बुधवार, 4 अगस्त 2021

योग्यता ग्रहिता की महत्वपूर्ण है, दाता की नही।

योग्यता ग्रहिता की महत्वपूर्ण है, दाता की नही।
एकलव्य ने केवल द्रोणाचार्य के प्रतीक से ही शिक्षा ग्रहण करली। जिसकी जानकारी स्वयम् आचार्य द्रोण को भी नही थी।
दक्षिणामूर्ति के समक्ष स्थिरमन से बैठे शिष्यों को स्वतः ज्ञान हो जाता था। न शिष्य कुछ पुछते थे , न गुरु कुछ बोलते - बतलाते थे।
पर शिष्य को जाकर श्रद्धापूर्वक स्थिर होकर बैठना तो पड़ता ही था ना। उछलकूद कर रहे व्यक्ति को तो व आँ भी ज्ञान नही मिलता। मौन गुरु को देखकर सहस्त्रों समस्याओं का समाधान चाहनें वाला बालक उन्हें जगानें के प्रयत्न करेगा। हिलायेगा डुलायेगा। वह नही जान सकता। कोई अधीर व्यक्ति उन्हें मौन देखकर उठकर और कहीँ जाकर अपनी समस्याओं का समाधान पूछेगा। उसे भी उनसे ज्ञान नही मिल सकता।
लोग पूछते हैं सच्चे और अच्छे सत्गुरु की क्या पहचान है। सत्गुरु की खोज कैसे करें। सत्गुरु कहाँ मिलेंगे।
इसका सीधा सच्चा उत्तर यही है कि, योग्य जिज्ञासु, प्रसन्नता पूर्वक धैर्य पूर्वक सीखने को तैयार, आज्ञापालक धर्मनिष्ठ, सदाचारी शिष्य बननें का लगन पूर्वक प्रयत्न करते रहो। गुरु स्वयम आकर मार्गदर्शन देकर अगले स्तर पर पहूँचा देंगे। उस स्तर को सफलतापूर्वक निर्वहन करलोगे तो अगला गुरु या वही गुरु फिर अगले स्तर पर पहूँचा देंगे।
यदि आप गुरु को पहचानने की योग्यता रखते तो आपको गुरु स्वयम् पहले ही खोज लेंगे। 
अनन्य भाव से आश्रित सदाचारी भक्त की मदंद करनें स्वयभ् भगवान ही आकर करते है। उसे सहायता माँगने के लिए भगवान के पास नही जाना पड़ता।

परमात्मा कोई व्यक्ति, वस्तु या स्थान नही जिसे कर्म से पाया जा सके।

कर्म से अन्तःकरण शुद्ध हो सकता है। शुद्ध अन्तःकरण में ही ज्ञान की स्थिति होती है। अन्यथा जानते तो सब हैं पर ज्ञानी कोई नही हुआ।
ज्ञान होनें पर ही भक्ति का उदय होता है।
बिना जानें श्रद्धा नही होती। बिना श्रद्धा भक्ति नही होती। बिना भक्ति के अभेद नही होता।
जब मैं था तब हरि नही अब हरि है तो मैं नही।
प्रेमगली अति सांकरी, ताँ मे दो न समाय।

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