0 वेदों का उपदेश सबके लिए समान है चाहे वह वर्णाश्रमी हो या श्रमण हो, आस्तिक हो नास्तिक हो, या तान्त्रिक हो। देवोपासक सनातन धर्मी हो या असुरोपासक पैशाच धर्मी हो;
वेदों में सबके लिए समभाव से एक समान एक ही ज्ञान है।
इसी कारण पूर्वमिमान्सा दर्शन अनिश्वरवादी आस्तिक (वेदमार्गी) दर्शन कहलाता है। सांख्य दर्शन और वैशेषिक दर्शन भी आस्तिक दर्शन हैं पर पूर्ण ईश्वरवादी नही है।
1 सभी उपनिषद ईशावास्योपनिषद के एक,दो या कुछ मन्त्रों की ही व्याख्या करते हैं।ईशावास्योपनिषद में प्रथम दो मन्त्रों में मुख्य चार बातें कही गई है। शेष सोलह मन्त्रों मे इनकी ही विवेचना की गई है ऐसा भी जा सकता है।
1 ईशावास्यम् इदम् सर्वम, यत्किञ्च जगत्याम् जगत।
अर्थात सर्वखल्विदम् ब्रह्म, प्रज्ञानम् ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म, तत् त्वम्असि (तत्वमसि), अहम् ब्रह्मास्मि,
इस जगत में जो कुछ है सबकुछ परमात्मा ही है। उसके अतिरिक्त कुछ भी नही है।
2 तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा ।
उसे त्याग पूर्वक भोग करो।
वास्तविक अस्तित्व केवल परमात्मा का ही है और जगत का वास्तविक अस्तित्व नही है अतः इसी त्याग भाव से जगत में रहो।
मा गृधः कस्यस्वीधनम् ।
किसी के धन का लोभ मत करो। क्योंकि, मूलतः यह जगत है ही नही। जो दृष्याभास है वह भी तभी तक है जब तक इस आभास का सृजक हिरण्यगर्भ ब्रह्मा स्वयम् जाग्रत रहता है। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का दिन समाप्त होते ही उसकी रात्रि में यह आभास भी लुप्त हो जायेगा। जब यह जगत अपनें सृजेता की भी केवल कल्पना मात्र में है। तो तुम्हारा हमारा वास्तव में कैसे हो सकता है। अतः किसीचीज से लगाव मत रखो।
पराई चीज को अपना मानना, अपना होनें की इच्छा रखना चोरी है। अतः लोभ मत करो।
कुर्वनैवेह कर्माणि..
कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीवित रहनें की इच्छा करें। इसको छोड़कर कोई उपाय नही है जिससे तुझे कर्म का लेप न हो।
अकर्मण्य भी नही रहा जा सकता वह सम्भव ही नही है कर्म फल निश्चित है अतः फलाशा भी व्यर्थ ही है।
अतः सदैव ध्यान रखें कि, मै परमात्मा का हूँ।केवल परमात्मा ही मेरे हैं। अतः अविरत यह बात स्मरण रहे। परमात्मा ही सदैव ध्यान में रहे।
और ये देहेन्र्द्रिय मन,अहंकार, बुद्धि, चित्त ,तेज, ओज आदि सब जगत के ही भाग हैं। अतः इन्हे हर घड़ि, हरपल पूर्ण रूपेण जगत की सेवा में लगादो।
ये जगत इसकी वस्तुएँ आपसे असम्बद्ध हैं अतः इनके सुख दुःख की चिन्ता आपको नही करना है इनके सुख दुःख से भी आपका कोई सम्बन्ध नही है। इनको तो केवल शास्त्रोक्त विधि से शास्त्रोक्त कर्मों में लगाये रखो। बस।
2 जिस समय श्रीमद्भगवद्गीतोपदेश हुआ उसके ठीक उसी स्थान पर आनेवाले दुसरे ही दिन से ठीक उसी ढंग से व्युह रचकर वास्तविक युद्ध लड़ा जाने के युद्धाभ्यास हेतु तैयार खड़ी दोनो सेनाओं के बीच खड़े होकर श्रीकृष्ण नें जिज्ञासु अर्जुन को दिया गया। क्योंकि, अर्जून ने युद्ध भूमि में युद्ध करने से इन्कार कर दिया। धर्मयुद्ध के मुख्य सेनानायक अर्जुन को युद्ध के लिए वापस दमखम से तैयार करनें के लिए ईशावास्योपनिषद के द्वितीय मन्त्र कुर्वन्नेवेह कुरमाणि...के आधार पर मन्त्र की सबविधि से व्याख्या कर श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश दिया गया था।
अतः वहाँ श्रीकृष्ण का उद्देश्य और मुख्य ध्येय केवल युद्ध में उपस्थित बाधा दूर कर अर्जुन को युद्ध में क्षत्रीय निष्ठापूर्वक तत्परता से युद्ध के लिए खड़ा करना ही था। ध्यान रखें निष्काम कर्मयोगशास्त्र, सांख्ययोग या अद्वैत वेदान्त, भेदाभेद वेदान्त, या विशिष्ठाद्वैत वेदान्त या शुद्धाद्वैत वेदान्त का कोई प्रामाणिक ग्रन्थ रचने के उद्देश्य से श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश नही दिया गया था।।
3 श्रीमद्भगवद्गीता भी में द्वितीय अध्याय के आरम्भ में ही श्रीकृष्ण नें अर्जून से किसी भी मत की अपेक्षा नही रखी। प्रत्यैक दर्शन की दृष्टि से उसे युद्ध करना ही कर्तव्य कर्म (कार्यकर्म) है केवल यही सिद्ध किया है।
अतः श्रीमद्भगवद्गीता का मुख्य विषय धर्म पुरुषार्थ है न कि, मौक्ष पुरुषार्थ।
4 धर्म मिमान्सा के अन्तर्गत श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन को स्पष्टतः समझाया गया है कि,
क्या किया जाये? क्या नही करना चाहिए?
कोई भी कर्तव्य कर्म (कार्य कर्म) क्या सोचकर किया जाये और क्या समझकर कर्म किया जाये?
क्या सोच और क्या समझकर अकर्तव्य कर्म (अकार्य) न किया जावे?
यही मुख्य विवेचन है। न कि, केवल मौक्ष पुरुषार्थ।
5 अतः श्रीमद्भगवद्गीता में योगदर्शन को अधिक महत्व दिया है। योग दर्शन के पाँच यम और पाँच नियम में से पाँचवा और अन्तिम निमय ईश्वर प्रणिधान है। इसी कारण श्रीकृष्ण ने ईश्वरप्रणिधान पर भी पर्याप्त जोर दिया। किन्तु उसे ध्यैयवाक्य नही बतलाया है। ध्यैय वाक्य कर्मण्येवाधिकारस्तेव मा फलेशु कदाचन बतलाया है।
6 अतः श्रीमद्भगवद्गीता भी ईश्वरवादी तो है। पर उसका मुख्य सिद्धान्त शास्त्रोक्त विधि से,यज्ञार्थ शास्त्रोक्त कर्म ही करना है। शास्त्रविरुद्ध कर्म और शास्त्र विधि के विरुद्ध कर्म पूर्ण निषिद्ध मानें हैं।
7 अतः श्रीमद्भगवद्गीता में योग दर्शनोक्त यम नियमों और मनुसमृति में उल्लेखित धृति सहित दस धर्मलक्षणों को मुख्यता प्रदान की है।अहिन्सा सत्य (सत्यवचन, सदविचार,सदाचार, सदाशयता, सत्याग्रह,), अस्तेय ,निर्लोभत्व, ब्रह्मश्चर्य अपरिग्रह , शोच , सन्तोष , तप , तितिक्षा ,ईश्वरप्रणिधान , धृति , दया, करुणा भाव रखना ये धर्म लक्षण हैं,पञ्च महायज्ञ ,1 ब्रह्मयज्ञ, अष्टाङ योगाभ्यास, , 2देवयज्ञ,3 भूतयज्ञ , 4 नृयज्ञ,5 पित्रयज्ञ करना आदि विशेष महत्वपूर्ण मान्यता है।
8 अतः श्रीमद्भगवद्गीता में ब्रह्मसुत्रों अर्थात उपनिषदों की पुष्टि की है लेकिन बादरायण कृत शारीरक सुत्रों (ब्रह्मसुत्र) की व्याख्या करना या पूष्टि करना इष्ट नही है।
9 अतः वेदों के प्रति आस्तिकवाद या नास्तिकवाद, योग दर्शन या सांख्य दर्शन को महत्ता देने, योग या ज्ञान या भक्ति में किसको महत्ता दी गई सर्वप्रथम इन वाद विवादों को अलग रखकर ही श्रीमद्भगवद्गीता का अध्ययन करें। क्योंकि, युद्धकाल में ये विषय अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए कहीं गई है; न कि, इनको सिद्ध करनें या इन मतों की पुष्टि करने हेतु।
10 श्रीमद्भगवद्गीता का मुख्य विषय धर्मपालन पूर्वक जीवन का उपदेश है। और इसी धर्म पालन के रूप में अर्जुन के समक्ष उपस्थित धर्मयुद्ध का निष्ठापूर्वक निर्वहन के लिए ही विचलित मनःस्थिति वाले अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन की विभिन्न जिज्ञासाओं का समाधान कर विवेक को प्राधान्य देकर , निश्चयात्मिका बुद्धि से मन पर नियन्त्रण करने और, मनोवाक्कायकर्मभि सदाचारी होकर, शास्त्रोक्त कर्म शास्त्रोक्त विधि से ही यज्ञार्थ ही कर्म करने का उपदेश करते हैं और उपस्थित कर्तव्य को प्राथमिकता देने का ही धर्मोपदेश देते है।
11 मौक्ष पुरुषार्थ तक पहूँचने के लिए धर्म पुरुषार्थ, अर्थ पुरुषार्थ, काम पुरुषार्थ सभी सीढ़ियों (स्टेप्स) के समान सहयोगी है, न कि, बाधक । किन्तु आवश्यक है शास्त्रोक्त विधि अनुसार शास्त्रोक्त मर्यादा में ही रह कर केवल यज्ञार्थ कर्म ही करना ताकि, कर्म का लेप न हो।
12 ध्यान रहे पुरुषार्थ शब्द का तात्पर्य पुरुष के लिए होता है न कि, पौरुष या पुरुष द्वारा किया जानेवाला कर्म। लोग भ्रमवश पुरुषार्थ का अर्थ पौरुष या पुरुष द्वारा किया जानेवाला कर्म लगाते हैं जबकि, पुरुषार्थ का वास्तविक अर्थ प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) पुरुष के लिये होता है।
13 जैसे यहाँ प्रत्यगात्मा और पुरुष दो शास्त्रीय शब्द आये। प्रत्यगात्मा मतलब सबकी व्यक्तिगत अन्तरात्मा और पुरुष मतलब व्यक्ति का नीज स्वरूप जिससे वे प्रथक प्रथक पहचान रखते हैं। जबकि परमात्मा, विश्वात्मा , प्रज्ञात्मा सार्वभौम है व्यक्तिगत नही।
ऐसे उपस्थित तथ्यों का स्पष्टीकरण करनें के कारण श्रीमद्भगवद्गीता में अध्यात्म विषय पर चर्चा का समावेश हुआ है। क्योंकि, सिद्धान्त समझाये बिना धर्म का तत्व समझ में नही आता। किन्तु ये सब विवरण सहायक के रूप में है मुख्य उद्देश्य को ध्यान में रखते भगवान बारम्बार अर्जुन से आग्रह करते हैं कि, इसलिए है अर्जुन युद्ध के लिए तैयार होजा और उठकर युद्ध कर।" ये वचन प्रायः हर एक अध्याय में आया है।
14 यहाँ यह भ्रम उपस्थित हो सकता है कि, अलग अलग धर्माचार्यों नें श्रीमद्भगवद्गीता का उद्देश्य ज्ञान, वैराग्य, निष्काम कर्म, या भक्ति को ही निरुपित किया है। यह तो किसी नें नही कहा कि, शास्त्रोक्त विधि से ही शास्त्रोक्त कर्म अर्थात यज्ञ के लिए यज्ञ करने का ही उपदेश दिया है।
इसका स्पष्टीकरण यह है कि, हर एक सम्प्रदाय के आचार्य को ऐसे जन समुह को समाधान देना था जो पूर्वकाल में बौद्ध या जैन मत में परिवर्तित हो चुके थे। अधिकांश जन नास्तिक और बौद्ध जैन आचार विचार, मध्यम मार्ग, या घोर तप लङ्घन रूप व्रतोपवास अपना चुके थे, तान्त्रिकों से अत्यधिक प्रभावित हो चुके थे और तान्त्रिक अनुष्ठानों से ही सुख समृद्धि प्राप्त करना जीवन का अन्तिम ध्यैय, जीवनचर्या और जीवन दर्शन बन चुके थे। जिसका प्रभाव आजतक है।
उन्ही आचार्यों के शिष्य आज भी गुरुपरम्परा का निर्वहन करनें को बाध्य है।
किन्तु वे ही आचार्य आजके नास्तिक, विश्वव्यापी ईसाई नैतिकता के सिद्धान्तों, इस्लामी कट्टरता का समाधान करनें करवाने में असमर्थ हैं। लोग अपना धर्म संस्कृति छोड़ रहे हैं। क्योंकि, धर्माचरण की शिक्षा उन्हें कहीँ नही मिली। कुछ इस्कॉन के भक्ति आन्दोलन को ही चरम लक्ष्य मान बैठे तो कुछ साई को नारियल प्रसाद, भेंट देकर अपना काम निकालने को ही धर्म मान बैठे। अस्तु,
15 अब बतलाया जायेगा कि, श्रीमद्भगवद्गीता में मानव जीवन के विषय में क्या दिशा निर्देश दिये गये हैं। धर्मयुक्त जीवन कैसे जीया जाए। आगे इसी विषय पर चर्चा होगी।
धर्म क्या है। -- मनुसमृति एवम याज्ञवल्क्य स्मृति, विदुर नीति, श्रीमद्भागवत महापुराण और योगदर्शन ने धर्म के जो लक्षण बतलाये हैं, योग दर्शन नें भी जो यम नियम बतलाये हैं उसके अनुसार धर्म यह है--
अहिन्सा (सबसे अपने समान ही प्रेम करना), सत्य (सत्यवचन, सदविचार,सदाचार, सदाशयता, सत्याग्रह,), अस्तेय (निर्लोभत्व पराईवस्तु के प्रति अनाकर्षण), ब्रह्मश्चर्य (ब्रह्म की ओर चलना, वेदमार्ग पर चलना, वर्णाश्रम धर्म पालन, वीर्य रक्षण), अपरिग्रह (सर्वजन हिताय संग्रह को छोड़ भविष्य में स्वयम् के उपयोग हेतु संग्रह वृत्ति का अभाव), शोच (मनोवाकाय,कर्मर्भि स्वच्छता, शुद्धता, पवित्रता), सन्तोष (ईश्वर के दिये और दुसरों द्वारा अपनें लिए किये में पूर्ण सन्तुष्ट रहना किनतु, अध्ययन, सेवा, परहित कार्म , त्याग तपस्या में अधिकतम करनें का उत्साह होना), तप (स्वधर्म पालन में सदैव अहोरात्र तत्परता, धर्मपालन के लिए, परहित में, परदूःख कातरता में आये कष्टों को महत्व ही नही देना तितिक्षा),ईश्वरप्रणिधान (अनन्य भाव से ईश्वराश्रित होना, सम्पूर्ण समर्पण, स्व का पूर्ण त्याग , स्वाहा भाव),, धृति (धारण शक्ति, धैर्य, ध्रूव / स्थैर्य होना, दृढ़ता होना।), दया, करुणा भाव रखना ये धर्म लक्षण हैं, यज्ञ (परमार्थ/ परम के लिए कर्म, अपनी कमाई में से पहले सबको उनका भाग सोंपकर शेष का ही उपभोग करना। ब्रह्मयज्ञ(अष्टाङ योगाभ्यास, और अध्ययन अध्यापन), देवयज्ञ(अग्निहोत्र, जप), भूतयज्ञ (पेड़ पौधे, जीव जन्तुओं की निष्काम सेवा सुश्रुषा), नृयज्ञ / अतिधि,बालको, अबलाओं, वृद्धों, रोगियों, अशक्तो की निष्काम सेवा सुश्रुषा) पित्रयज्ञ (पूर्वजों के प्रति श्रद्धाभाव रखते हुए उनके बचे प्रोजेक्ट पूर्ण करना, उनके सत्कार्यों को आगे बड़ाना, उनका मानप्रतिष्ठा संवर्धन हेतु लोकोपकारी कार्य करना।)
16 नित्य का हम सबका अनुभव है कि,उक्त विधि धर्म पालन में किसी का मन नही लगता। तो फिर श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार ऐसे धर्मपालन में मन रम जाये इसका उपाय क्या है। उसमें बाधाएँ क्या है, उन्हे कैसे दूर किया जाये। और शास्त्रोक्त कर्म शास्त्रविधि से ही किया जाना है तो ऐसा तो कोई शास्त्र नही जिसमेँ सभी कर्तव्यकर्म और उनकी विधि लिखी हो। तो कैसे निर्धारित करें कि, कर्तव्यकर्म (कार्यकर्म) क्या है। और निषिद्ध कर्म (विकर्म) और अकार्य क्या है। तथा कार्य कर्म करते हुए कर्म में अकर्म देखना कैसे सम्भव है। तथा अकर्म (कर्मेन्द्रियों द्वारा न करते हुए भी मन से उस कर्म का चिन्तन करना) को कर्म कैसे समझना।
17 उक्त सब प्रश्नो का उत्तर और समस्याओं का समाधान केवल श्रीमद्भगवद्गीता में ही दिया गया है। अतः श्रीमद्भगवद्गीता को कर्मयोगशास्त्र कहा गया है।
18 अब हम श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय और श्लोक संख्या दर्शाते हुए उक्त प्रश्नो के हल खोजेंगे। ⤵️
*मन को वश में करनें का उपाय*
*भूमिका में स्थित प्रज्ञ लक्षण*
श्रीमदभगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 54 से 59 तक।
54- प्रश्न --अर्जुन ने पूछा--
हे केशव स्थितप्रज्ञ की भाषा क्या होती है? स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है? वजगत में) कैसा रहता है? कैसे व्यवहार करता है? स्थितप्रज्ञ के क्या लक्षण हैं?
उत्तर -- भगवान बोले
55 - मनोगत सम्पूर्ण कामनाओं का त्यागी ,अपने आप में ही सन्तुष पुरुष स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
56 - दुःखो से उद्विग्न नही होने वाला, सुखों में निस्पह अनुकूलता की इच्छा रहित और प्रतिकूलता से द्वेष रहित निर्भय, क्रोध रहित, मौन (शान्तचित्त) स्थिरबुद्धि कहलाता है।
57-- जो सर्वत्र स्नेह (लगाव) रहित, हुआ उन शुभाशुभ (फलों) को प्राप्त होकर न अभिनन्दन करता है न द्वेष करता है उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है।
अर्थात अनूकूल परिस्थिति आने पर अतिप्रसन्नता पूर्वक उछलता नही और प्रतिकूलता आने पर विशाद नही करता वह स्थितप्रज्ञ है ।
58 - जैसे कछुआ अपने सभीअंङ्गों कोसब (ओर से) समेट लेता है वैसे ही जो समस्त इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों (शब्द, स्पर्ष, रूप, रस और गन्ध) का संहार कर देता है उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है।
59 -- इन्द्रियों के विषयों को इन्द्रयों से ग्रहण न करनें वाले निराहार देही (प्राणी) (हटयोगी) के भी केवल विषयों से तो निवृत्ति हो जाती है पर इन्द्रियों से विषयों को हटालेने पर भी मन से रस लेना नही छूटता। आत्मसाक्षात्कार कर लेने पर ही (उस) परम दृष्टा पुरुष के विषयों के (प्रति लगाव और) रस से भी निवृत्ति होजाती है।
*अब आते हैं मूल विषय मन पर नियन्त्रण पर।*
*श्रीमदभगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 60-61*
*60-- हे कुन्तीपुत्र!(अनेक प्रकार से) यथार्थ तत्व को अच्छी तरह जानने वाले विवेकी पुरुष (विपश्चितः) द्वारा अनेक यत्न करने पर भी प्रमथन स्वभाव वाली मथ देने वाली ये इन्द्रियाँ मन को बल पू्वक जबर्जस्ती (प्रसभम्) हर लेती है।*
61 -- जिसकी इन्द्रियाँ वश में है वही स्थितप्रज्ञ है। उन सभी इन्द्रियों को संयमित करके मेरे परायण होजा।
*(आगे विशेष निर्देश किया हे कि, --*
*केवल इन्द्रिय जय होना ही पर्याप्त नही है बल्कि ईश्वर प्रणिधान भी आवश्यक है। क्योकि, यदि ईश्वरार्पण नही हुआ तो --)*
*मूल प्रश्न भाग 1 इन्द्रियाँ और मन वश में क्यों नही होती का उत्तर तो मिल गया। अब*
*मूल प्रश्न भाग 2 इन्द्रियों और मन को वश में कैसे करें का उत्तर --*
*श्रीमदभगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 62*
62 -- *विषयों का ध्यान करनें वाले पुरुष को (उन) विषयों से सङ्ग (आसक्ति) उत्पन्न हो जाता है। विषयों के संङ्ग (लगाव) होने पर (उन विषयों की) कामना उत्पन्न हो जाती है। उन विषयों की कामना होने पर उन विषयों की प्राप्ति में विघ्न पड़नें पर क्रोध उत्पन्न होता है।*
अर्थात -- विषयों के चिन्तन, मनन करने, लगातार स्मरण रखनें वाले पुरुष को उन विषयों से लगाव हो जाता है। विषयों से लगाव होजाने पर उन विषयों को प्राप्त करनें की इच्छा उत्पन्न हो जाती है। उन विषयों की प्राप्ति में बाधा पड़नें पर क्रोध उत्पन्न होता है।
63 -- *क्रोध से सम्मोह उत्पन्न होता है। सम्मोह से स्मृतिविभ्रम हो जाता है स्मृतिविभ्रम से बुद्धिनाश हो जाता है। बुद्धिनाश से नष्ट हो जाता है।*
अर्थात -- क्रोध से *मूढ़भाव* होजाता है।सही को गलत समझने और गलत को सही समझने लगता है। सम्मोह / मूढ़ भाव याददाश्त में भ्रम पड़ जाता है। अतः निर्णायक क्षमता समाप्त हो जाती है।) स्मृतिविभ्रम से कुछ भी समझ पड़ना बन्द हो जाता है। बुद्धिनाश से अपनी नष्ट हो जाता है। गिर जाता है।
64 -- *परन्तु अपने अन्तःकरणों को स्वयम् के अधीन करने वाला विधेयात्मा रागद्वेष रहित होकर अपने वश में की हुई इन्द्रियों के विषयों में विचरता हुआ ईश्वरीय कृपा को प्राप्त होता है।*
65 -- *प्रसाद (ईश्वर की कृपा से) से सब दुःखों समाप्त हो जाते हैं और प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि भँलीभाँति स्थिर हो जाती है।*
66 -- *अयुक्त की (जो योगस्थ नही हुआ हो/ परमात्मा में तल्लीन न हो उसे) बुद्धि (प्रज्ञा) नही होती, अयुक्त में भावना भी नही होती; भावनहीन को शान्ति नही मिलती, अशान्त को सुख कहाँ (मिल सकता है)।*
67 -- *जैसे जल वायु नाव को हर लेती है।वैसे ही इन्द्रियों में विचरता हुआ मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, उस इन्द्रिय से युक्त मन वाले की प्रज्ञा (बुद्धि) को हर लेती है।*
68 -- *हे महाबाहो ! जिस पुरूष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषय से सब प्रकार निग्रह की हुई है उसी की प्रज्ञा (बुद्धि) स्थिर है।*
शेष 69 से 72 तक के श्लोकों में स्थितिप्रज्ञ की विशेषताओं का वर्णन है।
श्रीमद्भगवद्गीता 3/9 *यज्ञ के लिए कर्मों के अतिरिक्त कर्म ही बांधने वाले हैं।*
3/10 *प्रजापति का प्रजाओं को रचकर दिया यज्ञ का उपदेश।ही निष्कामता का वास्तविक स्वरूप है।*
3/17 *इसके विरुद्ध आचरण ही पाप है।*
3/36 *अर्जुन का प्रश्न मन पाप में क्यों प्रेरित होता है।*
3/37 *रजोगुण से उत्पन्न काम ही क्रोध है। यही पाप में लगाता है। इसे ही वैरी जान।*
3/40 *इन्द्रियाँ, मन , बुद्धि इसके वास स्थान हैं।*
*मन को वश में करनें का उपाय* --
श्रीमद्भगवद्गीता 06/35
हे महाबाहो । *निस्सन्देह मन चञ्चल (और) कठिनाई से निग्रह होने वाला है (नियन्त्रण या वश में करनें में कठिन है।); परन्तु है कून्तिपुत्र (यह) अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है। (अभ्यास और वैराग्य से हीकाबू मे या कब्जे में आता है)।* 06/35
【 *यहाँ अभ्यास से तात्पर्य भगवत्प्राप्ति के लिये भगवान के नाम और गुणों का भजन, कीर्तन,श्रवण,मनन, चिन्तन तथा श्वास के द्वारा जप (प्राणायाम पूर्वक जप), और भगवत्प्राप्ति विषयक शास्त्रों का पठन - पाठन इत्यादिक चेष्ठाओं से है।* 】
श्रीमद्भगवद्गीता 12/09
हे अर्जुन! *यदि (तु) चित्त को समाधि में (चित्त को सम करनें मे) (चित्त को) मुझमे स्थिर समर्थ नही है, तो अभ्यास योग से मुझको प्राप्त करनें की इच्छा कर।* 12/09
(इस युद्धकाल में तु इतना भी कुछ करनें में भी असमर्थ हैं उनके लिए भी उपाय है।-- --श्रीमद्भगवद्गीता 12/10 एवम् 11 में बतलाये हैं। वे उपाय आभासकाल में कियेजाने योग्य है। महत्व श्रीमद्भगवद्गीता 12/12 में बतलाया है। किन्तु भक्तिमार्गियों नें बस इसी को आधार बना लिया है। जबकि सदाचार का कोई विकल्प है ही नही।)
श्रीमद्भगवद्गीता 6/36
*जिसका मन वश में किया हुआ नही है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्राप्य है। और वश में किये हुए मन वाले प्रयत्न शील पुरूष द्वारा साधन से (उसका) प्राप्त होना सहज है - ऐसा मेरा मत है।* 6/36
श्रीमद्भगवद्गीता 12/08
*(निश्चयात्मिका बुद्धि द्वारा) मन को (दृढ़तापूर्वक) मुझमें ही स्थिर कर, बुद्धि को मुझमें ही लगा इसके उपरान्त (तु) मुझमें ही स्थित हो जायेगा अर्थात मुझमें ही तेरा वास होगा या तु मुझमें ही निवास करेगा।(इसमें कुछ भी) संशय नही है / सन्देह नही है।* 12/08
अतः इन्द्रियों को मन के वश में, मन को बुद्धि के वश में। बुद्धि को स्थिर रखते हुए निश्चयात्मिका बुद्धि से चित्त को सम कर (समाधि में) स्थित रहने से तेज और ओज वर्धन होगा। चित्त को तेज से अभिभूत कर ओज में स्थित करने से धृति वर्धन होगा। धृति वृद्धि से धीरबुद्धि होगा। इसके बाद ही यज्ञ में स्वाहा और समर्पण की सार्थकता होगी।
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