बहू आत्म वाद शब्द और अनेक जीवों में ठीक वैसा ही अन्तर है जैसा बहूदेव वाद और सर्वव्यापी परमात्मा में।
वेदों के अनुसार ईशावास्यमिदम् सर्वम्।
सर्वखल्विदम् ब्रह्म।
जबकि, अज्ञानियों के मत में वेदों में बहूत से देवताओं की आराधना मतलब अनेंक ईश्वर मानना।
व्यक्तिगत स्वरूप प्रत्यगात्मा यानी अन्तरात्मा।
जिसकी आयु (जीवन) निश्चित है वह जीव। जिसके देह त्याग पर शरीर की मृत्यु हो जाती है।
जो बालक, कुमार, किशोर, युवा, अधेड़ वृद्धावस्था में परिवर्तनशील दिखता है वह शरीरी या देही या प्राण है।शरीर से जिसके निकलजाने पर वापसी भी सम्भव है। किन्तु जबतक शरीर में प्राण है तभीतक शारिरीक क्रियाएँ चलती है। शरीर में संज्ञान रहता है, शरीर सचेष्ट रहता है।
जबतक शरीर में ओज और तेज है तबतक शरीर में सक्रिय रहता है।
जबतक शरीर में चित्त स्थिर है, चित्त में तरङ्ग नही उठरही तबतक शरीर समाधिस्थ है।
जैसे ही तरङ्गे लहराने लगे/उठनें लगे जागृत कहलाता है।
तरङ्गे तो है, लेकिन ताल में है तो तन्द्रावस्था।
तरङ्गे बहूत मन्द मन्द हैं तो निन्द्रा /सुषुप्ति अवस्था। तरङ्गे बे तरतीब हो तो अशान्त चित्त होता है। विक्षिप्त कहलाता है।
केवल नापतोल आदि मापन का विश्लेषण कर बुद्धि चित्त को बतला देती है। चित्त जब तदाकार वृत्ति से तुलना कर निर्णय करता है कि, यह क्या है। तब, तदानुसार ओज निर्णय करता है कि, इसके प्रति क्या प्रतिक्रिया देना है और सिगनल तेज को भेजदेता है।
अहङ्कार उसमें मैं - मेरा जोड़ कर क्रियाओं का स्वरूप में तो कोई परिवर्तन नही करता। किन्तु क्रियाओं में अहन्ता - ममता (मैं-मेरा) जोड़कर क्रिया को कर्म में परिवर्तित कर देता है। कर्म के हेतु, आशय और उद्देश्य के अनुरूप संस्कार बनकर चित्त के स्वरूप में विकृति उत्पन्न करता है। जिसका प्रभाव देही (प्राण) पर भी पड़ता है। जीव के जन्म मृत्यु का कारण ये कर्म ही होते हैं।
मन उस कर्म के प्रति अपनें सङ्कल्प विकल्प तैयार कर अगली क्रियाओं के लिये मान्सिकता तैयार कर लेता है। जो रिप्लेस के रूप में प्रकट होती है।
तब मस्तिष्क की तन्त्रिकाएँ कर्मेन्द्रियों को व्यवहार करनें के सिगनल दे देती है। लेकिन चेहरे के हावभाव बदलदेता है जिससे देखनें वालों को वह क्रिया कर्म के रूप में समझ आनें लगती है।और वे तदनुसार प्रतिक्रिया करते हैं।
सभी तत्वों के कर्म निर्धारित हैं। वे क्रमानुसार अपने कर्म में प्रवृत्त होते रहते हैं।
इसी श्रंखला में जीव नामक तत्व का भी महत्व है। निर्धारित (जीवन) आयु जीव की ही विशेषता है। आयु की गणना मानव समय में करता है जबकि प्रकृति आयु गणना श्वाँसों की संख्या में करती है। इसी कारण प्राणायाम के फल स्वरूप धृति वृद्धि (प्राण की धारण करने की शक्ति में वृद्धि) होनें के परिणाम स्वरूप व्यक्ति दीर्घजीवी हो जाता है। यह तो तत्वों की कार्य प्रणाली होगई। अब मूल विषय पर आते हैं।
निसन्देह जितनी प्रत्यगात्माएँ है उतने ही जीव होंगे। क्योंकि, प्रत्यगात्मा का जीवभाव ही जीव के जीवन का कारण है। यदि प्रत्यगात्मा में (जीवभाव के बजाय) केवल प्रज्ञात्म भाव ही रहे तो सद्योमुक्त अवस्था में जीव की प्रारब्धवश निर्धारित आयु पर्यन्त देह धारण कर आयु समाप्त होने पर जीवादि तत्वों का अपनें कारण प्रत्गात्मा में लय होजाता है। और प्रत्यगात्मा भी अपनें कारण प्रज्ञात्मा में लीन हो जाता है। अतः पूनर्जन्म की परम्परा का लोप हो जाता है।
प्रज्ञात्मा तो विश्वात्मा में लीन रहती ही है। केवल प्रत्यगात्मा के कारण दृष्टाभाव से प्रत्यगात्मा के साथ रहते हुए भी (जल में कमल के समान) असङ्ग ही रहती है।
अतः अनेक जीव प्रज्ञात्मा की कल्पना (कल्प) मात्र है। यथार्थ नही। केवल हमें यथार्थ प्रतीत होता है, लगता है पर वास्तविक अस्तित्व नही है।
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