सोमवार, 29 अप्रैल 2024

सर्वमेध यज्ञ का अधिकार और अधिकारी।

*जो धार्मिक नही हो पाया उसका अध्यात्म में प्रवेष सम्भव ही नही है।* 
*धर्म, धर्मकर्म, धार्मिक क्रियाएंँ, आत्म साधन और अध्यात्म में परम्पर अन्यान्योश्रित सम्बन्ध है।* 

*धर्म की व्याख्या -* 

धर्म प्रथम पुरुषार्थ है और अध्यात्म अन्तिम पुरुषार्थ मौक्ष का साधन रूप अभिन्न हिस्सा है।
*आधुनिक भाषाओं में नैतिकता के मूलभूत सिद्धान्त कहलाते हैं उनमें से मुख्य और सर्वमान्य सिद्धान्त ये हैं।—*
मैरे ब्लॉग "धर्म, धर्मकर्म, आत्म साधन,मन्त्र साधना और अध्यात्म।" में इस विषय में विस्तृत चर्चा हो चुकी है अतः पुनरूक्ति अनावश्यक है। फिर भी सार संक्षेप प्रस्तुत है।
*सृष्टि हितेशी, प्रकृति के अनुकूल स्वाभाविक कर्त्तव्य पालन के व्रत और नियम पालन करना ही धर्म है। इसके कुछ यम और कुछ नियम और कुछ संयम होते है। योग शास्त्र में भी पाँच यम और पाँच नियम बतलाये हैं, मनुस्मृति 06/92 में भी धर्म के दशलक्षण बतलाये हैं।* 
*याज्ञवल्क्य स्मृति में धर्म के नौ लक्षण बतलाए गए हैं। राम के आदर्श चरित्र द्वारा वाल्मीकि रामायण को तो धर्माचरण कैसे किया जाता है इसका व्यावहारिक उदाहरण ही प्रस्तुत करती है। और महाभारत में विदुर नीति के अन्तर्गत ये धर्म धर्म के आठ अंग बतालाए हैं ।*

पद्मपुराण सृष्टि खण्ड १९/ ३५७-३५८ में धर्म का सार कहा गया है -
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।। 

(अर्थ: धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो ! और सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये।)
श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध, अध्याय ११ के श्लोक ०८ से १२ में सनातन धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े ही महत्त्व के हैं ।

सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।।
संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।
अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।
तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।। 
इन सब के आधार पर धर्म के लक्षण निम्नानुसार हैं।— 
१अहिन्सा - अक्रोध, क्षमा, दया, प्रेम, शान्ति, सबको आत्मवत मान समझकर सबको अपने ही समान प्रेम करना, सबके प्रति स्नेह होना,  अपने मन, वचन, कर्म, आचरण और व्यव्हार से अपने कारण तथा अपने द्वारा किसीको कष्ट न हो, कोई हानि न हो यह पुर्ण सावधानी रखना,कटुता, और परपिड़न का पुर्ण अभाव होना अहिन्सा है।

२ सत्य - सद्विचार, सदा सत्य वचन बोलना, सद्व्यवहार, सदाचरण करना, मौन रहनें का स्वभाव और परमात्मा के जिस नियम ऋत के द्वारा सृष्टि सृजन, प्रेरण, नियमन, पालन और प्रलय होता है उस नियम यानि ऋत के अनुकूल होकर; यथार्थ,  सत्य वचन बोलना- लिखना, प्रकट करना,सत्य भाषण करना, सत्य वक्ता होना, सदाचारी होना, सद्विचार रखना, सद्व्यव्हार ही करना यह सत्य नामक यम है।

३ अस्तेय -  परायी किसी भी वस्तु, सम्पत्ति तथा परस्त्री का आकर्षण न होना,लोभ न होना अर्थात अलोभ, निर्लोभता,चोरी न करना अस्तैय है।

४ ब्रह्मचर्य - ब्रह्म की और चलनें की प्रवृत्ति, समत्व, आर्जव (सरलता/ सीधापन) के भावों से सदा ओतप्रोत रहना। वीर्य रक्षण, धृतिवर्धन, परस्त्री को मातृवत समझना होना, स्वपत्नी से भी केवल ऋतुकाल में ही सन्तानोत्पत्ति के निमित्त ही मैथुन करना, निर्वयसनी रहना ब्रह्मश्चर्य  है।
उक्त प्रकार की मनोवृत्ति होना ही दैवी सम्पदा/ दैवी प्रकृति है।

५ अपरिग्रह - दान, त्याग भाव; सम्पुर्ण सम्पत्ति केवल परमात्मा की ही है यह जान समझकर अपने आधिपत्य की सम्पत्ति पर केवल अपना ही सत्व न मान कर अपने उपभोग के लिये केवल जीवन यापन हेतु अत्यावश्यक चीजें ही उपयोग में लेना, स्वयम् को केवल ट्रस्टी समझकर अपने स्वामित्व और आधिपत्य की सम्पत्ति का व्यवस्थापन करना, यह अपरिग्रह है।
तथा
६ शोच - तन, मन,वचन,और कर्मों से पुर्ण स्वच्छ, पवित्र होना, स्वास्य्यवर्धक कर्म करना, प्राण की धारणा शक्ति धृति बढ़ाते रहना करना, धैर्य धारण करना यह शोच है।

७ सन्तोष - (ईश्वर प्रदत्त भोगों में सन्तुष्टी का भाव) लेकिन साथ ही अपने सद्कर्मों में लगातार सुधार और गुणवत्ता लानें हेतु तत्परता;
 ईश्वर के दिये और दुसरों के किये से पुर्ण सन्तुष्ट रहना तथा अपने किये को कमतर मान कर निरन्तर सुधार लाना, दुसरों की त्रुटी नजर अन्दाज करना, परदोष दर्शन न करना यह सन्तोष है।

८ तप - तितिक्षा (धर्म पालनार्थ अनुकूलता-प्रतिकूलता में समत्व,बिना कष्ट अनुभव किये प्रतिकूलताएँ सहना), इन्द्रिय निग्रह - (मन और दशेन्द्रियों को वश में रखना यानी इन्द्रियों पर ऐसा नियन्त्रण कि, वे आपके निर्देश के बिना विषयों की ओर प्रवृत्त न हो।), दम (मन और इन्द्रियों को उनके विषयों की ओर स्वैच्छया जाने से रोकना, संयम धारण करना), शम (मन सहित इन्द्रियों को शान्त करना),  धृति - (धैर्य धारण करना/ दृढ़ता, जिस धारण शक्ति से प्राण देह को धारण करता है उस धारण शक्ति अर्थात धृति को आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार द्वारा बढ़ाना।)
जीव- निर्जीव भूतमात्र की सेवा, इज्या - (पञ्चमहायज्ञ सेवन);
अपने कर्त्तव्य पालन में सत्यनिष्ठा पुर्वक जुटे रहनें में किसी प्रकार का कष्ट न मानना, निरन्तर ईश्वर के प्रति पुर्ण प्रेमभाव पुर्वक ईश्वर को ध्यान में रखकर रखते हुए अविरत जगत सेवा में तत्पर रहते हुए जुटे रहना, स्वदेश, अपने राष्ट्र के प्रति पुर्ण निष्ठा, समर्पण, सेवा भाव, राष्ट्रहित में सर्वस्व त्याग भाव, आक्रान्ताओं का समूल नाश करनें हेतु तत्परता यह तप  है।
९ स्वाध्याय (अध्ययन, चिन्तन, मनन, जप, भजन, किर्तन), आत्म विमर्श (मन के अच्छे-बुरे विचारों का मनन करना या निरीक्षण करना।), धी (सद्बुद्धि या प्रज्ञावान होना,स्थित्प्रज्ञ होना), विद्या (यथार्थ ज्ञान होना , बत्तीस विद्याओं और चौसठ कलाओं के साथ परमात्म भाव में सदा स्थित रहना); 
 सत्साहित्य अध्ययन ,चिन्तन, मनन, गुरुमन्त्र का जप करना स्वाध्याय कहलाता है।
१० *ईश्वर प्रणिधान* - ईश्वर के प्रति अनन्य भाव से समर्पण होना आदि नियमों के पालन में दृढ़ता होना।
ईश्वर भक्ति, भजन, जप करना, ईश्वर के प्रति पुर्ण समर्पण / पुर्ण समर्पित होना ईश्वर प्रणिधान है।

उक्त सत्कर्म तो धर्म है। इनके विपरीत आचरण अधर्म है।

जिसका जीवन उक्त प्रकार से संयमित नियमित हो, वह व्यक्ति धार्मिक कहलाता है। उसका जीवन धार्मिक जीवन है।

 *अधर्म लक्षण उक्त धर्म लक्षण के ठीक विपरीत होते हैं।* 

1 हिन्सा, मान्साहार, दुसरों को पीढ़ा देना,
2 मिथ्याभाषी, दुराचारी,
3 चोर, लोभी,
4 परस्त्रीगामी, वासनामय, दुर्वयसनी,
5 अनावश्यक संग्रह रखकर नकली अभाव पैदा कर लाभ लेनेवाला,
6 गन्दा शरीर, गन्दा सोच, अश्लील विचार वाला,
7 ईश्वर के दिये और दुसरों के उपकार से असन्तुष्ट,
8 आत्म प्रशंसक,प्रवञ्चक, सेवा करने में कष्ट मानने वाला,
9 सत्साहित्य अध्ययन, चिन्तन मनन न करने वाला बल्कि हिन्सक, अश्लील साहित्य में रुचि लेने वाला, दुराचार, हिन्सा,चोरी,डकेती, लूट, बलात्कार करने का चिन्तन करने वाला,
10 सम्पुर्ण जगत में सर्वव्यापी, सर्वव्यापक, सर्वकालिक, परमात्मा के प्रति निस्वार्थ, निष्काम प्रेम और भक्तिभाव न रखते हुए किसी स्थान विशेष पर रहने वाले, एकदेशीय, किसी समय विशेष में ही विद्यमान किसी व्यक्ति के माध्यम से स्वयम् की सेवा, पुजा, भजन, भक्ति करने का उपदेश देनेवाले किसी व्यक्ति/ जीव या वस्तु या स्थान या समय को को ईश्वर, सृष्टि रचियता, प्रेरक, रक्षक, सृष्टि पालक, सृष्टि संहारक, मानकर उससे भयभीत रहने वाला, डरने वाला व्यक्ति अधर्मी कहलाता है। और ऐसे सिद्धान्तों पर चलनेवाले मत , पन्थ या सम्प्रदाय अधार्मिक कहलाते हैं।
जिसका आचरण उक्त प्रकार का हो वह अधर्मी कहलाता है।
 
*नास्तिक और अधिश्वर वादी -* 
सनातन वैदिक धर्मी वेदों को परम प्रमाण मानते हैं। ईश्वरवादी हो या अनिश्वर वादी हो लेकिन, वेदों को न माननें वाला, वेदों को परम प्रमाण न मानने वाला उनकी दृष्टि में नास्तिक है।  

 *सन्त कौन? -*
*देवीप्रकृति वाले व्यक्ति एवम् आसुरीप्रकृति वाले व्यक्तियों में समभाव रखना, देवता और असुर में समभाव रखना, हिन्सक और अहिन्सक में समभाव रखने वाला सन्त कहलाता है।* 

 *धर्म रहित मानव भी दानव जैसा ही है।*  

 *साधन करना,आत्म साधना और मन्त्र साधना ।* 
साधन करना,आत्म साधना और मन्त्र साधना ---

*आत्म साधना हेतु सर्वप्रथम कृच्छ्र चांद्रायण व्रत किया जाता है।मूलतः अहिन्सा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह अर्थात पञ्च यम की साधना ही आत्म साधन हैं। सर्वजन हिताय, सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय ईश्वरार्पण सौद्देष्य निष्काम सामाजिक कर्तव्य निर्वहन कर्म प्रधान संस्कृति जिसे संक्षिप्त में यज्ञ कहा जाता है।*
*ईश्वरीय कार्यों में सहयोगार्थ वेदों में पञ्चमहायज्ञ की व्यवस्था है।* 
जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य आश्रम में धर्म का मर्म भली-भांति समझ गया, जिसने धर्म पालन पूर्वक ग्रहस्थ आश्रम में जिसने समस्त यज्ञों का सम्पादन करते हुए व्यावहारिक जीवन जी लिया। जिसके समस्त सांसारिक कर्तव्य पूर्ण हो चुके वही व्यक्ति वानप्रस्थ आश्रम में गुरुकुल स्थापित कर आत्म साधना करते हुए नई पीढ़ी को धर्माचरण का शिक्षिण- प्रशिक्षण प्रदान करता है। साथ ही आवश्यकता पड़ने पर बड़े-बड़े यज्ञों में आचार्य का पद ग्रहण करते हैं। समस्त वैदिक वैज्ञानिक अनुसंधान इन्हीं ऋषियों द्वारा किया गया।  ब्राह्मण ग्रन्थ आदि समस्त वैदिक शास्त्र इन्हीं ऋषियों की रचना हैं। समस्त यज्ञ पूर्ण कर चुके धर्म तत्व के ऐसे मर्मज्ञ जब वानप्रस्थ के कर्तव्य पूर्ण हुआ जानकर सर्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान प्रारम्भ करते हैं। अर्थात यज्ञ की पूर्णाहुति के बाद अन्तर्मुखी होकर धारणा - ध्यान और समाधि की अवस्था में देह के अन्दर की झलक देखते हैं। उस अवस्था में ही वे पुरुष सूक्त, (यजुर्वेद का अध्याय ३१ उत्तर नारायण सुक्त सहित पुरुष सूक्त), नासदीय सुक्त और  अस्यवामिय सुक्त और ,श्री सुक्त, लक्ष्मी सुक्त,और देवी सुक्त और शुक्लयजुर्वेद का एकतीसवां और बत्तीसवां और चालिसवां अध्याय के दृष्टा होते हैं। और इसी अवस्था के अनुभवों का विवरण  एवम् वर्णन ; श्वेताश्वतरोपनिषद (कृष्ण यजुर्वेद संहिता का अन्तिम अध्याय) , केनोपनिषद, कठोपनिषद, प्रश्नोपनिषद,  एतरेयोपनिषद, तैत्तरियोपनिषद, मण्डुकोपनिषद, माण्डुक्योपनिषद, छान्दोग्योपनिषद, वृहदारण्यकोपनिषद, कौशितकी ब्राह्मणोपनिषद और इन ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों में किया गया है। 
उक्त ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषदों के आधार पर रचित पुर्व मिमांसा दर्शन , उत्तर मिमांसा दर्शन (शारीरिक सुत्र) के अलावा सांख्य कारिकाएँ, कपिल का सांख्य दर्शन, पतञ्जली का योग दर्शन, अक्षपाद गोतम का न्याय दर्शन, कणाद का वैशेषिक दर्शन में  किया गया है।

गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

हनुमान जयन्ती की विविध तिथियों के शास्त्र प्रमाण।

हनुमान जयन्ती
हनुमान जयन्ती की वास्तविक तिथि के विषय में बहुत भ्रम है।

उड़ीसा में निरयन मेष संक्रान्ति (वर्तमान में 13/14 अप्रेल) को मनाते हैं। इस दिन सूर्य केन्द्रीय ग्रहों में (मध्यम ग्रह) में भूमि चित्रा नक्षत्र पर रहती है।

मासिक धार्मिक पत्रिका कल्याण के हनुमान अङ्क के अनुसार छत्तीसगढ़ में आदिवासी जनजाति के लोग  चैत्र शुक्ल नवमी तिथि को रामनवमी के दिन श्री राम और हनुमान जी दोनों की जयन्ती पर्व मनाते हैं।

उत्तर भारतीय चैत्र पूर्णिमा को सूर्योदय के समय हनुमान जयन्ती मनाते है। इस दिन प्रायः चन्द्रमा चित्रा नक्षत्र पर रहता है।
स्कन्द पुराण वैष्णव खण्ड 40/ 42-43
प्रादुरासीत्तदातम् वै भाषमाणो महामतिः।
मेष संक्रमणम् भानौ सम्प्राप्ते मुनिसत्तमाः।।
पूर्णिमाख्ये तिथौ पुण्ये चित्रानक्षत्रसंयुते।

आनन्द रामायण सारकाण्ड 13/162-163 
चैत्रे मासे सिते पक्षे हरिदिन्याम् महाभिदधे।
नक्षत्रे स समुत्पन्नो हनुमान् रिपुसूदनः।।
महाचैत्रीपूर्णिमायाम् समुत्पन्नोऽञ्जनीसुतः।
वदन्ति कल्पभेदेन बुधा इत्यादि केचन।।
के अनुसार हनुमानजी चैत्र शुक्ल एकादशी को मघा नक्षत्र में जन्मे थे। लेकिन कल्प भेद से चैत्र पूर्णिमा को भी हनुमान जयन्ती मनाते हैं। 

तन्त्र सार ग्रन्थ के 
चैत्रे मासि सिते पक्षे पौर्णमास्याम् कुजेऽहनि।
मौञ्जीमेखलया युक्तः कौपीनपरिधारकः।।
कर्णयो कुण्डले प्राप्तस्तथा यज्ञोपवीतकः।। 
प्रवालसदृशो वर्णो मुखे पुच्छे च रक्तकः।।
एवम् वानररूपेण प्रकटोऽभूत क्षुधातुरः।
अनुसार भी भी हनुमान जी का जन्म चैत्र पूर्णिमा को हुआ था।
राजस्थान में सालासर बालाजी मन्दिर में भी चैत्र पूर्णिमा को हनुमान जयन्ती मनाते हैं।

*आन्ध्र* प्रदेश और *तेलङ्गाना* मे चैत्र पूर्णिमा से दीक्षा आरम्भ कर 41 से दिन पश्चात *अमान्त वैशाख पूर्णिमान्त ज्येष्ठ कृष्ण दशमी* को हनुमान जयन्ती मनाते हैं। और पर्व का समापन करते हैं।
ध्यातव्य है कि, तिरुमला तिरुपति देवस्थानम तिरुमला स्थित अञ्जनाद्री पर्वत पर स्थित अञ्जनी मन्दिर को हनुमान जन्मस्थली मानता है।

श्रावण पूर्णिमा - 
 प्रजापति ब्रह्मा जी (श्री विखानस जी) के पुत्र महर्षि मरीचि रचित विमानार्चनकल्प ग्रन्थ के आधार पर वैखानस सम्प्रदाय वाले श्रावण पूर्णिमा को हनुमान जयन्ती मनाते हैं।-
श्रावण मासि श्रवणजातः।।
अर्थात - श्रावण पूर्णिमा को श्रवण (हनुमानजी) का जन्म हुआ।
सुचना - हनुमान जी का श्रवण नाम और कहीँ पढ़ने में नहीं आया। अतः प्रमाण सिद्ध है या नहीं कहना कठिन है।


अमान्त आश्विन पूर्णिमान्त कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी तिथि, स्वाति नक्षत्र सायंकाल में मेष लग्न में  हनुमान जयन्ती। ऐसी मान्यता हैकि, इस दिन माता सीता जी ने हनुमान जी को अमरत्व का वरदान दिया था। ---
अयोध्या के हनुमान गड़ी मन्दिर में अमान्त आश्विन पूर्णिमान्त कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी (काली चौदस/ रूप चौदस) को सूर्यास्त के समय हनुमान जयन्ती मनाते हैं। इस दिन भी प्रायः चन्द्रमा चित्रा नक्षत्र पर रहता है।
मतलब चित्रा तारे का हनुमान जन्म से घनिष्ठ सम्बन्ध है।
अगस्त संहिता --
ऊर्जे कृष्णे चतुर्दश्याम् भौमे स्वातात्यायाम् कपीश्वरः।
मेष लग्नेऽञ्जनागर्भात् स्वयम् जातो हरः शिवः।।
वायु पुराण के अनुसार अमान्त आश्विन पूर्णिमान्त कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को स्वाति नक्षत्र, मेष लग्न में स्वयम् शङ्करजी माता अञ्जना के गर्भ से जन्में।
आश्विनस्यासिते पक्षे स्वात्याम् भौमे च मारुतिः।
मेष लग्नेऽञ्जनागर्भात् स्वयम् जातो हरः शिवः।।

आद्य रामानन्दाचार्य रचित श्री वैष्णवमताब्जभास्कर 81 के ग्रन्थानुसार 
स्वात्यायाम् कुजे शैवतिथौ तु कार्तिके। कृष्णेऽञ्जनागर्भात् एव साक्षात्।।
मेषे कपिर्प्रादुर्भभूच्छिवः स्वयम्।
व्रतादिना तत्र तदुत्सवम् चरेत्।।
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी, स्वाति नक्षत्र मेष लग्न में अञ्जना के गर्भ से साक्षात शिव प्रादुर्भूत हुए।
शम्भुश्चायम् ननु पवनतनयोऽप्यऽञ्जनायाम् प्रजये। प्रातः स्वातत्याम् कनकवपुषा मङ्गले मङ्गलाढ्यः।।

पण्डित मदनमोहन मालवीय जी द्वारा प्रवर्तित विश्व पञ्चाङ्ग तथा हृषीकेश पञ्चाङ्ग के अनुसार हनुमान जी का जन्म अमान्त आश्विन पूर्णिमान्त कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी (नरक चतुर्दशी), मंगलवार को सायं काल में मेष लग्न में हुआ था।
हृषीकेश पञ्चाङ्ग वाराणसी के अनुसार-
शुक्लादि मासगणनया आश्विनकृष्णः कार्तिक कृष्ण तुलार्के मेषलग्ने सायंकालेअतश्चतुर्दश्यांसायंकाले जन्मोत्सवः।

लेकिन; कर्नाटक में तीन परम्परा है। 
1 चैत्र शुक्ल पूर्णिमा।
2 आन्ध्र प्रदेश की परम्परा पालन।
3 मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी
कर्नाटक में मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी को हनुमान व्रतम् मनाते हैं। 
मान्यता है कि, महाभारत किसी संसकरण में उल्लेख है कि, हनुमान जी का अपमान करने के कारण पाण्डवों को बाहर वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास भोगना पड़ा। अतः इस दोष के प्रायश्चित स्वरूप और दोष परिहरणार्थ श्री कृष्ण ने द्रौपदी को मार्गशीर्ष शुक्ल त्रयोदशी को हनुमान व्रतम् करने का निर्देश दिया था। तब से यह व्रत चल रहा है। लेकिन गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत में इस प्रसङ्ग का उल्लेख नहीं है।

विशेष सुचना--- हनुमान जी का कार्यक्षेत्र कर्नाटक के हम्पी क्षेत्र में ही रहा। सम्भवतः हनुमान जी का जन्म हम्पी से 15 किलोमीटर दूर अनेगुड़ी (अञ्जनी) गाँव में स्थित अञ्जनाद्री पर्वत पर पर्वतीय किलेनुमा स्थान पर स्थित मन्दिर में हुआ हो। कर्नाटक में रा.स्व.से.संघ इस स्थान पर हनुमानजी का जन्मस्थान मानते हैं। रा.स्व.से.संघ नें वहाँ हनुमान जन्मस्थली मन्दिर बनाने हेतु एक सौ बीस करोड़ रुपए का फण्ड तैयार कर रखा है।

तमिलनाडु में निरयन सौर धनुर्मास में मूल नक्षत्र के दिन या मार्गऴी मास में मूल नक्षत्र के दिन अमान्त मार्गशीर्ष अमावस्या मूल नक्षत्र में* हनुमथ जयन्ती पर्व मनाया जाता है। यह कर्नाटक के हनुमत् उत्सव से ही सम्बन्धित है।

अस्तु;
हनुमानजी का जन्म के समय चित्रा नक्षत्र महत्वपूर्ण माना जा रहा है अतः जिस समय मध्यम ग्रह (सूर्य केन्द्रीय ग्रहों) में भूमि चित्रा नक्षत्र पर रहती है अर्थात उड़ीसा मतानुसार निरयन मेष संक्रान्ति को हनुमान जी का जन्म दिन माना जा सकता है। या अयोध्या के हनुमान गढ़ी मन्दिर के अनुसार निरयन तुला संक्रान्ति को हनुमानजी का जन्म दिन मान सकते हैं जिस दिन सूर्य चित्रा तारे पर रहता है। काली चौदस/ रूप चौदस इसी समय पड़ती है। इस दिन माता सीता ने उन्हें अमरत्व का वरदान दिया था।
या फिर उत्तर भारतीय परम्परानुसार चैत्र पूर्णिमा तो है ही, जिस दिन चन्द्रमा चित्रा नक्षत्र पर रहता है। या
वसन्त सम्पात के समय सायन मेष संक्रान्ति (20/21 मार्च) को हनुमानजी का जन्म हुआ  ऐसा माना जा सकता है। और सम्भवतः श्री रामचन्द्र जी का जन्म भी वसन्त सम्पात के समय सायन मेष संक्रान्ति (20/21 मार्च) को हुआ होगा।  
उसदिन सूर्य भूमध्य रेखा पर होनें से दिनरात बराबर होते हैं। उत्तरीध्रुव पर सूर्योदय होता है, दक्षिण ध्रुव पर सूर्यास्त होता है।

सूर्य क्रान्तिवृत्त में भचक्र में जिस तारे से आरम्भ होता है अगले वर्ष उस तारे से 50.3' पीछे (पश्चिम में) आता है। इस अयन चलन के कारण 25778 वर्ष में सूर्य क्रान्तिवृत्त में पूरा 360° घूम जाता है। इससे निरयन मेष संक्रान्ति और सायन मेष संक्रान्तियों में  लगभग 71 वर्ष में एक अंश का अन्तर होने से लगभग एक दिन का अन्तर पड़ जाता है। ग्रेगोरियन केलेण्डर सायन मान से चलता है अतः निरयन संक्रान्ति एक दिन बाद होती है। सन 285 ई. में 22 मार्च को वसन्त सम्पात अर्थात् सायन मेष संक्रान्ति और निरयन मेष संक्रान्ति एक साथ पड़ी थी। जिसमें अब 24° अर्थात 24 दिन से अधिक का अन्तर पड़ गया। 
चूँकि, चैत्र वैशाखादि निरयन सौर संस्कृत चान्द्रमास भी निरयन संक्रान्तियों पर आधारित है अतः वर्तमान में सायन संक्रान्तियों की तुलना में 24 दिन का अन्तर पड़ता है। इसी अन्तर के परिणाम स्वरूप सायन मेष संक्रान्ति कभी चैत्र पूर्णिमा को तो कभी मार्गशीर्ष अमावस्या को पड़ती रही है। इस कारण हनुमान जयन्ती कि तिथियों में बहुत अन्तर देखनें को मिलता है।

हनुमान जी का जन्म समय ---
हनुमान जी का जन्म यदि त्रेता युग समाप्त होने के मात्र सौ वर्ष पहले भी माना जाए तो;
 त्रेता के अन्तिम सौ वर्ष+ द्वापर युग के आठ लाख चौंसठ हजार वर्ष + वर्तमान कलियुग संवत 5125 वर्ष कुल मिलाकर आठ लाख उनहत्तर हजार दो सौ पच्चीस वर्ष (8,69,225 वर्ष) से अधिक समय पहले हनुमान जी का जन्म हुआ होगा

फिर भी आन्ध्र प्रदेश का तिरुमला तिरुपति हो या कर्नाटक में हम्पी के निकट अनेगुड़ी (अञ्जनी) गाँव कोई एक स्थान में हनुमानजी का जन्मस्थान निर्धारित कर और निरयन मेष संक्रान्ति (14 अप्रैल) या सायन मेष संक्रान्ति (21 मार्च)या चैत्र पूर्णिमा को जन्मदिन नियत किया जावे।

बुधवार, 24 अप्रैल 2024

हनुमान जी के जन्मस्थान पर मत भिन्नता ।

वाल्मीकि रामायण के किष्किन्धाकाण्ड काण्ड में सर्ग 64 श्लोक बीस में उल्लेख है कि, हनुमान जी का जन्म गुफा में हुआ था जबकि तिरुमला में कोई गुफा नहीं है। और केसरी जी का राज्य किष्किन्धा के निकट माल्यवान पर्वत पर था।
कर्नाटक के कोप्पल जिले के गंगावती तहसील में हम्पी से लगभग 25 किलोमीटर दूर अनेगुड़ी गाँव (अञ्जनी गाँव) ही किष्किन्धा नगरी है।
जहाँ तुङ्गभद्रा नदी (प्राचीन पम्पा नदी), पम्पा सरोवर, तारा पर्वत और बाली-सुग्रीव का किला भी है। यहाँ गुफाओं में पाँच से सात हजार वर्ष पुराने वानर जाति के लोगों द्वारा निर्मित बाली-सुग्रीव के युद्धरत चित्र और पर्वत में उकेरी प्रतिमाएँ मिलती है।
पास ही बाली के खजाने वाली गुफा बाली भण्डार और वाल्मीकि रामायण के किष्किन्धाकाण्ड सर्ग बारह में उल्लेखित मतङ्ग वन जहाँ हनुमानजी ने बाल लीलाएँ की, मतङ्ग ऋषि के आश्रम के पास ही शबरी माता की कुटिया भी है।
निकट ही ऋष्यमूक पर्वत भी है। जहाँ हनुमानजी की सलाह पर बाली से बचने के लिए सुग्रीव ने शरण ली थी। 
अनेगुड़ी गाँव के बीचोंबीच सूर्योदय सूर्यास्त के समय स्वर्णमय दिखने वाले आञ्जनेय पर्वत पर पत्थरों का किला है। जहाँ हनुमानजी का जन्मस्थान मन्दिर है। जिसमें स्थापित पर्वत के पाषाण से बनी प्रतिमा स्वायम्भूव मानी जाती है ।
प्रतिदिन सूर्योदय और सूर्यास्त के समय आञ्जनेय पर्वत को किसी भी कोण से देखने पर सुनहरी रङ्ग का दिखता है।
वाल्मीकि रामायण में हनुमान जी की जन्मस्थली सुनहरे रङ्ग का पर्वत बतलाया गया है।

लेकिन 
आन्ध्र प्रदेश के तिरुमला तिरुपति देवस्थान के सात सदस्यीय कमेटी और कर्नाटक के रा.स्व.से.संघ जिन्होंने कर्नाटक के कोप्पल जिले के गंगावती तहसील में हम्पी से लगभग 25 किलोमीटर दूर अनेगुड़ी गाँव (अञ्जनी गाँव) अर्थात किष्किन्धा नगरी में हनुमान जन्मस्थली मन्दिर निर्माण के लिए 120 करोड़ रुपए का कोष तैयार किया है इन दोनों संस्थाओं के बीच हनुमान जन्मस्थली विवाद तो माननीय न्यायालय में विचाराधीन है। जो कभी न कभी हल हो ही जाएगा और सिद्ध हो जायेगा कि, वास्तविक हनुमान जन्म स्थान कौनसा है?
वराह पुराण में तिरुमला की सात पहाड़ियों में से एक वैंकटाचल के बीस नामों में से एक सुमेरु भी बतलाया है।
वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड में हनुमान जी का जन्म स्थान सुमेरुशिखराञ्चल बतलाया है।
वास्तविक सुमेरु पर्वत तो उत्तरी ध्रुव या हिमालय पर होगा ।

ब्रह्म पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण और वराह पुराण में तिरुमला की सात पहाड़ियों में से एक अञ्जनाद्री पहाड़ी का उल्लेख है। स्कन्द पुराण में उल्लेख है कि, माता अञ्जनी ने हनुमान जी के जन्म से पहले अञ्जनाद्री पहाड़ी पर तपस्या की थी, उसके बाद ही हनुमान जी का जन्म हुआ। इसी कारण इस पहाड़ी का नाम अञ्जनाद्री पड़ा।
तिरुमला में माँ अञ्जनी का मन्दिर अञ्जनाद्री पहाड़ी पर है।
वैकटाचल महात्म्य में बतलाया है कि, मतङ्ग ऋषि के आदेश पर माता अञ्जनी तिरुमला आई थी और पुष्कररणी में स्नान करने के बाद माता अञ्जनी ने हनुमान जी के जन्म के पहले आकाशगङ्गा नामक स्थान पर तपस्या की थी। आकाशगङ्गा नामक स्थान आज भी तिरुमला में स्थित है।
वाल्मीकि रामायण में लिखा है कि, सूर्य के आदेश पर हनुमान जी ने सुग्रीव से मित्रता कर सुग्रीव को परामर्श दिया कि, वे बाली से बचने के लिए ऋष्यमूक पर्वत पर शरण ले।
श्री रामचन्द्र जी से मित्रता के पश्चात जब सुग्रीव, हनुमान जी और श्रीराम जब ऋष्यमूक पर्वत से किष्किन्धा लौटे तो उन्होंने बीच में कई प्रदेशों, अरण्यों और नदियों को पार किया था। मतलब ऋष्यमूक पर्वत किष्किन्धा से काफी दूर था। आज भी तिरुमला से किष्किन्धा पैदल पहूँचने में तीन-चार दिन लग जाते हैं।
उक्त प्रमाण सिद्ध करते हैं कि, हनुमान जी का जन्म तिरुमला में अञ्जनाद्री पहाड़ी पर हुआ था। 

इसके अलावा कुछ बे-सिर-पैर के दावे भी किये जा रहे हैं जिनमें प्रमुख है -

 महाराष्ट्र में नासिक से 28 किलोमीटर दूर त्र्यंबकेश्वर के पास अञ्जनेरी मन्दिर
शिवमोंगा मठ ने कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ जिले गोकर्ण नामक स्थान पर भी दावा किया है।
झारखण्ड के गुमला से बीस किलोमीटर दूर आञ्जन गाँव में स्थित पहाड़ी की चोंटी पर स्थित गुफा में भी हनुमान जन्म स्थान का दावा किया गया है।
गुजरात के डाँग जिले में अञ्जनी पर्वत की गुफा में भी हनुमान जन्म स्थान का दावा किया गया है।
और सबसे विचित्र बात यह है कि, हरियाणा के कैथल में भी हनुमान जन्म स्थान का दावा किया गया है।

महाभारत के अनुसार तिब्बत में हिमालय के कैलाश शिखर के उत्तर में स्थित कुबेर के राज्यक्षेत्र अलका पुरी में महर्षि कश्यप की तपोभूमि गन्धमादन पर्वत पर हनुमान जी का वास है, जहाँ कमल सरोवर पर हनुमान जी से भीमसेन की भेंट हुई थी।
यह स्थान भी खोज का विषय है।

गुरुवार, 18 अप्रैल 2024

भूत-प्रेत यक्ष-राक्षस-पिशाच योनि है।

ऋग्वेद में रक्षोहा सूक्त में यातुधान पिशाच और रक्षोहा से रक्षा हेतु उपाय बतलाए हैं। 
कौषितकी उपनिषद के अनुसार पतञ्जली की पत्नी को यक्ष आवेश होता था। पतञ्जली की पुत्री को गन्धर्व आवेश होता था।
इनसे लोग आत्मज्ञान विषयक प्रश्न पूछते थे।
महाभारत के अनुसार युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्नों का सही उत्तर देकर यक्ष के हाथों बेहोश किए गए अपने भाइयों को बचाया था।
लेकिन किसी को भूत-प्रेत लगा यह पढ़ने में नहीं आया।
आसुरी प्रकृति के यातुधान, ताल- बैताल, विनायक , ब्रह्म राक्षस (रक्षोहा) नामक पिशाच योनि, यक्ष योनि, गन्धर्व योनि में जन्में लोगो को कृमशः असुर पिशाच , असुर राक्षस, असुर यक्ष योनि, गन्धर्व कहलाते थे। नर पिशाच (अफगानिस्तान- पाकिस्तान सीमा पर रहते थे।)
 नर यक्ष (चीन, जापान और मङ्गोलिया में रहते थे) और  नर गन्धर्व (बलुचिस्तान/ अफगानिस्तान में रहते थे), नर असुर असीरिया इराक में रहते थे और नर राक्षस नीग्रो अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, उत्तर अमेरिका दक्षिण अमेरिका महाद्वीप में रहते थे।
ऐसे ही देव पिशाच (शिवगण- विनायक), देव गन्धर्व (तम्बुरा आदि बहुत से प्रसिद्ध हैं।), देव यक्ष (कुबेर, मणिभद्र आदि) और देव असुर वरुण आदि प्रसिद्ध हैं।
इनमें आसुरी प्रवृत्ति के गन्धर्व,यक्ष और पिशाच कमजोर लोगों को वैसे ही आवेशित करते थे जैसे हिप्नोटिस्ट सम्मोहित कर लेता है।
जैसे प्रायमरी कॉइल सेकेण्डरी कॉइल को बिना छुए आवेशित करती है। जैसे चुम्बक लोहे को बिना छुए आवेशित करता है। जैसे रक्त तप्त कोयला या लोहा निकट रखी वस्तुओं को बिना छुए गर्म कर देता है। और बर्फ गर्मी हर लेता है। वैसे ही ये योनियाँ बाहर रह कर ही व्यक्ति को आवेशित कर सकतीं हैं।
इस्लाम के आगमन के पहले न किसी को भूत-प्रेत दिखे, न लगे। अतः उतारने की विधि का आविष्कार होने का प्रश्न ही नहीं है।
लोक कथाओं के अनुसार भूत- प्रेत भोजन ग्रहण करते हैं, मदिरा पान करते हैं,  चीलम फूंकते हैं, बीड़- सिगरेट पीते हैं। अर्थात ग्रहण - उत्सर्जन करते हैं।
पुरुष भूत-प्रेत नारियों से सम्भोग या बलात्कार कर सन्तान उत्पन्न कर देते हैं। और चुड़ेल नर / पुरुषों के साथ सम्भोग करतीं हैं। और प्रजनन करती हैं।(बाईबल भी ऐसा मानती है।)
भूत-प्रेतो और चुड़ेलों में भी परस्पर रतिक्रिया होती है।
गर्भवती भूत- प्रेत के लिए मानव चिकित्सक और दाई को ले जाकर प्रसूति करवाते हैं। अर्थात प्रजनन होता है।
बिमार भूत-प्रेतो और चुड़ेलों की चिकित्सा भी मानव चिकित्सक से करवाते हैं। यहाँ तक कि, एलोपैथिक दवाइयाँ और इंजेक्शन भी लेते हैं। मतलब बिमार भी होते हैं।
प्रचलन अर्थात चलते-फिरते, नाचते-गाते भी हैं।
विवाह समारोह भी आयोजित करते हैं।
मतलब भूत-प्रेत मरे हुए व्यक्ति का देह रहित जीव आदि कुछ नहीं है; बल्कि सदेह योनि हैं।
जबकि, इब्राहीमी मजहब, यहुदी, ईसाई, इस्लाम और वहाबी के अनुसार व्यक्ति के मरते ही उसके प्राण (देही) अशरीरी भूत-प्रेत (जिन्न) बन जाता है। ड्रेकुला अपनी शव पेटी (कबर) लेकर ही घुमता रहता है। इन जिन्नों का आकार प्रकार, शक्ल- सूरत सब मृतक के देह के समान ही होती है। ये जीवित मानव के शरीर में घुस जाते हैं और उसे परेशान करते हैं। या दुसरों को भी परेशान करते हैं। फिर जिसके शरीर में घुस जाते हैं उसकी मृत्यु हो जाती है और वह भी जिन्न (भूत-प्रेत) बन जाता है। दासत्व से पीड़ित भारतीय हिन्दू भी भूत-प्रेत मानने लगे।
सनातन वैदिक धर्म के लोगों को समझना चाहिए कि, हमारे वैदिक शास्त्रों में गन्धर्व यक्ष, राक्षस और पिशाच योनि का उल्लेख है। ऐसे जिन्नों का नहीं। अर्थात वास्तव में गन्धर्व यक्ष, राक्षस और पिशाचों को हम कुसङ्गति से भ्रमित होकर अपना ज्ञान भूलकर इन्हें भूत-प्रेत मान लेते हैं।

सोमवार, 15 अप्रैल 2024

नव संवत्सर प्रारम्भ वसन्त सम्पात से ही उचित है।

प्रश्न - वर्ष का पहला दिन किसे माना जाए?
21-22 March या 13_14 April?
उत्तर -भौगोलिक संवत् अर्थात कलियुग संवत को 20/21 मार्च से प्रारम्भ मानना ही उचित है।

सूर्य की शुन्य क्रान्ति अर्थात वसन्त सम्पात अर्थात सायन मेष संक्रान्ति 20/21 मार्च से वैदिक उत्तरायण/ पौराणिक उत्तर गोल, वैदिक वसन्त ऋतु और वैदिक मधु मास का प्रारम्भ होता है।
शरद सम्पात अर्थात सायन तुला संक्रान्ति 23 सितम्बर से वैदिक दक्षिणायन/ पौराणिक दक्षिण गोल, वैदिक शरद ऋतु और वैदिक ईष मास प्रारम्भ होता है।

सूर्य की उत्तर परम क्रान्ति अर्थात सायन कर्क संक्रान्ति 22 जून से वैदिक उत्तर तोयन / पौराणिक दक्षिणायन और वैदिक शचि मास प्रारम्भ होता है।
दक्षिण परम क्रान्ति अर्थात सायन मकर संक्रान्ति 23 दिसम्बर से वैदिक दक्षिण तोयन / पौराणिक उत्तरायण और वैदिक सहस्य मास प्रारम्भ होता है। 

वैदिक उत्तरायण में वसन्त, ग्रीष्म वर्षा ऋतु होती है तथा मधु, माधव शुक्र, शचि, नभः (नभस), नभस्य मास होते हैं। वैदिक दक्षिणायन में शरद, हेमन्त और शिशिर ऋतु होती है तथा ईष, उर्ज, सहस, सहस्य, तपस और तपस्य मास होते हैं। ये सब सायन पद्यति पर आधारित हैं।
सूर्योदयास्त, दिनमान, लग्न दशम भाव (मेरिडियन कॉइल) सब सायन गणना से ही बनते हैं।अतः भौगोलिक काल गणना का आधार सायन गणना ही है।

लेकिन विषुववृत और वसन्त सम्पात आकाश में नहीं दिखते हैं। इन्हें समझने के लिए एक साधारण कृषक या पथिक ठीक पूर्व में सूर्योदय, ठीक पश्चिम में सूर्यास्त, दिन- रात बराबर होना देखकर जान सकता है कि, आज-कल में ही संवत्सर प्रारम्भ दिन होगा ।  जानकार होगा तो मध्याह्न में खजुर नारियल के पेड़ या खम्बे की छाया देखकर वसन्त सम्पात/ शरद सम्पात/ उत्तरपरम क्रान्ति/ दक्षिण परम क्रान्ति अर्थात अयन- तोयन देख सकता है। इसी क्रिया को वैध लेने वाले ज्योतिषी शंकु खड़ा कर शंंकु की छाया की लम्बाई और कोण आदि मापन कर सिद्ध करते हैं।

ध्यान रहे ऋतुएँ काल अर्थात सायन सौर मास के साथ-साथ भौगोलिक अक्षांश पर भी निर्भर है। उल्लेखनीय है कि, मौसम / ऋतुएँ प्रकृति में भी दिखती है। वसन्त में सभी पेड़ पौधों का पुष्पित होना, ग्रीष्म में गर्मी होना, वर्षा ऋतु में पर्जन्य वर्षण होना, शरद में पुनः प्रकृति पुष्पित हो जाती है। शिशिर में कड़ाके की ठण्ड पड़ती है। 
इन्हें देखकर स्थानीय व्यक्ति को अपने क्षेत्रानुसार ऋतुओं और मधु-माधवादि मास का सहज ही अनुमान हो जाता है। जैसे मध्यप्रदेश के मालवा प्रान्त में (उज्जैन के आसपास) वैदिक तपस्य और मधु मास (सायन मीन और मेष के सूर्य) में वसन्त ऋतु होती है। और ठेठ दक्षिण भारत में तो सायन कुम्भ- मीन के सूर्य (तपः - तपस्य मास में ही वसन्त ऋतु होती है।) 

इसी प्रकार वर्तमान में हम ग्रेगोरी केलेण्डर के मार्च-अप्रैल आदि माहों से ऋतुएँ देखते हैं। क्योंकि ग्रेगोरी केलेण्डर भी सायन गणनाधारित है। लेकिन वर्ष और मासों का प्रारम्भ दिनांक मनमाने करके उसका मटियामेट कर रखा है। 
राष्ट्रीय कैलेण्डर में एक- दो दिन की थोड़ी सी  त्रुटि है लेकिन ऋतु बद्ध होने से बहुत उपयोगी है कृषि/उद्योग/ व्यापार/ बजट सब इसी पर आधारित हो सकते हैं। लेकिन सरकार इसे लागू करने में प्रयत्नशील नहीं है।
कलियुग संवत और मधु- माधव मास शुद्ध सायन गणनाधारित है। नेशनल कैलेण्डर और उसके ही चैत्र - वैशाख मास भी सायन गणनाधारित है। तथा Gregory कैलेण्डर भी सायन सौर कैलेण्डर ही हैं। इसलिए इन तीनों कैलेण्डर की गणना भौगोलिक दृष्टि से सही है।
इसलिए संवत्सर 20/21 मार्च से ही मानना ही उचित है।

नक्षत्रीय परिपथ की पट्टी के आधार पर क्रान्तिवृत आकाश में स्पष्ट दिखता हैं। क्योंकि क्रान्तिवृत के लगभग नौ-नौ अंश उत्तर- दक्षिण में फैला पूरा भचक्र अर्थात नक्षत्रीय परिपथ पट्टी (फिक्स्ड झॉडिएक) में असमान अंशात्मक विस्तार अर्थात असमान भोगांश वाले सत्ताइस नक्षत्र पहचाने जा सकते हैं। आधुनिक एस्ट्रोनॉमी में अठासी नक्षत्र माने गए हैं।
चित्रा तारा स्थिर भचक्र (नक्षत्रीय परिपथ) के ठीक मध्य में 180° पर स्थित है। अतः चलते रास्ते किसान भी चित्रा तारे का सूर्यास्त के समय उदय और सूर्योदय के समय अस्त होना देखकर, और मध्यरात्रि में ठीक सिर पर होना  देखकर भी बतला सकता है कि, आज निरयन मेष संक्रान्ति (13/14 अप्रेल) है।
 
 प्रश्न - क्या निरयन मेष संक्रांति ऋतु बद्ध नहीं है?
उत्तर - हाँ! निरयन मेष संक्रांति ऋतु बद्ध नहीं है।

निरयन मेष संक्रान्ति अर्थात सूर्य चित्रा तारे से 180° पर होना। इसका सम्बन्ध उत्तर क्रान्ति या दक्षिण क्रान्ति से नही है। निरयन भोगांश के साथ आकाशीय अक्षांश अर्थात शर बतलाया जाता है ताकि, चन्द्रमा और ग्रहों या उपग्रहों, धूमकेतु आदि की आकाशीय स्थिति स्पष्ट हो सके। सूर्य का शर सदैव शुन्य ही रहता है।

स्थिर भचक्र डॉयल है और पात, मन्दोच्च , शिघ्रोच्च, ग्रहचार आदि घड़ी की सूइयाँ है।
वसन्त सम्पात 50.3' प्रति वर्ष की वामावर्त गति से स्थिर भचक्र (नक्षत्रीय परिपथ) में पश्चिम की ओर खिसकता रहता है। इस कारण लगभग 25778 वर्ष में वसन्त सम्पात पूरे भचक्र (फिक्स्ड झॉडिएक) का परिभ्रमण कर लेता है। 22 मार्च 285 ईस्वी को वसन्त सम्पात चित्रा तारे से 180° पर निरयन मेषादि बिन्दु पर था। 21 मार्च 13174 ईस्वी को वसन्त सम्पात चित्रा तारे पर रहेगा। 
नाक्षत्रिय नववर्ष या निरयन सौर नव वर्ष फिक्स्ड झॉडिएक पर आधारित है। इसलिए नाक्षत्रीय नववर्ष या निरयन नववर्ष खगोलीय नव वर्ष है। भौगोलिक नव-वर्ष नहीं है । इसलिए ऋतु आधारित नहीं है।

सुचना - आचार्य वराहमिहिर ने वृहत्संहिता में तेरह अरों का उल्लेख किया है। साथ ही वैदिक काल में प्रचलित अट्ठाइस नक्षत्रों का भी वर्णन किया है । लेकिन बाद में अभिजित नक्षत्र भचक्र अर्थात नक्षत्रीय परिपथ से बाहर (दूर) चला गया अतः वर्तमान में असमान भोगांश वाले केवल सत्ताइस नक्षत्र माने जाते हैं। जबकि आधुनिक एस्ट्रोनॉमी में तेरह राशियों (साइन) और अठासी नक्षत्र (कांस्टिलेशन) माने जाते हैं।
तीस अंश वाली बारह राशियाँ और 13°20' (तेरह अंश बीस कला) वाले राशि नक्षत्र केवल होरा शास्त्र/ जातक शास्त्र/ फलित ज्योतिष, ताजिक (वर्षफल) और वर्तमान मुहूर्त शास्त्र में ही चलते हैं।

वेदों, वैदिक ग्रन्थों, वाल्मीकि रामायण और महाभारत में उल्लेखित नक्षत्र असमान भोगांश वाले सत्ताइस या अट्ठाइस नक्षत्रों का उल्लेख ही है। उनमें कार्य के लिए उचित नक्षत्र या नक्षत्रों के आधार पर फल जगत का या स्थान विशेष का फल कथन इन्हीं असमान भोगांश वाले सत्ताइस/ अट्ठाइस नक्षत्रों के आधार पर ही कहे गए हैं। अर्थात मूलतः संहिता ज्योतिष में अर्थात मुहूर्त/ वास्तु और राष्ट्रीय भविष्य कथन में इन्ही असमान भोगांश वाले नक्षत्रों का प्रयोग होना चाहिए।
 
22 मार्च 285 में वसन्त सम्पात अर्थात सायन मेष संक्रान्ति और निरयन मेष संक्रान्ति दोनों एक साथ हुई थी।
तब से आज तक 24 दिन का अन्तर पड़ गया। यही अन्तर अयनांश कहलाता है। जबकि, वर्तमान में 13 -14 April को पड़ने वाली निरयन मेष संक्रांति विवेकानन्द जी के जन्म के समय 11/12 अप्रैल को होती थी। और निरयन मकर संक्रांति 12 जनवरी को होती थी। जो वर्तमान में 14 जनवरी को होती है।

पण्डित दीनानाथ शास्त्री चुलेट पण्डित शंकर बालकृष्ण दीक्षित और पण्डित व्यंकटेश बापूजी केतकर सभी ने वैदिक प्रमाणों के आधार पर वसन्त सम्पात से संवत्सर प्रारम्भ, उत्तरायण प्रारम्भ, वसन्त ऋतु प्रारम्भ तथा मधुमास प्रारम्भ मानते थे। क्योंकि वैदिक ऋषियों का वास स्थान उत्तरी आर्यावर्त और ब्रह्मावर्त में था अर्थात हरियाणा, पञ्जाब , कश्मीर, सिन्ध, बलुचिस्तान, उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त, ताजिकिस्तान कम्बोज, तुर्कमेनिस्तान, तिब्बत और कजाकिस्तान में था। इसलिए वेदों में अयन और ऋतुएँ तदनुसार दी है।
बाद में जब मध्यदेश अर्थात मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात बङ्गाल , उड़िसा और दक्षिण में महाराष्ट्र , कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, तेलङ्गाना, तमिलनाडु और करल तथा श्रीलंका में जनसंख्या वृद्धि हुई, विद्वान दक्षिण में भी बसे और फले-फुले तब पौराणिक काल में उज्जैन को केन्द्र मानकर वसन्त ऋतु और मधुमास सायन मीन संक्रान्ति से प्रारम्भ करने लगे। और सूर्य का उत्तरायण सूर्य की परम उत्तर क्रान्ति सायन मकर संक्रान्ति से प्रारम्भ करने लगे।
चुलेट शास्त्री जी अक्षांशों और सायन सौर मास से ऋतुओं को सम्बन्ध मानते थे। चान्द्रमास शुक्ल पक्ष से प्रारम्भ मानते थे।
चान्द्रमास ऋतु आधारित नहीं माने हैं।

लेकिन यह सबने माना है कि, स्थिर भचक्र (फिक्स्ड झॉडिएक) में जिस जिस नक्षत्र में वसन्त सम्पात होता था संवत्सर का प्रथम नक्षत्र माना जाता था। स्थिर भचक्र में अश्विनी ही प्रथम नक्षत्र मान्य था। लेकिन संवत्सर में प्रथम नक्षत्र और प्रथम निरयन सौर मास और प्रथम चान्द्रमास उसे ही माना जाता था जिसमें वसन्त सम्पात हो। किन्तु सायन सौर मधु मास प्रथम मास ही रहता था।
जब चान्द्रमास प्रचलन में आए तब पूर्णिमा को जिस नक्षत्र पर चन्द्रमा होता था उस चान्द्रमास का नाम उस पूर्णिमा के नक्षत्र के आधार पर रहता था।
अतः पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा जिस नक्षत्र के साथ रहता है, उसके आधार पर यह बतलाया जा सकता हैं कि, कौनसे मास की पूर्णिमा है।
श्री दीनानाथ शास्त्री चुलेट और श्री ग. वा. कविश्वर हो या तिलक जी हो या श्री व्यंकटेश बापूजी केतकर हो या शंकर बालकृष्ण दीक्षित हो सबने चान्द्रमास अमान्त ही माने हैं। लेकिन पौराणिक सन्दर्भ में चुलेट शास्त्री जी ने भी अपवाद स्वरूप कुछ स्थानों पर पूर्णिमान्त चान्द्र मास का उल्लेख भी माना है। स्व. श्री ग. वा. कविश्वर जी ने महाभारत में अपवाद स्वरूप कुछ स्थानों पर पूर्णिमान्त चान्द्र मास का उल्लेख भी माना है। सम्भवतः कुछ प्रयोजन विशेष में ही पूर्णिमान्त मास का उल्लेख किया जाता होगा। क्योंकि ऋग्वेद में तो चौबीस/ छब्बीस पक्षों के पवित्र आदि अलग-अलग नाम दिये हैं। मतलब तब चान्द्रमास नही चलते थे।
वैदिक काल में जिस चान्द्रमास में वसन्त सम्पात पड़ता था, उसी मास को संवत्सर का प्रथम मास माना जाता था।
इसी कारण वर्तमान में निरयन मेष मास को वैशाख कहते हैं। प्रथम मास चैत्र होने से आश्विन शुक्ल पक्ष में नवरात्र (रात्रि प्रारम्भ) होना माना जाता है। गुजरात में कार्तिकादि संवत्सर आज तक प्रचलित है। महाभारत भीष्म पर्व में भगवान श्रीकृष्ण गीता प्रवचन में वसन्त ऋतु और मार्गशीर्ष मास को अपनी विभूति बतलाते हैं। वेदाङ्ग ज्योतिष काल में माघ मास को भी प्रथम मास होने का उल्लेख मिलता है। लेकिन मधुमास में ही चैत्र मास रहेगा ऐसा कोई नियम नहीं मिलता। न ही ऐसा कोई नियम मिलता है कि, संवत्सर प्रारम्भ चैत्र मास से ही माना जाए।
यूरोपीय विज्ञान मुख्यतः युद्ध और यौद्धाओं तथा उद्योगों को ध्यान में रखते हुए विकसित किया गया। जबकि भारत में सम्पूर्ण समाज को दृष्टिगत रखते हुए विद्याओं का विकास हुआ। राज्य, कृषि, उद्योग, व्यापार ही नहीं अपितु कलाकारों तक को ध्यान में रखा जाता था।
इसलिए यूरोपीय एस्ट्रोनॉमी नाविकों को दृष्टिगत रखते हुए बनी। जबकि भारत में किसान से लेकर व्यापारियों तक, दर्शन, धर्म-कर्म और कर्मकाण्ड से लेकर सामाजिक उत्सव, व्रत, पर्व और त्योहारों तक को ध्यान में रखकर ब्रह्माण्ड विज्ञान, ग्रह गणित, संहिता ज्योतिष आदि का विकास हुआ।

अन्त में मैरा सुझाव है कि,
सायन सौर संक्रान्तियों, निरयन सौर संक्रान्तियों, पुर्णिमा, अमावस्या और अष्टमी तिथि सम्बन्धित व्रत,पर्वोत्सव मनाना।

केवल होली दिवाली जैसी इष्टियाँ, कोजागरी - शरदपुर्णिमा जैसे कुछ विशिष्ट वृतपर्वोत्सवों को छोड़ शेष सभी वृत पर्वोत्सव सायन सौर संक्रान्तियों, और उनके गतांश के अनुसार ही मनाये जावें।
 
 इष्टियों और अष्टका-एकाष्टका वेदिक पर्व है।अतः इन विशिष्ट वृतपर्वोत्सवों को पुर्णिमा, अमावस्या और अष्टमी तिथि (अर्ध चन्द्रमा) पर ही किया जाता था अतः इन्हें दर्शाया जा सकता है।
चूंकि पौराणिक कथाओं में उल्लेखित स्थान कुरुक्षेत्र, अयोध्या, प्रयोग, काशी (वाराणसी), पटना, द्वारका, प्रभास (सोमनाथ), उज्जैन, नासिक और नागपुर जैसे मध्यदेश के ही हैं अतः पौराणिक व्रत-पर्व उत्सव-त्योहार मनाने के लिए वर्तमान प्रचलित निरयन सौर मासाधारित चान्द्रमासों - चैत्र वैशाख मास को राष्ट्रीय कैलेण्डर के चैत्र वैशाख मास मान लिया जाए। अर्थात वैदिक मधु मास के प्रारम्भ दिन वसन्त सम्पात, सायन मेष संक्रान्ति को चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि प्रारम्भ समय मानकर व्रत-पर्व उत्सव-त्योहार के दिनांक निर्धारित कर लिया जाए।
कृष्णपक्ष की तिथियों को 16, 17, 18 से 30 तक गिनती मानकर जो व्रत पर्वोत्स्व जिस तिथि को मनाया जाता है उसी वर्तमानांश या गतांश या दिनांक पर मनाया जाये। नागपञ्चमी, वटसावित्री जैसे कुछ व्रत पर्वोत्सवों में राजस्थान -उत्तर प्रदेश आदि गोड़ मतावलम्बियों और पश्चिम मध्यप्रदेश में मालवा- निमाड़, और महाराष्ट्र आदि हेमाद्रि, काल माधव, निर्णय सिन्धु- धर्म सिन्धु के मत में एक चान्द्र पक्ष अर्थात लगभग 15 दिन का अन्तर पड़ता है उनका निबटारा भी कर लिया जाए।


शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024

युधिष्ठिर संवत्सर 5163 विक्रम संवत 2081 का प्रारम्भ

 
निरयन मेष संक्रान्ति आज दिनांक 13 अप्रैल 2024 शनिवार को 21:03 बजे (रात्रि 09:03 बजे) होगी। 
पुण्यकाल अपराह्न 05:51 बजे ( 17:51 बजे) से 06:46 बजे (18:46बजे) तक (इन्दौर में सूर्यास्त समय तक) की अवधि में पवित्र नदियों/ कुण्ड में स्नान और दान करने का पुण्य काल रहेगा।  
वैशाखी पर्व पर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ।

नाक्षत्रीय नव वर्ष युधिष्ठिर संवत 5163 निरयन मेष संक्रान्ति पश्चात सूर्योदय से अर्थात 14 अप्रेल 2024 रविवार को सूर्योदय से प्रारम्भ होगा।

 *पञ्जाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड* में जिन दो सूर्योदय के बीच निरयन मेष संक्रान्ति लगती है, उसी दिन (वार) वैशाखी/ वैसाखी नाम से नव वर्ष विक्रम संवत 2081 का प्रारम्भ भी होता है। इसलिए विक्रम संवत का प्रारम्भ होने का *वैशाखी पर्व आज ही मनेगा* ।

 *उड़िसा में* मी सूर्योदय नियमानुसार आज ही *पणा संक्रान्ति नाम से नववर्ष मनाएंगे।* 

इसी नाक्षत्रीय नव वर्ष को 
 *बङ्गाल में* निरयन मेष संक्रान्ति यदि मध्य रात्रि के पूर्व लगे तो उसी दिन नबा वर्षा या पोहेला बोईशाख के नाम से नव वर्ष मनाते हैं। इसलिए *बङ्गाल में भी आज ही नववर्ष पर्व मनेगा।* 

(निरयन मेष संक्रान्ति यदि मध्यरात्रि के बाद लगने पर बङ्गाल में नबा वर्षा दुसरे दिन मनाते हैं।)
 
 *असम में बिहु नाम से नव वर्ष मनाएँगे।* 

तमिलनाडु में यदि सूर्यास्त के पहले निरयन मेष संक्रान्ति लगे तो उसी दिन पथण्डु नाम से निरयन मेष संक्रान्ति से नव वर्ष मनाते हैं।अन्यथा सूर्यास्त के बाद निरयन मेष संक्रान्ति लगनें पर दुसरे दिन नव वर्ष पथण्डु मनाते हैं।अतः *तमिलनाडु में कल दिनांक 14 अप्रैल 2024 रविवार को नववर्ष पथण्डु मनाया जाएगा।* 
ऐसे ही 
केरल में अठारह घटिका नियम चवता है। अर्थात दिनमान के प्रथम 3/5 वें भाग (सूर्योदय से लगभग 7 घण्टे 12 मिनट में) निरयन मेष संक्रान्ति लगे तो उसी दिन अन्यथा दुसरे दिन नव वर्ष विषुकाणि नाम से मनाया जाता है। अतः *केरल में भी कल दिनांक 14 अप्रैल 2024 रविवार को नववर्ष विषुकाणि मनाया जाएगा।* 
 *इस दिन भूमि चित्रा तारे के सम्मुख रहने से सूर्य चित्रा तारे से 180° पर रहता है। इस कारण एक दिन पहले और इसी दिन भी चित्रा तारा सूर्यास्त के साथ उदय होगा और सूर्योदय के साथ अस्त होगा। पूरी रात चित्रा तारा आकाश में दिखता रहेगा।*
लेकिन नाक्षत्रीय नववर्ष पर्व वैदिक नव संवत्सर पर्व के समान ऋतु बद्ध नहीं है। 25778 वर्ष के चक्र में यह नव वर्ष पर्व प्रत्येक ऋतु में आयेगा।23 सितम्बर 13174 ईस्वी में को युधिष्ठिर संवत का प्रारम्भ शरद सम्पात से प्रारम्भ होगा।

अर्थात *तुर्क, अफगान, ईरान और कजाकिस्तान के आक्रमण झेलने वाले मध्य क्षेत्र को छोड़कर शेष भारत में चारों ओर आज या कल निरयन मेष संक्रान्ति से नव संवत्सर प्रारम्भ माना जाता है।* 
 *लम्बी अवधि की दासता ने मध्य क्षेत्र में सनातनी संस्कृति के साथ सनातनी नव संवत्सर भी लुप्त हो गया और तुर्क/ कुषाणों द्वारा चलाया निरयन सौर चान्द्र वर्ष शकाब्द प्रचलित हो गया।* 

वैदिक और पूर्णतः वैज्ञानिक युगाब्द कलियुग संवत 5125 का प्रारम्भ वसन्त से सम्पात 21 मार्च 2024 गुरुवार के सूर्योदय के साथ हो चुका है। इसी दिन वैदिक मधुमास, ब्रह्मावर्त में वैदिक वसन्त ऋतु और उत्तरायण प्रारम्भ हुआ।
इस दिन दिन रात बराबर रहते हैं। देवताओं का सूर्योदय होता है। उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय होता है। वैदिक उत्तरायण प्रारम्भ, वैदिक वसन्त ऋतु प्रारम्भ और वैदिक मधुमास का प्रारम्भ होता है।
यह नव वर्ष महाभारत युद्ध के बाद प्रायः अप्रचलित हो गया। क्योंकि, महाभारत युद्ध में सभी विद्वान, ज्ञाता, वीर योद्धा समाप्त हो गये थे। 


*अवैदिक और पूर्णतः अवैज्ञानिक पौराणिक शकाब्द 1946 का प्रारम्भ दिनांक ०९ अप्रेल २०२४ मङ्गलवार को चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को सूर्योदय से हो चुका है।*
*इस दिन वैदिक कलियुग संवत जैसी कोई विशेषता नहीं होती और नाक्षत्रीय सौर संवत प्रारम्भ दिन जैसी कोई विशेषता भी नहीं होती।*
इसकी एकमात्र विशेषता है - अपने शक राजा को खुश करने के लिए पौराणिकों ने इसे भरपूर समर्थन देकर प्रचार किया।

बल्कि इस पौराणिक नववर्ष का वास्तविक इतिहास यह है कि,⤵️
 *वर्तमान चीन के प्रान्त पूर्वी तुर्की के शिंजियांग उइगु़र प्रान्त के निवासी उइगुर मुस्लिमों के पूर्वज शक-कुषाणों द्वारा प्रवर्तित और प्रचलित १९ वर्षीय, १२२ वर्षीय और १४१ वर्षीय चक्र वाले निरयन सौर चान्द्र वर्ष को अपनाया और पेशावर (पाकिस्तान) के क्षत्रप कुषाण वंशीय कनिष्क द्वारा मथुरा विजय के उपलक्ष्य में उत्तर भारत में प्रचलित निरयन सौर चान्द्र वर्ष शकाब्द प्रचलित किया और आन्ध्र प्रदेश के सातवाहन वंशीय गोतमीपुत्र सातकर्णी द्वारा नासिक के पास पैठण (महाराष्ट्र) पर विजयोपलक्ष्य मे दक्षिण भारत में निरयन सौर चान्द्र वर्ष शकाब्द के नाम से प्रचलित किया।*
*इस कारण उत्तर भारत में कुषाण वंश शासित क्षेत्र एवम् दक्षिण भारत में सातवाहन वंशीय शासित क्षेत्र में एवम् मराठा शासित भारतीय क्षेत्र उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश और तेलङ्गाना में नव चान्द्र वर्ष शकाब्द के नाम से प्रसिद्ध है। आन्ध्र प्रदेश में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा युगादि या उगादि कहते हैं ।जबकि महाराष्ट्र में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा कहते हैं।*  

*निरयन सौर वर्ष आधारित होने के कारण पौराणिक चान्द्र-सौर शकाब्द नववर्ष पर्व (वैदिक नव संवत्सर पर्व के समान) ऋतु बद्ध नहीं है। 25778 वर्ष के चक्र में यह नव वर्ष पर्व प्रत्येक ऋतु में आयेगा। सितम्बर 13174 ईस्वी में को युधिष्ठिर संवत का प्रारम्भ शरद सम्पात से प्रारम्भ होगा। अर्थात शरद ऋतु में प्रारम्भ होगा।*
*इसलिए निरयन सौर चान्द्र वर्ष पूर्णतः अवैज्ञानिक है। वेदों में इसका उल्लेख होने तो सम्भव ही नहीं है अतः अवैदिक है।*
इसलिए मैरी श्रद्धा नहीं है।

गुरुवार, 11 अप्रैल 2024

बाइबल

"यहुदियों और ईसाइयों का ईश्वर-याहवेह (यहोवा), यहुदियों के ऋषि - इब्राहिम, सुलेमान राजा, दाउद, और मूसा । यहुदियों के ग्रन्थ --- तनख दाऊद की किताब जुबेर, मूसा की किताब तोराह (बायबल ओल्ड टेस्टामेंट)। 
ये पुस्तकें सीरिया खाल्डिया और बेबीलोनिया (इराक) की पुरानी अरामी भाषा ( पश्चिमी आरमाईक) भाषा में लिखित है। हिब्रू भाषा भी अरामी भाषा का रूप ही है।
"हिब्रू बाइबल या तनख़ यहूदियों का मुख्य धार्मिक ग्रन्थ है। इसकी रचना 600 से 100 ईसा पूर्व के समय में विभिन्न लेखकों द्वारा विभिन्न देशों में की गई है। हिब्रू बाइबल तीन अलग अलग शास्त्रों का संकलन है। जो कि प्राचीन यहूदी परम्परा का आधार हैं। अतः तनख़ के तीन भाग हैं-"

"निम्नांकित 39 किताबे प्रोटेस्टेंट बाइबिल के पूर्वार्ध (पुराना नियम/ ओल्ड टेस्टामेंट) में हैं, 
"विधान -- १ उत्पत्ति, २ निर्गमन, ३ लैव्य व्यवस्था, ४ गिनती और ५ व्यवस्था विवरण"
"इतिहास --- १ यहोशु २ न्यायियों ३ रूत ४ प्रथम शमुऐल ५ द्वितीय शमुऐल ६ प्रथम राजाओं का व्रतांत ७ द्वितीय राजाओं का व्रतांत ८ इतिहास (प्रथम) ९ इतिहास (द्वितीय)"।
"भजन --- १ एज्रा २ नहेम्याह ३ ऐस्तर ४ अय्यूब ५ भजन संहिता ६ नीति वचन ७ सभोपदेशक ८ श्रेष्ठगीत"।
"नबी --- १ यशायाह २ यिर्मयाह ३ विलापगीत ४ यहेजकेल ५ दानिय्येल ६ होशे ७ योएल ८ आमोस ९ ओबध्याह १० योना ११ मीका १२ नहूम १३ हबक्कूक १४ सपन्याह १५ हाग्गै १६ जकर्याह १७ मलाकी।"
५+९+८+१७ =३९ पुस्तकें।
"यह 39 किताबे प्रोटेस्टेंट बाइबिल के पूर्वार्ध में हैं, तथा कैथोलिक बाइबिल के पूर्वार्ध में 46, जबकि ऑर्थोडॉक्स बाइबिल के पूर्वार्ध में 49 किताबें शामिल हैं। ये चार भागों में विभाजित हैं
ईसाइयों के ऋषि उपर्युक्त के अलावा यीशु। और ईसाइयों के ग्रन्थ उपर्युक्त के अलावा एन्जिल (बायबल नया नियम) यह ग्रीक (युनानी) भाषा में लिखित है।"

बुधवार, 10 अप्रैल 2024

जातियाँ

आर्य जाति/ प्रजाति नही होती। वेदों में आर्य श्रेष्ठ, सदाचारी व्यक्ति को कहते हैं। किसी जाति विशेष को नहीं।
वास्तविक जातियाँ 

देव ---केस्पियन सागर क्षेत्र ताजिकिस्तान और चीन के शिंजियांग स्वायत्तशासी क्षेत्र उइग़ुर ख़ाङ्नत आदि के सीमांत प्रदेश, ,ईरानी बलोचिस्तान के कजान ख़ानत या ख़ाङ्नत, और खैबर पख्तूनख्वा क्षेत्रों,अफगानिस्तान का पाकिस्तान से लगा भाग नूरीस्तान ,पाकिस्तानी बलूचिस्तान, खैबर पख्तूनख्वा,और भारत के पश्चिमोत्तर अर्थात आधूनिक नूरीस्तान के निवासी थे। 
संक्षेप में ताजिकिस्तान (कम्बोज), किर्गिज़स्तान, कजाकिस्तान, उज़्बेकिस्तान, कश्मीर, लद्दाख और तिब्बत के तरीम बेसिन और टकला मकान क्षेत्र में शिंजियांग उइगुर प्रान्त के निवासी थे 
मानव --- (स्वायम्भूव मनु- शतरुपा की सन्तान  मनुर्भरत), दृविड़ / दृविण (धर्म वसु की पत्नी दृविण की सन्तान), गन्धर्व (बलूच, अफगान), किन्नर (हिमाचल, उत्तराखण्ड के किन्नौर वासी), यक्ष (तिब्बत और पश्चिम चीन वासी), प्रमथ-मङ्गोल,  सूर (सीरिया वासी) असुर (इराक केअसीरिया) वासी, देत्य अरब प्रायद्वीप के निवासी, दानव (डेन्युब नदी तट वासी युरोपीय) और राक्षस (अफ्रीकी) जातियाँ थी।

ब्राह्मण -- प्रजापति ब्रह्मा-सरस्वती की मानस सन्तान (1) दक्ष (प्रथम)- प्रसुति, (2) मरीची-सम्भूति, (3) भृगु-ख्याति, (4) अङ्गिरा-स्मृति, (5) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (6) अत्रि-अनसुया, (7) पुलह-क्षमा, (8) पुलस्य-प्रीति, (9) कृतु-सन्तति नौ ब्रह्मा कहलाते हैं। 
प्रजोत्पत्ति करने के कारण ये सभी प्रजापति के तुल्य माने जाते हैं। सबसे प्राचीन ऋषि होने से इन्हें अगले मन्वन्तर में वैदिक ज्ञान अन्तरित करने का कार्यभार सोपा जाता है। इसलिए अलग-अलग मन्वन्तर में इनमें से कुछ ऋषि सप्तर्षि कहलाते हैं।
ये कुरुक्षेत्र (हरियाणा) के आसपास के ऋषिदेश (मालवा प्रांत, गोड़ देश) के निवासी थे।

मानव क्षत्रिय --  गेहूँए रङ्ग वाले स्वायम्भूव मनु की सन्तान - स्वायम्भूव मनु - प्रियव्रत - आग्नीध्र - नाभि/ अजनाभ - ऋषभदेव - भरत चक्रवर्ती की सन्तान मनुर्भरत को हम आर्य समझते हैं ।

चान्द्र --  जबकि ब्रहस्पति की पत्नी तारा और चन्द्रमा के पुत्र बुध, वैवस्वत मनु की पुत्री इला और बुध के पुत्र एल पुरुरवा (एल, ईलाही/ अल्लाह), उर (इराक) की निवासी, तिब्बत-कश्मीर- लद्दाख, पूर्वी तुर्किस्तान (उइगुर) प्रान्त स्थित स्वर्ग के राजा इन्द्र की नर्तकी उर्वशी और एल पुरुरवा का पुत्र दक्षिण-पूर्वी टर्की (तुर्किये) के युफ्रेटिस घाँटि में ईलाझी शहर में जन्मे आयु (आदम) के वंशज औराजा खत्तुनस की प्रजा खत्ती (हित्ती) / खाती/ खत्री अर्थात चन्द्रवंशियों को मेक्समूलर ने आर्य माना।
पुरानी/ पश्चिमी आरामी भाषा में रचित तनख (बायबल ओल्ड टेस्टामेंट की पहली पुस्तक उत्पत्ति) के अनुसार यहोवा (एल पुरुरवा) ने आदम (आयु) को दक्षिण पूर्व टर्की के युफ्रेटिस घाँटि में ईलाझी शहर में अदन वाटिका में अकेले ही पाला था।
ये चन्द्रवंशी हैं, अनु, दुह, *यदु* , *पुरू* और तुर्वसु जिनने तृत्सु वंशीय मनुर्भरत - दिवोदास और उनके पुत्र सुदास पर आक्रमण किया था जिसे ऋग्वेद में दशराज युद्ध कहा गया है।
परिणाम स्वरूप पुरू वंशीय प्रयागराज में बसाये गए। तुर्वसु के वंशजों को आदित्यों के क्षेत्र तुर्किस्तान में बसाया, यदु वंशीय पूर्वी भारत में अङ्ग देश में बसे। ये चन्द्रवंशी गोरे और डेन्युब नदी किनारे बसे दानव (युरोपीयन) से मिलते-जुलते थे, इसलिए इन्हें आर्य कहा।

 असुर -- इराक के असीरिया प्रान्त के प्राणवान, बलिष्ट असुर  असीरिया (इराक), मेसापोटामिया, बेबीलोन, सऊदी अरब  में बसे। ये रुद्र भक्त शिवाई  (साबई), बालदेव (नन्दी) उपासक असुर हुए। इनने शुक्राचार्य को अपना गुरु माना। शुक्राचार्य के पुत्र त्वष्टा ने युनान के पास  क्रीट में शाक्तपन्थ की स्थापना की।
परशु--  असुरों के आचार्य जरथ्रुस्त्र ने ईरान के मीड और मगों को आसुरी मत में बदला। ये अग्नि को प्रतिक मानकर असुरमहत् (अहुरमज्द) के उपासक हो गये।

दैत्य -- महर्षि कश्यप और दिति के पुत्र दैत्यगण मिश्र और  अम्मानके पास जोर्डन की जेरिको सभ्यता, इज्राइल, स्वेज और लेबनान (फोनिशिया सभ्यता) में बसे। पश्चिम एशिया दैत्यों का क्षेत्र था ।
दक्षिण भारत पर कब्जा जमाये राजा बलि को वामन / विष्णु द्वारा केरल (भारत)  से निकालने पर  राजा बलि भी भारत के दास, दस्यु ,चोल, चालुक्यों को लेकर पहले लेबनान (फोनिशिया) ही गया था। फिर लेबनान से निकलकर  दक्षिण अमेरिका महाद्वीप के बोलिविया बसा। 

दानव ---महर्षि कश्यप और दनु के पुत्र यानि  दनु (डेन्यूब नदी) के वंशज दानव  युगोस्लाविया  की लेपेन्स्की वीर सभ्यता (Lepennki Vir )  और प्राग(चेकोस्लोवाकिया) से जर्मनी  तक और युनान रोम की युरोपीय सभ्यता दानवों की है। सेल्ट या केल्ट लोग दानव थे ये इंग्लेण्ड में तप करते थे।
राक्षस -- राक्षस अफ्रीका, आस्ट्रेलिया और अमेरिका महाद्वीप के निवासी थे जिन्हें वर्तमान में निग्रो कहते हैं। क्योंकि ये रक्षा का कार्य करते थे। विशेष कर अरब और युरोप में लोग इन्हें अङ्गरक्षक नियुक्त करते थे। रावण के नाना और उनके भाई मालि - सुमाली अफ्रीकी निग्रो थे। जबकि श्वसुर मयासुर मय संस्कृति का रेड इण्डियन था।
इसमें मानवों को छोड़कर अधिकांश विदेशी जातियाँ शिव परिवार की मूर्तियों को पूजने वाले थे।
रावण ने भी लक्षद्वीप स्थित रावण की लङ्का में उसकी कुलदेवी निकम्भला के बहुत से मन्दिर बनवा कर निकुम्भला की मूर्तियाँ स्थापित कर पूजा करता था और तान्त्रिक हवन करता था।
वाल्मीकी रामायण युद्ध काण्ड के अनुसार हनुमान जी ने निकुम्भला के कई मन्दिर और मुर्तियाँ तोड़ी।
लक्ष्मण जी ने मेघनाद का तान्त्रिक हवन ध्वन्स कर रोक दिया।
तो क्या रावण और मेघनाद सदाचारी वैदिक (धार्मिक) हो गये तथा हनुमान जी और लक्ष्मण नास्तिक, अनीश्वरवादी और दुराचारी अधर्मी हो गये?
पौराणिकों नें इसी भ्रम को फैला कर रावण और बली की प्रशंसा में भरपूर गीत गाए हैं। लेकिन वैदिक लोगों को सत्य समझता है। इसलिए वे इन दैत्य - राक्षसों को अधर्मी ही मानते हैं।

हमने ब्राह्म धर्म -> ब्राह्मण धर्म -> प्राजापत्य धर्म -> आर्ष धर्म -> मानव धर्म छोड़ कर हमारे धर्म का नाम सनातन धर्म रखा। तुर्क, अफगान, ईरान, इराक और कजाक मुस्लिम और युरोपीय ईसाइयों के चक्कर में हम हिन्दू और इण्डियन बन बैठे। और दासत्व की इस उपाधि पर गर्व करने लगे।

मंगलवार, 9 अप्रैल 2024

दासता से बन्धा हिन्दू

वैसे तो भारत भूमि पर असुरों, दैत्यों, दानवों, राक्षसों तक के आक्रमण हुए लेकिन उनका स्थाई प्रभाव कम ही रहा।
लेकिन उससे सीमाएँ कमजोर होती रही और एक समय स्थाई प्रभावकारी दशराज युद्ध का सामना मनुर्भरतों के तृत्सु वंश के राजा दिवोदास और उनके पुत्र सुदास को करना पड़ा। जिसमें समझोते में अनु, दृह्यु, यदु, पुरु, तुर्वसु वंशियों को भारतभूमि में प्रवेश और निवास तथा अपने शासन स्थापित करने की अनुमति देना पड़ी। परिणाम स्वरूप बाद में नाग और आग्नेय भी आ गये और उनने भी भारत भूमि पर कब्जा करना शुरू कर दिया।
ऋषियों की सन्तान ब्राह्मण, स्वायम्भूव मनु की सन्तान मनुर्भरत क्षत्रिय और उनके निकट सम्बन्धी सूर्यवंशी दबते गये और ये आक्रान्ता पुरु और यदु वंशीय और नाग वंशीय विकास करते गये। महाभारत युद्ध ने तो सबकुछ बदल दिया। वैदिक ब्राह्मण धर्म सनातन धर्म हो गया। जैन और बौद्ध पन्थ जन्मे, और भारत में सनातन वैदिक धर्म संस्कृति समाप्त प्राय होकर नवीन स्मार्त और पौराणिक संस्कृति जन्मी।
शक हूण आदि तुर्क, अफगान, ईरानी, कजाक आक्रमणकारियों नें धार्मिक और सांस्कृतिक हमला भी बोला। 
सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन ज्योतिष और कालगणना में आया। वसन्त सम्पात से प्रारम्भ होने वाला नव युगाब्द संवत्सर, उत्तरायण, वसन्त ऋतु और मधु मास के स्थान पर पहले निरयन मेष संक्रान्ति से प्रारम्भ होने वाले निरयन सौर युधिष्ठिर संवत और विक्रम संवत चले। उत्तरायण वसन्त सम्पात/ सायन मेष संक्रान्ति के स्थान पर सायन मकर संक्रान्ति से प्रारम्भ होने लगा। वसन्त ऋतु वसन्त सम्पात/सायन मेष संक्रान्ति के स्थान पर सायन मीन संक्रान्ति से प्रारम्भ होने लगी। मधु मास भी वसन्त सम्पात/सायन मेष संक्रान्ति के स्थान पर सायन मीन संक्रान्ति से प्रारम्भ होने लगा। और उसके स्थान पर मेष, वृषभादि निरयन मास प्रचलित होगये। आज भी दक्षिण भारत में चलते हैं।
कुषाण आक्रमण ने तो तुर्किस्तान में प्रचलित सायन सौर 
संक्रान्ति आधारित चान्द्र वर्ष के भारतीय संस्करण निरयन सौर संक्रान्ति आधारित चान्द्र वर्ष शकाब्द प्रचलित कर दिया। अब वैदिक सायन सौर मधु- माधव मास और गतांश के स्थान पर चैत्र - वैशाख आदि चान्द्र-सौर मास और तिथियों का महत्व हो गया। सौर मास और गतांश विस्मृत हो गये।
केवल ग्रहों के उच्चांश और पञ्च बाण में ही सिमट गये।
दशाह के स्थान पर सप्ताह चल गया।

लेकिन तुर्क, अफगान, ईरानी, कजाक और ईराकी मुस्लिम आक्रमणों ने भारत पर प्रथम बार एकदम विपरीत मानसिकता, पूर्णतः विपरीत विचारों वाले धार्मिक- सांस्कृतिक हमले हुए। जिसने यहाँ का आत्मविश्वास डिगा दिया। स्वाभिमान नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। हम मानसिक दास होगये। हमने स्वयम् को हिन्दू अर्थात दास मान लिया। फारसी भाषा प्रधान हो गई। संस्कृत केवल शास्त्रियों तक सीमित हो गई। सलवार कुर्ता प्रचलित हो गये। विवाह में श्वेत और पीत (पीले) वस्त्रों के स्थान पर निषिद्ध अशुभ माने लाल कपड़े पहने जाने लगे। भूत-प्रेत की नवीन अवधारणा आ गई । भूत-प्रेत लगने और तन्त्र - मन्त्र से उतारने वाले जादूगर जासूस पीरों फकीरों का धन्धा चल निकला।
रही बची-खुची कसर युरोपीय आक्रमणकारियों ने पूर्ण करदी।
अब भारत में भारतीयता ही नहीं बची। हम थोड़े- थोड़े अरबी और काले अंग्रेज हो गये। हमारा अपना कुछ नहीं बचा । सनातन वैदिक धर्म की जगह हिन्दू धर्म बन गया। न त्रिकाल संध्या, न पञ्चमहायज्ञ, न गौ सेवा बस सुबह शाम प्रार्थना करलो कर्तव्य पूर्ण।न संस्कार बचे न संस्कृति बची।
 गुरुकुल स्कूल-कॉलेज में बदल गये। संस्कृत की जगह हिन्दी भाषा आ गई। वैदिक काल गणना , संवत्सर की जगह ग्रेगोरी केलेण्डर और रात बारह बजे बदलने वाले डेट एण्ड डे आगये।, न भाव, न श्रद्धा, न वेशभूषा न रहन सहन, न संयुक्त परिवार न भोजन, न चिकित्सा,
प्राकृतिक चिकित्सा की जगह फिजियोथेरेपी, आयुर्वेद की जगह एलोपैथी, चिकित्सालय की जगह हॉस्पिटल हो गये।न उद्योग-धन्धे, न कारोबार- व्यापार- व्यवसाय- वाणिज्य, न इतिहास कुछ भी तो अपना नहीं बचा।

रविवार, 7 अप्रैल 2024

देवी उपासना के विशेष योग।

*देव्यथर्वशीर्षम् महात्म्य कथित भोमाश्विनी योग (मङ्गलवार और अश्विनी नक्षत्र, महामृत्युतारक अमृत सिद्धि योग) में ऋग्वेदोक्त देवी सूक्तम पाठ कर देव्यथर्वशीर्ष का पाठ करना महामृत्युतारक है।
देखें देव्यथर्वशीर्ष महात्म्य का अन्तिम भाग। गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित दूर्गा सप्तशती पृष्ठ १८६ से १८८ तकपर देवी सूक्तम तथा पृष्ठ ४४ से ५२ तक देव्यथर्वशीर्षम्
तथा
दुर्गा अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र के महात्म्य के अनुसारअमावस्या को शतभिषा नक्षत्र पर चन्द्रमा हो उस दिन मङ्गलवार हो तब दूर्गा अष्टोत्तर शतनाम लिखकर पाठ करें तो सम्पत्तिशाली होता है।
अमावस्या को चन्द्रमा शतभिषा नक्षत्र पर  होगा तो सूर्य भी शतभिषा नक्षत्र पर ही रहेगा।
शतभिषा नक्षत्र के तारे का निरयन भोग कुम्भ 17°43'09" है। और वर्तमान नक्षत्र प्रणाली में शतभिषा नक्षत्र का निरयन भोग कुम्भ 10°06'40" से कुम्भ 20°00'00" तक है। 
तदनुसार 
जब शतभिषा नक्षत्र के तारे पर अमावस्या को चन्द्रमा होगा, तो सूर्य भी शतभिषा नक्षत्र पर कुम्भ 17°43'09" पर होगा। अर्थात वर्तमान में 01 - 02 मार्च के दिन अमावस्या हो। या
वर्तमान में दिनांक 19 फरवरी से 04 मार्च के बीच होने वाली अमावस्या को जब सूर्य और चन्द्रमा शतभिषा नक्षत्र में होगा उस समय होने वाली अमावस्या अर्थात अमान्त माघ पूर्णिमान्त फाल्गुन कृष्ण अमावस्या को जब चन्द्रमा शतभिषा नक्षत्र पर हो, और उस दिन मंगलवार हो तो दुर्गा अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र के महात्म्य के अनुसार (अमान्त माघ पूर्णिमान्त फाल्गुन कृष्ण अमावस्या को जब चन्द्रमा शतभिषा नक्षत्र पर हो, और  मंगलवार हो तो उस दिन)  अष्टोत्तर शतनाम लिखकर पाठ करने से सम्पत्तिशाली होता है। कृपया देखें - गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्री दुर्गा सप्तशती पृष्ठ 09 से 12 तक।

वट-पीपल आदि की पूजा का तात्पर्य।

पूजा मतलब सेवा, सफाई करना, बान्दे हटाना, स्वच्छता रखना, जल सिञ्चन, खाद देना, आसपास की मिट्टी खोदना (गुड़ाई करना) (हलना- बखरना जैसा काम है), आश्रित पक्षियों के लिए दाना-पानी रखना, सूर्योदय पूर्व अन्धेरे में और सूर्यास्त पश्चात सायंकाल में अन्धकार छाने पर (प्रदोषकाल में) पथिकों के लिए दीपक लगाना ये सब पीपल आदि वृक्षों के माध्यम से भूत यज्ञ का भाग है।
जो जनेऊ- और नाड़ा (लच्छा), वस्त्र आदि चढ़ाया जाता है उसका आषय यह है कि, इमरजेंसी में जरुरत मन्द वहाँ से प्राप्त कर सकता है और उसे किसी के सामने बोलना भी नहीं पड़ेगा।
जैसे किसी कारण पथिक की जनेऊ टूट गई, अब बोलकर मांगे बिना तो कोई अपरिचित से जनेऊ ले नहीं सकता, और जनेऊ टूटने पर नवीन जनेऊ धारण करने तक मौन रहना आवश्यक है। ऐसे में वह ऐसे स्थानों से प्राप्त कर लेता था।

इतना सेवा भावी धर्म है हमारा, जिसके मर्म को कोई नहीं समझकर कोरे कर्मकाण्ड करते हैं।

पुराणोक्त नौ ब्रह्मा

प्रजापति ब्रह्मा-सरस्वती की मानस सन्तान (1) दक्ष (प्रथम)- प्रसुति, (2) मरीची-सम्भूति, (3) भृगु-ख्याति, (4) अङ्गिरा-स्मृति, (5) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (6) अत्रि-अनसुया, (7) पुलह-क्षमा, (8) पुलस्य-प्रीति, (9) कृतु-सन्तति नौ ब्रह्मा कहलाते हैं। प्रजोत्पत्ति करने के कारण ये सभी प्रजापति के तुल्य माने जाते हैं। सबसे प्राचीन ऋषि होने से इन्हें अगले मन्वन्तर में वैदिक ज्ञान अन्तरित करने का कार्यभार सोपा जाता है। इसलिए अलग-अलग मन्वन्तर में इनमें से कुछ ऋषि सप्तर्षि कहलाते हैं।
ये कुरुक्षेत्र (हरियाणा) के आसपास के ऋषिदेश (मालवा प्रांत, गोड़ देश) के निवासी थे।

शनिवार, 6 अप्रैल 2024

कलियुग संवत 5125 का वर्षेश बृहस्पति और युधिष्ठिर संवत 5162 का मन्त्री रवि (सूर्य) रहेगा।

इस वर्ष वसन्त सम्पात सायन मेष संक्रान्ति २० मार्च २०२४ को दशाह का बृहस्पतिवार था। तथा निरयन मेष संक्रान्ति १३ अप्रेल २०२४ को दशाह का रविवार था।
अतः वर्षेश बृहस्पति और मन्त्री रवि (सूर्य) है।

भारत की विभिन्न संस्कृतियों का उद्गम बाहर से आये लोग हैं।

पुराणों के अनुसार भारत में सर्वप्रथम हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिसे ऋषिदेश कहते थे में प्रजापति ब्रह्मा के वेदज्ञ (ब्रह्मज्ञानी) पुत्रों का निवास था। पञ्जाब सिन्ध, अफगानिस्तान, राजस्थान और गुजरात में प्रजापति ब्रह्मा के क्षत्रिय पुत्र स्वायम्भूव मनु की सन्तान जिसे ऋग्वेद में मनुर्भरत कहा है शासन करते थे।
कश्मीर से कैस्पियन सागर तट के बीच तप करने वाले कश्यप ऋषि की सन्तान आदित्य तिब्बत, तुर्किस्तान और कश्मीर क्षेत्र में शासन करते थे। जिसे वे सुवर्ग (स्वर्ग) कहते थे। यह ब्रह्मावर्त क्षेत्र में आता था।
विवस्वान आदित्य की सन्तान श्राद्धदेव (वैवस्वत मनु) जल प्रलय के उपरान्त अयोध्या में बस गये।
टर्की के हित्ति साम्राज्य से आये चान्द्र चन्द्रवंशी (खत्ती / खत्री / खाती) जब भारत में प्रवेश करने लगे तब उनमें और भारतवंशी मनुर्भरतों में शतवर्षीय दशराज युद्ध हुआ। अन्त में मनुर्भरत राजा दिवोदास को समझोता कर चान्द्रों को प्रयाग और कश्मीर में स्थान देना पड़ा। इसे शेक्सपियर ने आर्यों का भारत आगमन कहा है क्योंकि चन्द्रवंशी गौरे थे और मनुर्भरत गेहूएँ रंग के तथा सूर्यवंशी हल्के काले (सांवले)थे।
 सूर्य वंश के मनु की पुत्री इला की सन्तान होने से चन्द्रवंशियों के प्रति सूर्यवंशियों में सॉफ्ट कार्नर था। ऐसे ही चन्द्रवंशियों के मन में अपने पड़ोसी सीरिया के सूर, असीरिया के असूरों के प्रति प्रतिस्पर्धा पूर्ण लगाव था।
बाद में सीरिया के सूर ने भारत में कश्मीर में नाग वंश स्थापित किया। और समय समय पर असीरिया (इराक) के असुर भी आते रहे और नागों और चन्द्रवंशियों के सहयोग से असुर असम तरफ सेटल हो गये।

महाभारत में पूरा वर्णन चन्द्रवंशियों का ही है।
 टर्की के सम्राट एल पुरुरवा नें स्वर्ग की इन्द्र सभा की नर्तकी उर (इराक) निवासी उर्वशी से सशर्त अस्थाई विवाह (मुता निकाह) किया था। जिसने आयु को जन्म देकर उस शिशु को पालनार्थ एल पुरुरवा को सोपा और पुनः इन्द्र सभा में अपना कार्यग्रहण कर लिया।

मंगलवार, 2 अप्रैल 2024

वैदिक संवत्सर, नाक्षत्रीय वर्ष और निरयन सौर चान्द्र वर्ष।

वसन्त से सम्पात 20/21 मार्च 2024 से प्रारम्भ होने वाला वैदिक संवत्सर और
*कलियुग संवत 5125 का प्रारम्भ 21 मार्च 2024 गुरुवार के सूर्योदय के साथ हो चुका है।* इसी दिन वैदिक मधुमास, ब्रह्मावर्त में वैदिक वसन्त ऋतु और उत्तरायण प्रारम्भ हुआ।
इस दिन दिन रात बराबर रहते हैं। देवताओं का सूर्योदय होता है। उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय होता है। वैदिक उत्तरायण प्रारम्भ, वैदिक वसन्त ऋतु प्रारम्भ और वैदिक मधुमास का प्रारम्भ होता है।


निरयन मेष संक्रान्ति से प्रारम्भ होने वाला नाक्षत्रीय नव वर्षारम्भ निरयन मेष संक्रान्ति पश्चात 14 अप्रेल 2024 रविवार को सूर्योदय से युधिष्ठिर संवत 5162 प्रारम्भ होगा। साथ ही निरयन मेष संक्रान्ति पश्चात सूर्योदय से
पञ्जाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड में वैशाखी/ वैसाखी नाम से नव वर्ष विक्रम संवत 2081 का प्रारम्भ भी होगा। नाक्षत्रीय नववर्ष बङ्गाल में नबा वर्षा या पोहेला बोईशाख के नाम से नव वर्ष मनाएंगे।, उड़िसा में पणा संक्रान्ति नाम से नववर्ष मनाएंगे। असम में बिहु नाम से नव वर्ष मनाएँगे।तमिलनाडु में पथण्डु नाम से मनिरयन मेष संक्रान्ति से नव वर्ष मनाएंगे। केरल में विषुकाणि नाम से मनाया जाएगा।
 *इस दिन भूमि चित्रा तारे के सम्मुख रहने से सूर्य चित्रा तारे से 180° पर रहता है। इस कारण एक दिन पहले और इसी दिन भी चित्रा तारा सूर्यास्त के साथ उदय होगा और सूर्योदय के साथ अस्त होगा। पूरी रात चित्रा तारा आकाश में दिखता रहेगा।*
लेकिन नाक्षत्रीय नववर्ष पर्व वैदिक नव संवत्सर पर्व के समान ऋतु बद्ध नहीं है। 25778 वर्ष के चक्र में यह नव वर्ष पर्व प्रत्येक ऋतु में आयेगा।

*पौराणिक पर्व शकाब्द 1946 का प्रारम्भ दिनांक ०९ अप्रेल २०२४ मङ्गलवार को चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को सूर्योदय से होगा।*
*इस दिन वैदिक संवत्सर (वसन्त सम्पात/ सायन/ मेष संक्रान्ति) जैसी कोई विशेषता नहीं होती और नाक्षत्रीय सौर संवत प्रारम्भ दिन (निरयन मेष संक्रान्ति) जैसी कोई विशेषता भी नहीं होती।*

बल्कि इस पौराणिक नववर्ष का वास्तविक इतिहास यह है कि,⤵️
*श्रीकृष्ण के समय साम्ब के कुष्ठरोग निवारणार्थ ईरान से भारत में आये मग ब्राह्मणों के वंशज और विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक वराहमिहिर ने भारत में निरयन सौर चान्द्र वर्ष को (वर्तमान चीन के प्रान्त) पूर्वी तुर्की के शिंजियांग उइगु़र प्रान्त के निवासी उइगुर मुस्लिमों के पूर्वज शक-कुषाणों द्वारा प्रवर्तित और प्रचलित १९ वर्षीय, १२२ वर्षीय और १४१ वर्षीय चक्र वाले निरयन सौर चान्द्र वर्ष को अपनाया और पौराणिकों में लोकप्रिय बनाया। 
इसी निरयन सौर चान्द्र वर्ष को पेशावर (पाकिस्तान) के क्षत्रप कुषाण वंशीय कनिष्क द्वारा मथुरा विजय के उपलक्ष्य में उत्तर भारत में प्रचलित निरयन सौर चान्द्र वर्ष शकाब्द प्रचलित किया और आन्ध्र प्रदेश के सातवाहन वंशीय गोतमीपुत्र सातकर्णी द्वारा नासिक के पास पैठण (महाराष्ट्र) पर विजयोपलक्ष्य मे दक्षिण भारत में निरयन सौर चान्द्र वर्ष शकाब्द के नाम से प्रचलित किया।*
*इस कारण उत्तर भारत में कुषाण वंश शासित क्षेत्र एवम् दक्षिण भारत में सातवाहन वंशीय शासित क्षेत्र में एवम् मराठा शासित भारतीय क्षेत्र उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश और तेलङ्गाना में नव चान्द्र वर्ष शकाब्द के नाम से प्रसिद्ध है। आन्ध्र प्रदेश में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा युगादि या उगादि कहते हैं।।जबकि महाराष्ट्र में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा कहते हैं।  
लेकिन निरयन सौर वर्ष आधारित होने के कारण पौराणिक चान्द्र-सौर शकाब्द नववर्ष पर्व (वैदिक नव संवत्सर पर्व के समान) ऋतु बद्ध नहीं है। 25778 वर्ष के चक्र में यह नव वर्ष पर्व प्रत्येक ऋतु में आयेगा।


 *चैत्र नवरात्र घटस्थापना मुहूर्त।* 
 *दिनांक ०९ अप्रेल २०२४ मङ्गलवार को इन्दौर में सूर्योदय समय 06:09 बजे से पूर्वाह्न 10:09 बजे तक।*
 अधिकतम 10:22बजे तक।
अभिजित मुहूर्त 12:03 बजे से 12:54 बजे तक।
अमावस्या समाप्त हो कर प्रतिपदा प्रारम्भ दिनांक 08 अप्रैल 2024 सोमवार को 23:50 बजे से 09 अप्रैल 2024 मङ्गलवार को 20:30 बजे ( रात 08:30 बजे) तक।
वैधृति योग 09 अप्रैल 2024 मङ्गलवार को 14:18 बजे (दोपहर 02:18 बजे) तक घटस्थापना में निषिद्ध है, लेकिन इस वर्ष वैधृति योग में ही घटस्थापना करना विवशता है।।

 *चेटीचण्ड मुहूर्त 18:48 (सायम् (सूर्यास्त 06:48 बजे) से 19:28 बजे (सन्ध्या 07:28 बजे) तक।*

सोमवार, 1 अप्रैल 2024

वैदिक ज्योतिष बनाम हिन्दू ज्योतिष

नाक्षत्रीय पद्यति दो प्रकार की है 
१ पहली वैदिक नाक्षत्रीय पद्यति जिसमे क्रान्तिवृत के ३६०° के परिपथ के आसपास उत्तर-दक्षिण में लगभग नौ-नौ अंशों की चौड़ी पट्टी में निश्चित आकृति बनाने वाले तारामण्डल के असमान भोग वाले अट्ठाइस नक्षत्र थे लेकिन बाद में अभिजित नक्षत्र नक्षत्रीय परिपथ (भचक्र) से बाहर हो गया इसलिए सत्ताइस नक्षत्र ही मान्य रहे।
उनमें किसी भी नक्षत्र का भोग १३°२०' नही है। जो केपी सहित वर्तमान में प्रचलित है।
२ दूसरी है आधुनिक खगोलीय (एस्ट्रोनॉमीकल) पद्यति।
जिसमें क्रान्तिवृत के ३६०° के परिपथ के आसपास उत्तर-दक्षिण में लगभग नौ-नौ अंशों की चौड़ी पट्टी के स्थिर भचक्र (झॉडिएक) में निश्चित आकृति बनाने वाले तारामण्डल के असमान भोग वाले अठासी (८८) नक्षत्र हैं। इनमें भी किसी भी नक्षत्र का भोग १३°२०' नही है।
इसके अलावा आधुनिक एस्ट्रोनॉमी में स्थिर भचक्र में असमान भोग वाली निश्चित आकृति की तेरह राशियों को अपनाया गया है।
चूंकि वे विषुववृत में  ग्रहों आदि के भोगांश सायन गणनानुसार दर्शाते हैं, इसलिए उन्हें नाविक पञ्चाङ्ग (नॉटकिल अल्मनॉक) में हर समय तेरह राशियों और अठासी नक्षत्रों के प्रारम्भ और अन्त के भोगांश बदलना पड़ते हैं।
भारतीय वैदिक ग्रन्थों में इसमें एक अनुठा प्रयोग निरयन गणना में किया जिसे पौराणिकों और ग्रह गणित के सिद्धान्त ग्रन्थों में भी अपनाया गया। निरयन गणना में चित्रा नक्षत्र को स्थिर भचक्र में मध्य में १८०° पर मानकर गणना की जाती है। इससे भचक्र में नक्षत्रों के आदि और अन्त के निरयन भोगांश अपरिवर्तनशील और स्थाई हैं। इसलिए हर वर्ष  पञ्चाङ्गो में बदल कर नहीं छापना पड़ते हैं।
लेकिन वराहमिहिर युग में बेबीलोन , मिश्र और यूनानी बारह राशियों को भारतीय ज्योतिष में समायोजित करने के चक्कर में हमारे अपने नक्षत्र खो दिए। अब सभी नक्षत्र एक समान १३°२०' भोग वाले २७ नक्षत्र मान लिए गए। जिसमें एक की भी वह आकृति और वह नियत स्थान नहीं बैठता जो वैदिक नक्षत्रों के थे। न घर के रहे न घाँट के।
इसलिए वेदों, ब्राह्मण आरण्यकों सुत्र ग्रन्थों में निर्देशित समय फॉलो नहीं हो पाते। न उत्तरायण दक्षिणायन वैदिक बचे, न ऋतुएँ वैदिक बची न महिने वैदिक बचे न नक्षत्र पर नाम वैदिक ज्योतिष है। यह हिन्दू ज्योतिष है- वैदिक कदापि नहीं।
रामायण महाभारत जैसे ग्रन्थों में जिन नक्षत्रों में ग्रहचार के आधार पर जो मेदिनी (जगत के सम्बन्ध में जो) फल कथन कहे हैं, उसके आधार पर फल कथन नहीं कर सकते।
वृहद संहिता, वृहत् जातक, लघु जातक, वृहत्पराषर होरा शास्त्र, लघु पाराशरी, केशवी जातक, कालीदास कृत उत्तरकालामृत आदि ग्रन्थों में हिन्दू ज्योतिष नें फलित की अपनी नवीन पद्यति तैयार की। जिसमें यूनानी और बेबीलोन की पद्यति को अपनाया गया। 
इसके अलावा भी इन पुस्तकों का अपना-अपना योगदान है।⤵️
 फलदीपिका, जातकापारिजात, जातक तत्वम् सारावली, मानसागरी, ज्योतिष रत्नाकर आदि।
सुचना ---
उत्तरायण की तीन ऋतु - वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा। - 
*देवा ऋतवः वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु उत्तरायण में होती है।* 
शतपथ ब्राह्मण 2/1/3 तथा तै.सं. 6/5/3 तथा नारायण उपनिषद अनु. 80
*उदगयन शब्द और देवयान / देवलोक शब्द स्पष्ट आये हैं।* 
मैत्रायण्युपनिषद में उत्तरायण और नारायण उपनिषद अनु 80
(भा. ज्यो.पृष्ठ 44 एवम् 45)

*वसन्त को प्रथम ऋतु और संवत्सर का शिर, ग्रीष्म को दक्षिण पक्ष (पंख) और शरद को उत्तर पक्ष कहा है।* 
तै.ब्रा. 1/1/2/6 एवम् 7 एवम् 3/10/4/1
*हेमन्त को संवत्सर का मध्य और वर्षा को पुच्छ कहा है।*
तै.ब्रा. 3/10/4/1
(भा. ज्यो. पृष्ठ 47)
उक्त आधार पर प्रमाणित होता है कि, वसन्त सम्पात से शरद सम्पात तक वैदिक उत्तरायण होता था। और शरद सम्पात से वसन्त सम्पात तक वैदिक दक्षिणायन होता था। वैदिक काल के उत्तरायण में वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु होती थी। और दक्षिणायन में शरद, हेमन्त और शिशिर ऋतु होती थी।
तदनुसार संवत्सर का प्रारम्भ वसन्त सम्पात, उत्तरायण, वसन्त ऋतु और मधुमास से होता था।
इन्दौर पञ्चाङ्ग शोधन कमेटी रिपोर्ट भाग २ से
पृष्ठ क्रमांक १९ - सूर्यसिद्धान्त की रङ्गनाथ टीका में कहा है।- चित्रायाश्चत्वारिंशत
चित्रा कोठीक भार्ध (भचक्र का आधा) में राशिचक्र के ठीक-ठीक मध्य की सूर्य सिद्धान्त और ब्रह्म सिद्धान्त में लिखे भोगों रङ्गनाथ ने सिद्ध किया है। तब जो चित्रा के १८०° से दस कला कम हो और इसका करणागत भगणारम स्थान से मैल होता हो उसके, अर्थ में रङ्गनाथ ने रेवती कहा है।
पृष्ठ २० सोम सिद्धान्त में चित्रा को भगण के ठीक मध्य में बतलाया है। चित्रा तारे की नीज गति मात्र एक हजार वर्ष में १ कला ही है।
ऋग्वेद निविद अध्याय में चित्रा से गणना प्रारम्भ की है।
चित्रा तारे को क्रान्तिवृत के ठीक मध्य में मानकर नक्षत्रों के वर्तमान में वेधोपलब्ध अन्तर शंकर बालकृष्ण दीक्षित जी ने भारतीय ज्योतिष में पृष्ठ ४५२-४५५ पर, व्यंकटेश बापूजी केतकर जी ने नक्षत्र विज्ञान में कोष्टक ६ में और श्री दीनानाथ शास्त्री चुलेट ने वेदकाल निर्णय पृष्ठ ८० पर मैंने योगताराओं के भोग शर लिखे हैं।

 पृष्ठ २२ भास्कराचार्य ने भचक्रेऽश्विनी मुखे कहा है।
सिद्धान्त शिरोमणि में विष्णु धर्मोत्तर का वचश लिखा है --- चैत्रादौ। अश्विन्यादौ काल प्रवृतिः। कहा है।
व्यास तन्त्र और सिद्धान्त दैवज्ञ कामधेनु अध्याय २ में लिखा है कि, पूर्व्वारधमुत्तरम् गोलमाचित्रा दर्ध मादिशेत्। चित्रान्तांर्ध्दे प्रह्वत्यैव पश्चिमार्धश्च दक्षिण म्।४
अर्थात राशिचक्र की पूर्वार्ध, उत्तरार्ध की मर्यादा चित्रा तारे तक और चित्रा तारे से ही प्रारम्भ करके राशि चक्र के पश्चिमार्ध, दक्षिणार्ध की गणना करना चाहिए।४