वेद में सांसारिक बन्धनों से मुक्ति के लिए आत्मदर्शन या तत्त्वसाक्षात्कार आवश्यक तत्त्व के रूप में निर्दिष्ट है। बृहदारण्यक उपनिषद का कहना है कि पहले आत्मा आदि पदार्थों का शास्त्र द्वारा श्रवण उपासना, पुन: हेतु द्वारा मनन अर्थात् विवेचन रूप उपासना और पश्चात् निदिध्यासन अर्थात एक चित्त होकर ध्यान रूप उपासना करनी चाहिए।
आत्मदर्शन के साधन - मनन रूप उपासना के सम्पादनार्थ मुख्यत: न्याय शास्त्र का आविर्भाव हुआ।
चूँकि श्रवण के पश्चात् मनन का विधान है, अत: इस शास्त्र की प्रक्रिया को शास्त्रों में अन्वीक्षा कहा गया है। अनु अर्थात् श्रवणमनु, ईक्षा दर्शनं मननम् इति अन्वीक्षा- उक्त पद की यह व्युत्पत्ति है। श्रवण के बाद युक्ति द्वारा आत्मा आदि पदार्थों की ईक्षा-दर्शन-मनन अर्थात् शास्त्रानुमत रीति से अनुमान करना ही अन्वीक्षा है।
न्याय शास्त्र के प्राचीन नाम भिन्न-भिन्न हैं। यथा - आन्तीक्षकी, हेतुशास्त्र, हेतुविद्या, तर्कशास्त्र, तर्कविद्या, वादविद्या, प्रमाणशास्त्र, वाकोवाक्य, तक्की, विमंसि आदि।
आपस्तंब धर्मसूत्र में भी न्याय शब्द आया है वहाँ न्याय से अभिप्राय पूर्वमीमांसा ही समझना चाहिए।
माधवाचार्य ने पूर्वमीमांसा का सारसंग्रह का नाम 'न्यायमाला-विस्तार' रखा।
वाचस्पति मिश्र ने मीमांसा पर एक ग्रंथ 'न्यायकणिका' के नाम से लिखा है।
खुर्दा अवेस्ता में युक्तिवादी गौतम का उल्लेख है।
उक्त सब न्याय शास्त्र की प्राचीनता के प्रमाण हैं।
महाभारत स्पष्टत: कहता है कि न्याय शास्त्र को छोड़कर केवल वेद का अवलम्बन करके कोई मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता है।
श्रीमद् भागवत पुराण में प्रतिपादित है कि विश्वस्स्रष्टा के हृदयाकाश से व्याहृति और प्रणव के साथ आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति रूप चार विद्याएँ, उत्पन्न हुईं।
भारतीय वाङ्मय में न्यायशास्त्र के दो भेद माने जाते हैं- वैदिक न्याय और अवैदिक न्याय।
वैदिक न्याय में - वैशेषिक न्याय, सांख्य, योग न्याय, पूर्व मीमांसा तथा उत्तर मीमांसा न्याय का समावेश है, किंतु न्यायशास्त्र के नाम से अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र तथा उनके आधार पर निर्मित समस्त प्राचीन अर्वाचीन साहित्य को ही अभिहित किया जाता है।
अवैदिक न्याय में बौद्ध न्याय तथा जैन न्याय का समावेश है।
ईसा की छठी शताब्दी में वासवदत्ताकार सुबंधु ने मल्लनाग, न्यायस्थिति, उद्योतकर और धर्मकीर्ति इन चार नैयायिकों का उल्लेख किया है। इनमें धर्मकीर्ति प्रसिद्ध बौद्ध नैयायिक थे। उद्योतकराचार्य ने प्रसिद्ध बौद्ध नैयायिक दिंनागाचार्य के 'प्रमाणसमुच्चय' नामक ग्रंथ का खंडन करके वात्स्यायन का मत स्थापित किया। 'प्रमाणसमुच्चय' में दिड्नाग ने वात्स्यायन के मत का खंडन किया था। इससे यह निश्चित है कि वात्स्यायन दिंनाग के पुर्व हुए। मल्लिनाथ ने दिंनाग को कालिदास का समकालीन बतलाया है,
न्यायशास्त्र के विकास को तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है - आद्यकाल, मध्यकाल तथा अंत्यकाल (1200 ई. से 1800 ई. तक का काल)। आद्यकाल का न्याय "प्राचीन न्याय", मध्यकाल का न्याय "सांप्रदायिक न्याय" (प्राचीन न्याय की उत्तर शाखा) और अंत्यकाल का न्याय "नव्यन्याय" कहा जाएगा।
वैदिक, बौद्ध और जैन नैयायिकों के बीच विवाद ईसा की पाँचवीं शताब्दी से लेकर १३ वीं शताब्दी तक बराबर चलता रहा। इससे खंडन मंडन के बहुत से ग्रंथ बने। १४ वीं शताब्दी में गंगेशोपाध्याय हुए जिन्होंने 'नव्यन्याय' की नींव डाली।
प्राचीन न्याय में प्रमेय आदि जो सोलह पदार्थ थे उनमें से और सबको किनारे करके केवल 'प्रमाण' को लेकर ही भारी शब्दाडंबर खडा किया गया।
इस नव्यन्याय का आविर्भाव मिथिला में हुआ। मिथिला से नदिया में जाकर नव्यन्याय ने और भी भयंकर रूप धारण किया। न उसमें तत्वनिर्णय रहा, न तत्वनिर्णय की सामर्थ्य।
न्याय के प्रवर्तक गौतम ऋषि कहे जाते हैं। गौतम के न्यायसूत्र अबतक प्रसिद्ध हैं। इन सूत्रों पर वात्स्यायन मुनि का भाष्य है। इस भाष्य पर उद्योतकर ने वार्तिक लिखा है। वार्तिक की व्याख्या वाचस्पति मिश्र ने 'न्यायवार्तिक तात्पर्य ठीका' के नाम से लिखी है। इस टीका की भी टीका उदयनाचार्य कृत 'ताप्तर्य-परिशुद्धि' है। इस परिशुद्धि पर वर्धमान उपाध्याय कृत 'प्रकाश' है।
प्रथम धारा सूत्रकार गौतम से आरम्भ होती है, जिसे षोडश पदार्थों के यथार्थ निरूपक होने से 'पदार्थमीमांसात्मक' प्रणाली कहते हैं। इस प्रथम धारा को 'प्राचीन न्याय' कहा जाता है। प्राचीन न्याय में मुख्य विषय 'पदार्थमीमांसा' है।
दूसरी प्रणाली को 'प्रमाणमीमांसात्मक' कहते हैं, जिसे गंगेशोपाध्याय ने 'तत्त्वचिन्तामणि' में प्रवर्तित किया। इस द्वितीय धारा को 'नव्यन्याय' कहते हैं और इस 'नव्यन्याय' में 'प्रमाणमीमांसा' वर्णित है।
जिन पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्ष होता है उनकी संख्या इस शास्त्र में सोलह मानी गई है; उनके नाम ये हैं :
प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान।
अभिधान -
इसी अन्वीक्षा के निर्वाहार्थ प्रकाशित विद्या आन्वीक्षिकी नाम से प्रसिद्ध हुई। प्रत्यक्ष और आगम के अविरोधी अनुमान अन्वीक्षा है। न्यायविद्या या न्याय शास्त्र इसका नामान्तर है। इसे समझने के लिए इसके प्रतिपाद्य सभी पदार्थों का परिज्ञान आवश्यक है, जिन्हें यह विद्या प्रकाशित करती है।
हेतुविद्या - हेतुशास्त्र, युक्तिविद्या, युक्तिशास्त्र, तर्कविद्या तथा तर्कशास्त्र आदि इस आन्वीक्षिकी विद्या के नामान्तर हैं। चूँकि यहाँ अनुमान की प्रधानता है और अनुमान का मुख्य अवयव है हेतु, अत: हेतुविद्या आदि इसके अन्वर्थक नाम हैं। इसी तरह युक्त एवं तर्क का साङ्गोपाङ्ग विवेचन यहाँ प्रमुख रूप से होता है, अत: तर्कशास्त्र या युक्तिशास्त्र आदि नाम भी इसका संगत है।
प्रमाण - परीक्षित प्रमाणों के आधार पर ही प्रमेय का यहाँ प्रतिपादन किया जाता है, अत: इसे 'प्रमाणशास्त्र' भी कहते हैं। 'प्राधान्येय व्यपदेशा: भवन्ति' इस सूक्ति के आधार पर इसकी प्रमाणशास्त्रता सिद्ध है। यहाँ प्रमाण का विवेचन प्रमुख रूप से किया गया है।
सोलह पदार्थ या विषय में हैं - प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धांत, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान। इन विषयों पर विचार किसी मध्यस्थ के सामने बादी प्रतिवादी के कथोपकथन के रूप में कराया गया है।
किसी विषय में विवाद उपस्थित होने पर पहले इसका निर्णय आवश्यक होता है कि दोनों वादियों के कौन कौन प्रमाण माने जायँगे। इससे पहले 'प्रमाण' लिया गया है।
इसके उपरांत विवाद का विषय अर्थात् 'प्रमेय' का विचार हुआ है। विषय सूचित हो जाने पर मध्यस्त के चित्त में संदेह उत्पन्न होगा कि उसका यथार्थ स्वरुप क्या है। उसी का विचार 'संशय' या 'संदेह' पदार्थ के के नाम से हुआ है।
संदेह के उपरंत मध्यस्थ के चित्त में यह विचार हो सकता है कि इस विषय के विचार से क्या मतलब। यही 'प्रयोजन' हुआ।
वादी संदिग्ध विषय पर अपना पक्ष दृष्टांत दिखाकर बदलाता है, वही 'दृष्टांत' पदार्थ है।
जिस पक्ष को वादी पुष्ट करके बतलाता है वह उसका 'सिद्धांत' हुआ।
वादी का पक्ष सूचित होने पर पक्षसाधन की जो जो युक्तियाँ कही गई हैं प्रतिवादी उनके खँड खँड करके उनके खंडन में प्रवृत्त होता है।
युक्तियों की खंडित देख वादी फिर से और युक्तियाँ देता है जिनसे प्रतिवादी की युक्तियों का उत्तर हो जाता है। यही 'तर्क' कहा गया है।
तर्क द्वारा पंचावयवयुक्त युक्तियों का कथन 'वाद' कहा गया है। वाद या शास्त्रार्थ द्वारा स्थिर सत्य पक्ष को न मानकर यदि प्रतिवादी जीत की इच्छा से अपनी चतुराई के बल से व्यर्थ उत्तर प्रत्युत्तर करता ।
गौतम का न्याय केवल प्रमाण, तर्क आदि के नियम निश्चित करनेवाला शास्त्र नहीं है बल्कि आत्मा, इंद्रिय, पुनर्जन्म, दुःख अपवर्ग आदि विशिष्ट प्रमेयों का विचार करनेवाला दर्शन है। गौतम ने सोलह पदार्थों का विचार किया है और उनके सम्यक् ज्ञान द्वारा अपवर्ग या मोक्ष की प्राप्ति कही है।
न्यायशास्त्र के अध्ययन से पदार्थों का तत्वज्ञान होता है और उससे आत्मतत्व का साक्षात्कार होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। तत्व साक्षात्कार से मिथ्याज्ञान की निवृत्ति, मिथ्याज्ञान की निवृत्ति से राग, द्वेष और मोह रूपी दोषों की निवृत्ति, दोषों की निवृत्ति से अर्ध एवं अर्ध रूप प्रवृत्ति की निवृत्ति से पुनर्जन्म का अभाव और पुनर्जन्म के अभाव से समस्त दु:खों से आत्यंतिक मुक्ति होती है।
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