*जो धार्मिक नही हो पाया उसका अध्यात्म में प्रवेष सम्भव ही नही है।*
*धर्म, धर्मकर्म, धार्मिक क्रियाएंँ, आत्म साधन और अध्यात्म में परम्पर अन्यान्योश्रित सम्बन्ध है।*
*धर्म की व्याख्या -*
धर्म प्रथम पुरुषार्थ है और अध्यात्म अन्तिम पुरुषार्थ मौक्ष का साधन रूप अभिन्न हिस्सा है।
*आधुनिक भाषाओं में नैतिकता के मूलभूत सिद्धान्त कहलाते हैं उनमें से मुख्य और सर्वमान्य सिद्धान्त ये हैं।—*
मैरे ब्लॉग "धर्म, धर्मकर्म, आत्म साधन,मन्त्र साधना और अध्यात्म।" में इस विषय में विस्तृत चर्चा हो चुकी है अतः पुनरूक्ति अनावश्यक है। फिर भी सार संक्षेप प्रस्तुत है।
*सृष्टि हितेशी, प्रकृति के अनुकूल स्वाभाविक कर्त्तव्य पालन के व्रत और नियम पालन करना ही धर्म है। इसके कुछ यम और कुछ नियम और कुछ संयम होते है। योग शास्त्र में भी पाँच यम और पाँच नियम बतलाये हैं, मनुस्मृति 06/92 में भी धर्म के दशलक्षण बतलाये हैं।*
*याज्ञवल्क्य स्मृति में धर्म के नौ लक्षण बतलाए गए हैं। राम के आदर्श चरित्र द्वारा वाल्मीकि रामायण को तो धर्माचरण कैसे किया जाता है इसका व्यावहारिक उदाहरण ही प्रस्तुत करती है। और महाभारत में विदुर नीति के अन्तर्गत ये धर्म धर्म के आठ अंग बतालाए हैं ।*
पद्मपुराण सृष्टि खण्ड १९/ ३५७-३५८ में धर्म का सार कहा गया है -
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।
(अर्थ: धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो ! और सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये।)
श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध, अध्याय ११ के श्लोक ०८ से १२ में सनातन धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े ही महत्त्व के हैं ।
सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।।
संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।
अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।
तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।
श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।
नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।।
इन सब के आधार पर धर्म के लक्षण निम्नानुसार हैं।—
१अहिन्सा - अक्रोध, क्षमा, दया, प्रेम, शान्ति, सबको आत्मवत मान समझकर सबको अपने ही समान प्रेम करना, सबके प्रति स्नेह होना, अपने मन, वचन, कर्म, आचरण और व्यव्हार से अपने कारण तथा अपने द्वारा किसीको कष्ट न हो, कोई हानि न हो यह पुर्ण सावधानी रखना,कटुता, और परपिड़न का पुर्ण अभाव होना अहिन्सा है।
२ सत्य - सद्विचार, सदा सत्य वचन बोलना, सद्व्यवहार, सदाचरण करना, मौन रहनें का स्वभाव और परमात्मा के जिस नियम ऋत के द्वारा सृष्टि सृजन, प्रेरण, नियमन, पालन और प्रलय होता है उस नियम यानि ऋत के अनुकूल होकर; यथार्थ, सत्य वचन बोलना- लिखना, प्रकट करना,सत्य भाषण करना, सत्य वक्ता होना, सदाचारी होना, सद्विचार रखना, सद्व्यव्हार ही करना यह सत्य नामक यम है।
३ अस्तेय - परायी किसी भी वस्तु, सम्पत्ति तथा परस्त्री का आकर्षण न होना,लोभ न होना अर्थात अलोभ, निर्लोभता,चोरी न करना अस्तैय है।
४ ब्रह्मचर्य - ब्रह्म की और चलनें की प्रवृत्ति, समत्व, आर्जव (सरलता/ सीधापन) के भावों से सदा ओतप्रोत रहना। वीर्य रक्षण, धृतिवर्धन, परस्त्री को मातृवत समझना होना, स्वपत्नी से भी केवल ऋतुकाल में ही सन्तानोत्पत्ति के निमित्त ही मैथुन करना, निर्वयसनी रहना ब्रह्मश्चर्य है।
उक्त प्रकार की मनोवृत्ति होना ही दैवी सम्पदा/ दैवी प्रकृति है।
५ अपरिग्रह - दान, त्याग भाव; सम्पुर्ण सम्पत्ति केवल परमात्मा की ही है यह जान समझकर अपने आधिपत्य की सम्पत्ति पर केवल अपना ही सत्व न मान कर अपने उपभोग के लिये केवल जीवन यापन हेतु अत्यावश्यक चीजें ही उपयोग में लेना, स्वयम् को केवल ट्रस्टी समझकर अपने स्वामित्व और आधिपत्य की सम्पत्ति का व्यवस्थापन करना, यह अपरिग्रह है।
तथा
६ शोच - तन, मन,वचन,और कर्मों से पुर्ण स्वच्छ, पवित्र होना, स्वास्य्यवर्धक कर्म करना, प्राण की धारणा शक्ति धृति बढ़ाते रहना करना, धैर्य धारण करना यह शोच है।
७ सन्तोष - (ईश्वर प्रदत्त भोगों में सन्तुष्टी का भाव) लेकिन साथ ही अपने सद्कर्मों में लगातार सुधार और गुणवत्ता लानें हेतु तत्परता;
ईश्वर के दिये और दुसरों के किये से पुर्ण सन्तुष्ट रहना तथा अपने किये को कमतर मान कर निरन्तर सुधार लाना, दुसरों की त्रुटी नजर अन्दाज करना, परदोष दर्शन न करना यह सन्तोष है।
८ तप - तितिक्षा (धर्म पालनार्थ अनुकूलता-प्रतिकूलता में समत्व,बिना कष्ट अनुभव किये प्रतिकूलताएँ सहना), इन्द्रिय निग्रह - (मन और दशेन्द्रियों को वश में रखना यानी इन्द्रियों पर ऐसा नियन्त्रण कि, वे आपके निर्देश के बिना विषयों की ओर प्रवृत्त न हो।), दम (मन और इन्द्रियों को उनके विषयों की ओर स्वैच्छया जाने से रोकना, संयम धारण करना), शम (मन सहित इन्द्रियों को शान्त करना), धृति - (धैर्य धारण करना/ दृढ़ता, जिस धारण शक्ति से प्राण देह को धारण करता है उस धारण शक्ति अर्थात धृति को आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार द्वारा बढ़ाना।)
जीव- निर्जीव भूतमात्र की सेवा, इज्या - (पञ्चमहायज्ञ सेवन);
अपने कर्त्तव्य पालन में सत्यनिष्ठा पुर्वक जुटे रहनें में किसी प्रकार का कष्ट न मानना, निरन्तर ईश्वर के प्रति पुर्ण प्रेमभाव पुर्वक ईश्वर को ध्यान में रखकर रखते हुए अविरत जगत सेवा में तत्पर रहते हुए जुटे रहना, स्वदेश, अपने राष्ट्र के प्रति पुर्ण निष्ठा, समर्पण, सेवा भाव, राष्ट्रहित में सर्वस्व त्याग भाव, आक्रान्ताओं का समूल नाश करनें हेतु तत्परता यह तप है।
९ स्वाध्याय (अध्ययन, चिन्तन, मनन, जप, भजन, किर्तन), आत्म विमर्श (मन के अच्छे-बुरे विचारों का मनन करना या निरीक्षण करना।), धी (सद्बुद्धि या प्रज्ञावान होना,स्थित्प्रज्ञ होना), विद्या (यथार्थ ज्ञान होना , बत्तीस विद्याओं और चौसठ कलाओं के साथ परमात्म भाव में सदा स्थित रहना);
सत्साहित्य अध्ययन ,चिन्तन, मनन, गुरुमन्त्र का जप करना स्वाध्याय कहलाता है।
१० *ईश्वर प्रणिधान* - ईश्वर के प्रति अनन्य भाव से समर्पण होना आदि नियमों के पालन में दृढ़ता होना।
ईश्वर भक्ति, भजन, जप करना, ईश्वर के प्रति पुर्ण समर्पण / पुर्ण समर्पित होना ईश्वर प्रणिधान है।
उक्त सत्कर्म तो धर्म है। इनके विपरीत आचरण अधर्म है।
जिसका जीवन उक्त प्रकार से संयमित नियमित हो, वह व्यक्ति धार्मिक कहलाता है। उसका जीवन धार्मिक जीवन है।
*अधर्म लक्षण उक्त धर्म लक्षण के ठीक विपरीत होते हैं।*
1 हिन्सा, मान्साहार, दुसरों को पीढ़ा देना,
2 मिथ्याभाषी, दुराचारी,
3 चोर, लोभी,
4 परस्त्रीगामी, वासनामय, दुर्वयसनी,
5 अनावश्यक संग्रह रखकर नकली अभाव पैदा कर लाभ लेनेवाला,
6 गन्दा शरीर, गन्दा सोच, अश्लील विचार वाला,
7 ईश्वर के दिये और दुसरों के उपकार से असन्तुष्ट,
8 आत्म प्रशंसक,प्रवञ्चक, सेवा करने में कष्ट मानने वाला,
9 सत्साहित्य अध्ययन, चिन्तन मनन न करने वाला बल्कि हिन्सक, अश्लील साहित्य में रुचि लेने वाला, दुराचार, हिन्सा,चोरी,डकेती, लूट, बलात्कार करने का चिन्तन करने वाला,
10 सम्पुर्ण जगत में सर्वव्यापी, सर्वव्यापक, सर्वकालिक, परमात्मा के प्रति निस्वार्थ, निष्काम प्रेम और भक्तिभाव न रखते हुए किसी स्थान विशेष पर रहने वाले, एकदेशीय, किसी समय विशेष में ही विद्यमान किसी व्यक्ति के माध्यम से स्वयम् की सेवा, पुजा, भजन, भक्ति करने का उपदेश देनेवाले किसी व्यक्ति/ जीव या वस्तु या स्थान या समय को को ईश्वर, सृष्टि रचियता, प्रेरक, रक्षक, सृष्टि पालक, सृष्टि संहारक, मानकर उससे भयभीत रहने वाला, डरने वाला व्यक्ति अधर्मी कहलाता है। और ऐसे सिद्धान्तों पर चलनेवाले मत , पन्थ या सम्प्रदाय अधार्मिक कहलाते हैं।
जिसका आचरण उक्त प्रकार का हो वह अधर्मी कहलाता है।
*नास्तिक और अधिश्वर वादी -*
सनातन वैदिक धर्मी वेदों को परम प्रमाण मानते हैं। ईश्वरवादी हो या अनिश्वर वादी हो लेकिन, वेदों को न माननें वाला, वेदों को परम प्रमाण न मानने वाला उनकी दृष्टि में नास्तिक है।
*सन्त कौन? -*
*देवीप्रकृति वाले व्यक्ति एवम् आसुरीप्रकृति वाले व्यक्तियों में समभाव रखना, देवता और असुर में समभाव रखना, हिन्सक और अहिन्सक में समभाव रखने वाला सन्त कहलाता है।*
*धर्म रहित मानव भी दानव जैसा ही है।*
*साधन करना,आत्म साधना और मन्त्र साधना ।*
साधन करना,आत्म साधना और मन्त्र साधना ---
*आत्म साधना हेतु सर्वप्रथम कृच्छ्र चांद्रायण व्रत किया जाता है।मूलतः अहिन्सा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह अर्थात पञ्च यम की साधना ही आत्म साधन हैं। सर्वजन हिताय, सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय ईश्वरार्पण सौद्देष्य निष्काम सामाजिक कर्तव्य निर्वहन कर्म प्रधान संस्कृति जिसे संक्षिप्त में यज्ञ कहा जाता है।*
*ईश्वरीय कार्यों में सहयोगार्थ वेदों में पञ्चमहायज्ञ की व्यवस्था है।*
जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य आश्रम में धर्म का मर्म भली-भांति समझ गया, जिसने धर्म पालन पूर्वक ग्रहस्थ आश्रम में जिसने समस्त यज्ञों का सम्पादन करते हुए व्यावहारिक जीवन जी लिया। जिसके समस्त सांसारिक कर्तव्य पूर्ण हो चुके वही व्यक्ति वानप्रस्थ आश्रम में गुरुकुल स्थापित कर आत्म साधना करते हुए नई पीढ़ी को धर्माचरण का शिक्षिण- प्रशिक्षण प्रदान करता है। साथ ही आवश्यकता पड़ने पर बड़े-बड़े यज्ञों में आचार्य का पद ग्रहण करते हैं। समस्त वैदिक वैज्ञानिक अनुसंधान इन्हीं ऋषियों द्वारा किया गया। ब्राह्मण ग्रन्थ आदि समस्त वैदिक शास्त्र इन्हीं ऋषियों की रचना हैं। समस्त यज्ञ पूर्ण कर चुके धर्म तत्व के ऐसे मर्मज्ञ जब वानप्रस्थ के कर्तव्य पूर्ण हुआ जानकर सर्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान प्रारम्भ करते हैं। अर्थात यज्ञ की पूर्णाहुति के बाद अन्तर्मुखी होकर धारणा - ध्यान और समाधि की अवस्था में देह के अन्दर की झलक देखते हैं। उस अवस्था में ही वे पुरुष सूक्त, (यजुर्वेद का अध्याय ३१ उत्तर नारायण सुक्त सहित पुरुष सूक्त), नासदीय सुक्त और अस्यवामिय सुक्त और ,श्री सुक्त, लक्ष्मी सुक्त,और देवी सुक्त और शुक्लयजुर्वेद का एकतीसवां और बत्तीसवां और चालिसवां अध्याय के दृष्टा होते हैं। और इसी अवस्था के अनुभवों का विवरण एवम् वर्णन ; श्वेताश्वतरोपनिषद (कृष्ण यजुर्वेद संहिता का अन्तिम अध्याय) , केनोपनिषद, कठोपनिषद, प्रश्नोपनिषद, एतरेयोपनिषद, तैत्तरियोपनिषद, मण्डुकोपनिषद, माण्डुक्योपनिषद, छान्दोग्योपनिषद, वृहदारण्यकोपनिषद, कौशितकी ब्राह्मणोपनिषद और इन ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों में किया गया है।
उक्त ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषदों के आधार पर रचित पुर्व मिमांसा दर्शन , उत्तर मिमांसा दर्शन (शारीरिक सुत्र) के अलावा सांख्य कारिकाएँ, कपिल का सांख्य दर्शन, पतञ्जली का योग दर्शन, अक्षपाद गोतम का न्याय दर्शन, कणाद का वैशेषिक दर्शन में किया गया है।