मूल धर्म तो सेवा ही है। मुर्तिपूजा कदापि धर्म नहीं हो सकता। सर्वव्यापी परमात्मा को सीमित (एकदेशी), और साकार बतलाना धर्म कैसे हो सकता है। सर्वव्यापी परमात्मा को परम आत्म (अपना वास्तविक स्वरूप) समझने -माननें वाले अपनें इष्ट को किसी मुर्ति में सीमित कर उसके प्रति प्रेम-भाव कैसे रख सकते हैं।
वेदों में मूर्तिपूजा निषिद्घ थी। (यजुर्वेद ३/३२ में) न तस्य प्रतिमा अस्ति कहने वाले और (ऋग्वेद में) शिश्नेदेवाः (लिङ्गपूजक) की छाँव पड़नें पर यज्ञ बन्दकर पुनः शुद्धिकरण करनें के पश्चात ही यज्ञ आरम्भ करने वाले, ब्रह्मर्षियों के आर्ष ब्राह्म धर्म में मुर्ति पूजन की तो कल्पना भी नही थी। वैदिक काल में तो पूजा का मतलब सेवा ही होता है।
मातृदेवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव मानने वाले, सूर्य को अर्घ्य देनें वाले, अग्नि को परमात्मा का मुख मानकर देवताओं के लिए अग्नि में हविष्य की आहुति देकर स्वाहा (स्व / अहंकार का हनन्) करने वाले धर्म में, मुर्ति पूजा की तो कल्पना भी नही थी।
वैदिक परम्परा में प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग ये दो जीवन पद्यति थी। ये दोनो ही वैदिक मार्ग थे। उस समय देव, असुर और मानव तीनों जातियों के गुरु प्रजापति ही थे।
छान्दोग्योपनिषद् में अष्टम अध्याय, सप्तम खण्ड से द्वादश खण्ड तक में आत्मज्ञान प्राप्ति के लिए देवराज इन्द्र और असुरराज विरोचन द्वारा प्रजापति के पास जाना, उनके निर्देश पर इन्द्र ने १०१ वर्ष तप कर प्रजापति से पूर्ण आत्मज्ञान प्राप्त करना किन्तु, विरोचन द्वारा मात्र ३२ वर्ष तप कर अल्प जानकारी प्राप्त कर ही सन्तुष्ट होकर लौट जाने का विस्तृत वर्णन है।तथा छान्दोग्योपनिषद् में अष्टम अध्याय,पञचदश खण्ड में स्पष्ट कहा गया है कि, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा द्वारा प्रजापति को आत्मज्ञान दिया। प्रजापति ने स्वायम्भुव मनु को आत्मज्ञान का उपदेश दिया।
अर्थात वैदिक काल में देवताओं, मानवों और असुरों के सर्वमान्य गुरु प्रजापति ही थे।
वृहदारण्यकोपनिषद पञ्चम अध्याय, द्वितीय ब्राह्मण मन्त्र १से ३ प्रजापति ने द बोला, देवताओं ने न इन्द्रिय दमन करना चाहिए, मानवों नें दान करना चाहिए, और असुरों ने दया करना चाहिए उपदेश ग्रहण किया। उक्त वर्णन से स्पष्ट है कि देवता, मानव और असुर तीनों ही प्रजापति को ही गुरु मानते थे।
छान्दोग्योपनिषद् और वृहदारण्यकोपनिषद में कई बार प्रजापति द्वारा आत्मज्ञान उपदेश प्रकरण आये हैं। इससे सिद्ध है कि, पहले सभी वेदमार्गी ही थे। पुराणों को भी स्वीकार है कि, प्रहलाद जी असुर होते हुए परम वैष्णव थे। जैन परम्परा भी मानती है कि, ऋषभदेव जी तक तो केवल वैदिक धर्म ही था। ऋषभदेव जी के बाद श्रमण परम्परा आरम्भ हुई।
वैवस्वत मन्वन्तर में में शंकरजी द्वारा तन्त्र मार्ग की खोज कर नवीन पन्थ चला दिया। कुछ वेद विरोधी मानवों, यक्षों, असुरों, दैत्यों और दानवों ने तन्त्र मार्ग अपनाया। शंकर जी, विश्वरूप, वत्रासुर, दत्तात्रेय, शुक्राचार्य, (शुक्राचार्य का पुत्र) त्वष्टा, कार्तवीर्य सहस्त्रार्जून, रावण, (जीवन के पूर्वार्द्ध में विश्वामित्र भी) जैसे लोग सर्वप्रथम तान्त्रिक हुए।
वेदमार्ग में प्रवृत्ति मार्ग (वर्णाश्रम व्यवस्था) और निवृत्ति मार्ग की पुष्टि भी वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों-आरण्यकों-उपनिषदों के आख्यानों से होती है।
बादमें कुछ वेद विरोधी लोगों ने वैदिक निवृत्ति मार्ग को श्रमण परम्परा में परिवर्तित कर दिया। अवैदिक श्रमणों (जैन, बौद्ध और नाथों) नें तन्त्र मार्ग अपनाया। इन तान्त्रिकों नें मुर्तिपूजा आरम्भ की। ये लोग यक्षों को उपास्य मानकर, यक्ष- यक्षिणियों की पूजा-अर्चना करते हैं।
शंकर जी के शिष्य शुक्राचार्य थे। शुक्राचार्य जी ने शैवपन्थ चलाया। शंकरजी को संन्यासी मान कर शैवों में श्रमण परम्परा विकसित हुई। ये लोग शंकरजी को संन्यासी मानते हैं। शुक्राचार्य के पुत्र त्वष्टा ने शाक्त पन्थ की स्थापना शैव पन्थ की ही शाखा रूप में की। शाक्त पन्थ घोर तान्त्रिक पन्थ है। शाक्त पन्थ का मुख्य गड़ युनान के निकट क्रीट द्वीप रहा। फिर वहाँ से ही उत्तर पूर्वी भारत में और तिब्बत में और बाद में चीन तक फैला। गाणपत्य सम्प्रदाय और कार्तिकेय सम्प्रदाय शैवों की ही शाखा है। चन्द्रवंशियों में दत्तात्रेय ने घोर तान्त्रिक शाक्तपन्थ का प्रचार किया। दत्तात्रेय के शिष्य कार्तवीर्य सहस्त्रार्जून और रावण थे। इन लोगों ने पिशाचों और पिशाचीनियों की पूजा-अर्चना आरम्भ की।
सीरिया, मेसापोटामिया, असीरिया, बेबीलोन (इराक), सऊदी अरब,यमन, मिश्र, युनान, क्रीट, उत्तर अमेरिका महाद्वीप, दक्षिण अमेरिका महाद्वीप में मुर्तिपूजा पहले से प्रचलित थी। भारतीय तान्त्रिकों ने भी सीरिया, मेसापोटामिया, असीरिया, बेबीलोन (इराक), सऊदी अरब, यमन, मिश्र, युनान, क्रीट से मुर्ति पूजा सीखी थी।
मुर्तिपूजा और मन्दिर निर्माण सर्वप्रथम जैनों और फिर बौद्धों नें आरम्भ किया। फिर शाक्त और शैवपन्थी बाबाओं नें अपने आश्रमों में मुर्तियाँ रखना शुरू की जिससे उनके सनातनधर्मी अनुयायियों में मुर्तिपूजा प्रचलित हुई। सबसे अन्त में पुष्यमित्र शुङ्ग के बाद वैष्णवाचार्यों वें मुर्तिपूजा अपनाई। विशेषकर गुप्तकाल में मुर्तिपूजा का बहुत प्रचार हुआ। बहुत से मन्दिर बनाये गये।
चूँकि, मुर्तिपूजा का गड़ मध्य एशिया, पश्चिम एशिया, पूर्वी युरोप और मिश्र था इसलिए मुर्तिपूजा का विरोध भी इब्राहिम द्वारा मध्य एशिया और पश्चिम एशिया में ही आरम्भ किया। भारत में केवल तान्त्रिक लोग ही दबे छुपे अपने क्रियाकलाप करते थे और वैदिक इनके कट्टर विरोधी थे। इसलिए जब-तक मुर्तिपूजा का व्यापक चलन नहीं हुआ, तब तक विशेष विरोध भी नहीं हुआ। इब्राहिमी पन्थ अर्थात यहुदी, ईसाई और इस्लाम मत के आगमन तक यहाँ मुर्तिपूजा व्यापक स्तर पर प्रचलित हो गई थी। अतः इस्लाम के प्रभाव से कबीर पन्थियों और उनके ही अनुयाई नानक पन्थियों ने प्रथम बार मुर्तिपूजा विरोधी रुख अपनाया। बाद में सनातन धर्म में ही दयानन्द सरस्वती ने मुर्तिपूजा विरोध किया।
मुर्तिपूजा के दोष -
सर्वव्यापी को सीमित बतलाना। निराकार को आकार देना। परमात्मा को परम आत्म मानकर परमात्मा से प्रेम करनें के स्थान पर ईश्वर से डरो का प्रचार होना। परमात्मा के स्थान पर देवी-देवताओं को इष्ट मानकर अनेकानेक सम्प्रदायों में बँटना। और फिर अन्तर्विरोध, मनमुटाव, और द्वन्द उत्पन्न होना।
मन्दिर में देवता के सम्मुख भय मानकर सदाचारी रहना और मन्दिर के बाहर देवताओं की अनुपस्थिति मानकर निर्भिक होकर मनमाना दुराचरण, व्यभिचार करना। प्रतिमा भञ्जकों की कोई हानि न होते देख नास्तिकता का उदय होना और मुर्ति भञ्जकों का पन्थ अपनाना।आदि,-आदि।
जबसे सनातन धर्मियों नें वेदमार्ग के विरुद्ध जाकर तन्त्रोक्त मुर्तिपूजा अपनाई तभी से सनातन धर्म पतनोन्मुखी होगया। वर्ण व्यवस्था जातिप्रथा में बदल गई, गुरुकुल समाप्त हो गये। वेदों में अधिक से अधिक धनार्जन सामाजिक और राष्ट्रीय कर्तव्य बतलाया गया है। जबकि पौराणिक धनार्जन को गौण बतलानें लगे। वेदों में आताताइयों, आक्रमणकारियों को येन-केन प्रकारेण नष्ट करनें के निर्देश होनें और धनुर्विद्या/ धनुर्वेद को उपवेद कहनें वाले धर्म में- दुष्ट, आक्रमणकारियों द्वारा बचने के लिए पीठ दिखानें पर, गौ, ब्राह्मण, स्री, बालक, कमजोर को ढाल बनाकर छलने वालों को, शरणाङ्गत होनें वालों को अभयदान देनें का पाठ पढ़ाया जाने लगा। और बौद्धों और जैनों ने इसे अहिंसा से जोड़ दिया। जबकि यह अहिंसा नहीं आत्मघात है, राष्ट्रद्रोह है।
अब आप कहेंगे इन सबका मुर्ति पूजा से क्या सम्बन्ध?
इसका उत्तर है कि, मुर्तियो में ही भगवान देखने वाले, मुर्तियों को भगवान मानने वाले, मुर्तियों के सामने नाच गा कर भगवान को रीझानें वाले स्वयम् को भक्त कहने लगे। जबकि पञ्चमहायज्ञ, अष्टाङ्गयोग, आत्मज्ञान और मौक्ष पुरुषार्थ को स्वार्थ और गौण आराधना कहकर अपमानित करनें लगे।
मुर्तिपूजकों को उक्त अहिंसा इतनी रास आई कि, उन्होनें (मुर्तिपूजकों ने) युद्ध करना, युद्धकला, अस्श-शस्त्रार्थ संचालन सीखने और अभ्यास करनें हेतु आखेट को हिन्सा करार देकर निन्दनीय घोषित कर दिया।
मुर्ति पूजा समर्थकों ने पुराण रचकर इन्द्रादि वैदिक देवताओं और महाविज्ञानी ऋषियों को कामुक, ईर्ष्यालु, भीरु (डरपोक) घोषित कर दिया। जबकि वेदों में इन्द्र को जिष्णु, अजेय कहा है। ऋषियों को सदाचारी और व्रतधारी कहा है। पौराणिकों और मुर्तिपूजकों नें क्षत्रियों, राजा- महाराजाओं को मन्दिर निर्माण में संलग्न कर दिया और राष्ट्र रक्षा के कर्तव्य से विमुख कर दिया। परिणाम स्वरूप राजा- महाराजा रासरङ्ग में डुब गये।
मुर्ति पूजक तन्त्र मार्गियों के राष्ट्रद्रोह के कुछ उदाहरण --
महाराज नाबोवाहन ने पञ्जाब- हरियाणा के मालव प्रान्त से आकर (भोपाल के निकट सोनकच्छ से लगभग २० कि.मी. दर) गंधर्वपुरी को राजधानी बनाया था। बाद में नाबोवाहन के पुत्र गन्धर्वसेन गन्धर्वपुरी के राजा हुए। जिन्हें महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था। उनकी पत्नी सोम्यदर्शना थी जिनका अन्य नाम वीरमती था। गन्धर्वसेन के पुत्र राजा भृतहरि और विक्रमादित्य हुए। विक्रमादित्य ने ही शकों को पराजित कर विक्रम संवत चलाया था।
भृतहरि और विक्रमादित्य के पिता गन्धर्व पूरी के शासक गन्धर्वसेन कट्टर वेदिक धर्मावलम्बी और विष्णु भक्त थे। इस कारण जैन आचार्य महेसरा सूरी उनसे रुष्ट थे। जैन आचार्य महेसरा सूरी ने उज्जैन से अफगानिस्तान तक पैदल जाकर शक राजा/ कुषाण क्षत्रप के दरबार में गंधर्वसेन के विरुद्ध गुहार लगाई तथा गन्धर्वपपूरी और उज्जैन पर आक्रमण हेतु आमन्त्रित किया। शक शासक/ कुषाण क्षत्रप ने महाराज गन्धर्वसेन पर अनेक अत्याचार किये परिणाम स्वरूप गंधर्वसेन की मृत्यु जंगल में होगई। जैन ग्रन्थों में गन्धर्वसेन को गर्दभिल्ल, गदर्भ भिल्ल, गदर्भ वेश भी कहा गया है।
जैनाचार्य ने अफगानिस्तान तक पैदल यात्रा कर गन्धर्व पूरी के राजा गन्धर्व सेन पर आक्रमण करनें के लिए शकराज को आमन्त्रित कर देशद्रोह किया।
तान्त्रिकों ने गन्धर्व सेन के पुत्र भृतहरि की पत्नी को पथ भ्रष्टकर भृतहरि को पत्नी और संसार के प्रति घृणा भाव पैदा कर नाथ सम्प्रदाय में सम्मिलित करने की कुटिल चाल (तान्त्रिकों) ने चली।
बौद्धाचार्यों वें चन्द्रगुप्त द्वितीय के भाई रामगुप्त के विरुद्ध चीन के शकराज को उकसा कर आक्रमण का निमन्त्रण दिया और शकराज के विजयी होनें पर समझोते में रामगुप्त की पत्नी ध्रुव स्वामिनी को शकराज के हवाले करनें का दुष्ट समझोता करवाया। जिसे चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने असफल कर शकराज का वध किया।
इस प्रकार अपने राजाओं का विरोध, अपनें राजाओं को कमजोर करना, और अपने राज्य और राजाओं की कमजोरियाँ विदेशियों को बतलाना और उन्हें भारतीय राज्यों पर आक्रमण का निमन्त्रण देकर देशद्रोही कार्य किये।
मुर्तिपूजक तान्त्रिकों, पौराणिकों, जैनों, बौद्धों के द्वारा कमजोर किये गये राष्ट्र पर पारसियों, चीनियों, शक, हूण, बर्बर, और इब्राहिमी (ईसाई/ मुस्लिम) आक्रमणकारियों द्वारा विजित करना बहुत आसान हो गया।
भारत राष्ट्र और वैदिक धर्म को हानि पहूँचानें में मुर्तिपूजा के परम समर्थक तान्त्रिकों, पौराणिकों, जैनाचार्यों, बौद्धाचार्यों का भरपूर योगदान रहा।
इस प्रकार परहित को परम धर्म बतलाने वाले, सर्वव्यापी परमात्मा के उपासक धर्म में मुर्तिपूजा आ गई। और पञ्चमहायज्ञ, अष्टाङ्गयोग और आत्मज्ञान प्रधान मूल वैदिकधर्म को मूर्तिपूजक बना दिया।
फिर मुर्ति भञ्जकों द्वारा मुर्ति भञ्जन कर उनकी आस्था को चकनाचूर कर दिया। परिणाम स्वरूप वे इब्राहिमी ईसाई या मुसलमान बन गये।
आज पञ्चमहायज्ञ, अष्टाङ्गयोग और आत्मज्ञान प्रधान मूल वैदिक धर्मावलम्बी नगण्य ही बचे हैं। इतनी हानियाँ मुर्तिपूजा से हुई। क्या ये कम हैं?
अतः धार्मिक दृष्टि से मुर्तिपूजा को कहीँ से कहीँ तक उचित नहीं ठहराया जा सकता। सेवा ही उचित है।
पञ्चमहायज्ञ,अष्टाङ्गयोग और आत्मज्ञान पूर्वक सदा सर्वदा परमात्मा का स्मरण बनाते रखते हुए हर क्षण जगत की सेवा हेतु तत्पर रहना ही धर्म है।
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एक सुझाव आया है कि, पञ्चदेवोपासना तथा श्रीमत् शंकराचार्य महाभाग की मुर्तिपूजा पर प्रकाश डाला जाये।
भगवान आदि शंकराचार्य जी के उपदेशामृत से प्रभावित हो जैन मत त्याग कर वैदिक मत में लौटने वाले राजा सुधन्वा के ताम्रपत्र में अंकित उल्लेखानुसार के अनुसार शंकराचार्य जी का जन्म युधिष्ठिर संवत २६३१ में अर्थात ई. पू. ५०७ में हुआ एवम् देहत्याग युधिष्ठिर संवत २६६३ अर्थात ई. पू. ४७५ में हुआ। अर्थात आज के २५२८ से २४९६ वर्ष पूर्व का है जो शंकराचार्य जी का काल सनातन धर्म के आधार स्तम्भ वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद, उपवेद, वैदाङ्ग, तो ठीक षडदर्शन, रामायण से ही नही महाभारत और विष्णु पुराण तक की तुलना में अति आधुनिक है।
शंकराचार्य जी का स्वयम् का मुख्य लक्ष्य अद्वैत वेदान्त मत की स्थापना था। न कि, कर्मकाण्ड की पुनर्स्थापना। कर्मकाण्ड की पुनर्स्थापना का कार्य आचार्य कुमारिल भट्ट और उनके शिष्य मण्डन मिश्र कर रहे थे। जिनमें से आचार्य कुमारिल भट्ट तुषाराग्नि में प्रवेश कर चुके थे। और मण्डल मिश्र को शास्त्रार्थ में पराजित कर उनसे कर्मकाण्ड का त्याग करवा कर संन्यास की दीक्षा दे दी। इससे स्पष्ट है कि, पञ्चमहायज्ञ, अष्टाङ्ग योग, कर्मकाण्ड और आराधना-उपासना का महत्व शंकराचार्य जी की दृष्टि में गौण था एवम् मनुष्य के सोच-विचार, मानसिकता मुख्य थी। इसी को बदलना शंकराचार्य जी का लक्ष्य था। इसलिए योग, कर्मकाण्ड की क्रियाओं, आराधना-उपासना के क्षेत्र में प्रचलित परम्पराओं को यथावत रखते हुए, अद्वैत वेदान्त दर्शन अपनाने पर ही जोर दिया।
उस समय कई सम्प्रदाय प्रचलित थे। वे आपस में झगड़ते रहते थे, इसलिए शंकराचार्य जी ने मुख्यरूप से प्रचलित प्राचीन वैष्णव मत, सवितृ सावित्री या ब्रह्म सावित्री के रूप में वैदिक परम्परा का पौराणिक स्वरूप सौरमत और शैव मत को ही मुख्यता देते हुए तीन मतों को ही प्रधानता दी थी। किन्तु तान्त्रिकों को ध्यान रखते हुए शाक्त मत को भी स्वीकारना और बाद में महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु से गाणपत्यों को स्वीकरते हुए पञ्चदेवोपासना स्वीकारी। किसी एक को इष्ट मानकर शेष चारों को भी स सम्मान पूजना प्रचलित करवा दिया। उनके समय मुर्तिपूजा प्रतिष्ठित हो चुकी थी। बौद्धों और जैनों से पुनः वैदिक मत में आनें वालों को तो मुर्तिपूजा की लय लग चुकी थी। अस्तु उनको भी स्वीकारते हुए स्वयम् भी दाक्षिणात्य शैल पूजन विधि अपनाई।
अतः शंकराचार्य जी मुर्तिपूजा करते थे और शंकराचार्य जी ने पञ्चदेवोपासना प्रचलित की अस्तु यह कोई प्रमाण नहीं हो जाता।
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