क्या सायन गणना के बिना श्रोत, स्मार्त और पुराणोक्त व्रतपर्वोत्सव और मुहुर्तादि की गणना सम्भव है?
क्या नाक्षत्रीय/ निरयन गणना के बिना नक्षत्रों में भ्रमणशील ग्रहों की स्थिति दर्शाना और होराशास्त्रीय फलित के नियम बनाना सम्भव है?
इन दोनों ही प्रश्नों के उत्तर नकारात्मक हैं।
प्रथम प्रश्न क्या सायन गणना के बिना श्रोत, स्मार्त और पुराणोक्त व्रतपर्वोत्सव और मुहुर्तादि की गणना सम्भव है? का उत्तर ---
1 श्रोत, स्मार्त और पुराणोक्त व्रतपर्वोत्सव और मुहुर्तादि का आधार उत्तरायण/ दक्षिणायन और ऋतुएँ तथा सायन सौर मधु, माधवादि मास एवम् सूर्य के भोगांश और बाण आदि में कहीँ कहीँ संक्रान्ति गत दिवस हैं। इसके बाद अमावस्या, पूर्णिमा और अर्ध चन्द्र दिवस (शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि) तथा करण का महत्व है। फिर व्यतिपात, वैधृतिपात आदि योग का भी महत्व है। इनके अलावा क्रान्ति- शर ग्रहण- मौक्ष, सूर्योदय-सूर्यास्त, चन्द्रोदय-चन्द्रास्त, ग्रहों और नक्षत्रों का लोप- दर्शन-अदर्शन (बृहस्पति-शुक्र और अगस्त तारे का उदय अस्त), ग्रहों का वक्री-मार्गी इत्यादि सबकुछ सायन गणना से ही सिद्ध होते हैं।
इसके अलावा चन्द्रमा का नक्षत्र भ्रमण अर्थात चन्द्रमा का नक्षत्र भी देखा जाता है जो एकमात्र नाक्षत्रीय/ निरयन गणना आधारित है। क्योंकि, नक्षत्रमण्डल भृचक्र (स्थिर झोडिएक) में निर्धारित नक्षत्रों की निश्चित आकृतियों में चन्द्रमा का भ्रमण ही दिवस नक्षत्र कहलाता है। अतः यह नाक्षत्रीय (सेडरल) गणना आधारित होता है।
अर्थात सायन गणना के बिना न आप व्रत पर्व, उत्सव का दिन और समय ज्ञात कर सकते हैं न मुहूर्त देख सकते हैं।
मात्र 2004 वर्ष बाद कलियुग संवत 7126, विक्रम संवत 4079 शके 3944 ईसवी सन 4025 में दो ऋतु आगे निकल जाने के कारण वर्तमान निरयन सौर वर्ष और निरयन संक्रान्तियों पर आधारित 19, 122, 141 वर्षीय चक्र वाली पञ्चाङ्गों के आधार पर मनाये जाने वाले व्रत पर्व, उत्सव के दिन और मुहुर्त शास्त्र सब अप्रासङ्गिक हो जायेंगे। कुछ तो अभी भी हो चुके हैं किन्तु चान्द्रमास स्वयम् भी लगभग 29 दिन आगे पीछे होनें से 24-25 दिन का अन्तर जन साधारण को समझ नही आता है।
किन्तु जिस समय रामनवमी वर्षा ऋतु में आने लगेगी। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी शिशिर ऋतु (ठण्ड) में आने लगेगी। आषाढ़ मास में कोयल नही दिखेगी तो कोकिला व्रत कैसे होगा।
एवम् 3424 वर्ष बाद कलियुग संवत 8546, विक्रम संवत 5499 शके 5364 में निरयन मकर संक्रान्ति वैदिक उत्तरायण परम्परागत उत्तरगोल में पड़ेगी। उत्तरायण के चैत्रादि मास दक्षिणायन में पड़ेंगें। तब मुहुर्त शास्त्र फिर से गड़बड़ा जायेगा।
दक्षिण भारत में वसन्त ऋतु पहले आ जाती है और उत्तर भारत में देरी से आती है। सायन मेष संक्रान्ति से सायन तुला संक्रान्ति के बीच पड़ने वाला उत्तरायण (20 मार्च से 23 सितम्बर के बीच) वर्षाऋतु होनें से वैवाहिक कार्यक्रमों में विघ्न पडता था अतः वराह मिहर से भास्कराचार्य के काल में उत्तरायण तीन मास पहले सायन मकर संक्रान्ति से आरम्भ मान लिया गया। मधु मास जो सायन मेष संक्रान्ति (20/21 मार्च) से आरम्भ होता था उसे सायन मीन संक्रान्ति (18 फरवरी) से आरम्भ बतला कर चैत्र मास से जोड़नें का प्रयोग किया गया। कुछ कार्य तो निरयन संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्रमासों के 29 दिन आगे पीछे होनें से अपने आप होजाता है।
ऐसा ही संकट 3424 वर्ष बाद पुनः आने वाला है। तब निरयन संक्रान्तियों से सम्बद्ध वर्तमान पञ्चाङ्ग बे मतलब हो जायेंगे। जैसे आज भी व्यतिपात और वैधृतिपात का सम्बन्ध व्यतिपात योग और वैधृतिपात योग से नही बैठता।
अतः सर्वश्रेष्ठ हल यही है कि, सायन सौर वर्ष और मधु माधव मास आधारित पञ्चाङ्ग का ही उपयोग किया जावे।
ग्रेटर नोएडा के आचार्य दार्शनेय लोकेश ने श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम प्रकाशित कर उक्त बातें आवश्यकता की पूर्ति की है।
पूर्व में यह कार्य वाराणसी के बापूजी शास्त्री कर चुके थे। किन्तु जन सहयोग न मिलने और विद्वानों के असहयोग के कारण उन्हें बन्द करना पड़ा।
यही स्थिति श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम की न हो इस हेतु सभी विद्वानों और विदुषियों का कर्तव्य है कि, आचार्य दार्शनेय लोकेश को पूर्ण समर्थन दिया जावे। और श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम का ही उपयोग किया जावे।
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अब दुसरे प्रश्न क्या नाक्षत्रीय/ निरयन गणना के बिना नक्षत्रों में भ्रमणशील ग्रहों की स्थिति दर्शाना और होराशास्त्रीय फलित के नियम बनाना सम्भव है? का उत्तर ---
तैतरीय संहिता में चित्रा तारे को आकाश के मध्य में बतलाया गया है। यही बात अन्य भी कई वैदिक ग्रन्थों में उल्लेखित है। इसका तात्पर्य यह भी निकलता है कि, चित्रा तारा नक्षत्र मण्डल (फिक्स्ड झोडिएक ) में 180° पर अवस्थित है। इस तथ्य से वर्तमान में लगभग सभी ज्योतिर्विज्ञानि सहमत हैं। ऐसे ही मघा और चित्रा के योगताराओं में लगभग 54° का अन्तर वैदिक काल से आज तक यथावत है। ऐसे हैं सभी नक्षत्रों के ताराओं की परस्पर दूरी यथावत बनी हुई होने से इसे फिक्स्ड झोडिएक कहते हैं। लाहिरी की इण्डियन इफेमेरीज़ में 01 जनवरी की स्थिति में नक्षत्र ताराओं के निरयन स्थिति (पोजीशन) बतलाई जाती है। वही स्थिति हजारों वर्षों में भी बहुत कम बदलने वाली है।
अतः रामायण-महाभारत आदि ग्रन्थों में उल्लेखित नक्षत्रीय और ग्रहों की स्थिति के आधार पर उनके काल का ज्ञान प्राप्त किया जाता रहा है।
चूँकि इनकी परस्पर दूरी अपरिवर्तित है अतः इनसे बनने वाले रेखाचित्रों के आधार पर ही इनके नक्षत्रों के नाम रखे गये। और इन नक्षत्रों में भ्रमणशील ग्रहों के आधार पर होराशास्त्र में जातक का फलित देखा जाता है।
ईसवी सन 285 में जो सायन और निरयन मेष राशि एक समान ही थी जबकि ईसवी सन 2435 में निरयन मीन राशि सायन मेष राशि बन जायेगी। अर्थात जो उत्तराभाद्रपद और रेवती के जो तारे सायन मेष राशि में माने जायेंगे। तब क्या सायन मेष राशि का स्वभाव निरयन मीन का स्वभाव समान माना जाये या अलग अलग? यह विचारणीय मुद्दा बन जायेगा। वैसे तो यह समस्या अभी भी है।
कम से कम इतिहास की दृष्टि से तो नाक्षत्रीय/ निरयन स्थिति (पोजीशन) दर्शाना आवश्यक ही है।
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