1 त्रीस्कन्द ज्योतिष का मूल भाग तो सिद्धान्त ज्योतिष ही था। उसके दो भाग गणिताध्याय और दुसरा गोलाध्याय थे।तथा तिसरा स्कन्द संहिता था। जिसके प्रमाण हर वेद सहिंताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों,उपवेद, वेदाङ्ग, शुल्बसुत्रों, स्मृतियों, रामायण, महाभारत, और पुराणों में बिखरे पड़े हैं।
किन्तु होराशास्त्र के सुत्र कहीँ देखनें में नही आये। तो त्रिस्कन्द ज्योतिष में होरा कैसे आ गया यह समझ नही आया।
2 वराहमिहिर नें स्वीकार किया है कि, होरा और ताजिक यवनों की देन है।
अवकहड़ा चक्र, कुण्डली के भावों की संख्या और भावों की संज्ञा से यह बात प्रमाणित भी होती है। ताजिक तो पूर्णतः इराक की ही खोज लगता है। किन्तु सेडरल ईयर से जोड़नें की खोज निस्संदेह भारतीय ही है। यदि जातक होराशास्त्र भारतीय होता तो कुण्डली में 28 भाव होते। बारह भाव कदापि नही होते।
3 फलित करनें वालों को मूलतः देवज्ञ कहा जाता है। इसमें मूलतः सामुद्रिक शास्त्र के प्रमाण ही प्राचीन शास्त्रों में पाये जाते हैं। और दुसरा शकुन शास्त्र के प्रमाण मिलते हैं। होराशास्त्र के प्रमाण नही मिलते।
ज्योतिषी शब्द प्रचलन बहुत अर्वाचीन है। फलित विद्या या देवज्ञान में सामुद्रिक, शकुन के अलावा अंकविद्या,रमल होराशास्त्र के अन्तर्गत जातक,ताजिक, प्रश्न कुण्डली प्रचलित हैं। पर फलित विद्या बहुत अर्वाचीन है।
4 व्यंकटेश बापजी केतकर के पहले भारत में प्रचलित किसी भी सिद्धान्त ग्रन्थ के गति, लम्बन आदि के शुद्धमान और स्थिरांक (ज्योतिष की भाषा में ध्रुवे) से ग्रहगणित या सुर्य ग्रहण, चन्द्र ग्रहण, लोप - दर्शन, अगस्तोदय जैसे तारों के उदय अस्त की शुद्ध गणना सम्भव ही नही है। सुर्य केन्द्र के वसन्त सम्पात पर होनें की गणना हेतु ट्रोपिकल ईयर का शुद्धमान (ध्रुवा) आवश्यक है। किन्तु पुरानें किसी सिद्धान्त ग्रन्थ में एकदम शुद्धमान उपलब्ध नही है।
सुर्य के स्पष्ट भोगांश और स्पष्ट क्रान्ति के बिना चरान्तर ज्ञात नही हो सकता। और चरान्तर के बिना सुर्योदयास्त गणना भी नही हो सकती थी।
5 ग्रहण की भविष्यवाणी के आधार पर होरा शास्त्र को प्रामाणिक ठहराने का तर्क निश्चित ही सोशल मिडिया की ही खोज होगी। सोशल मिडिया में ऐसे ऐसे बे सिर-पेरके तर्क दिये जाते हैं। अतः ध्यान देनें योग्य और विचारणीय तर्क नही
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