई व्रत पर्वों में नहीं मिलते।
मर्जी है आपकी, आखिर धर्म है आपका।

ध्यानमूलं गुरुर्मूर्तिःपूजामूलं गुरुर्पदम् ।मन्त्रमूलं गुरुर्वाक्यंमोक्षमूलं गुरूर्कृपा ॥ की व्याख्या ---

ध्यानमूलं गुरुर्मूर्तिः
पूजामूलं गुरुर्पदम् ।
मन्त्रमूलं गुरुर्वाक्यं
मोक्षमूलं गुरूर्कृपा ॥

की व्याख्या ---
 माता-पिता, गुरु, अतिथि, प्रकाश स्वरूप सूर्य, उष्मा और प्रकाश का श्रोत अग्नि और सर्वव्यापी आकाश ये सात प्रत्यक्ष मूर्तिमान देव प्रत्यक्ष उपलब्ध हैं। इसीलिए ध्यान के लिए अन्य किसी प्रतिमा की क्या आवश्यकता है।
इन्हीं की सेवा-पूजा ही पर्याप्त है किसी जड़ प्रतिमा की पूजा से क्या लाभ।
माता-पिता, गुरु, अतिथि द्वारा प्रदत्त ज्ञानोपदेश के बिना शास्त्र वचन समझना लगभग असम्भव इतना कठिन है। इसलिए माता-पिता, गुरु, अतिथि के वाक्य भी वेदमन्त्र के समान आदरणीय हैं।
आत्मा अर्थात परम आत्मा यानी परमात्मा को हम वरण करें और परमात्मा द्वारा हमें वरण किये जाने पर ही मोक्ष होता है। इसलिए उपनिषदों में अनुकम्पा को महत्वपूर्ण माना गया है।
जिस प्रकार पतिव्रता नारी और एक पत्नी व्रती नर के लिए एक बार वरण करने के पश्चात परस्पर पूर्ण समर्पण होता है। फिर अन्य का कोई महत्व नहीं रह जाता।
इसी प्रकार अन्तरात्मा जब प्रज्ञात्मा में ही लीन हो जाता है, तब वह विश्वात्मा हो जाता है। और अन्ततः परमात्मा ही रह जाता है।
यही मोक्ष है।

शनिवार, 7 सितंबर 2024

चौघड़िया मुहूर्त का कोई महत्व नहीं है।

धर्मशास्त्र की आँख ज्योतिष है। धर्मशास्त्र में देश-काल निर्धारण ज्योतिष के अनुसार होता है जिसे मुहूर्त और वास्तु कहते हैं।
लेकिन
मन्दिरों के पुजारियों, घर- घर जाकर सत्यनारायण की कथा करने वाले, मन्दिरों में या पीपल के चबूतरे पर बैठकर तिथि-व्रत- त्योहारों की कथा सुनाने वाले, तीर्थ पुरोहितों (पण्डों) आदि पण्डितों को लग्नायन (लगन निकालना) नहीं आता है। उनने बेचारों ने चौघड़िया की खोज कर काम चलाना शुरू किया, तो लोगों ने भी चौघड़िया निकालना सीख लिया।
गुण मिलान, मंगल, कालसर्प दोष, चौघड़िया, गोरखपत्रा से यात्रा मुहूर्त ऐसे ही पण्डितों की खोज है
धर्मशास्त्र और ज्योतिष दोनों में ही इनका कोई महत्व नहीं है।
ध्यान रखें वार सूर्योदय से सूर्योदय तक रहते हैं, और सूर्योदय से ही बदलते हैं। रात बारह बजे Day & Date  (डे और डेट) ही बदलते हैं, वार नहीं।
प्रत्येक चौघड़िया बी डेड़-डेड़ घण्टे का नहीं होता। और दिन का चौघड़िया सुबह 6 बजे से और रात का चौघड़िया शाम 6 बजे से प्रारम्भ नहीं होता है।
दिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक और रात सूर्यास्त से सूर्योदय तक रहती है। 
अतः सूर्यास्त के समय में से सूर्योदय का समय घटाकर दिनमान के घण्टे-मिनट ज्ञात करते हैं। दिनमान के घण्टे-मिनट में आठ का भाग देकर प्रत्येक चौघड़िया का मान (घण्टा-मिनट) ज्ञात करते हैं। फिर सूर्योदय के समय में चौघड़िया का मान जोड़-जोड़ कर अगले चौघड़ियों का प्रारम्भ और समाप्ति समय ज्ञात करते हैं।
ऐसे ही रात्रि के चौघड़िया ज्ञात करने के लिए अगले सूर्योदय समय से आज के सूर्यास्त का समय घटाकर घण्टे-मिनट में रात्रि मान ज्ञात करते हैं। फिर रात्रि मान में बारह का भाग देकर रात्रि के प्रत्येक चौघड़िया का मान निकालते हैं। फिर सूर्यास्त समय में रात के चौघड़िया का समय जोड़ जोड़ कर अगले चौघड़िया का प्रारम्भ और समाप्ति समय ज्ञात करते हैं।

मंगलवार, 3 सितंबर 2024

निरयन सौर मास आधारित चान्द्र मासों का नामकरण पूर्णिमा के नक्षत्र के आधार पर हुआ था।

चैत्र वैशाख आदि नाक्षत्रीय सौर मास और उनके नाम का सम्बन्ध लगभग पूरी रात्रि भर सम्बन्धित नक्षत्र या उस नक्षत्र के योग तारा के दिखने से है।
मूलतः इन नाक्षत्रीय सौर मास या प्रकारान्तर से निरयन सौर मास के अनुरूप चलने वाले चान्द्रमास 
की पूर्णिमा अमान्त चान्द्रमास के मध्य में पड़ती है, इसलिए स्वाभाविक रूप से उस माह में पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा उस चित्रा, विशाखा आदि नक्षत्र या चित्रा, विशाखा आदि नक्षत्रके योग तारा के साथ ही होगा।

नक्षत्रों के योग ताराओं के निरयन भोग नीचे दिए गए हैं।
*चित्रा 5-29°59'01* 
स्वाति 06-00'22'34"
विशाखा 06-21°13'30"
 *Orionis Centauri 07-00°56"*
ज्येष्ठा 07-15°54'18"
 *मूल 08-00°43'43"* 
पूर्वाषाढ़ 08-10°43'26"
उत्तराषाढ़ 08-18'31'42"
 *श्रवण 09-07°55'20"* 
 *पूर्वा भाद्रपद 10-29°37'40"* 
रेवती 11-21°01'25"
अश्विनी 00-10°06'46"
 *Algol Persei 01-02°18'36"* 
कृतिका 01-06'07'07"
 *मृगशीर्ष 02-00°51'59"* 
 *पुनर्वसु 02-29°20'18"* 
 *Procvon Canis Minoris 03-01°55'29"* 
 *मघा 04-05°52'14"* 
 *उत्तरा फाल्गुनी 04-27°45'31"*

1 चैत्र 
  *चित्रा 5-29°59'01*  
      (स्वाति 06-00'22'34")
चित्रा मेषारम्भ से 180° पर तुलारम्भ के 00°00'59" पहले आता है।

2 वैशाख 
*Orionis Centauri 07-00°56"*
 वृषभारम्भ से 180° पर वृश्चिकारम्भ के 00°00'56" बाद में आता है। लेकिन कोई नक्षत्र नहीं बैठ रहा है।

3 ज्येष्ठ 
ज्येष्ठा तो नहीं बैठता
 लेकिन *मूल 08-00°43'43"*  
 मिथुनारम्भ से 180° पर धन्वारम्भ के 00°43'43" बाद आता है।

4 (आषाढ़) 
उत्तराषाढ़ 08-18'31'42"
कर्कारम्भ से 180° पर मकरारम्भ के 11°28'18" पहले आता है।
(श्रवण 09-07°55'20")
 मकरारम्भ से 07°55'20" बाद में।
 आषाढ़ में नक्षत्र नहीं बैठ रहा।

5 श्रावण 

सिंहारम्भ से 180° पर कुम्भारम्भ के आसपास कोई नक्षत्र नहीं है।
श्रावण मास में श्रवण नक्षत्र नहीं बैठता है।
(श्रवण 09-07°55'20") मकर राशि के सूर्य में आता है, न कि, कुम्भ राशि के सूर्य में।

6 (भाद्रपद)  
*पूर्वा भाद्रपद 10-29°37'40"*
कन्यारम्भ से 180° पर) मीनारम्भ के 00°22'20" पहले आता है।

7 (आश्विन ) 
अश्विनी 00-10°06'46" मेषारम्भ के 10°06'46" बाद में। 
रेवती 11-21°01'25"
तुलारम्भ से 180° पर मेषारम्भ के 8°58'25" पहले आता है।
जबकि अश्विनी नक्षत्र 00-10°06'46" मेषारम्भ के 8°58'25" बादमें आता है।
मतलब आश्विन में भी कोई नक्षत्र नहीं बैठता।
 
8 कार्तिक 
Algol Persei 1-02°18'36"
तथा कृतिका 1-06°07'07"
वृश्चिकारम्भ से 180° पर Algol Persei वृषभारम्भ के 02°18'36" बाद में आता है।तथा 
कृतिका 06°07'07" बाद में आता है।

9 *मार्गशीर्ष* 
 *मृगशीर्ष* 2-00°51'59"
धनु प्रारम्भ से 180° पर मिथुन प्रारम्भ के 00°51'59" बाद में आता है ‌।

10 पौष
Procvon Canis Minoris 03-01°55'29"
मकर प्रारम्भ से 180° पर कर्क प्रारम्भ से 01°55'29" बाद में आता है। लेकिन कोई नक्षत्र नहीं पड़ता है।

11 माघ
मघा 4-05°52'14" 
कुम्भ प्रारम्भ से 180° पर सिंह प्रारम्भ के 05°52'14" बाद में आता है।

12 फाल्गुन 
उत्तरा फाल्गुनी 04-27°45'31" 
मीन प्रारम्भ से 180° पर कन्या प्रारम्भ के 02°14'29" पहले आता है।

अर्थात केवल 
1 मेष - चैत्र,  
2 कन्या - भाद्रपद 
3 (वृश्चिक - कार्तिक)
4 धनु - मार्गशीर्ष 
5 (कुम्भ - माघ) और
6 मीन - फाल्गुन 
नाक्षत्रीय सौर मास (निरयन सौर मास) के नाम ही नक्षत्र के आधार पर सही बैठते है।

1 चित्रा (तुला) (निरयन सौर चैत्र) में, 
2 Orionis Centauri (वृश्चिक) (निरयन सौर वैशाख में),
3 मूल (धनु)( निरयन सौर ज्येष्ठ में), 
4 ( उत्तरषाढ़) (वृश्चिक) (नियन सौर आषाढ),
5 (श्रवण) (मकर) - (निरयन सौर श्रावण में नहीं बैठता) , 
6 पूर्वा भाद्रपद (कुम्भ) ( निरयन सौर भाद्रपद में), 
7 अश्विनी (तुला) निरयन सौर आश्विन में नहीं आता।
8 Algol Persei और आंशिक रूप से कृतिका (वृषभ) (निरयन सौर कार्तिक में), 
9 मृगशीर्ष (मिथुन) (निरयन सौर मार्गशीर्ष में), 
10 Procvon Canis Minoris और 
(आंशिक रूप से पुनर्वसु)(कर्क) (निरयन सौर पौष में), 

11 मघा (सिंह) (निरयन सौर माघ में)
12 उत्तराफाल्गुनी (सिंह) निरयन सौर फाल्गुन में
ही अंशात्मक दृष्टि से ठीक बैठते हैं।

1 वैशाख, 2 ज्येष्ठ, 3श्रावण, 4आश्विन, 5पौष के लिए कोई नक्षत्र नहीं बैठता।

मतलब केवल उन्नीस वर्षीय चक्र में नाक्षत्रीय (निरयन) सौर मास आधारित चान्द्र मासों की पूर्णिमा पर ही क्रमश चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, पूर्वाषाढ़ / उत्तराषाढ़, श्रवण, पूर्वा भाद्रपद/ उत्तरा भाद्रपद, अश्विनी, कृतिका, मृगशीर्ष, पुष्य, मघा और पूर्वाफाल्गुनी/ उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र पड़ते है।

पूर्णिमा के चन्द्रमा के आधार पर चैत्र वैशाख आदि मास केवल तीस-तीस समान अंशो वाली निरयन राशि के सूर्य के मास के अनुसार निरयन प्रणाली वाले सौर मास के अनुकूल चान्द्रमासों का नाम ही चैत्र, वैशाख आदि हो सकता है। सायन संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्र मास के नाम भी चैत्र वैशाख आदि नहीं रख सकते क्योंकि उनमें तेरह हजार साल बाद चैत पूर्णिमा को आनेवाली पूर्णिमा आश्विन पूर्णिमा को आयेगी।

चुंकि, निश्चित आकृति वाले राशि और नक्षत्र मण्डल केवल स्थिर भचक्र मे ही होते हैं। इसलिए सायन पद्यति में राशि तथा नक्षत्र नहीं होने के कारण सायन सौर संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्र मास के नाम चैत्र वैशाख आदि नहीं हो सकते।

सर्व श्री पण्डित बालगङ्गाधर तिलक,पं. व्यंकटेश बापुजी केतकर और पं. शंकर बालकृष्ण दीक्षित जैसे मुर्धन्य विद्वानों के अनुसार जो वैदिक काल में सायन मेष संक्रान्ति से सायन तुला संक्रान्ति तक पूर्व गोल और उत्तरायण माना जाता था। तथा सायन मेष- वृषभ के सूर्य में वसन्त ऋतु होती थी। जो भौगोलिक दृष्टि से आज भी ब्रह्मावर्त में सायन मेष- वृषभ में वसन्त ऋतु होती थी। तथा तदनुसार को सायन मेष के सूर्य को मधु मास और सायन वृषभ के सूर्य को माधव मास कहते थे वे नहीं मानते है।
 
आधुनिक एस्ट्रोनॉमी भी और वैदिक काल में भी सायन गणना विषुव वृत में होती थी, और आधुनिक एस्ट्रोनॉमी के तेरह साइन और अठासी कांस्टीलेशन तथा वैदिक अट्ठाईस नक्षत्र जो बाद में अभीजित तारे के नक्षत्र पट्टी से बाहर होने पर सत्ताइस नक्षत्र भू परिभ्रमण मार्ग क्रान्ति वृत में स्थिर नक्षत्र पट्टी (फिक्स्ड झॉडिएक) में होते हैं। दोनों का घालमेल सम्भव नहीं है। इसलिए राशि -नक्षत्र (साइन और कांस्टिलेशन) के लिए निरयन पद्यति ही सही हैं। जिसके लिए अथर्ववेद और तैत्तरीय संहिता तथा तैत्तिरीय आरण्यक में प्रमाण के आधार पर चित्रा तारे को नक्षत्र पट्टी (फिक्स्ड झॉडिएक) का मध्य भाग मानकर उससे 180° पर निरयन मेषादि बिन्दु से अंशात्मक गणना की जा सकती है राशि और नक्षत्र उनके आकार के अनुसार असमान अंशों के होना स्वाभाविक है, अतः यह भी सही है, लेकिन उनके प्रारम्भ, मध्य और अन्त के अंशादि निरयन गणना से हो।

 राष्ट्रीय केलेणण्डर में जो सायन मेष संक्रान्ति से चैत्र, सायन वषभ संक्रान्ति से वैशाख और सायन मिथुन संक्रान्ति से ज्येष्ठ चालू होना बतलाया है उसके स्थान पर सायन मेष से मधुमास और सायन वृषभ से माधव मास बतलाना चाहिए। क्योंकि माहों के चैत्र वैशाख आदि नाम केवल निरयन सौर मास आधारित चान्द्रमासों में ही सही बैठते हैं।
क्योंकि यजुर्वेदीय मास मधु- माधव की वसन्त, शुक्र- शचि की ग्रीष्म और नभः-नभस्य की वर्षा, ईष-उर्ज की शरद, सहस-सहस्य की हेमन्त और तपस-तपस्य की शिशिर ऋतु बतलाई है। 

होरा शास्त्र - फलित ज्योतिष।

जब वेधशालाएँ सीमित थी। सबको उपलब्ध नहीं थी, आज जैसे घर बैठे डेटा नहीं मिल पाते थे। तब ग्रह गणित विकासशील था। अब कॉफी विकसित हो चुका है। सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं।
तो भाव स्पष्ट और ग्रह स्पष्ट बिल्कुल सही सही गणना हो जाती है, षडबल आसानी से रेडीमेड मिल जाते हैं। तब चन्द्र राशि और सूर्य की राशि या भावेश जिस राशि में बैठा होता है, उस राशि को लग्न मान कर  देखने की कोई आवश्यकता नहीं रही। 
फिर भी मानसिक फिटनेस हेतु चन्द्र कुण्डली,  आत्मबल देखने हेतु सूर्य कुण्डली, पुरुष का देहिक बल हेतु मंगल जिस राशि में बैठा हो उस राशि को लग्न मानकर, स्त्री का देहिक बल देखने हेतु शुक्र जिस राशि में बैठा हो उस राशि को लग्न मानकर देखते हैं।
गणित ज्ञान, कम्प्यूटर और अकाउंट्स ज्ञान हेतु बुध को, बुद्धिमत्ता हेतु गुरु ब्रहस्पति को, नीति निपुणता और चातुर्य के लिए शुक्र को, कष्ट और तकनीकी निपुणता के लिए शनि को लग्न मानकर देखते हैं।
सम्बन्धित विषय के लिए सम्बन्धित भाव को लग्न मानकर देखते हैं जैसे विवाह हेतु सप्त भाव को लग्न मानकर देखते हैं।

बुद्धिमान ज्योतिषी ये सब लग्न कुण्डली में ही देख लेता है।
 श्री के एस कृष्णमूर्ति जी के अनुसार ग्रह जिस ग्रह के नक्षत्र में स्थित हो तदनुसार फल देता है।
चलित चक्र में जो ग्रह जिस भाव में स्थित हो उसी भाव का फल बतलाता है। आंशिक प्रभाव लग्न चक्र में जहाँ बैठा हो उसका फल भी मानते हैं।
भाव कुण्डली में ग्रह जिन जिन भाव का स्वामी हो अर्थात भाव स्पष्ट के अनुसार ग्रह जिस जिस भाव का स्वामी हो उन्ही भावों का फल बतलाता है।
ग्रह स्पष्ट में ग्रह जिस राशि, नक्षत्र, नवांश मे या कृष्णमूर्ति के सबलार्ड या सब सब में स्थित हो तदनुसार फल दर्शाता है।



सबसे प्रबल भावस्थ ग्रह के नक्षत्र में स्थित ग्रह, फिर भावस्थ ग्रह फिर भावेश के नक्षत्र में स्थित ग्रह, फिर भावेश ग्रह का बल होता है।

वृहत्पराषर होरा शास्त्र और केशवी जातकोक्त षडबल ---

स्थान बल : 
जब ग्रह अपने उच्चांश में >  या उच्च राशि में > या  मूल त्रिकोण में >या स्वराशि में> या अधिमित्र की राशि में >या मित्र की राशि में हो  तो स्थान बली होता है। साथ ही ग्रह षोडशवर्ग में अपनी उच्च राशि में या  मूल त्रिकोण राशि में या स्वराशि में या अधिमित्र की राशि में हो या मित्र की राशि में हो तो स्थान बली होता है।

नीचांश से उच्चांश की ओर बढ़ते हुए उच्चाभिलाषी बल बढ़ता है और उच्चांश से नीचांश की ओर बढ़ने पर क्रमशः घटता है।
दिग बल : 
 सूर्य और मंगल को दशम भाव में दिगबली होते हैं।
चंद्र और शुक्र  चतुर्थ भाव में।
 बुध और  गुरु  लग्न में शनि  सप्तम भाव में दिग्बली होता है।
इन भावो से 180° पर इन भावों के सपतम भाव में दिग्बल शुन्य होता है। स्थान बल के समान आनुपातिक बल ज्ञात होता है।
काल बल : 
शुभ ग्रह शुक्ल पक्ष में बलवान होते हैं।पाप ग्रह कृष्ण पक्ष में बलवान होते हैं।    चंद्र, मंगल और शनि रात्रि में बली होते हैं  सूर्य, शुक्र और गुरु दिन बली हैं। बुध दिन रात्रि में बली होते हैं।
चेष्टा बल : 
 मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि को  वक्री होने पर चेष्ठा बली होते हैं।उत्तरायण में  सूर्य और चंद्रमा चेष्ठा बली होते हैं।
दृष्टि बल : 
 शुभ ग्रह की दृष्टि से दृष्ट ग्रह का बल बढ़ता है और  पाप ग्रह की दृष्टि से दृष्ट ग्रह का बल घटता जाता है।
नैसर्गिक बल : 
 सूर्य सर्वाधिक बली होता है, वहीं शनि सबसे कम बली होता है।  सूर्य> चंद्रमा> शुक्र> गुरु> बुध> मंगल > शनि क्रमशः  कम बली होते हैं।

 *भाव बल - भाव स्पष्ट पर भाव की राशि का स्वामी या भावेश का मित्र ग्रह या शुभग्रह हो तो उस भाव का बल बढ़ जाता है। भाव स्पष्ट से सन्धि की ओर उक्त ग्रह हो तो भाव का बल घट जाता है। ऐसे ही भावव की राशि के स्वामी का शत्रु ग्रह भाव के बल को कम कर देता है।* 

 *भाव का स्वामी यदि उक्त प्रकार से जितना अधिक षडबली हो तो भाव बलवान होता है । और भावेश का षडबल कम हो तो भाव भी कमजोर हो जाता है।*

दस दिन का सुतक और बारह दिन का श्राद्ध कर्म क्यों?

वेदों के अनुसार जीवात्मा दस दिन तक मृतक की देह के आसपास ही रहता है, लेकिन यम लोक तक की यात्रा बारह दिन में पुर्ण होकर, तेरहवें दिन जीवात्मा नवीन योनि की देह धारण कर लेती है‌।
इसलिए अन्त्येष्टि/ दाह संस्कार करके दस दिन में समस्त अस्थियाँ तीर्थों में विसर्जित कर देना चाहिए।
दशाह-एकादश कर्म होने के बाद अशोच (सुतक) समाप्त हो जाता है। कर्मकाण्ड कर सकते हैं।
प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र और आकुति के पति रुचि प्रजापति ने श्राद्ध कर्म प्रारम्भ किया। जिसमें मुख्यतः भगवान विष्णु की आराधना होती है।
पौराणिक परम्परा अनुसार महर्षि वाल्मीकि के शिष्य, वाल्मीकि रामायण में उत्तर काण्ड जोड़ने वाले, तथा दुष्यन्त - शकुन्तला के उत्तराधिकारी महर्षि भरद्वाज ने श्राद्ध चलाया।
द्वादशाह में पिण्ड दान के बाद जीव तृप्त हो जाता है। 
और अपवाद को छोड़कर अधिकांशतः जीव सम्बन्धियों को भूल जाता है। दूसरी योनि में प्रवेश कर लेता है।
मासिक, द्विमासिक, त्रेमासिक, षडमासी और वार्षिक श्राद्ध यदि तेरह दिन में ही कर दिये जाएँ तो केवल तृतीय वर्ष श्राद्ध पक्ष में पूर्णिमा को पितरों का आह्वान किया जाता है, फिर मृत्यु वाली तिथि को श्राद्ध में लिया जाता है। तब वह जीव पितर संज्ञा धारण कर लेता है। फिर उसकी गणना भी सप्त पितरः में होती है।
फिर गया श्राद्ध और बद्रीनाथ में ब्रह्म कपाली करने पर जीव की गणना देव योनि में होती है।

ध्यान रखें कि, वार सूर्योदय से सूर्योदय तक रहता है। अतः और दिन का समय सूर्योदय से सूर्यास्त तक रहता है एवम् रात सूर्यास्त से सूर्योदय तक रहती है। 
सूर्यास्त समय के घण्टे-मिनट में से सूर्योदय समय के घण्टे-मिनट घटाकर दो का भाग देने पर मध्याह्न का समय आता है।
और अगले सूर्योदय के घण्टे-मिनट में से आज के सूर्यास्त के घण्टे-मिनट घटा कर जो घण्टे-मिनट आये उन घण्टे-मिनट को सूर्यास्त में जोड़ने पर मध्य रात्रि का समय आयेगा। यदि बारह से अधिक हो तो बारह घटा लें। या चौबीस घण्टे वाला समय लिया है तो चौबीस घटा लें।
रात बारह बजे केवल Day & Date ( डे और डेट) बदलते हैं। दिन और वार नहीं बदलते।
दिन और वार सूर्योदय से ही बदलते हैं।



रविवार, 1 सितंबर 2024

विभिन्न पन्थ - प्रवृत्ति मार्गी वैदिक वर्णाश्रम धर्मी याज्ञिक वैष्णव और निवृत्ति मार्गी तान्त्रिक मूर्ति पूजक, अभिषेक कर्ता श्रमण शैव।

अपर ब्रह्म नारायण-नारायणी से हिरण्यगर्भ ब्रह्मा हुए।
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की मानस सन्तान (1) त्वष्टा-रचना के अलावा (2) सनक, (3) सनन्दन, (4) सनत्कुमार और (5) सनातन तथा (6) नारद , (7) प्रजापति, और (8) एकरुद्र (अर्धनारीश्वर महारुद्र) हुए।
प्रजापति के पुत्र ---
(1) दक्ष प्रजापति (प्रथम)-प्रसुति, (2) रुचि प्रजापति-आकुति और (3) कर्दम प्रजापति-देवहूति।
प्रसुति, आकुति और देवहूति भी ब्रह्मा की मानस सन्तान है किन्तु इन्हे स्वायम्भुव मनु-शतरूपा की पुत्री भी कहा जाता है।
प्रजापति ब्रह्मा के इन मानस पुत्रों के अलावा ग्यारह मानस पुत्र और भी हैं। जिनमें से दो देवस्थानी प्रजापति (1) इन्द्र - शचि और (2) अग्नि - स्वाहा एवम् एक (3) देवर्षि नारद मुनि हैं अविवाहित होने से प्रजापति नहीं हैं।  
आठ भूस्थानी प्रजापति ये हैं (4) मरीची-सम्भूति, (5) भृगु-ख्याति, (6) अङ्गिरा-स्मृति, (7) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (8) अत्रि-अनसुया, (9) पुलह-क्षमा, (10) पुलस्य-प्रीति, (11) कृतु-सन्तति। ये सभी ब्रह्मर्षि भूस्थानी प्रजापति हुए। और इनकी पत्नियाँ दक्ष प्रजापति (प्रथम) और उनकी पत्नी प्रसुति की पुत्रियाँ थी। इन ब्रह्मर्षियों का वासस्थान ब्रह्मर्षि देश कहलाता है। (ब्रह्मर्षि देश यानी हरियाणा में गोड़ देश अर्थात कुरुक्षेत्र के आसपास का क्षेत्र) एवम इनकी सन्तान ब्रह्मज्ञ ब्राह्मण हुए। 
 इन्द्र - शचि और अग्नि - स्वाहा और नारद जी के अलावा निम्नलिखित स्वर्गस्थानी देवगण हुए 
 (12) रुद्र- रौद्री (शंकर - सति पार्वती) - रुद्र मूलतः अन्तरिक्ष स्थानी देवता है लेकिन भूलोक में हिमालय में शंकरजी कैलाश वासी भी हैं।
(13) धर्म - और उनकी तेरह पत्नियाँ । (१) श्रद्धा, (२) लक्ष्मी, (३) धृति, (४) तुष्टि, (५) पुष्टि, (६) मेधा, (७) क्रिया, (८) बुद्धि, (९) लज्जा, (१०) वपु, (११) शान्ति, (१२) सिद्धि, (१३) कीर्ति ) ये देवस्थानी प्रजापति हैं। इनकी पत्नियाँ दक्ष प्रजापति (प्रथम) और प्रसुति की कन्याएँ थी । धर्म द्युलोक का अर्थात स्वर्गस्थानी देवता है। लेकिन भूमि पर कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहाजाता है। इनके अलावा (14) पितरः - स्वधा अन्तरिक्ष स्थानी प्रजापति हुए। पितरः ने स्वयम् सप्त पितरों और उनकी शक्ति (पत्नी) को में प्रकट किया। जिनमें से (१) अग्निष्वात (२) बहिर्षद और (३) कव्यवाह तीन निराकार और (४) अर्यमा, (५) अनल (६) सोम और (७) यम चार साकार हैं। अर्यमा इनमें मुख्य हैं।
प्रजापति ब्रह्मा के मानस पुत्र नारद बाल ब्रह्मचारी ही रहे। अतः प्रजापति के स्थान पर मुनि और देवर्षि ही कहे जाते हैं।

सप्तम मन्वन्तर में दस प्रचेताओं के पुत्र दक्ष द्वितीय हुए उनकी पत्नी असीक्नी है। ये शंकर जी के श्वसुर और उमा के पिता हैं। ये कनखल हरिद्वार के शासक भी थे। इनके समय जल प्रलय के नायक विवस्वान आदित्य के पुत्र श्राद्धदेव वैवस्वत मनु कहलाये और उनकी पत्नी श्रद्धा थी।
दक्ष प्रजापति वैदिक वर्णाश्रम धर्म के नियामक होते हैं ये ऋषियों के नेता हैं। इनकी सन्तान ब्रह्म ज्ञानी ब्राह्मण होती है और मनु वैदिक वर्णाश्रम धर्म के आधार पर शासन व्यवस्था स्थापित करने वाले राजा होते हैं। इनकी सन्तान समाज रक्षक क्षत्रिय होती हैं। वैश्य वर्ण भी इन्हीं की सन्तानों से निकला।
ये वर्णाश्रम धर्म वेद, विष्णु और यज्ञ प्रधान आचार संहिता है। ये देवताओं के लिए यझ कर देवताओं (प्रकृति) द्वारा प्रदत्त भोग आवश्यकता अनुसार ही भोग करते हैं। यही वैष्णव मत है। जो महाभारत के भागवत पन्थ से भिन्न है। दक्षिण भारतीय भागवत पन्थानुयाई हैं।
 
 श्रोत्रिय, वैदिक, *याज्ञनिक या याज्ञिक* , स्मार्त, वैष्णवों में वर्णाश्रम व्यवस्था का समादर है। ये अभिषेक नहीं होम हवन-यज्ञ करते हैं। केवल जीवन के समस्त कर्तव्य पूर्ण कर वानप्रस्थ आश्रम के बाद मृत्यु निकट देखकर वन की ओर रुख कर संन्यास लेते हैं। वैष्णवों में गङ्गा का महत्व है वैसे ही शैवों में नर्मदा का महत्व है।

शैवों ने ही सर्वप्रथम मूर्ति पूजा, सकामोपासना, बचपन से ही संन्यासी होना और तन्त्र मत चलाया। ये यज्ञ नहीं अभिषेक और मूर्तिपूजा करते हैं। इब्राहीम का सबाइन पन्थ भी शैव पन्थ का ही रूप है।
बाद में त्वष्टा ने युनान के पास क्रीट में शाक्त पन्थ की स्थापना की जो सऊदी अरब तक फैला। शाक्त पन्थ शुद्ध तान्त्रिक मत है।

चीन में लाओत्से ने ताओ नाम से तन्त्र मत चलाया । जिसमें कुङ्गफु (कन्फ्युशियस) ने संशोधित किया। इन्हीं का परिवर्तित रूप जापान का शिन्तो मत है।

ऋषभदेव के पुत्र और भरत चक्रवर्ती के भाई बाहुबली जिसकी मुर्ती कर्नाटक में है, जहाँ समारोह पूर्वक महामस्त का अभिषेक होता है, उसने स्वायम्भूव मनु के वंशज भरत चक्रवर्ती की सन्तान मनुर्भरतों में अर्थात भारतियों में शंकर जी के शिष्य शुक्राचार्य, उनके पुत्र त्वष्टा और पौत्र विश्वरूप द्वारा स्थापित वेद विरोधी तान्त्रिक मत का प्रचार सिन्ध प्रान्त में किया। उसी परम्परा को शान्तिनाथ, ..., नेमीनाथ, श्रीकृष्ण के चचेरे भाई अरिष्ट नेमि, पार्श्वनाथ और वर्धमान महावीर ने आगे बढ़ाया। अरिष्ट नेमि तक यह बौद्ध मत कहलाता था। 

वेद, ब्राह्मण ग्रन्थों, वेदाङ्ग, उपवेद, पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा, सांख्य, योग, वेशेषिक और न्याय दर्शन में शिक्षित सिद्धार्थ गोतम बुद्ध भी उक्त बौद्ध मतानुसार शरीर क्लेश वाले कठोर आसुरी तप करके अन्ततः लगभग इसी मत के अनुयाई हो गये थे।
बौद्ध मत की महायान शाखा की वज्रयान उपशाखा से निकले चौरासी सिद्धों में नव नाथ हुए। इन्हीं सिद्धों की शुद्धि कर आदि शंकराचार्य जी ने दशनामी अखाड़े के नागा साधुओं की सेना में परिवर्तित कर दिया। लेकिन नौ नाथों का रुझान इराक से आये यहुदियों के इब्राहिमी मत की ओर बढ़ गया।
नाथ सम्प्रदाय भी इसी मत का अनुसरण करता है। इसलिए नाथों को सनातनधर्मी नहीं माना जाता था। विगत इलाहबाद उप कुम्भ के पहले कुम्भ मेला में नाथ सम्प्रदाय नहीं आता था।
इनका प्रभाव सिद्धों पर भी पड़ा, लेकिन चार शंकराचार्यों के अधीन रहने के कारण नागाओं के कठोर अनुशासन में यह प्रभाव कम रहा ।
शंकर जी के ही शिष्य चन्द्रमा, दुर्वासा, दत्तात्रेय, दत्तात्रेय के शिष्य कार्तवीर्य सहस्त्रार्जून, रावण हुए।
 दत्तात्रेय के अनुयाई उक्त चौरासी सिद्ध गण जिनमें से ही नौ नाथ भी निकले। इनकी गणना शिवगणों में भी होती है। 
किन्तु महर्लोक वासी सिद्धों और इन सिद्धों में कहीँ कोई साम्य नही है। इनका क्षेत्र धर्म नही तन्त्र है। इनके परवर्ती जो वर्तमान में प्रसिद्ध है उनमें प्रमुख हैं⤵️
महावतार बाबा,  श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय उनके तीन प्रमुख शिष्य युक्तेश्वर गिरि, केशवानन्द और प्रणवानन्द ने तथा युक्तेश्वर गिरि के शिष्य परमहंस योगानन्द , रामकृष्ण परमहन्स, विवेकानन्द, हेड़ाखान बाबा, नीम करोली बाबा, अक्कलकोट के स्वामी समर्थ,और उनके शिष्य बालप्पा महाराज, चोलप्पा महाराज, अलंदी के नृसिंह सरस्वती महाराज, वेङ्गुरला के आनन्दनाथ महाराज, मुंबई के स्वामीसुत महाराज, पुणे के शंकर महाराज, पुणे के रामानन्द बीडकर महाराज और उनके अनुयायी गजानन महाराज , शिरडी के साईं बाबा , आदि इन चौरासी सिद्धों के ही उत्तरवर्ती सिद्धगण हैं।
इसी क्रम में खण्डवा के अवधूत बड़े दादा महाराज जी और छोटे दादा महाराज जी भी हैं।

कर्नाटक में श्रमण बेलगोला में बाहुबली का महा मस्त का अभिषेक होता है। जैन-बौद्ध और नाथ और शैवों में सम्प्रदाय में वर्णाश्रम का नहीं सीधे संन्यास का महत्व है।
सन्यासी होकर भी नगरीय सीमा में ही रहते हैं। वन गमन नहीं करते।

शैवों में नर्मदा का महत्व है। इसलिए शैव लोग नर्मदा परिक्रमा करते हैं।
रावण खल घाट में नर्मदा स्नान करता था। उसके भाई खर ने खरगाँव (खरगोन) बसाया था।