हमें दुनिया से ईश्वर से सबसे बहुत सी अपेक्षाएँऔर शिकायतें हैं।
एक तरफा अन्तर्मुखी होना और अति बहिर्मुखी होना दोनों ही अति बुरे हैं।
केवल यह ध्यान रखो कि, हम क्या कर रहे हैं। हमारे कर्म अन्य पर क्या प्रभाव डालेंगे यह सावधानी भी आवश्यक है।जितना दोष बुरे कार्य करनें में है उतना ही दोष पर दोष दर्शन में भी है।
दुसरों से जो अपेक्षा है। अन्यों की उन्ही अपेक्षाओं को पुर्ण करनें की तत्परता पैदा करो। दूसरों से जो शिकायत है हमारी वही शिकायत दुसरे न कर पाये इसके लिये सावधान रहो।
वेदिक साहित्य, स्वामी रामसुखदासजी महाराज की गीता प्रबोधनी टीका पढ़ो।
सनातन धर्म के अनुसार ईश्वर किसी स्थान विशेष पर बैठकर शासन करनें वाला अधिनायक व्यक्ति नही है यानी ईश्वर कोई तानाशाह नही है। ईश्वरीय संविधान ऋत कहलाता है। ऋत के अनुसार ही सृष्टि संचालन हो रहा है। इसका कर्ता ईश्वर नही अतः वह भोक्ता भी नही है। जैसे लाल, हर और बैंगनी (वायलेट) रंगों का काम्बिनेशन ही समस्त रंगों मे दिख रहा है वैसे ही जड़ प्रकृति के सत्व रज और तम ये तीन गुणों के काम्बिनेशन से जगत की समस्त क्रियाएँ हो रही है। जैसे सुर्य उदय होनें पर संसार सक्रीय होजाता है। कमल खिल जाते हैं कुमुदनी मुरझा जाती है। हारसिंगार (पारिजात) पुष्प झर जाते हैं। हम उठकर काम धन्धे से लग जाते हैं। इसमें सुर्य का न कोई कर्तापन है न कोई गुण दोष है। वही स्थिति ईश्वर के होनें मात्र से प्रकृति के तीनों गुण परस्पर सक्रीय रहते हुए समस्त क्रियाएँ करते रहते हैं। इसमें कोई कर्ता नही है। किन्तु प्रकृति के इन गुणों की सक्रियता के परिणामों को मेनें किया ऐसा भ्रम पाल लेते हैं तब उसी मिथ्या अहंकार का फल दुःख सुख रुपी भ्रम पाल कर हम प्रसन्न या दुखी होते रहते हैं।
इसमें ईश्वर या प्रकृति कोई उत्तरदायी धही है। हम प्रकृति विरुद्ध आचरण कर अस्वस्थ होते हैं, फिर अप्राकृतिक चिकित्सा करवा कर और नई समस्याएँ मोल ले लेते हैं। फिर उनका अप्राकृतिक निवारण कर और नवीन रोग पैदा कर लेते हैं इसमें दोषी कौन?
ध्यान रखो पानी पीकर हम प्यास बुझाते है, जो आग के सामनें या धूप में बैठकर हम गरमी पाते हैं इन नगण्य समझीजानें वाली बातों के पीछे पीढ़ियों का अनुसन्धान और विकास है जो हमें अब ये सहज उपलब्ध है। वैसे ही सामाजिक दुराचरण भी पीढ़ियों की अनुशासन हीनता का ही परिणाम और विकास है। इन्हें वापस प्राकृतिक व्यवस्था लानें में हमारे सहित कई पीढ़ियों के सावधानी पुर्वक सामुहिक सक्रिय योगदान से ही सफलता मिलपायेगी।
जिस प्रकार भारत का शासन प्रशासन संविधान के द्वारा संचालित होता है। न श्री मनमोहन सिंह नामक व्यक्ति हमारे शासक थे न श्री नरेन्द्र मोदी नामक व्यक्ति हमारे शासक हैं। हमपर हमारा ही शासन है क्यों कि इन दोनों को हमनें ही चुना है। हमारा संविधान भी हमनें ही बनाया और हमनें ही आत्मार्पित किया है। ठीक यही लोकतांत्रिक व्यवस्था सृष्टि के शासन में भी है।
हमारे देश के कानून यदि हम ही नही मानेंगे और फिर उसके दुष्परिणाम का दोष शासन को देंगें तो विरोधी विदेशी सत्ताएँ उसका लाभ उठाकर हमपर नियन्त्रण और अधिकार करनें के लिये उनका दुरूपयोग करेगी ही।
वैसे ही प्राकृतिक अनुशासन से बाहर जाकर भी हम दुशासन के नियन्त्रण को स्वयम् आव्हान करते हैंं। कोई अन्य दोषी नही है।
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