ऋग्वेद प्रथम मण्डल के बाइसवें सुक्त का बीसवाँ मन्त्र है अर्थात ऋग्वेद 1/22/20 जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि, तद् विष्णोः परमं पदम् सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्।। 20 "
सूरगण यानि देवता सदा विष्णु परमपद को देखते हैं।"
तद् विप्रासो विपन्यवो जागृवगांसः समिन्धते। विष्णोर्यत् परमम् पदम्।। 21
विष्णु को परम पद कहा है, उस विष्णु परमपद को कर्मकुशल जाग्रत रहने वाले वेदज्ञ विप्र सम्यक प्रकाशित हुआ देखते हैं।
अर्थात स्पष्ट रूप से विष्णु को परमपद कहा है देवता उस विष्णु परमपद के दर्शनाभिलाषी है। द्वादश प्रजापति, इन्द्र, द्वादश आदित्य, अष्टवसु, और ग्यारह रुद्रगण जिनकी ओर टकटकी लगाये रहते हैं, देखते हैं वह परमपद विष्णु है। सायणाचार्य के भाष्य के अनुसार विष्णु परमपद को देखनें के लिए तरसते हैं। इस प्रकार सर्वोच्च / परम सत्ता का स्पष्ट रूप से वर्णन वेदों में है।
पद्मभूषण डॉ. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर जी ने अनुवाद किया है —-
तद् विष्णोः परमं पदम् सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्।। 20
विष्णु का वह परम स्थान द्युलोक में फैले हुए प्रकाश के समान ज्ञानी सदा देखते हैं।
वह विष्णु परम पद है।
ऋग्वेद के एतरेय ब्राह्मण ग्रन्थ का प्रथम मन्त्र भी यही कहता है कि, अग्नि प्रथम देवता और विष्णु अन्तिम/ चरम/ परम देव है।
पौराणिक दृष्टि से वरीष्ठता क्रम गङ्गा अवतरण में स्पष्ट होता है।
गङ्गा विष्णु पदीय है, अर्थात विष्णु के चरणों सें गङ्गा का उद्गम है।
विष्णु पद से निकलकर गङ्गा ब्रह्मा जी के कमण्डल में समाई। कमण्डल चाहे हाथ में लटका कर खड़े रहें या आसन पर बैठ कर पार्श्व में रखा हो शरीर के मध्य भाग के समीप रहता है।
विष्णु पद से निकलकर गङ्गा ब्रह्मा जी के कमण्डल में होती हुई शंकर जी के शिर्ष (जटाओं) में समाई।
जहाँ विष्णु के चरण, वहीँ ब्रह्मा जी का मध्यभाग और वहीँ शंकर जी का सिर है।
विष्णु पुराण हो या शिव पुराण सभी में विष्णु की नाभी (केन्द्र) से ब्रह्मोत्पत्ति और ब्रह्मा जी के रोष से रुद्रोत्पत्ति स्वीकारी गई है। एकादश रुद्र में एक शंकर भी हैं।
कुलपति मुखिया पालक होता है, युवा सृजन करते हैं और बालक पुरानी वस्तुएँ तोड़ फोड़ कर घर का नवीनीकरण करवाते हैं। यही कार्य विष्णु पालक, ब्रह्मा सृजन कर्ता और रुद्र प्रलयकारी हैं ।पुराने को नष्ट कर नवीन के लिए स्थान बनाते हैं।
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