बुधवार, 26 मई 2021

धार्मिक पतन, सांस्कृतिक पतन, दुराचरण / भ्रष्टाचार का सुत्रपात का इतिहास।

*धार्मिक पतन, सांस्कृतिक पतन,  दुराचरण / भ्रष्टाचार का सुत्रपात* 

 *देव, मानव, गन्धर्व, किन्नर,सूर, असूर, दैत्य, दानव,, यक्ष,और  राक्षस जाति का वास स्थान --* 

 *देवभूमि* ---उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, कश्मीर, लद्दाख,  सिक्किम, तिब्बत, तजाकिस्तान, किर्गिस्तान, दक्षिण पूर्वी उज़्बेकिस्तान का ताशकन्द, समरकन्द क्षेत्र,, पूर्वी तुर्कमेनिस्तान, अफगानिस्तान का काबुल क्षेत्र, पाकिस्तान का इस्लामाबाद के उत्तर का भाग स्वर्ग कहलाता था। और यहाँ तकनीकी रूप से अत्यन्त उन्नत देवतागण रहते थे।जिनमे मुख्य 1 प्रजापति - सरस्वती, 2 इन्द्र - शचि, 3 अग्नि -स्वाहा, 4अर्यमा (पितरः) - स्वधा, 5 शिवशंकर -  सतिउमा, और 6 धर्म - और उनकी तेरह पत्नियाँ (1श्रद्धा, 2 लक्ष्मी, 3 धृति, 4 तुष्टि,5 पुष्टि, 6 बुद्ध , 7 मेधा, 8 क्रिया, 9 लज्जा, 10 शान्ति, 11 सिद्धि, 12 किर्ती , 13 वपु  ये दक्ष कन्याएँ है।) 
 7  देवर्षि नारद के अलावा 
8 द्वादश आदित्य -- 1विष्णु , 2 सवितृ , 3 त्वष्टा,  4  इन्द्र, 5  वरुण, 6  पूषा 7 विवस्वान,  8 धातृ,  9  भग, 10 अर्यमा,  11 मित्र  12 अंशु।
 9अष्ट वसु --- 1प्रभास, 2  प्रत्युष, 3 धर्म, 4  ध्रुव, 5 सोम , 6  अनल, 7 अनिल और  8 आपः।
और 10 एकादश रुद्र --- 1शंकर , 2 त्र्यम्बक, 3 हर, 4 वृषाकपि, 5 कपर्दी, 6  अपराजित, 7 रैवत्, 8 बहुरूप, 9 अजैकपात्,10 अहिर्बुध्न्य,11 कपाली।
और 11 कुबेर - का निवास है।
( सुचना ---इनमें से 33 देवता  स्वर्गाधिकारी  है। ⤵️
1 प्रजापति - सरस्वती, 2 इन्द्र - शचि,3विष्णु आदित्य , 4 सवितृ आदित्य , 5 त्वष्टा आदित्य, 6 इन्द्र आदित्य,   7 मित्र आदित्य, 8 वरुण आदित्य, 9  पूषा आदित्य  10 विवस्वान आदित्य,  11 धातृ आदित्य,12 भग आदित्य, 13 अर्यमाआदित्य  14 अंशु आदित्य और 15 प्रभासवसु, 16  प्रत्युषवसु, 17 धर्म वसु, 18 ध्रुव वसु, 19 सोम वसु, 20  अनल वसु,21 अनिल वसु 22 आपः वसु और  23 शंकर , 24 त्र्यम्बक, 25 हर, 26 वृषाकपि, 27 कपर्दी, 28  अपराजित, 29  रैवत्, 30 बहुरूप, 31 अजैकपात्,32 अहिर्बुध्न्य,33 कपाली। )

 *किन्नर देश* --- किन्नोर (उत्तराखण्ड -भारत)

 *ब्रह्मर्षि देश* --- हरियाणा पञ्जाब के कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पाञ्चाली, और शूरसेनक क्षेत्र  ब्रह्मर्षि देश कहलाता था। ब्रह्मर्षि देश के निवासी 
 1 दक्ष-प्रसुति 2 रुचि-आकुति, 3 कर्दम - देवहूति (ये तीनो स्वायम्भुव मनु की पुत्री हैंं),  4 मरीचि- सम्भूति, 5भृगु- ख्याति, 6अङ्गिरा - स्मृति, 7 वशिष्ठ- ऊर्ज्जा, 8 अत्रि - अनसूया, 9 पुलह -क्षमा, 10 पुलस्य - प्रीति, 11 कृतु - सन्तति।  (ये क्रमांक 4 से 11 तक आठ ब्रह्मर्षि हुए इनकी पत्नियाँ दक्ष कन्याएँ हैं।)।
 *मानव देश* --- 
क *स्वायम्भुव मनु और मनुर्भरत देश* ---पञ्जाब, सिन्ध, बलुचिस्तान, उत्तरपश्चिम सीमा प्रान्त, अफगानिस्तान ,राजस्थान, गुजरात, उत्तर
 प्रदेश और उत्तरी मध्यप्रदेश में 1 स्वायभ्भुव मनु - शतरूपा और उनकी सन्तान  2 प्रियवृत -कर्दम की पुत्री ,   -> 3 आग्नीध्र -  (जम्बूद्वीप नरेश),  -> अजनाभ या नाभि - मरुदेवी (हिमवर्ष का नाम अजनाभ वर्ष  रखा अतः नाभीवर्ष नरेश कहाये), -> ऋषभदेव -  (नाभीवर्ष), -> भरत चक्रवर्ती -  (जड़ भरत) ( नाभीवर्ष का नामभारत वर्ष  किया), -> सुमति -> इन्द्रधुम्न्य, - > परमेष्ठी -> प्रतिहार -> प्रतिहर्ता -> भव, -> उद्गीथ, -> अतिसमर्थ  प्रस्ताव,  -> पृथु,  -> नक्त, ->  गय -> नर और विराट, -> महावीर्य ,-> धीमान, -> महान्त, -> मनन्यु, -> त्वष्टा, -> विरज, -> रज, -> शतजित, -> विध्वरज्योति की सन्तान मनुर्भरत का निवास स्थान है। 
ख *वैवस्वत मनु* --- कश्मीर, उत्तर प्रदेश, उत्तरी और पूर्वी मध्य प्रदेश बिहार, बङ्गाल, उड़िसा,

 *गन्धर्व - अप्सरा देश* --- सिन्ध,बलुचिस्तान और अफगानिस्तान, 

 *सूर देश* ---मेसापोटामिया विशेषकर सीरिया,
असूर देश --- मेसापोटामिया  विशेषकर असीरिया (इराक)
दैत्य देश --- मेसापोटामिया विशेषकर बेबीलोनिया  (इराक) तथा  मिश्र, स्वेज,इज्राइल,जोर्डन और लेबनान ,  
दानव देश ---बुल्गारिया,रोमानिया, हङ्गरी, स्लावाकिया (प्राग), 
 *राक्षस देश* ---अफ्रीका महाद्वीप, आष्ट्रेलिया महाद्वीप, उत्तर अमेरिका महाद्वीप और दक्षिण अमेरिका महाद्वीप के निग्रो लोगों का देश

हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने  *अधर्म और हिन्सा का वास नर्क में* रखा *था* ।किन्तु धीरे धीरे *कैसे वह त्रिलोकव्यापी होगया* इसका रोचक *विवरण* प्रस्तुत है।⤵️

देवताओं में धार्मिक पतन, सांस्कृतिक पतन,  दुराचरण / भ्रष्टाचार का सुत्रपात त्वष्टा पुत्र विश्वरूप ने किया। ---
 देवताओं के पुरोहित रहते असुरों के लिए आहुति और यज्ञभाग देकर त्वष्टा पुत्र *विश्वरूप नें अधर्म का सुत्रपात* किया।
यही भ्रष्ट आचरण का प्रथम उदाहरण बना। राजधर्म निर्वाह कर  इन्द्र द्वारा विश्वरूप का वध किया। इससे रुष्ट त्वष्टा ने दूसरा पुत्र वत्रासुर उत्पन्न किया। विश्वरूप के अनुज वत्रासुर ने आतंकी गतिविधियों का सुत्रपात किया। यहाँ से आतंक का अभ्युदय हुआ।
वत्रासुर ने जल संसाधनों पर कब्जा कर लिया। जल आपूर्ति रोक दी। विवश होकर इन्द्र को वत्र का भी वध करना पड़ा।

फिर देवताओं ने भृगु पुत्र शुक्राचार्य को पुरोहित बनाया।    *शुक्राचार्य नें भी* पुरोहित रहते हुए *विश्वरूप का अनुसरण* कर असुरों के लिए आहुति और यज्ञभाग देकर वही गलती दुहराई।
विवश हो देवताओं को शुक्राचार्य को छोड़कर पुनः *अङ्गिरा पुत्र ब्रहस्पति को ही पुरोहित बनाना पड़ा। तब जाकर भ्रष्टाचार रुका।* 
देवताओं द्वारा शुक्राचार्य से पौरोहित्य छिन कर उनके प्रतिद्वंद्वी ब्रहस्पति को पुरोहित बनाने से *शुक्राचार्य नें रुष्ट होकर अपने पुत्र त्वष्टा के साथ मिलकर अथर्वाङ्गिरस ऋषि  अथर्ववेद की क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त कर उसके आधार पर नवीन पन्थ तन्त्रमार्ग की खोज की। शुक्राचार्य के पुत्र ने युनान के पास क्रीट नामक द्वीप  में शाक्तपन्थ की स्थापना की।* 

उधर इराक में मेसोपोटामिया,असीरिया, बेबीलोनिया  क्षेत्र में दैत्यराज *कश्यप दिति पुत्र हिरण्याक्ष था*। ब्रहस्पति और देवताओं के प्रति द्वेष रखने के कारण *शुक्राचार्य ने असुरों को भड़का कर शुक्राचार्य के आदेशानुसार हिरण्याक्ष ने भूमि पर अपना आतंक स्थापित किया।* अन्ततः  वराह द्वारा उसके वध कर भूमि को अत्याचारों से मुक्त कराया।  
हिरण्याक्ष के अनुज **हिरण्यकशिपु ने पुनः* भूमण्डल पर *आतंक* का साम्राज्य *स्थापित किया* । *नृसिह द्वारा हिरण्यकशिपु का वध* करने पर एक पीढ़ी तक प्रहलाद के शासन में शान्ति रही। किन्तु प्रहलाद के पुत्र *विरोचन* ने पुनः भारत के उत्तरी भाग के देवताओं से भिड़न्त हो गई। इन्द्र को विरोचन का भी वध करना पड़ा। विरोचन का पुत्र बलि फोनेशिया लेबनान के राजा था।  विरोचन का उत्तराधिकार बलि को मिला। बलि  शुक्राचार्य का प्रिय शिश्य था। *शुक्राचार्य के निर्देश पर  विरोचन ने फिर आतंक मचाया। उसने भारत में केरल तक अधिकार कर लिया।* और केरल में एक बड़ा *तान्त्रिक अनुष्ठान कर रहा था* तभी वामन ने  बलि से तीन पग भूमि माँग ली। शुक्राचार्य द्वारा विरोध करने पर भी बलि ने वामन को तीन पग भूमि का दान कर दिया। *वामन नें तीन पग में बलि का सम्पूर्ण साम्राज्य माप लिया और बलि को  दक्षिण अमेरिका में बोलिविया पहूँचा दिया। तब कई केरल वासी और अन्य दक्षिण भारतीय भी बलि के साथ बोलिविया गये।* ये सिन्ध, ईरान, इराक, टर्की, होते हुए पहले लेबनान गये। बीच मे बहुत लुटमार, चोरी-डकेती करते हुए पहले लेबनान पहूँचे। वहाँ से कुछ अफ्रीका के दास लेकर बोलिविया गये।

चुँकि, बलि ने शुक्राचार्य की आज्ञा की अवहेलना कर वामन को तीनपग भूमि दान दी थी। इसकारण शुक्राचार्य बलि से रुष्ट होनें के कारण बलि के साथ नही गये।
 
*शुक्राचार्य नें दानवी नदी (डेन्यूब नदी) के तट पर जर्मनी,आस्ट्रिया, हङ्गरी, स्लावाकिया, रोमानिया, बुल्गारिया और युक्रेन  के दानवों के राजा वृषपर्वा का पौरोहित्य स्वीकारा। दानवों नें शुक्राचार्य के शिष्य इन्द्रपुत्र कच की हत्या कर शुक्राचार्य को मदिरा पान करवा कर छल पूर्वक कच का मान्स खिला दिया। शुक्राचार्य को उनकी पुत्री देवयानी द्वारा जानकारी देने पर शुक्राचार्य नें कच को मृतसंजीवनी विद्या सिखाकर पेट से बाहर निकाला। फिर कच नें शुक्राचार्य का मृतसंजीवनी विद्या से उपचार कर जीवनदान दिया।* 
*इस घटना से रुष्ट होकर रुष्ट होकर शुक्राचार्य  ने दानवों का साथ छोड़कर दिया*

*अत्रि के पुत्र चन्द्रमा नें ब्रहस्पति की पत्नी तारा का हरण कर बुध को जन्म दिया। बुध नें वैवस्वत मनु की पुत्री ईला से विवाह कर एल पुरुरवा को जन्म दिया। पुरुरवा नें इराक के तेल अल मुकाय्यार के उर शहर की अप्सरा और इन्द्र की नर्तकी उर्वशी से  अल्पसमय के लिए संविदा विवाह (मूता निकाह) कर उससे आयु (आदम) को जन्म दिया। किन्तु जन्म देकर पुत्र आयु (आदम) को पुरुरवा के पास छोड़कर उर्वशी वापस इन्द्र के दरबार में चली गई। पुरुरवा ने आयु (आदम) को दक्षिण पूर्वी टर्की के युफ्रेटिस घाँटि में ईलाझी शहर में अदन वाटिका में अकेले ही पाला। पुरुरवा के समय राजा के देवीय अधिकार और राजा को ईश्वर माननें की अवधारणा विकसित हुई।*
*प्रजा पुरुरवा को ईश्वर मानने लगी थी। इस कारण सीरिया के सूर एल पुरुरवा के विरोधी हो गये। सीरिया के सुरेश के निर्देश पर सुरसा पुत्र एक नागवंशी ने आयु (आदम) को भड़का दिया। आयु आदम ने एल पुरुरवा के आदेश के विरुद्ध बुद्धि वृक्ष का फल पकने से पहले ही तोड़़कर कच्चा फल ही खा लिया। पुरुरवा ने नाराज होकर   आयु को अदन वाटिका के पूर्वीद्वार से एक गुब्बारे में बिठाकर निकाल दिया।*
*आयु हवा के सहारे  सिंहल द्वीप के श्रीपाद पर्वत शिखर पर उतरा। वहाँ श्रीपाद पर्वत पर आयु (आदम ) के लंक यानी पैर के पञ्जे के चिह्न बन गये। इसलिए सिहलद्वीप को श्रीलंका कहने लगे। वहाँ से 48 कि.मी. के उथले तट (आदम सेतु) से भारत आकर केरल से नाविकों के सहयोग से वापस टर्की पहूँचा। तबतक पुरुरवा भी बुढ़ा हो गया था। अतः  वापस लोटने पर पुत्र को अपना लिया।*
*आयु के वंशज नहुष (न्युहु) के समय जल प्रलय हो गया।मत्स्य देश के महामत्स्य की भविष्यवाणी के आधार महापर मत्स्य की सहायता से  नहुष एक नाव में बैठकर अन्य जीव जन्तुओं और कुछ मानवों सहित जीवित हिमालय स्थित स्वर्ग पहुँच गया। किन्तु ऋषि देश के सप्तर्षियों से पालकी उठवाकर पुरन्दर इन्द्र की पत्नी शचि से विवाह करनें पहूँच रहा था कि, सप्तर्षियों के शाप से वापस उसके देश को लौटादिया। किन्तु वह टर्की तक नही पहूँच पाया और सऊदी अरब में ही अटक गया।*

*शुक्राचार्य ने टर्की से सऊदी अरब तक के नहुष के वंशज राजा ययाति (इब्राहिम) को  शिक्षित किया साथ ही सऊदी अरब में काव्य नगर में काबा का शिव मन्दिर स्थापित किया। उसके बाद अफ्रीका महाद्वीप में  सुडान को केन्द्र बना कर शैव पन्थ का प्रचार किया।* 
*आयु (आदम) के वंशज  ययाति (इब्राहिम) ने मानवों में आसुरी मत को अपनाया। बुध और ईला के पुत्र एल को ईश्वर घोषित कर शिवाई / शिवाई पन्थ बनाया जिसका प्रथम प्रचारक स्वयम् ययाति (इब्राहिम) होगया।* 
*ययाति (इब्राहिम) के वंशजों, और शिष्यों ने शिवाई (शैव) मत को आगे बड़ाया।*

*अत्रिपुत्र दत्तात्रय ने विश्वरूप की परम्परा को पुनर्जीवित किया और शुक्राचार्य का तन्त्रमत अपनाया और अष्टाङ्गयोग को हटयोग में परिवर्तित कर दिया।* 
*भारत में मण्डला में यदुवंशी कार्तवीर्य सहस्त्रार्जून और लक्ष्यद्वीप में लंकापति रावण को अपना शिष्य बनाया।* 
*कार्तवीर्य सहस्त्रार्जून नें पूरे राज्य में मदिरालय खुलवाये। मान्साहार, मदिरापान, व्यभिचार को वैध कर दिया। यही स्थिति रावण की भी थी। वह स्वयम् परम दुराचारी था। रावण नें भी समस्त दुराचारों को वैध घोषित कर दिया। अन्त में परशुराम जी ने कार्तवीर्य सहस्त्रार्जून का वध करना पड़ा। और रावण का वध श्री राम को करना पड़ा।*

*मानवों में विश्वावसु नें वशिष्ठ जी की प्रतिस्पर्धा में क्रियाओं, कर्मकाण्डों के माध्यम से अधर्म सुत्रपात किया। यहीँ से मानवों में अधर्म और भ्रष्टाचार का सुत्रपात हुआ।*
*राजा विश्वावसु वशिष्ठ के प्रभाव से पराभूत होने के पश्चात राज्य शक्ति को तुच्छ मानकर राज्य त्याग कर कठोर तपस्या कर ब्रह्मर्षि पद पाकर वशिष्ठ के समतुल्य होने का प्रयत्न करनें लगे।*
*इसी धून में वे पौरोहित्य कर्म में अवेदिक और वेद विरुद्ध प्रयोगों के माध्यम से असम्भव माने जाने वाले लक्ष्य प्राप्ति का प्रयत्न करने लगे। उनने वेदिक  क्रियाओं में तन्त्र का समावेश करने की भूल की।जिसका प्रभाव कल्पसुत्रों में परिलक्षित होता है।बाद में समझ आनें पर गलतियों का प्रायश्चित भी किया। किन्तु एक नई परम्परा सृजित होचुकी थी।*वर्तमान में जो आगम प्रचलित हैं, तथा निबन्धकारों नें  सर्वतोभद्र चक्र में योगिनियों, असुरों को जो स्थान दिया है वह उसी का परिणाम है।*
*वेदिक काल मेंशास्त्रीय कर्मों में सायन सौर वर्ष तथा सायन मास और संक्रान्ति गतांश प्रचलित थे। साथ ही लोक प्रचलित सावन वर्ष प्रचलित था जिसे  अधिक मास करके एक यज्ञ सत्र में सायन सौर संवत्सर से मिला दिया जाता था।  आज यह वेदिक संवत्सर पारसियों में ही प्रचलित है। भारत सरकार ने परिवर्तन के साथ शकाब्द के साथ पुनः लागू किया है।
 किन्तु ऋषि विश्वामित्र जी द्वा्रा ज्योतिष वेदाङ्ग में नक्षत्रीय पद्यति को निरयन गणना में परिवर्तित कर दिया।  नाक्षत्रिय वर्ष का निरयन सौर संवत्सर  विश्वामित्र ऋषि की ही खोज है। जो  वर्तमान में  पञ्जाब, उड़िसा, बंगाल, केरल, तमिलनाड़ु में प्रचलित है। विक्रमादित्य ने भी विक्रम संवत में इसी निरयन सौर संवत्सर और निरयन सौर संक्रान्ति से मासारम्भ एवम् संक्रान्ति गत दिवस (गते) का ही प्रचलित रखा था। तब से सायन सौर संवत विलुप्त हो गया था।
महाराज नाबोवाहन ने पञ्जाब- हरियाणा के मालव प्रान्त से आकर (भोपाल के निकट सोनकच्छ से लगभग २० कि.मी. दर) गंधर्वपुरी को राजधानी बनाया था। बाद में नाबोवाहन के पुत्र गन्धर्वसेन गन्धर्वपुरी के राजा हुए। जिन्हें महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था। उनकी पत्नी सोम्यदर्शना थी जिनका अन्य नाम वीरमती था।

भृतहरि और विक्रमादित्य के पिता गन्धर्व पूरी के शासक  गन्धर्वसेन कट्टर वेदिक धर्मावलम्बी और विष्णु भक्त थे। इस कारण जैन आचार्य महेसरा सूरी उनसे रुष्ट थे। जैन आचार्य महेसरा सूरी ने अफगानिस्तान तक पैदल जाकर शक राजा/ कुषाण क्षत्रप के दरबार में गंधर्वसेन के विरुद्ध गुहार लगाई तथा उज्जैन पर आक्रमण हेतु आमन्त्रित किया। शक शासक/ कुषाण क्षत्रप ने महाराज गन्धर्वसेन पर अनेक अत्याचार किये परिणाम स्वरूप गंधर्वसेन की मृत्यु जंगल में होगई। जैन ग्रन्थों में गन्धर्वसेन को गर्दभिल्ल, गदर्भ भिल्ल, गदर्भ वेश भी कहा गया है।
जैनाचार्य ने अफगानिस्तान तक पैदल यात्रा कर गन्धर्व पूरी के राजा गन्धर्व सेन पर आक्रमण करनें के लिए शकराज को आमन्त्रित किया। गन्धर्व सेन के पुत्र भृतहरि की पत्नी को पर भ्रष्टकर भृतहरि को नाथ सम्प्रदाय में सम्मिलित करने की कुटिल चाल तान्त्रिकों ने चली। बौद्धाचार्यों वें चन्द्रगुप्त द्वितीय के भाई रामगुप्त के विरुद्ध चीन के शकराज को समर्थन दिया और समझोते में रामगुप्त की पत्नी ध्रुव स्वामिनी को शकराज के हवाले करनें का दुष्ट समझोता करवाया। जिसे चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने असफल कर शकराज का वध किया।
 विक्रम संवत 135 में कुषाण वंशी कनिष्क  द्वारा राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, में  शक संवत और निरयन सौर संवत से संस्कारित चान्द्र वर्ष लागू किया और गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश में सातवाहन वंशी शालिवाहन  गोतमीपुत्र सातकर्णी द्वारा  निरयन सौर संस्कारित चान्द्र पञ्चाङ्ग के शकाब्ध लागु किया। 
किन्तु  (बाद में महर्षि विश्वामित्र बने) राजा विश्वावसु की निरयन सौर गणना पूरे भारत पर हावी होगई। यहाँ तक कि, वेदिक और पौराणिक प्रमाण होनें के बावजुद भी जन सामान्य सायन गणना को विदेशी मान बैठा है। और इराक, मिश्र और चीन की चान्द्र वर्ष गणना को , सप्ताह के वारों को और घण्टा मिनट को भारतीय मानता है। Hour (घण्टा) के लिये  तो होरा शब्द बना लिया पर मिनट सेकण्ड के लिए कोई शब्द भारतीय भाषाओं में नही है।
ऐसे ही भारतीय जनता ने मध्य रात्रि में वार बदलना और दिन बदलना मान लिया।
धर्म में यह भ्रष्टाचार की सीमा होगई।

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