पतञ्जलि योगदर्शन की प्राचीनता।
जैसा कि, महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण नें अर्जुन के प्रति कहा है कि, यह (बुद्धियोग) योग मेने सृष्टि के आदि में सुर्य के प्रति कहा था, सुर्य ने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को कहा था।
मतलब वैवस्वत मन्वन्तर के आरम्भ में योग मूल स्वरूप में उपलब्ध था। उसके बीज या सुत्र वेदिक संहिताओं और ब्राह्मणारण्यकोपनिषदों में उपलब्ध हैं।
रामायण में राम भरत मिलाप प्रसङ्ग में श्रीराम जाबालि के उपदेश को को नास्तिक बौद्धमत बतलाते हैं। इसके पहले बौद्धमत का या नास्तिक मत का उल्लेख नही मिलता है।
हाँ शंकर भगवान, त्वष्टा आदित्य के पुत्र विश्वरूप, शुक्राचार्य, शुक्रपुत्र त्वष्टा, अत्रिपुत्र दत्तात्रय, कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन और रावण नामक तन्त्राचार्य हो चुके थे। चूँकि तन्त्र वेद विरोधी मत था और तत्कालीन बौद्ध तन्त्रमत के थे ही यह तो निर्विवाद है।
सम्भवतया इन्ही में से किसी निवृत्ति मार्गी श्रमण दत्तसम्प्रदाय के शैवमताचार्य के द्वारा शुष्क बुद्धिवाद, तर्कवाद और सन्देहवादी दर्शन प्रस्तुत किया होगा जो कालान्तर में बौद्धमत कहलाया।
इनमें भी मत भिन्नताएँ उभरी जिसमें से एक
सन्देहवादी मध्यम मार्गी मत बौद्ध कहलाया। इसी परम्परा में सिद्धार्थ गोतम बुद्ध हुए। जिनके जन्म के समय में ही ज्योतिषियों नें उनके बुद्ध होनें की सफल भविष्यवाणी की थी।और
दुसरा यक्ष उपासक शुद्ध नास्तिक अर्हत वादी श्रमण मत श्रीकृष्ण के भाई नेमिनाथ, शान्तिनाथ और पारसनाथ द्वारा संगठित होकर महावीर के समय जैन मत कहलाया।
मतलब आज के नौ- दसलाख वर्ष पूर्व श्रीराम युग के आसन्न में ही बौद्धमत आरम्भ हुआ। और उसीमें से अलग होकर श्रीकृष्ण के आसन्नपूर्व पाँच छः हजार वर्ष पूर्व जैनमत आरम्भ हुआ।
बौद्ध और जैनों की परम्परा के बीज तो सनातन परम्परा से ही विकसित हुए थे।इसलिए उसमें और सनातन धर्म में बहुत अधिक अन्तर नही पाया जाता है।
महर्षि पतञ्जलि बौद्ध और जैन परम्परा के उदय कछ बाद में हुए होंगे इसमें कोई सन्देह नही किन्तु गोतम बुद्ध और महावीर के पहले हुए होंगे। क्योंकि, कोषितकि उपनिषद में इनका उल्लेख है। और सुत्रात्मक शैली के षडदर्शन गोतम बुद्ध और महावीर के पहले के ही हैं।
जैसे महर्षि कपिल के पहले ईश्वरकृष्ण की सांखकारिका के रूप में सांख्य दर्शन मौजूद था, गोतम बुद्ध के पहले बौद्ध दर्शन मौजूद था और महावीर के पहले जैन दर्शन मौजूद था। ऐसे ही पूर्व प्रचलित योगदर्शन को पतञ्जलि ने उनके समय प्रचलित सुत्रात्मक शैली में प्रस्तुत किया। किन्तु इसमें जैन और बौद्धों का कोई प्रथक प्रभाव दृष्टिगोचर नही होता। जिन्हें जैन बौद्ध परम्परा माना गया वे सनातन धर्म की ही देन है।
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