सोमवार, 31 मई 2021

धार्मिक पतन, सांस्कृतिक पतन, दुराचरण / भ्रष्टाचार का सुत्रपात का इतिहास।

धार्मिक पतन, सांस्कृतिक पतन, दुराचरण / भ्रष्टाचार का सुत्रपात का इतिहास।
*धार्मिक पतन, सांस्कृतिक पतन,  दुराचरण / भ्रष्टाचार का सुत्रपात* 

 *देव, मानव, गन्धर्व, किन्नर,सूर, असूर, दैत्य, दानव,, यक्ष,और  राक्षस जाति का वास स्थान --* 

 *देवभूमि* ---उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, कश्मीर, लद्दाख,  सिक्किम, तिब्बत, तजाकिस्तान, किर्गिस्तान, दक्षिण पूर्वी उज़्बेकिस्तान का ताशकन्द, समरकन्द क्षेत्र,, पूर्वी तुर्कमेनिस्तान, अफगानिस्तान का काबुल क्षेत्र, पाकिस्तान का इस्लामाबाद के उत्तर का भाग स्वर्ग कहलाता था। और यहाँ तकनीकी रूप से अत्यन्त उन्नत देवतागण रहते थे।जिनमे मुख्य 1 प्रजापति - सरस्वती, 2 इन्द्र - शचि, 3 अग्नि -स्वाहा, 4अर्यमा (पितरः) - स्वधा, 5 शिवशंकर -  सतिउमा, और 6 धर्म - और उनकी तेरह पत्नियाँ (1श्रद्धा, 2 लक्ष्मी, 3 धृति, 4 तुष्टि,5 पुष्टि, 6 बुद्ध , 7 मेधा, 8 क्रिया, 9 लज्जा, 10 शान्ति, 11 सिद्धि, 12 किर्ती , 13 वपु  ये दक्ष कन्याएँ है।) 
 7  देवर्षि नारद के अलावा 
8 द्वादश आदित्य -- 1विष्णु , 2 सवितृ , 3 त्वष्टा,  4  इन्द्र, 5  वरुण, 6  पूषा 7 विवस्वान,  8 धातृ,  9  भग, 10 अर्यमा,  11 मित्र  12 अंशु।
 9अष्ट वसु --- 1प्रभास, 2  प्रत्युष, 3 धर्म, 4  ध्रुव, 5 सोम , 6  अनल, 7 अनिल और  8 आपः।
और 10 एकादश रुद्र --- 1शंकर , 2 त्र्यम्बक, 3 हर, 4 वृषाकपि, 5 कपर्दी, 6  अपराजित, 7 रैवत्, 8 बहुरूप, 9 अजैकपात्,10 अहिर्बुध्न्य,11 कपाली।
और 11 कुबेर - का निवास है।
( सुचना ---इनमें से 33 देवता  स्वर्गाधिकारी  है। ⤵️
1 प्रजापति - सरस्वती, 2 इन्द्र - शचि,3विष्णु आदित्य , 4 सवितृ आदित्य , 5 त्वष्टा आदित्य, 6 इन्द्र आदित्य,   7 मित्र आदित्य, 8 वरुण आदित्य, 9  पूषा आदित्य  10 विवस्वान आदित्य,  11 धातृ आदित्य,12 भग आदित्य, 13 अर्यमाआदित्य  14 अंशु आदित्य और 15 प्रभासवसु, 16  प्रत्युषवसु, 17 धर्म वसु, 18 ध्रुव वसु, 19 सोम वसु, 20  अनल वसु,21 अनिल वसु 22 आपः वसु और  23 शंकर , 24 त्र्यम्बक, 25 हर, 26 वृषाकपि, 27 कपर्दी, 28  अपराजित, 29  रैवत्, 30 बहुरूप, 31 अजैकपात्,32 अहिर्बुध्न्य,33 कपाली। )

 *किन्नर देश* --- किन्नोर (उत्तराखण्ड -भारत)

 *ब्रह्मर्षि देश* --- हरियाणा पञ्जाब के कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पाञ्चाली, और शूरसेनक क्षेत्र  ब्रह्मर्षि देश कहलाता था। ब्रह्मर्षि देश के निवासी 
 1 दक्ष-प्रसुति 2 रुचि-आकुति, 3 कर्दम - देवहूति (ये तीनो स्वायम्भुव मनु की पुत्री हैंं),  4 मरीचि- सम्भूति, 5भृगु- ख्याति, 6अङ्गिरा - स्मृति, 7 वशिष्ठ- ऊर्ज्जा, 8 अत्रि - अनसूया, 9 पुलह -क्षमा, 10 पुलस्य - प्रीति, 11 कृतु - सन्तति।  (ये क्रमांक 4 से 11 तक आठ ब्रह्मर्षि हुए इनकी पत्नियाँ दक्ष कन्याएँ हैं।)।
 *मानव देश* --- 
क *स्वायम्भुव मनु और मनुर्भरत देश* ---पञ्जाब, सिन्ध, बलुचिस्तान, उत्तरपश्चिम सीमा प्रान्त, अफगानिस्तान ,राजस्थान, गुजरात, उत्तर
 प्रदेश और उत्तरी मध्यप्रदेश में 1 स्वायभ्भुव मनु - शतरूपा और उनकी सन्तान  2 प्रियवृत -कर्दम की पुत्री ,   -> 3 आग्नीध्र -  (जम्बूद्वीप नरेश),  -> अजनाभ या नाभि - मरुदेवी (हिमवर्ष का नाम अजनाभ वर्ष  रखा अतः नाभीवर्ष नरेश कहाये), -> ऋषभदेव -  (नाभीवर्ष), -> भरत चक्रवर्ती -  (जड़ भरत) ( नाभीवर्ष का नामभारत वर्ष  किया), -> सुमति -> इन्द्रधुम्न्य, - > परमेष्ठी -> प्रतिहार -> प्रतिहर्ता -> भव, -> उद्गीथ, -> अतिसमर्थ  प्रस्ताव,  -> पृथु,  -> नक्त, ->  गय -> नर और विराट, -> महावीर्य ,-> धीमान, -> महान्त, -> मनन्यु, -> त्वष्टा, -> विरज, -> रज, -> शतजित, -> विध्वरज्योति की सन्तान मनुर्भरत का निवास स्थान है। 
ख *वैवस्वत मनु* --- कश्मीर, उत्तर प्रदेश, उत्तरी और पूर्वी मध्य प्रदेश बिहार, बङ्गाल, उड़िसा,

 *गन्धर्व - अप्सरा देश* --- सिन्ध,बलुचिस्तान और अफगानिस्तान, 

 *सूर देश* ---मेसापोटामिया विशेषकर सीरिया,
असूर देश --- मेसापोटामिया  विशेषकर असीरिया (इराक)
दैत्य देश --- मेसापोटामिया विशेषकर बेबीलोनिया  (इराक) तथा  मिश्र, स्वेज,इज्राइल,जोर्डन और लेबनान ,  
दानव देश ---बुल्गारिया,रोमानिया, हङ्गरी, स्लावाकिया (प्राग), 
 *राक्षस देश* ---अफ्रीका महाद्वीप, आष्ट्रेलिया महाद्वीप, उत्तर अमेरिका महाद्वीप और दक्षिण अमेरिका महाद्वीप के निग्रो लोगों का देश

हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने  *अधर्म और हिन्सा का वास नर्क में* रखा *था* ।किन्तु धीरे धीरे *कैसे वह त्रिलोकव्यापी होगया* इसका रोचक *विवरण* प्रस्तुत है।⤵️

देवताओं में धार्मिक पतन, सांस्कृतिक पतन,  दुराचरण / भ्रष्टाचार का सुत्रपात त्वष्टा पुत्र विश्वरूप ने किया। ---
 देवताओं के पुरोहित रहते असुरों के लिए आहुति और यज्ञभाग देकर त्वष्टा पुत्र *विश्वरूप नें अधर्म का सुत्रपात* किया।
यही भ्रष्ट आचरण का प्रथम उदाहरण बना। राजधर्म निर्वाह कर  इन्द्र द्वारा विश्वरूप का वध किया। इससे रुष्ट त्वष्टा ने दूसरा पुत्र वत्रासुर उत्पन्न किया। विश्वरूप के अनुज वत्रासुर ने आतंकी गतिविधियों का सुत्रपात किया। यहाँ से आतंक का अभ्युदय हुआ।
वत्रासुर ने जल संसाधनों पर कब्जा कर लिया। जल आपूर्ति रोक दी। विवश होकर इन्द्र को वत्र का भी वध करना पड़ा।

फिर देवताओं ने भृगु पुत्र शुक्राचार्य को पुरोहित बनाया।    *शुक्राचार्य नें भी* पुरोहित रहते हुए *विश्वरूप का अनुसरण* कर असुरों के लिए आहुति और यज्ञभाग देकर वही गलती दुहराई।
विवश हो देवताओं को शुक्राचार्य को छोड़कर पुनः *अङ्गिरा पुत्र ब्रहस्पति को ही पुरोहित बनाना पड़ा। तब जाकर भ्रष्टाचार रुका।* 
देवताओं द्वारा शुक्राचार्य से पौरोहित्य छिन कर उनके प्रतिद्वंद्वी ब्रहस्पति को पुरोहित बनाने से *शुक्राचार्य नें रुष्ट होकर अपने पुत्र त्वष्टा के साथ मिलकर अथर्वाङ्गिरस ऋषि  अथर्ववेद की क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त कर उसके आधार पर नवीन पन्थ तन्त्रमार्ग की खोज की। शुक्राचार्य के पुत्र ने युनान के पास क्रीट नामक द्वीप  में शाक्तपन्थ की स्थापना की।* 

उधर इराक में मेसोपोटामिया,असीरिया, बेबीलोनिया  क्षेत्र में दैत्यराज *कश्यप दिति पुत्र हिरण्याक्ष था*। ब्रहस्पति और देवताओं के प्रति द्वेष रखने के कारण *शुक्राचार्य ने असुरों को भड़का कर शुक्राचार्य के आदेशानुसार हिरण्याक्ष ने भूमि पर अपना आतंक स्थापित किया।* अन्ततः  वराह द्वारा उसके वध कर भूमि को अत्याचारों से मुक्त कराया।  
हिरण्याक्ष के अनुज **हिरण्यकशिपु ने पुनः* भूमण्डल पर *आतंक* का साम्राज्य *स्थापित किया* । *नृसिह द्वारा हिरण्यकशिपु का वध* करने पर एक पीढ़ी तक प्रहलाद के शासन में शान्ति रही। किन्तु प्रहलाद के पुत्र *विरोचन* ने पुनः भारत के उत्तरी भाग के देवताओं से भिड़न्त हो गई। इन्द्र को विरोचन का भी वध करना पड़ा। विरोचन का पुत्र बलि फोनेशिया लेबनान के राजा था।  विरोचन का उत्तराधिकार बलि को मिला। बलि  शुक्राचार्य का प्रिय शिश्य था। *शुक्राचार्य के निर्देश पर  विरोचन ने फिर आतंक मचाया। उसने भारत में केरल तक अधिकार कर लिया।* और केरल में एक बड़ा *तान्त्रिक अनुष्ठान कर रहा था* तभी वामन ने  बलि से तीन पग भूमि माँग ली। शुक्राचार्य द्वारा विरोध करने पर भी बलि ने वामन को तीन पग भूमि का दान कर दिया। *वामन नें तीन पग में बलि का सम्पूर्ण साम्राज्य माप लिया और बलि को  दक्षिण अमेरिका में बोलिविया पहूँचा दिया। तब कई केरल वासी और अन्य दक्षिण भारतीय भी बलि के साथ बोलिविया गये।* ये सिन्ध, ईरान, इराक, टर्की, होते हुए पहले लेबनान गये। बीच मे बहुत लुटमार, चोरी-डकेती करते हुए पहले लेबनान पहूँचे। वहाँ से कुछ अफ्रीका के दास लेकर बोलिविया गये।

चुँकि, बलि ने शुक्राचार्य की आज्ञा की अवहेलना कर वामन को तीनपग भूमि दान दी थी। इसकारण शुक्राचार्य बलि से रुष्ट होनें के कारण बलि के साथ नही गये।
 
*शुक्राचार्य नें दानवी नदी (डेन्यूब नदी) के तट पर जर्मनी,आस्ट्रिया, हङ्गरी, स्लावाकिया, रोमानिया, बुल्गारिया और युक्रेन  के दानवों के राजा वृषपर्वा का पौरोहित्य स्वीकारा। दानवों नें शुक्राचार्य के शिष्य इन्द्रपुत्र कच की हत्या कर शुक्राचार्य को मदिरा पान करवा कर छल पूर्वक कच का मान्स खिला दिया। शुक्राचार्य को उनकी पुत्री देवयानी द्वारा जानकारी देने पर शुक्राचार्य नें कच को मृतसंजीवनी विद्या सिखाकर पेट से बाहर निकाला। फिर कच नें शुक्राचार्य का मृतसंजीवनी विद्या से उपचार कर जीवनदान दिया।* 
*इस घटना से रुष्ट होकर रुष्ट होकर शुक्राचार्य  ने दानवों का साथ छोड़कर दिया*

*अत्रि के पुत्र चन्द्रमा नें ब्रहस्पति की पत्नी तारा का हरण कर बुध को जन्म दिया। बुध नें वैवस्वत मनु की पुत्री ईला से विवाह कर एल पुरुरवा को जन्म दिया। पुरुरवा नें इराक के तेल अल मुकाय्यार के उर शहर की अप्सरा और इन्द्र की नर्तकी उर्वशी से  अल्पसमय के लिए संविदा विवाह (मूता निकाह) कर उससे आयु (आदम) को जन्म दिया। किन्तु जन्म देकर पुत्र आयु (आदम) को पुरुरवा के पास छोड़कर उर्वशी वापस इन्द्र के दरबार में चली गई। पुरुरवा ने आयु (आदम) को दक्षिण पूर्वी टर्की के युफ्रेटिस घाँटि में ईलाझी शहर में अदन वाटिका में अकेले ही पाला। पुरुरवा के समय राजा के देवीय अधिकार और राजा को ईश्वर माननें की अवधारणा विकसित हुई।*
*प्रजा पुरुरवा को ईश्वर मानने लगी थी। इस कारण सीरिया के सूर एल पुरुरवा के विरोधी हो गये। सीरिया के सुरेश के निर्देश पर सुरसा पुत्र एक नागवंशी ने आयु (आदम) को भड़का दिया। आयु आदम ने एल पुरुरवा के आदेश के विरुद्ध बुद्धि वृक्ष का फल पकने से पहले ही तोड़़कर कच्चा फल ही खा लिया। पुरुरवा ने नाराज होकर   आयु को अदन वाटिका के पूर्वीद्वार से एक गुब्बारे में बिठाकर निकाल दिया।*
*आयु हवा के सहारे  सिंहल द्वीप के श्रीपाद पर्वत शिखर पर उतरा। वहाँ श्रीपाद पर्वत पर आयु (आदम ) के लंक यानी पैर के पञ्जे के चिह्न बन गये। इसलिए सिहलद्वीप को श्रीलंका कहने लगे। वहाँ से 48 कि.मी. के उथले तट (आदम सेतु) से भारत आकर केरल से नाविकों के सहयोग से वापस टर्की पहूँचा। तबतक पुरुरवा भी बुढ़ा हो गया था। अतः  वापस लोटने पर पुत्र को अपना लिया।*
*आयु के वंशज नहुष (न्युहु) के समय जल प्रलय हो गया।मत्स्य देश के महामत्स्य की भविष्यवाणी के आधार महापर मत्स्य की सहायता से  नहुष एक नाव में बैठकर अन्य जीव जन्तुओं और कुछ मानवों सहित जीवित हिमालय स्थित स्वर्ग पहुँच गया। किन्तु ऋषि देश के सप्तर्षियों से पालकी उठवाकर पुरन्दर इन्द्र की पत्नी शचि से विवाह करनें पहूँच रहा था कि, सप्तर्षियों के शाप से वापस उसके देश को लौटादिया। किन्तु वह टर्की तक नही पहूँच पाया और सऊदी अरब में ही अटक गया।*

*शुक्राचार्य ने टर्की से सऊदी अरब तक के नहुष के वंशज राजा ययाति (इब्राहिम) को  शिक्षित किया साथ ही सऊदी अरब में काव्य नगर में काबा का शिव मन्दिर स्थापित किया। उसके बाद अफ्रीका महाद्वीप में  सुडान को केन्द्र बना कर शैव पन्थ का प्रचार किया।* 
*आयु (आदम) के वंशज  ययाति (इब्राहिम) ने मानवों में आसुरी मत को अपनाया। बुध और ईला के पुत्र एल को ईश्वर घोषित कर शिवाई / शिवाई पन्थ बनाया जिसका प्रथम प्रचारक स्वयम् ययाति (इब्राहिम) होगया।* 
*ययाति (इब्राहिम) के वंशजों, और शिष्यों ने शिवाई (शैव) मत को आगे बड़ाया।*

*अत्रिपुत्र दत्तात्रय ने विश्वरूप की परम्परा को पुनर्जीवित किया और शुक्राचार्य का तन्त्रमत अपनाया और अष्टाङ्गयोग को हटयोग में परिवर्तित कर दिया।* 
*भारत में मण्डला में यदुवंशी कार्तवीर्य सहस्त्रार्जून और लक्ष्यद्वीप में लंकापति रावण को अपना शिष्य बनाया।* 
*कार्तवीर्य सहस्त्रार्जून नें पूरे राज्य में मदिरालय खुलवाये। मान्साहार, मदिरापान, व्यभिचार को वैध कर दिया। यही स्थिति रावण की भी थी। वह स्वयम् परम दुराचारी था। रावण नें भी समस्त दुराचारों को वैध घोषित कर दिया। अन्त में परशुराम जी ने कार्तवीर्य सहस्त्रार्जून का वध करना पड़ा। और रावण का वध श्री राम को करना पड़ा।*

*मानवों में विश्वावसु नें वशिष्ठ जी की प्रतिस्पर्धा में क्रियाओं, कर्मकाण्डों के माध्यम से अधर्म सुत्रपात किया। यहीँ से मानवों में अधर्म और भ्रष्टाचार का सुत्रपात हुआ।*
*राजा विश्वावसु वशिष्ठ के प्रभाव से पराभूत होने के पश्चात राज्य शक्ति को तुच्छ मानकर राज्य त्याग कर कठोर तपस्या कर ब्रह्मर्षि पद पाकर वशिष्ठ के समतुल्य होने का प्रयत्न करनें लगे।*
*इसी धून में वे पौरोहित्य कर्म में अवेदिक और वेद विरुद्ध प्रयोगों के माध्यम से असम्भव माने जाने वाले लक्ष्य प्राप्ति का प्रयत्न करने लगे। उनने वेदिक  क्रियाओं में तन्त्र का समावेश करने की भूल की।जिसका प्रभाव कल्पसुत्रों में परिलक्षित होता है।बाद में समझ आनें पर गलतियों का प्रायश्चित भी किया। किन्तु एक नई परम्परा सृजित होचुकी थी।*वर्तमान में जो आगम प्रचलित हैं, तथा निबन्धकारों नें  सर्वतोभद्र चक्र में योगिनियों, असुरों को जो स्थान दिया है वह उसी का परिणाम है।*
*वेदिक काल मेंशास्त्रीय कर्मों में सायन सौर वर्ष तथा सायन मास और संक्रान्ति गतांश प्रचलित थे। साथ ही लोक प्रचलित सावन वर्ष प्रचलित था जिसे  अधिक मास करके एक यज्ञ सत्र में सायन सौर संवत्सर से मिला दिया जाता था।  आज यह वेदिक संवत्सर पारसियों में ही प्रचलित है। भारत सरकार ने परिवर्तन के साथ शकाब्द के साथ पुनः लागू किया है।
 किन्तु ऋषि विश्वामित्र जी द्वा्रा
 ज्योतिष वेदाङ्ग में नक्षत्रीय पद्यति को निरयन गणना में परिवर्तित कर दिया।  नाक्षत्रिय वर्ष का निरयन सौर संवत्सर  विश्वामित्र ऋषि की ही खोज है। जो   वर्तमान में  पञ्जाब, उड़िसा, बंगाल, केरल, तमिलनाड़ु में प्रचलित है। विक्रमादित्य ने भी विक्रम संवत में इसी निरयन सौर संवत्सर और निरयन सौर संक्रान्ति से मासारम्भ एवम् संक्रान्ति गत दिवस (गते) का ही प्रचलित रखा था। तब से सायन सौर संवत विलुप्त हो गया था।
 विक्रम संवत 135 में कुषाण वंशी कनिष्क  द्वारा राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, में  शक संवत और निरयन सौर संवत से संस्कारित चान्द्र वर्ष लागू किया और गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश में सातवाहन वंशी शालिवाहन  गोतमीपुत्र सातकर्णी द्वारा  निरयन सौर संस्कारित चान्द्र पञ्चाङ्ग के शकाब्ध लागु किया। 
किन्तु  (बाद में महर्षि विश्वामित्र बने) राजा विश्वावसु की निरयन सौर गणना पूरे भारत पर हावी होगई। यहाँ तक कि, वेदिक और पौराणिक प्रमाण होनें के बावजुद भी जन सामान्य सायन गणना को विदेशी मान बैठा है। और इराक, मिश्र और चीन की चान्द्र वर्ष गणना को , सप्ताह के वारों को और घण्टा मिनट को भारतीय मानता है। Hour (घण्टा) के लिये  तो होरा शब्द बना लिया पर मिनट सेकण्ड के लिए कोई शब्द भारतीय भाषाओं में नही है।
ऐसे ही भारतीय जनता ने मध्य रात्रि में वार बदलना और दिन बदलना मान लिया।
धर्म में यह भ्रष्टाचार की सीमा होगई।

गीता जयन्ति अमान्त कार्तिक पूर्णिमान्त मार्गशीर्ष अमावस्या को - स्व. ग.वा. कवीश्वर जी की खोज।

आदरणीय कवीश्वर जी ने ही गहन अध्ययन कर महाभारत के गुड़ रहस् और महाभारत के तेरह वर्ष एवम् गीता तत्व मीमान्सा जैसी कालजयी पुस्तकों में महाभारत के ऐसे बहुत से रहस्यों पर से पर्दा उठायाइसमें महाभारत युद्ध में वास्तविक युद्धारम्भ के एक दिन पहले प्रथम बार को व्यह रचनाकर तैयार कर युद्धाभ्यास अमान्त कार्तिक पुर्णिमान्त मार्गशीर्ष कृष्ण अमास्या को सेना खड़ी की गई थी । बिना युद्ध वाले उस प्रथम युद्ध दिवस को गीताप्रवचन हुआ था।

उसके अगले दिन मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा से युद्ध आरम्भ हुआ। (न कि मार्गशीर्ष शुक्ल.एकादशी को। )

युद्ध एक दिन छोड़ कर होता था। अपवाद तेरहवें दिन की लड़ाई में जयद्रथ वथ के बाद रात्रि में मशालों के प्रकाश मेंं युद्ध जारी रहा और कुछ देर विश्राम पश्चात चन्द्रोदय के बाद पुनः युद्धारम्भ हुआ जो दुसरे दिन भी चलता रहा।ऐसे ही दुर्योधन वध के बाद भी अन्तिम दिन रात्रि में भी युद्ध चला।कुल मिलाकर अठारह लड़ाइयाँ पैंतीस दिन में लड़ी गई।

पाण्डव सेना का मुख पश्चिम की ओर तथा कौरव सेना का मुख पुर्व की ओर था। जयद्रथ मृत्युपर्यन्त पीछे मुड़ कर सुर्य देखता रहा।उसे मायीक या ऐन्द्रजालिक या जादुई सुर्यास्त कभी भी नही दिखा। इसलिये वह चिन्तित था। जबकि पुरी कौरव सेना को जयद्रथ वध के पहले वह मायीक सुर्यास्त दिखा। कौरव सेना द्वारा सुर्यास्त के भ्रम मे जयद्रथ की सुरक्षा करना छोड़ दी। उसी समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भी सुर्य दर्शन कराकर युद्ध जारी रखते हुए असुक्षित जयद्रथ के वध का निर्देश दिया।

उसदिन कोई सुर्य ग्रहण नही हुआ था। वह सुर्यास्त माया रचकर किया था जैसे जादुगर लोग चलती ट्रेन गायब कर देते हैं या ताज महल गायब कर देते हैं वैसी ही माया श्रीकृष्ण ने रची थी।

महाभारत काल में हर अट्ठावन माह पश्चात दो अधिक मास रखकर पाँच वर्ष की युग गणना का रहस्य सुलझा कर तेरह वर्ष पुरे होनें का गणित, हल किया। और महाभारत युद्ध के पैंतीस दिनों की शुद्ध गणना की।

श्रीमद्भगवद्गीता के भी कई कूट स्पष्ट किये जैसे अर्जुन को लग रहा था कि, इस महायुद्ध के अन्तमें लगभग सभी पुरुवंशी पुरुषों का वध होजायेगा।तब उनकी विधवाओं में व्यभिचार पनपेगा। और संकर / वर्णसंकर जन्मेंगे जो पितरों के भी पतन का कारण बनेंगें। इस कारण उसके स्वयम् सहित सभी योद्धा इस पाप के दोषी होंगे। इस पाप से बचने के लिए युद्ध नही करना चाहता था। जिसे श्रीकृष्ण नें यह कह कर युद्ध के लिए तैयार किया कि, यदि युद्ध में तेरे भाइयों का वध होगा और तुमपर भय वश युद्ध से विरत होनें का आक्षेप लगेंगे तब तुम विवश होकर और उत्तेजित होकर युद्ध में उतरोगे ही अतः क्षत्रिय धर्म पालन कर कर्तव्य पालनार्थ युद्ध कर।

ऐसे बहुत से कुट स्पष्ट किये हैं। किन्तु पता नही क्यों कविश्वर जी के वंशजों ने इन महान रचनाओं का प्रकाशन बन्द कर दिया।फल स्वरूप इस यथार्थ ज्ञान का प्रसार नही हो पाया।

कृपया विद्वतजन पहल करें।

बहूत से तत्व और उनके कर्म।

बहू आत्म वाद शब्द और अनेक जीवों में ठीक वैसा ही अन्तर है जैसा बहूदेव वाद और सर्वव्यापी परमात्मा में।
वेदों के अनुसार ईशावास्यमिदम् सर्वम्।
सर्वखल्विदम् ब्रह्म।
जबकि, अज्ञानियों के मत में वेदों में बहूत से देवताओं की आराधना मतलब अनेंक ईश्वर  मानना।

व्यक्तिगत स्वरूप प्रत्यगात्मा यानी अन्तरात्मा।

जिसकी आयु (जीवन) निश्चित है वह जीव। जिसके देह त्याग पर शरीर की मृत्यु हो जाती है।

जो बालक, कुमार, किशोर, युवा, अधेड़ वृद्धावस्था में परिवर्तनशील दिखता है वह शरीरी या देही या प्राण है।शरीर से जिसके निकलजाने पर वापसी भी सम्भव है। किन्तु जबतक शरीर में प्राण है तभीतक शारिरीक क्रियाएँ चलती है। शरीर में संज्ञान रहता है, शरीर सचेष्ट रहता है।

जबतक शरीर में ओज और तेज है तबतक शरीर में सक्रिय रहता है। 
जबतक शरीर में चित्त स्थिर है, चित्त में तरङ्ग नही उठरही तबतक शरीर समाधिस्थ है।
जैसे ही तरङ्गे लहराने लगे/उठनें लगे जागृत कहलाता है।
तरङ्गे तो है, लेकिन ताल में है तो तन्द्रावस्था।
तरङ्गे बहूत मन्द मन्द हैं तो निन्द्रा /सुषुप्ति अवस्था। तरङ्गे बे तरतीब हो तो अशान्त चित्त होता है। विक्षिप्त कहलाता है।
केवल नापतोल आदि मापन का विश्लेषण कर बुद्धि चित्त को बतला देती है। चित्त जब तदाकार वृत्ति से तुलना कर निर्णय करता है कि, यह क्या है। तब, तदानुसार ओज निर्णय करता है कि, इसके प्रति क्या प्रतिक्रिया देना है और सिगनल तेज को भेजदेता है।
अहङ्कार उसमें मैं - मेरा जोड़ कर क्रियाओं का स्वरूप में तो कोई परिवर्तन नही करता। किन्तु क्रियाओं में अहन्ता - ममता (मैं-मेरा) जोड़कर क्रिया को कर्म में परिवर्तित कर देता है। कर्म के हेतु, आशय और उद्देश्य के अनुरूप संस्कार बनकर चित्त के स्वरूप में विकृति उत्पन्न करता है। जिसका प्रभाव देही (प्राण) पर भी पड़ता है। जीव के जन्म मृत्यु का कारण ये कर्म ही होते हैं।
मन उस कर्म के प्रति अपनें सङ्कल्प विकल्प तैयार कर अगली क्रियाओं के लिये मान्सिकता तैयार कर लेता है। जो रिप्लेस के रूप में प्रकट होती है।
तब मस्तिष्क की तन्त्रिकाएँ कर्मेन्द्रियों को व्यवहार करनें के सिगनल दे देती है। लेकिन चेहरे के हावभाव बदलदेता है जिससे देखनें वालों को वह क्रिया कर्म के रूप में समझ आनें लगती है।और वे तदनुसार प्रतिक्रिया करते हैं।
सभी तत्वों के कर्म निर्धारित हैं। वे क्रमानुसार अपने कर्म में प्रवृत्त होते रहते हैं।
इसी श्रंखला में जीव नामक तत्व का भी महत्व है। निर्धारित (जीवन) आयु जीव की ही विशेषता है। आयु की गणना मानव समय में करता है जबकि प्रकृति आयु गणना श्वाँसों की संख्या में करती है। इसी कारण प्राणायाम के फल स्वरूप धृति वृद्धि (प्राण की धारण करने की शक्ति में वृद्धि)  होनें के परिणाम स्वरूप व्यक्ति दीर्घजीवी हो जाता है। यह तो तत्वों की कार्य प्रणाली होगई। अब मूल विषय पर आते हैं। 
निसन्देह जितनी प्रत्यगात्माएँ है उतने ही जीव होंगे। क्योंकि, प्रत्यगात्मा का जीवभाव ही जीव के जीवन का कारण है। यदि प्रत्यगात्मा में (जीवभाव के बजाय) केवल प्रज्ञात्म भाव ही रहे तो सद्योमुक्त अवस्था में जीव की प्रारब्धवश निर्धारित आयु पर्यन्त देह धारण कर आयु समाप्त होने पर जीवादि तत्वों का अपनें कारण प्रत्गात्मा में लय होजाता है। और प्रत्यगात्मा भी अपनें कारण प्रज्ञात्मा में लीन हो जाता है। अतः पूनर्जन्म की परम्परा का लोप हो जाता है।
प्रज्ञात्मा तो विश्वात्मा में लीन रहती ही है। केवल प्रत्यगात्मा के कारण दृष्टाभाव से प्रत्यगात्मा के साथ रहते हुए भी (जल में कमल के समान) असङ्ग  ही रहती है।
अतः अनेक जीव प्रज्ञात्मा की कल्पना (कल्प) मात्र है। यथार्थ नही। केवल हमें यथार्थ प्रतीत होता है, लगता है पर वास्तविक अस्तित्व नही है।

पतञ्जलि योग दर्शन की प्राचीनता।

पतञ्जलि योगदर्शन की प्राचीनता।
जैसा कि, महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण नें अर्जुन के प्रति कहा है कि, यह (बुद्धियोग) योग मेने सृष्टि के आदि में सुर्य के प्रति कहा था, सुर्य ने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को कहा था। 
मतलब वैवस्वत मन्वन्तर के आरम्भ में योग मूल स्वरूप में उपलब्ध था। उसके बीज या सुत्र वेदिक संहिताओं और ब्राह्मणारण्यकोपनिषदों में उपलब्ध हैं।
रामायण में राम भरत मिलाप प्रसङ्ग में श्रीराम जाबालि के उपदेश को को नास्तिक बौद्धमत बतलाते हैं। इसके पहले बौद्धमत का या नास्तिक मत का उल्लेख नही मिलता है।
हाँ शंकर भगवान, त्वष्टा आदित्य के पुत्र विश्वरूप, शुक्राचार्य, शुक्रपुत्र त्वष्टा, अत्रिपुत्र दत्तात्रय, कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन और रावण नामक तन्त्राचार्य हो चुके थे। चूँकि तन्त्र वेद विरोधी मत था और तत्कालीन बौद्ध तन्त्रमत के थे ही यह तो निर्विवाद है। 
सम्भवतया इन्ही में से किसी निवृत्ति मार्गी श्रमण दत्तसम्प्रदाय के शैवमताचार्य  के द्वारा शुष्क बुद्धिवाद, तर्कवाद और सन्देहवादी दर्शन प्रस्तुत किया होगा जो कालान्तर में बौद्धमत कहलाया।

इनमें भी मत भिन्नताएँ उभरी जिसमें से एक     
सन्देहवादी मध्यम मार्गी मत बौद्ध कहलाया। इसी परम्परा में सिद्धार्थ गोतम बुद्ध हुए। जिनके जन्म के समय में ही ज्योतिषियों नें उनके बुद्ध होनें की सफल भविष्यवाणी की थी।और 
दुसरा यक्ष उपासक शुद्ध नास्तिक अर्हत वादी श्रमण मत श्रीकृष्ण के भाई नेमिनाथ, शान्तिनाथ और पारसनाथ द्वारा संगठित होकर महावीर के समय जैन मत कहलाया।
मतलब आज के नौ- दसलाख वर्ष पूर्व श्रीराम युग के आसन्न में ही बौद्धमत आरम्भ हुआ। और उसीमें से अलग होकर श्रीकृष्ण के आसन्नपूर्व पाँच छः हजार वर्ष पूर्व जैनमत आरम्भ हुआ।
बौद्ध और जैनों की परम्परा के बीज तो सनातन परम्परा से ही विकसित हुए थे।इसलिए उसमें और सनातन धर्म में बहुत अधिक अन्तर नही पाया जाता है।

महर्षि पतञ्जलि बौद्ध और जैन परम्परा के उदय कछ बाद में हुए होंगे इसमें कोई सन्देह नही किन्तु गोतम बुद्ध और महावीर के पहले हुए होंगे। क्योंकि, कोषितकि उपनिषद में इनका उल्लेख है। और सुत्रात्मक शैली के षडदर्शन गोतम बुद्ध और महावीर के पहले के ही हैं।

जैसे महर्षि कपिल के पहले ईश्वरकृष्ण की सांखकारिका के रूप में सांख्य दर्शन मौजूद था, गोतम बुद्ध के पहले बौद्ध दर्शन मौजूद था और महावीर के पहले जैन दर्शन मौजूद था। ऐसे ही पूर्व प्रचलित योगदर्शन को पतञ्जलि ने उनके समय प्रचलित सुत्रात्मक शैली में प्रस्तुत किया। किन्तु इसमें जैन और बौद्धों का कोई प्रथक प्रभाव दृष्टिगोचर नही होता। जिन्हें जैन बौद्ध परम्परा माना गया वे सनातन धर्म की ही देन है।

रविवार, 30 मई 2021

सनातन धर्म का वैशिष्ट्य

सनातन धर्मी कहता है; ---
सर्वदेव नमस्कार केशवम् प्रतिगच्छति।
मतलब किसी को भी नमस्कार करो, सभी उस परमात्मा को ही समर्पित होते हैं।
किसी भी नाम से पुजो, किसी भी रूप में पुजो आराधना उस परमात्मा की ही होती है।
क्यों कि, उसको छोड़कर तो कुछ हे ही नही।
श्रीमदभगवदगीता में विष्णु स्वरूप में स्थित हो श्रीकृष्ण कहते हैं जो भी पुजा आराधना जो कुछ भी करता है वह मुझे ही मिलती है।
जो जिस स्वरूप में मुझे भजता है उसी स्वरूप में मैं उसकी श्रद्धा स्थिर कर देता हूँ।
सनातन धर्मी कहता है;---
 हे परमात्मा, हे परमेश्वर, प्रभ , मैं आपका हूँ, केवल आपका ही हूँ। आपके सिवा मेरा कोई नही।
मेरो तो गिरधर गोपाल दुसरो न कोई।
अन्य सम्प्रदाय बोलते हैं ओ माय गॉड, हे मेरे ईश्वर,
मतलब उनका ईश्वर दुसरों का ईश्वर अलग -अलग व्यक्ति हैं। सबके ईश्वर अलग अलग हैं और ईश्वर मेरा है, मैं ईश्वर का नही हूँ।
बस एक यहोवा परमेश्वर या एक अल्लाह ही इबादत के लायक है दुसरे किसी की इबादत करनें वाले और दुसरे किसी देवता/ फरिश्ते को भी इबादत में शरीक करता हो, किसी अन्य की तथा अल्लाह के साथ किसी अन्य की भी इबादत करता है, या जो अल्लाह और उसके पेगम्बर (मूसा/ईसा/ मोह मद) में आस्था और विश्वास नही रखता ऐसे सभी लोगों को जीनें का कोई अधिकार नही है।
मतलब सनातन धर्मी के अनुसार तो उस परमात्मा के अलाव कुछ है ही नही। जो कुछ है सब उसी का स्वरूप ही है। अन्य कुछ नही।
अन्य सम्प्रदाय मानते हैं कि, उनकी मान्यता का ईश्वर एकमात्र नही है उसके अलावा .....मन्यु /इब्लीस/ शैतान भी है। और उनकी मान्यता का ईश्वर, सर्वशक्तिमान नही है  बल्कि उनकी मान्यता के ईश्वर के अलावा  .....मन्यु इब्लीस/ शैतान भी है। जो उसकी इच्छा के विरुद्ध;  उस एकमात्र परम सत्ता की ही शक्ति के दम पर नही बल्कि वह शैतान स्वयम् अपने दम पर ही उस उस अहुरमज्द या यहोवा परमेश्वर या अल्लाह की सत्ता को चुनोती देकर उससे टक्कर लेनें  उसके समकक्ष सत्तावाला और शक्तिशाली है।

देशद्रोह का इतिहास

सनातन वेदिक धर्म कभी चमत्कार को नमस्कार करना नही सिखाता।
तन्त्र, जैन और बौद्ध मत ने सर्वप्रथम यह मुर्खता भारत में आरम्भ की। सनातन धर्म में दत्त सम्प्रदाय के रुप में तन्त्र का प्रवेश हुआ। जिसके झाँसे में सनातन धर्म के शिव परिवार से सम्बद्ध तीनों सम्प्रदाय शैव,शाक्त और गाणपत्य आगये।
सौर तो लगभग रहे नही और वैष्णव भक्ति के नाम पर कहीँ प्रतिमा प्रकट होने जैसे चमत्कार को नमस्कार करने लगे। और नृसिंह के नाम पर चमत्कार तथा कृष्ण की बाल लीलाओं के नाम पर चमत्कार को नमस्कार करना सिखाया गया।
इसमें कम्बन जैसे कवियों से प्रभावित हो तुलसीदास जी ने तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम को भी नही छोड़ा। केवल श्वसन करते हुए निराहार, राख लपेटकर गुप्त (छुपी हुई), पाषाणवत स्थिर रहकर तपकरने वाली गोतम पत्नी अहल्या की चरण वन्दना करते हुए अहल्या के चरण छुकर प्रणाम करने वाले श्री राम को लात मारकर (चरण छुआ कर) पाषाण से जीवित नारी बनाने का चमत्कार दिखा दिया।
जब चमत्कार को नमस्कार संस्कार हमारी संस्कृति में प्रवेश करगये तो फिर स्वाध्याय और तप कौन करे। फिर क्या था चमत्कार आधारित ईसाई मुस्लिम सम्प्रदाय को धर्मपरिवर्तन का बड़ा आसान नुस्खा मिल गया।
जबतक विश्व में मुर्ख लोग रहेंगे धुर्त कभी भुखे नही मरेंगे।
ज्ञानि बनो मुर्खों को सुधारो और धर्मरक्षा करो।

आवश्यकता तो तब से है जब से *महाभारत में भारत वीर पुरुषों का सामुहिक संहार होगया। वीरों का नितांत अभाव हो गया* फिर थोड़े बहुत सम्भले तो *बुद्ध और महापीर ने भारत का निशस्त्रीकरण करदिया।* 
 *बौद्धों का चीनियों से लगाव और उज्जैन से अफगानिस्तान जाकर जैनाचार्य द्वारा शकराज कनिष्क को बुला कर लाना जैसे देशद्रोही कर्मठ कार्यकर्ता बड़ गये थे।*
*इन्ही के परिणाम स्वरूप शक, हूण, खस, ठस, बर्बर, म्लेच्छ, यवन सब घुस गये। फिर इनको राजपूत बना कर देश की कमान दी तो उनने घरेलु युद्ध और धर्मयुद्ध के नियम विदेशी आक्रांताओं पर लागु कर उनको निष्कण्टक प्रवेश दे दिया।* 
*वह युग आज की तुलना में कितना भयङ्कर होगा।कल्पना कठिन है।*
पर उस युग में भक्तों की बहुतायत होगई वे जनता को तो मरहम लगा गये पर *तप के अभाव में रक्षक अवतार नही हूआ।*
 सृजन कैसे करुँ कि जिज्ञासा पर ब्रह्मा को उत्तर मिला तप कर। ब्रह्म जिज्ञासु इन्द्र और विरोचन को प्रजापति ने कहा तप कर। गङ्गावतरण के लिये सगर वंशियों ने तप किया। परम पद के अभिलाषा में ध्रुव ने तप किया।
मेने कहीँ नही पड़ा कि, पुर्वकाल में किसी को ताल- मृदङ्ग लेकर नाचने गाने को कहा हो। *मध्य युग में सब नाचने गाने वाले ही हुए।तपस्वी नही हुए।*
*अभी भी नगण्य ही हैं। स्वधर्म पालन का उपदेश केवल दयानन्द सरस्वती नें ही दिया* बाकी सब तो सर्वधर्म समभाव वाले सेक्यूलर ही हुए।
*तो अवतार क्यो आये?*
हम सडे गले मूल्यों का बोझ अपनी संस्कृति समझ कर ढोते रहें और उनके *दुष्परिणाम देख कर ना तो पहले कोई सीख ली ना अब तक ठीक जग सके है । हमारे शत्रु हम स्वयं ही है* ।जापान  
और इजरायल ( इजरायल सबसे ज्यादा ) हम से ज्यादा अच्छे है । *ऐसा नहीं की हम लोगों में पोटेंशियल कम है परंतु कोई बात अवश्य है जो रोकती है ।* वह अवरोध और उनके निर्माण में सहायक लोगो से पहले लोहा लेना होगा । परंतु ऐसे ही लोगों का महिमामंडन हुआ , इन्हीं की सोच को अपनाया गया ।ये ही लोग ऐसे थे की खुद तो सब समझते थे परंतु अपना और अपने आकाओं का स्वार्थ सिद्ध कर प्रजा को मूर्ख बना गए । दूसरी तरफ जागरूक नेता और महापुरुष भी थे परंतु प्रजा ने उनकी उपेक्षा की ,उनकी बात नहीं मानी गई ,अबतक उनकी उपेक्षा ही होती गई ,अब तो परिणाम जिसका भय था सामने दिख रहा है । फिर बलिदान होंगे , फिर उन्ही शहीदों का गुण गान होगा , कुछ सामान्य सा होते हुवे लगने पर फिर उन्ही सड़े गले मूल्यों का आदर होने लगेगा ,हम फिर वहीं लौट आयेंगे । अपने इतिहास से नहीं तो कम से कम वर्तमान से समझ लेना चाहिए ।उपरोक्त दोनों देश यह गलती नहीं करते ।
  *कहा जाता है कि, विश्व में चला वो ४३०० है । इतने सब धर्म एक जैसे कैसे हो सकते है ? इनकी शिक्षाएं अगर एक समान है तो इतने धर्मो का औचित्य क्या है ?
ये सभी धर्म एक ही शिक्षा देते है ऐसा जो कहते है क्या उन्होंने इन सभी धर्मो का गहराई से अध्ययन किया है ? 
सब धर्म समान है कहने का अधिकार इन्हें किसने दिया ? 
विश्व को छोड़िए भारत में ही कितने धर्म है और उनके शाखा प्रशाखा भेद  कितने है ?
 इन सब की आपस में नहीं बनती और ये सब एक दूसरे को नीचा दिखाते है । जब आपस में ही नहीं बनती तो सम भाव कहा रहा ? दूसरे धर्म की तो बात ही दूर है ।* 
   *सब धर्मों की शिक्षा एक है यह कोरी गप्प है। जो केवल भारतीय सनातनधर्मियों के सिर चढ़ कर बोल रही है। उनमें भी विशषकर सेक्युलरों के दिमाग में बहुत बड़ा भूत है। प्राप्त जानकारी के अनुसार अब अपने देश को छोड़ कर और कोई इस बात को नहीं मानता । दुख तो यह है कि हमारे धर्माचार्य भी एक तरफ तो अन्य धर्म की बातों का विरोध करते है और दूसरी तरफ सब धर्म समान है ऐसी शिक्षा भी देते है ।*
 नेता तो अभी सौ साल से पैदा हुए।*सिकन्दर आक्रमण के पहले लगभग पुरा भारत बौद्ध या जैन हो गया था। केवल कश्मीरी और काशी में सनातन धर्मी बचे थे। या थोड़े बहुत दक्षिण भारत में। पर वे वेदिक नही थे।*
*राजन्य भी शक (गुर्जर), हूण (जाट), पारसी आदि थे।*
*चाणक्य का शिश्य चन्द्रगुप्त मोर्य जैन होकर मरा। चाणक्य भी जैन बौद्धों का विरोध करने से बचे।*
*उसके वंशज मोर्य बौद्ध होगये।*
*केवल पुष्यमित्र शुङ्ग, समुद्रगुप्त,और गुप्त वंश, विक्रमादित्य के* दादा जी,पिताजी आदि, *मुञ्जराज और राजा भोज*, के बाद *राजपूत और मराठा लोग सनातन धर्मी शासक हुए।*
*शेष पहले बौद्ध जैन राजा थे और बादमें मुस्लिम।*
*कुमारील भट्ट और शङ्कराचार्य  ने पहली बार जैन बौद्धाचार्यों को शास्त्रार्थ में हरा कर इज्जत बचाई।*
*पृथ्वीराज ने आखरी अश्वमेध यज्ञ किया।* पर गृहयुद्ध और धर्मयुद्ध के नियम गौरी पर भी लागू कर मारा गया।
*शिवाजी ने दक्षिणी हिन्दुत्व अपनाया। पर यज्ञादि नही।*
*कबीर , नानक, ग्यारहों  सिक्ख गुरु ने सेक्युलरिज्म सिखाया।*
*रामकृष्ण परमहन्स, विवेकानन्द ने सेक्युलरिज्म सिखाया।*
*1857 का प्रथम स्वातन्त्र्य संग्राम बहादुर शाह जफर के नैत्रत्व में लड़ा गया।*
अब इतनी तगड़ी नीव पर गान्धी का चलना कौनसी अनोखी बात है।
*दयानन्द सरस्वती अकेले ही सबसे लड़े। अधिकांश क्रान्तिकारी और स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी आर्य समाजी थे।*
स्वदेशी, सत्याग्रह आर्य समाज की ही देन है।
 *शङ्कराचार्य जी के बाद श्रद्धानन्द जी पहले आर्यवीर हुए जिनने शुद्धि कर सनातन धर्म में वापसी करवाई। और भारत तथा सनातन धर्म में पहले व्यक्ति हुए जिनने वैश्यलयों को शुद्ध कर मुख्यधारा में लाये।*
 *गान्धी नेता थे। न कि, कोई ऋषि- मुनि या साधु - सन्यासी।*ऐसी आशाएँ करना ही गलत है।
 *आज आशाराम बापु, राम रहीम, आदि ज्यादा प्रभावशाली थे या कोई नेता?*
*कौनसा नेता इन लोगों की बराबरी कर सकता है?*
*जितन प्रभाव धार्मिक नेता का होता है उसका दशांश भी नेता का नही होता।* आज जो सेक्यलरिटि जनता में दिख रही है वह अकेले गान्धी का प्रभाव मानना तो महिमामण्डन की सभी सीमाएँ पार करने वाली स्थिति है।
 सर्वोच्च सत्ता मानलेना तो अन्ध विरोध की भी पराकाष्ठा है। *यदि गान्धी अकेले ही इतने प्रभावशाली थे तो यह उनकी योग्यता और विरोधियों की कमजोरी कहलायेगी।*
मैं तो किसी शर्त पर माननें को तैयार नही की सनातन धर्मियों में सेक्युलरिज्म गान्धी की देन है। क्यों कि एक तो वह गान्धी के जन्म के सेकड़ों वर्ष पहले से मौजूद था।और दुसरा मैं किसी भी एक तो दूर दस नेता मिलकर भी इतना प्रभावशाली नही मानता कि, वह समाज बदलदे।
*जाति प्रथा नही हटी,क्षछुआत नही हटी ऐसी ही कई चीजें जो गान्धी अजेण्डे में थी वे सब मौजूद है ।* तो सेक्युलरिज्म गान्धी की दैन कैसे मानलें।
फिर यदि सावरकर सिमित रहे, हेडगेवार सिमित रहे, गोलवरकर सिमित रहे तो इसमें उनके एफर्ट्स की कमी है न कि, दुसरों की। 
*जिसमें दम था वह तो विदेशों में भी आजाद हिन्द सेना बना लेता है।*
*नेताजी ने तो कभी रोना नही रोया कि, गान्धी की बाधा के कारण मैं सफल नही हो पाया। सुभाष चन्द्र बोस भी तो राजनेता ही थे ना?* 
*गान्धी का व्यर्थ में महिमामण्डन मुझे तो सावरकर वादियों और हेडगेवार वादियों की गान्धी के प्रति नकारात्मक अन्धभक्ति ही लगती है। या अपनी कमजोरियों को दुसरों पर ढोलनें की मनोवृत्ति हो सकती है।

शत वर्षीय दशराज युद्ध में स्वायम्भुवमनु से लेकर ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती की सन्तान मनुर्भरतों के विरुद्ध वशिष्ठ को नीचा दिखाने के चक्कर में विश्वामित्र द्वारा  चन्द्रवंशियों को सहयोग देना देशद्रोह की प्रथम घटना थी।
रावण द्वारा कुबेर के विरुद्ध माली, सुमाली, और मयासुर को लड़नें के लिए बुलाना भारतीय इतिहास की देशविरोधी राष्ट्र विरोधी दुसरी घटना है।
कृष्ण से लड़नें के लिये यमन के राजा कालयमन को बुलाना देशद्रोह की तीसरी घटना थी।
सिकन्दर को सहयोगदेनें वाले राजाओं का इतिहास चाणक्य में देखा ही होगा।
विक्रमादित्य के पिताजी के विरुद्ध उज्जैन के जैनाचार्य द्वारा कुषाणों को निमन्त्रण देनें अफगानिस्तान जाना, चन्द्रगुप्त द्वितीय के बड़ेभाई रामगुप्त के विरुद्ध बोद्धों द्वारा शकराज को समर्थन देना ।
 (और भाभी ध्रुवस्वामिनी के स्थान पर सेना सहित चन्द्रगुप्त द्वितीय ने पालकी में बेठकर शकराज के पास जाना और उसका वध करना भी पढ़ा ही होगा। इसी घटना से प्रेरणा लेकर दो-तीन ऐसे अभियान और हुए जिसमे आगरा में केद शिवाजी राजे को मुक्त कराने वाला अभियान भी है।)

ये सब हमारे वे  अपराधी पुर्वज थे जिनने हुए जिनने भारत को दास बनानें में सहयोग देकर हमारे मूल वेदिक धर्म और संस्कृति का नाश करवाया।
और भविष्य पुराण द्वारा प्रशंसित जयचन्द्र को तो भूल ही गया था। जिसने भविषपुराण द्वारा निन्दित अन्तिम अश्वमेध यज्ञकर्ता, भारत के अन्ति सम्राट पृथ्वीराज चौहान के विरुद्ध मोह मद गौरी को आमन्त्रित किया। और सहयोग दिया।
इसविषय में भविषपुराण में उस समय का वर्णन जोड़नें वाले  व्यक्ति को जयचन्द्र से बड़ा अपराधी मानता हूँ।
ये सभी वेद शत्रु,  तक्षशिला और नालन्दा विध्वन्सकों से मेक्समूलर और मेकाले तथा वामपंथियों तक के पूर्वज हैं।

वेद , वेदिक धर्म और वेदिक संस्कृति, तथा भारतवर्ष प्राणों में बसते हैं। वेद, विष्णु,सवितृ, नारायण, हिरण्यगर्भ, प्रजापति,दक्ष प्रजापति (प्रथम),रुचि प्रजापति, करदम  प्रजापति, धर्, अग्नि, पितरः, महारुद्र,देवर्षि नारद, महर्षि मरीचि,महर्षि भृगु,महर्षिअङ्गिरा, महर्षि वशिष्ठ, महर्षि अत्रि, महर्षि क्रतु, महर्षिपुलह,महर्षि पुलस्य, स्वायम्भुव मनु, 
ब्रहस्पति,  इन्द्र, ब्रह्मणस्पति, आदित्य गण,वाचस्पति वसुगण,पशुपति ,रुद्रगण आदि  देवगण,भरत चक्रवर्ती / जड़भरत, और , वेदिक धर्म और वेदिक संस्कृति, तथा भारतवर्षके प्रति अत्यधिक अनुराग है। स्वाभाविक है इनके शत्रुओं के प्रति उतना ही द्वेष भी है।
 इसलिए इस इतिहास को नही भूल पाता।

विश्वकर्म ऋत के अनुसार होते हैं ईश्वर या प्रकृति कर्ता नही है।

हमें दुनिया से ईश्वर से सबसे बहुत सी अपेक्षाएँऔर शिकायतें हैं।

एक तरफा अन्तर्मुखी होना और अति बहिर्मुखी होना दोनों ही अति बुरे हैं।

केवल यह ध्यान रखो कि, हम क्या कर रहे हैं। हमारे कर्म अन्य पर क्या प्रभाव डालेंगे यह सावधानी भी आवश्यक है।जितना दोष बुरे कार्य करनें में है उतना ही दोष पर दोष दर्शन में भी है।

दुसरों से जो अपेक्षा है। अन्यों की उन्ही अपेक्षाओं को पुर्ण करनें की तत्परता पैदा करो। दूसरों से जो शिकायत है हमारी वही शिकायत दुसरे न कर पाये इसके लिये सावधान रहो।

वेदिक साहित्य, स्वामी रामसुखदासजी महाराज की गीता प्रबोधनी टीका पढ़ो।

सनातन धर्म के अनुसार ईश्वर किसी स्थान विशेष पर बैठकर शासन करनें वाला अधिनायक व्यक्ति नही है यानी ईश्वर कोई तानाशाह नही है। ईश्वरीय संविधान ऋत कहलाता है। ऋत के अनुसार ही सृष्टि संचालन हो रहा है। इसका कर्ता ईश्वर नही अतः वह भोक्ता भी नही है। जैसे लाल, हर और बैंगनी (वायलेट) रंगों का काम्बिनेशन ही समस्त रंगों मे दिख रहा है वैसे ही जड़ प्रकृति के सत्व रज और तम ये तीन गुणों के काम्बिनेशन से जगत की समस्त क्रियाएँ हो रही है। जैसे सुर्य उदय होनें पर संसार सक्रीय होजाता है। कमल खिल जाते हैं कुमुदनी मुरझा जाती है। हारसिंगार (पारिजात) पुष्प झर जाते हैं। हम उठकर काम धन्धे से लग जाते हैं। इसमें सुर्य का न कोई कर्तापन है न कोई गुण दोष है। वही स्थिति ईश्वर के होनें मात्र से प्रकृति के तीनों गुण परस्पर सक्रीय रहते हुए समस्त क्रियाएँ करते रहते हैं। इसमें कोई कर्ता नही है। किन्तु प्रकृति के इन गुणों की सक्रियता के परिणामों को मेनें किया ऐसा भ्रम पाल लेते हैं तब उसी मिथ्या अहंकार का फल दुःख सुख रुपी भ्रम पाल कर हम प्रसन्न या दुखी होते रहते हैं।

इसमें ईश्वर या प्रकृति कोई उत्तरदायी धही है। हम प्रकृति विरुद्ध आचरण कर अस्वस्थ होते हैं, फिर अप्राकृतिक चिकित्सा करवा कर और नई समस्याएँ मोल ले लेते हैं। फिर उनका अप्राकृतिक निवारण कर और नवीन रोग पैदा कर लेते हैं इसमें दोषी कौन?

ध्यान रखो पानी पीकर हम प्यास बुझाते है, जो आग के सामनें या धूप में बैठकर हम गरमी पाते हैं इन नगण्य समझीजानें वाली बातों के पीछे पीढ़ियों का अनुसन्धान और विकास है जो हमें अब ये सहज उपलब्ध है। वैसे ही सामाजिक दुराचरण भी पीढ़ियों की अनुशासन हीनता का ही परिणाम और विकास है। इन्हें वापस प्राकृतिक व्यवस्था लानें में हमारे सहित कई पीढ़ियों के सावधानी पुर्वक सामुहिक सक्रिय योगदान से ही सफलता मिलपायेगी।

जिस प्रकार भारत का शासन प्रशासन संविधान के द्वारा संचालित होता है। न श्री मनमोहन सिंह नामक व्यक्ति हमारे शासक थे न श्री नरेन्द्र मोदी नामक व्यक्ति हमारे शासक हैं। हमपर हमारा ही शासन है क्यों कि इन दोनों को हमनें ही चुना है। हमारा संविधान भी हमनें ही बनाया और हमनें ही आत्मार्पित किया है। ठीक यही लोकतांत्रिक व्यवस्था सृष्टि के शासन में भी है।

हमारे देश के कानून यदि हम ही नही मानेंगे और फिर उसके दुष्परिणाम का दोष शासन को देंगें तो विरोधी विदेशी सत्ताएँ उसका लाभ उठाकर हमपर नियन्त्रण और अधिकार करनें के लिये उनका दुरूपयोग करेगी ही।

वैसे ही प्राकृतिक अनुशासन से बाहर जाकर भी हम दुशासन के नियन्त्रण को स्वयम् आव्हान करते हैंं। कोई अन्य दोषी नही है।

धर्म संस्थापनार्थम् सम्भवामि युगे युगे कितना सही?

1 राजा नल का जुआँ खेलना उचित था या अनुचित।

2 बालीवध न्यायोचित था या नही?

3 सीताजी को अयोध्या की पटरानी बनाना सामाजिक न्यायोचित था या नही?

4 युधिष्ठिर का जुँआ खेल कर राज्य को दाव पर लगान, भाइयों को दाव पर लगाना और पत्नी को दाव पर लगानाँ न्यायोचित था या नही?

महाभारत धर्मयुद्ध में धर्म  प्रश्न तीन थे ।
5 - तेरहवें वर्ष के अज्ञात वास पुर्ण होनें के बाद अर्जुन का प्रकटीकरण हुआ या पहले? 
मतलब पाण्डवों और भीष्म की कालगणना सही थी या दुर्योधन की कालगणना सही थी?
6 - अन्धेहोनें के आधार पर धृतराष्ट्र का राज्याधिकारी नही होना उचित था या गलत।
7 - धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर से छोटा होनें के कारण युवराज पद का अधिकारी था या नही।
प्रत्यक्ष में तो केवल प्रथम प्रश्न ही धर्म का प्रश्न था। किन्तु लोक में छटा और सातवाँ प्रश्न भी विचारणीय माना गया। इसी आधार पर बहुसंख्यक राजन्य वर्ग दुर्योधन के पक्ष से युद्ध में उपस्थित हुआ।
मतलब धर्म की निर्विवाद अवधारणा का युग त्रेता के अन्त में ही समाप्त हो गया था। और द्वापर के अन्त में तो विवाद अत्यधिक बड़ गये थे।

क्या श्रीराम और श्रीकृष्ण धर्मसंस्थापना में असफल रहे? लगभग सर्वमान्य मत तो यही लगता है कि धर्म संस्थापना में दोनों अवतार असफल ही रहे।
किन्तु यह भी लगभग सर्वमान्य है कि, अधर्मी शासन के नाश कर धर्मशासन स्थापना में दोनों अवतार  लगभग पुर्णतः सफल रहे।
पौराणिक मान्यता के अनुसार तो अधर्म नाश कर धर्म संस्थापना में भगवान कल्कि ही पुर्णतः सफल होंगे।
विचारणीय मुद्दा है। 

सोलह भुवन और अठारह लोक

भुवन --- जहाँ पिण्ड (ग्रह) हो, भूतल  हो वह भुवन कहलाता है तथा 
लोक ---- जहाँ जीवन का आलोक होता है उसे लोक कहते हैं। सभी भुवन में लोक नही होते किन्तु सभी लोक किसी न किसी भुवन में ही होते है।
जैसे मृत्युलोक, भू में है। नागलोक अतल में बतलाया गया है।
एक ही भुवन में कई लोक हो सकते हैं।
चौदह भुवनों के उपर / उत्तर में चार  उर्ध्व लोक हैं।
 1  वैकुण्ठ जो भुवन भी है और लोक भी है। वैकुण्ठ में ही दो और लोक है,  2 साकेत लोक, 3  गोलोक ।
4  ब्रह्मलोक भी स्वयम् भुवन भी है और लोक भी है।
 हम जिस भुवन में रह रहे हैं उसमें ही सप्त उर्व लोक - 1 भूः , 2 भुवः,  3 स्वः,  4 महः, 5 जनः, 6 तपः,7 सत्यम्। ये भूः  
सप्त अधोलोक --- 1 अतल ,2 वितल  ,3 सुतल  ,4 तलातल  ,5 महातल  ,6 रसातल  और 7 पाताल।
इस प्रकार कुल सोलह भुवन ⤵️
1 वैकुण्ठ, 2 ब्रह्मलोक, 3 सत्यम् ,  4 तपः,5 जनः, 6 महः, 7 स्वः, 8 भुवः, 9 भूः , 10 अतल, 11  वितल ,12 सुतल, 13 तलातल ,14  महातल , 15  रसातल  और 16 पाताल
 और अठारह लोक हुए।⤵️
1 वैकुण्ठ 2 गोलोक 3 साकेत लोक, 4 ब्रह्मलोक, 5 सत्यम् ,  6 तपः,7 जनः, 8 महः, 9 स्वः, 10 भुवः, 11 भूः , और 
सप्त अधोलोक--- 12 अतल, 13  वितल ,14 सुतल, 15 तलातल ,16  महातल , 17  रसातल  और 18 पाताल लोक ।

त्रीस्कन्द ज्योतिष अर्थात गोल, गणित और संहिता।

1 त्रीस्कन्द ज्योतिष का मूल भाग तो सिद्धान्त ज्योतिष ही था। उसके दो भाग गणिताध्याय  और दुसरा गोलाध्याय थे।तथा तिसरा स्कन्द संहिता था। जिसके प्रमाण हर वेद सहिंताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों,उपवेद, वेदाङ्ग, शुल्बसुत्रों, स्मृतियों, रामायण, महाभारत, और पुराणों में बिखरे पड़े हैं।
किन्तु होराशास्त्र के सुत्र कहीँ देखनें में नही आये। तो त्रिस्कन्द ज्योतिष में होरा कैसे आ गया यह समझ नही आया।
2 वराहमिहिर नें स्वीकार किया है कि, होरा और ताजिक यवनों की देन है।
अवकहड़ा चक्र, कुण्डली के भावों की संख्या और भावों की संज्ञा से यह बात प्रमाणित भी होती है। ताजिक तो पूर्णतः इराक की ही खोज लगता है। किन्तु सेडरल ईयर से जोड़नें की खोज निस्संदेह भारतीय ही है। यदि जातक होराशास्त्र भारतीय होता तो कुण्डली में 28 भाव होते। बारह भाव कदापि नही होते।
3 फलित करनें वालों को मूलतः देवज्ञ कहा जाता है। इसमें मूलतः सामुद्रिक शास्त्र के प्रमाण ही प्राचीन शास्त्रों में पाये जाते हैं। और दुसरा शकुन शास्त्र के प्रमाण मिलते हैं। होराशास्त्र के प्रमाण नही मिलते।
ज्योतिषी शब्द प्रचलन बहुत अर्वाचीन है। फलित विद्या या देवज्ञान में सामुद्रिक, शकुन के अलावा अंकविद्या,रमल  होराशास्त्र के अन्तर्गत जातक,ताजिक, प्रश्न कुण्डली प्रचलित हैं। पर फलित विद्या बहुत अर्वाचीन है।

4 व्यंकटेश बापजी केतकर के पहले भारत में प्रचलित किसी भी सिद्धान्त ग्रन्थ के गति, लम्बन आदि के शुद्धमान और स्थिरांक   (ज्योतिष की भाषा में ध्रुवे) से ग्रहगणित या सुर्य ग्रहण, चन्द्र ग्रहण, लोप - दर्शन, अगस्तोदय जैसे तारों के उदय अस्त की शुद्ध गणना सम्भव ही नही है। सुर्य केन्द्र के वसन्त सम्पात  पर होनें की गणना हेतु ट्रोपिकल ईयर का शुद्धमान (ध्रुवा) आवश्यक है। किन्तु पुरानें किसी सिद्धान्त ग्रन्थ में एकदम शुद्धमान उपलब्ध नही है। 
सुर्य के स्पष्ट भोगांश और स्पष्ट क्रान्ति के बिना चरान्तर ज्ञात नही हो सकता। और चरान्तर के बिना सुर्योदयास्त गणना भी नही हो सकती थी। 
5 ग्रहण की भविष्यवाणी के आधार पर होरा शास्त्र को प्रामाणिक ठहराने का तर्क निश्चित ही सोशल मिडिया की ही खोज होगी। सोशल मिडिया में ऐसे ऐसे बे सिर-पेरके तर्क दिये जाते हैं। अतः ध्यान देनें योग्य और विचारणीय तर्क नही

ज्योतिष क्या है?

ज्योतिष क्या है?

मूलतः त्रिस्कन्द ज्योतिष के तीन स्कन्द 1 सिद्धान्त ज्योतिष गणिताध्याय (एस्ट्रोनॉमी) , 2 सिद्धान्त ज्योतिष गोलाध्याय (एस्ट्रोनॉमी) और 3 संहिता स्कन्द। ऋग्वेद, यजुर्वेद, और अथर्वेद संहिताओं, तैत्तिरीय संहिता, ब्राह्मणारण्यकोपनिषदों,आयुर्वेद, धनुर्वेद, स्थापत्य उपवेद,वेदाङ्ग के अन्तर्गत श्रोतसुत्रों, गृह्यसुत्रों, धर्मसुत्रों और शुल्बसुत्रों, और ज्योतिष वेदाङ्ग ,स्मृतियों, वाल्मीकि रामायण, वेदव्यास कृत महाभारत, में कई स्थानों पर उक्त तीनों स्कन्दों की विषयवस्तु का उल्लेख मिलता है।

कौनसे नक्षत्र में कौनसा ग्रह है, कौनसा नक्षत्र (योगतारा) उदय हो रहा है या शिर्ष पर है। जगत पर या राष्ट्रपर या किसी विशेष क्षेत्र पर या प्राणियों में ये किस परिवर्तन के सुचक हैं। यह दोनों उल्लेख गोलाध्याय और संहिता स्कन्द के हैं। ग्रहण की ठीक ठीक भविष्यवाणी करनें , कौनसा ग्रह कितने समय पश्चात किस नक्षत्र पर पहूँचनें वाला है। किस अयन, ऋतु और सौर मास में किस नक्षत्र के दिन अमावस्या या पुर्णिमा होगी ऐसे उल्लेख गणिताध्याय के हैं। इसके अतिरिक्त मौसम विज्ञान, भूकम्प, सामुद्रिक शास्त्र, स्वर विज्ञान, अंक विद्या, देवताओं, गन्धर्वों और यक्षों द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर या रमल जैसे तन्त्र आदि से व्यक्तिगत जीवन के प्रश्नों के उत्तरों का उल्लेख अवश्य है।

किन्तु होरा स्कन्द का उल्लेख नही पाया जाता। कहीँ यह नही दिखा कि, यह ग्रह स्थिति किसी व्यक्ति विशेष (अमुक राजा, या अमुक ऋषि), या अन्य किसी व्यक्ति के जीवन में किस परिवर्तन की सुचक है। अन्यथा वशिष्ठ जी श्री राम के राज्याभिषेक का परामर्श ही क्यों देते?

वेदिक और पौराणिक अहोरात्र, मास, ऋतु ,अयन, तोयन एवम् संवत्सर।

*वेदिक अहोरात्र, मास, ऋतु ,अयन एवम्  तोयन तथा संवत्सर चक्रकीय कालगणना के आधार पर भारतीय मौसम विज्ञान*

वेदिक काल में अयन, तोयन, ऋतुओं, मासों और दिवसों में संवत्सर के विभाग किये गये। 
सुर्य, चन्द्रमा के उदय, अस्त, ग्रहण, दिनमान, रात्रिमान  तथा बुध और शुक्र के पारगमन,व्यतिपात, वैधृतिपात, अलावा बुध,शुक्र,मंगल,ब्रहस्पति और शनि ग्रहों की परस्पर युति, प्रतियोग, दर्शन, लोप, उदय, अस्त, अगस्त तारा उदयास्त ,धुमकेतु दर्शन लोप  से मोसम का सम्बन्ध का अध्ययन गुरुकुलों में कराया जाता था। उक्त सभी  सायन गणना से सिद्ध होते हैं।

इनके साथ नाक्षत्रिय पद्यति / निरयन गणनानुसार आकाश में ताराओं के दर्शन और उनके साथ ग्रहों आदि की युति प्रतियोग, दृष्टि आदि से भी मोसम का सम्बन्ध अध्ययन कराया जाता था।
और आकाश का रंग, सुर्य चन्द्रादि बिम्बों के आसपास बने मण्डल,द्वितीया के चन्द्रमा का उत्तर- दक्षिण में झुकाव का वायु की दिशा, गति, वेग,तथा बादलों के गर्भ, बादलों कारंग-रुप, आकार-प्रकार, उँचाई, गमन, दिशा आदि पर भी सतत ध्यान रखकर इनसे भी मोसम का सम्बन्ध अध्ययन कराया जाता था। 
मोसम को भारतीय पर्वोत्सव से सायन सौर, निरयन सौर एवम् निरयन सौर संस्कृत चान्द्र गणना द्वारा मोसम को सम्बद्ध किया गया था।

इनके अलावा मानवों, पशु-पक्षियों, कीट- पतङ्गों के व्यवहार और व्यवहार परिवर्तनों पर भी ध्यान रखना सिखाया जाता था।
इन सबके आधार पर मोसम की भविष्यवाणी करने के विज्ञान को उपवेद त्रीस्कन्ध ज्योतिष के संहिता स्कन्ध में सिखाया जाता था।

 *घटि, पल विपल* 
साव विपल का एक पल, साठ विपल का एक पल और 3600 विपल अर्थात साठ पल की एक घटि।और साठ घटि का एक अहोरात्र जिसे सावन दिन भी कहते हैं।
दो घटि का एक मुहुर्त होता है। तदनुसार तीस मुहुर्त का एक अहोरात्र (सावन दिन) और तीस सावन दिन का एक सावन मास होता है।

*वेदिक मास,ऋतु ,अयन एवम् तोयन, संवत्सर चक्र* 

 *वेदिक मास --* 

(सुचना -- विगत हजारों वर्षों से कलियुग संवत 5071 के तपस्य मास के अन्त तक  अर्थात 20 मार्च 1971ई. तक ग्रेगोरियन केलेण्डर के अनुसार आरम्भ अगले दिनांक Next dates से आरम्भ होते थे। जैसे  मधुमास 22 मार्च से आरम्भ होता था।) 

वेदिक मास अवधि  निम्नानुसार -  ग्रेगोरियन केलेण्डर के अनुसार आरम्भ की Dates दी जा रही है।
ये Dates ईसवी वर्ष 1972 से लागु होकर आगामी कई हजारों वर्ष तक लगभग यथावत रहेगी।

मधु मास 21 मार्च से 31 दिन। सुर्य की राशि  सायन मेष ।
माधव मास 21 अप्रेल से31 दिन। सुर्य की राशि सायन वृष।
शुक्र मास 22 मई से 31 दिन। सुर्य की राशि  सायन मिथुन।
शचि मास 22 जून से 31दिन। सुर्य की राशि  सायन कर्क।
नभस मास 23 जुलाई से 31दिन। सुर्य की राशि  सायन सिंह।
नभस्य मास 23 अगस्त 31दिन। सुर्य की राशि  सायन कन्या।
ईष मास 23 सितम्बर से 30दिन। सुर्य की राशि सायन तुला।
उर्ज मास 23 अक्टूबर से 30दिन। सुर्य की राशि सायन वृश्चिक।
सहस मास 22 नवम्बर से 30दिन। सुर्य की राशि सायन धनु।
सहस्य मास 22 दिसम्बर से 29 दिन। सुर्य की राशि  सायन मकर।
तपस मास 20 जनवरी से 30 दिन। सुर्य की राशि  सायन कुम्भ।
तपस्य मास 19 फरवरी से 30 या 31 दिन। सुर्य की राशि   सायन मीन।

 *वेदिक ऋतु चक्र* 

ऋग्वेद तथा एतरेय ब्राह्मण 1/1 तैत्तिरीय ब्राह्मण 2/7/10 में मुख्य रुप से पाँच ऋतुओं के ही नाम आये हैं हेमन्त और शिशिर ऋतु को एकमिलाकर एक ऋतु मानी गई है। और अधिक मास की छटी ऋतु कहा गया है। शतपथ ब्राह्मण 3/4/4/17 में तीन ऋतु का उल्लेख भी है।
किन्तु शुक्ल यजुर्वेद और तैत्तिरीय संहिता 4/3/2, 5/6/23 एवम् 7/4/14 तथा शतपथ ब्राह्मण 2/1/3  में छः ऋतुएँ और उनके नाम और अवधि की धारणा स्पष्ट है।
शतपथ ब्राह्मण 2/1/13, तैत्तिरीय संहिता 6/5/3, नारायण उपनिषद अनु 80 और मैत्रायण्युपनिषद का अध्ययन करने पर स्पष्ट होता है कि,   
*वेदिक उत्तरायण में तीन ऋतुएँ होती है।* 
देखिये हिन्दी समिति उ.प्र. शासन से प्रकाशित शंकर बालकृष्ण दीक्षित रचित भारतीय ज्योतिष का शिवनाथ झारखण्डी अनुदित भारतीय ज्योतिष पुस्तक पृष्ठ 44 एवम् 45
 *वेदिक वसन्त ऋतु -* 

वेदिक मधु एवम्  माधव मास की वेदिक वसन्त ऋतु  होती थी।21 मार्च से  22 मई तक।
वेदिक मधु मास सायन मेष का सुर्य दिनांक 21 मार्च से 20 अप्रेल तक।
तथा वेदिक माधव मास सायन वृष का सुर्य  21 अप्रेल से 21 मई तक में वेदिक वसन्त ऋतु होती थी। 

 *वेदिक ग्रीष्म ऋतु -* 

वेदिक शुक्र एवम्  शचि मास की वेदिक ग्रीष्म ऋतु  होती थी। 22 मई से 22 जुलाई तक।
वेदिक शुक्र मास सायन मिथुन का सुर्य 22 मई से 21 जून तक
तथा वेदिक शचि मास सायन कर्क के सुर्य  22 जून से 22 जुलाई तक वेदिक ग्रीष्म ऋतु होती थी ।

 *वेदिक वर्षा ऋतु -* 

वेदिक नभस एवम् नभस्य मास  की वेदिक वर्षा ऋतु  होती थी।23 जुलाई से 22 सितम्बर तक।
वेदिक नभस मास सायन  सिंह  का सुर्य दिनांक 23 जुलाई से 22 अगस्त तक 
तथा वेदिक नभस्य मास सायन कन्या का सुर्य 23 अगस्त से 22 सितम्बर तक में वेदिक वर्षा ऋतु होती थी।

तथा *वेदिक दक्षिणायन में तीन ऋतुएँ होती है।

 *वेदिक शरद ऋतु -* 

वेदिक ईष एवम् उर्ज मास की वेदिक शरद ऋतु  होती थी। 23 सितम्बर से 21 नवम्बर तक।
वेदिक ईष मास सायन तुला का सुर्य 23 सितम्बर से 22 अक्टूबर तक 
तथा वेदिक उर्ज मास सायन वृश्चिक का सुर्य 23 अक्टूबर से 21 नवम्बर तक में वेदिक शरद ऋतु होती थी।

 *वेदिक हेमन्त ऋतु -* 

वेदिक सहस एवम् सहस्य मास की वेदिक हेमन्त ऋतु होती थी। 22 नवम्बर से 19 जनवरी तक।
वेदिक सहस मास सायन धनु का सुर्य  22 नवम्बर से 21 दिसम्बर तक
तथा वेदिक सहस्य मास सायन मकर का सुर्य 22 दिसम्बर से 19 जनवरी तक वेदिक हेमन्त ऋतु होती थी।

 *वेदिक शिशिर ऋतु -* 

वेदिक तपस मास एवम् तपस्य मास की वेदिक शिशिर ऋतु होती थी। 20 जनवरी से 20 मार्च तक।
वेदिक तपस मास सायन कुम्भ का सुर्य 20 जनवरी से 18 फरवरी तक
तथा वेदिक तपस्य मास मीन का सुर्य 19 फरवरी से 20 मार्च  तक वेदिक शिषिर ऋतु होती थी।
 

 *वेदिक अयन और वेदिक तोयन* 

 *वेदिक काल में संवत्सर को उत्तरायण  मधु मासारम्भ से से नभस्य मासान्त तक* छः मास का होता था । अर्थात-
 *सायन मेष संक्रान्ति से सायन तुला संक्रान्ति  तक।* 
 *दिनांक 21 मार्च से दिनांक 23 सितम्बर तक उत्तरायण होता था।* 
तथा *वेदिक काल में दक्षिणायन  ईष मासारम्भ से तपस्य मासान्त तक* छः माह का होता था।अर्थात - 
 *सायन तुला संक्रान्ति  से सायन मेष संक्रान्ति तक।* 
 *दिनांक 23 सितम्बर से दिनांक 21 मार्च तक दक्षिणायन होता था।* 

 *पौराणिक काल में वेदिक  उत्तरायण* (सायन मेष संक्रान्ति) दिनांक 21 मार्च से दिनांक 23 सितम्बर (सायन तुला संक्रान्ति) तक *को उत्तर गोल कहा जाने लगा।* 
 और  पौराणिक काल में *वेदिक दक्षिणायन* (सायन तुला संक्रान्ति) दिनांक 23 सितम्बर से दिनांक 21 मार्च (सायन मेष संक्रान्ति) तक *को दक्षिण गोल कहा जाने लगा।* 

इसी प्रकार वेदिक काल में संवत्सर के दो विभाग और थे जिन्हे तोयन कहा जाता था।

 *वेदिक काल मेंं उत्तर तोयन  सहस्य मासारम्भ से से शुक्र मासान्त तक* छः माह का होता था।
अर्थात *वेदिक काल में सायन मकर संक्रान्ति दिनांक 22 दिसम्बर  से सायन कर्क संक्रान्ति दिनांक 23 जून तक उत्तर तोयन कहा जाता था।* 

 तथा *वेदिक काल से दक्षिण तोयन  शचि मासारम्भ से सहस मासान्त तक छः मास का होता था।* अर्थात
 *वेदिक काल में सायन कर्क संक्रान्ति दिनांक  23 जून से सायन मकर संक्रान्ति दिनांक 22 दिसम्बर तक दक्षिण तोयन कहा जाता था।* 

 *वेदिक संवत्सर वसन्त विषुव सम्पात से अर्थात सायन मेष संक्रान्ति 20/21 मार्च से आरम्भ होता था।* 

सावन वर्षान्त के बाद के पाँच दिन यज्ञ पुर्वक उत्सव मनाये जाते थे।
आज भी वसन्त पञ्चमी, दशापुजा, होला या होली पर्वोत्सव, तथा गुड़ीपड़वाँ , अक्षय तृतीया इसी के अवशेष हैं।

वैदिक सायन सौर वर्ष देवताओं का एक दिन कहा गया है। वैदिक उत्तरायण देवताओं का दिन एवम् वैदिक दक्षिणायन देवताओं की रात्रि कही गई है।
वैदिक उत्तर तोयन आरम्भ दिवस (या ऋग्वेदोक्त निरयन दिवस) सायन मकर संक्रान्ति देवताओं की मध्यरात्रि होती है और वैदिक दक्षिण तोयन आरम्भ दिवस सायन कर्क संक्रान्ति देवताओं का मध्याह्न होता है।

 *पौराणिक सायन सौर संवत्सर, वेदिक तोयन को अयन नाम देना, वेदिक अयन को गोल नाम देना।और ऋतुओं को एक मास पहले आरम्भ करना। वेदिक मासों को भी एक मास पहले आरम्भ करना।* 

पौराणिक काल से वेदिक उत्तर तोयन दिनांक 22 दिसम्बर से  दिनांक 23 जून तक को उत्तरायण कहा जाने लगा तथा वेदिक दक्षिण तोयन दिनांक  23 जून से दिनांक 22 दिसम्बर तक को   दक्षिणायन कहा जाने लगा।
क्योंकि,शुभ कार्य उत्तरायण में यानि सायन मेष के सुर्य से सायन कन्या के सुर्य तक  21मार्च से 23 सितम्बर तक  में किये जाते थे। किन्तु इसी अवधि में जून से सितम्बर तक वर्षा होती है।
इस कारण पौराणिक काल में धर्मशास्त्रियों ने विकल्प खोजा । और 
सायन मकर के सुर्य से सायन मिथुन के सुर्य  दिनांक 22 दिसम्बर से 23 जून तक उत्तर तोयन को उत्तरायण घोषित कर दिया। तथा - 
सायन कर्क के सुर्य से सायन धनु के सुर्य दिनांक 23 जून से 22 दिसम्बर तक दक्षिण तोयन को दक्षिणायन  घोषित कर दिया।
इससे वर्षाकाल की समस्या हल होगयी। कलियुग का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।

किन्तु जब वेदिक उत्तर तोयन को पौराणिक उत्तरायण कहा जाने लगा और वेदिक दक्षिण तोयन को पौराणिक दक्षिणायन कहा जाने लगा तो ऋतुओं के आरम्भ माह को एक मास पहले खिसकाना पड़ा। इसके लिये मासों का आरम्भ भी एक माह पहले से करना पड़ा। इसके लिये सावन वर्ष के स्थान पर निरयन सौर वर्ष सें संस्कारित चान्द्र वर्ष लागु किया जिसमें अधिक मास और क्षय मास का लाभ लिया गया। ताकि, प्रजा / जनता समझ नही पाये ।
 किन्तु वसन्त ऋतु का प्रथम मास मधुमास गत संवत्सर में और माधव मास वर्तमान संवत्सर में आने लगा। ऐसे ही पौराणिक उत्तरायण के तीन मास गत संवत्सर गत वर्ष में तो शेष तीन मास वर्तमान संवत्सर में आते है। वेदिक पद्यति में छः मास का वर्ष और दौ वर्ष का एक संवत्सर वाली पद्यति बन्द कर संवत्सर और वर्ष पर्यायवाची मानना पड़े। मधुमास के स्थान पर माधवमास से संवत्सर का आरम्भ  मानना पड़ा।
स्पष्ट ही गोलमाल  दृष्टगोचर हो रहा है।
खेर जो उस अवधि में होगया वह इतिहास तो बदला नही जा सकता पर आगे तो वापस सुधार होना ही चाहिए। 

वर्तमान में प्रचलित मासारम्भ की ग्रेगोरियन केलेण्डर से Dates और अवधि निम्नानुसार है -- 
 *पौराणिक अयन, पौराणिक गोल, पौराणिक ऋतुएँ और पौराणिक मासारम्भ की  Dates .।* 

 *पौराणिक उत्तरायण। पौराणिक दक्षिण गोल। पौराणिक वसन्त ऋतु।* 

मधु मास 19 फरवरी से 30 या 31 दिन। सायन मीन।

 *पौराणिक उत्तरायण। पौराणिक उत्तर गोल आरम्भ। पौराणिक वसन्त ऋतु।* 

माधव मास 21 मार्च से 31 दिन। सायन मेष ।

 *पौराणिक ग्रीष्म ऋतु।* 

शुक्र मास 21 अप्रेल से31 दिन। सायन वृष।
शचि मास 22 मई से 31 दिन। सायन मिथुन।

 *पौराणिक दक्षिणायन आरम्भ। पौराणिक उत्तर गोल। पौराणिक वर्षा ऋतु।* 

नभस मास 22 जून से 31दिन। सायन कर्क।
नभस्य मास 23 जुलाई से 31दिन। सायन सिंह।

 *पौराणिक दक्षिणायन ।  पौराणिक उत्तर गोल । पोराणिक शरद ऋतु।* 
ईष मास 23 अगस्त 31दिन। सायन कन्या।

 *पौराणिक दक्षिणायन। पौराणिक दक्षिण गोल आरम्भ। शरद ऋतु* 

उर्ज मास 23 सितम्बर से 30दिन। सायन तुला।

 *पौराणिक हेमन्त ऋतु।* 

सहस मास 23 अक्टूबर से 30दिन। सायन वृश्चिक।
सहस्य मास 22 नवम्बर से 30दिन। सायन धनु।

 *पौराणिक उत्तरायण आरम्भ। पौराणिक दक्षिण गोल।.पौराणिक शिषिर ऋतु।* 

तपस मास 22 दिसम्बर से 29 दिन। सायन मकर।
तपस्य मास 20 जनवरी से 30 दिन। सायन कुम्भ।

 *पौराणिक उत्तरायण। पौराणिक दक्षिण गोल। पौराणिक वसन्त ऋतु।* 

मधु मास 19 फरवरी से 30 या 31 दिन। सायन मीन।


 *संवत्सर, अयन,तोयन, ऋतुओं और मासों के लिए  वेदिक काल में सायन सौर गणना ही प्रयुक्त होती थी।* 
किन्तु *आकाशीय विवरण के लिए वेदिक काल में नाक्षत्रिय निरयन गणनाएँ  प्रचलित थी।जैसी की आजतक भी है।* 

सायन गणनानुसार और नाक्षत्रिय निरयन गणनानुसार सौर वर्ष  में लगभग इकहत्तर सायन वर्ष में एक दिन का और 25780 सायन वर्षों में पुरे एक वर्ष का अन्तर पड़ता है। जब सायन सौर युग संवत्सर 25780 होगा तब निरयन सौर युग संवत्सर 25779 होगा।

चुँकि ग्रेगोरियन केलेण्डर सायन सौर गणनाधारित है अतः यही अन्तर ग्रेगोरियन केलेण्डर ईयर में भी लागु होता है। इस कारण लगभग 71 वर्ष में निरयन संक्रान्तियों की एक तारीख (Date) बढ़ जाती है। निरयन मेष संक्रान्ति 13 अप्रेल के स्थान पर 14 अप्रेल को होने लगती है।

वर्तमान में निरयन मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु मकर, कुम्भ और मीन मास का आरम्भ की ग्रेगोरियन केलेण्डर के दिनांक निम्नानुसार है।

 *वर्तमान में निरयनमास का आरम्भ की ग्रेगोरियन केलेण्डर के दिनांक--* 

मेष         14 अप्रेल से          30 दिन।
वृष          14 मई से               31 दिन।
मिथुन     15 जून से             32 दिन। 
कर्क        16 जुलाई से         31 दिन।
सिंह        17 अगस्त से       31 दिन।
कन्या      17 सितम्बर से    30 दिन।
तुला        17 अक्टोबर से   30 दिन।
वृश्चिक  16 नवम्बर से      30 दिन।
धनु          16 दिसम्बर से    30 दिन।
मकर       14 जनवरी से      29 दिन।    
कुम्भ        13 फरवरी से      30 दिन।
मीन          14 मार्च से            31 दिन।

सुचना -- 
जब सुर्य और भूमि के केन्द्रों की दूरी जिस अवधि में अधिक होती है उस शिघ्रोच्च   (Apogee एपोजी) के  समय 30° की कोणीय दूरी पार करने में भूमि को अधिक समय लगता है अतः उस अवधि में पड़ने वाला सौर मास 31 दिन से भी अधिक 32 दिन का होता है। इसके आसपास के दो -तीन मास भी 31 होते हैं। इससे विपरीत उससे 180° पर शीघ्रनीच (Perigee  पेरिजी) वाला सौर मास 28 या 29 दिन का छोटा होता है। इसके आसपास के सौर मास भी 30- 30 दिन के होते हैं।
वर्तमान में 05 जनवरी को सुर्य सायन मकर  13°16' 20" या निरयन धनु 19° 08'25 " पर शिघ्रनीच का रहता है इस कारण यह मास 29 दिन का और इसके आसपास  तीन महिनें 30-30 दिन के  होते हैं। इसी कारण निरयन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर में यह मास क्षय नही होता।
इसके 180° पर 04 जुलाई को सुर्य सायन कर्क  13°16' 20" या निरयन मिथुन 19° 08'25 " पर शिघ्रोच्च का रहता है इसी कारण यह मास 32 दिन का और इसके आसपास तीन तीन महिनें 31-31 दिन के  होते हैं।इसी कारण निरयन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर में इस अवधि में ही कोई  मास  अधिक  होता है।

 निरयन सौर वर्ष और सायन सौर वर्ष में 25780 वर्षों में पुरे एक संवत्सर का अन्तर पड़ जाता है। इस अवधि में एक निरयन सौर संवत्सर से   सायन सौर संवत्सर एक वर्ष अधिक होता है। अर्थात यदि निरयन सौर संवत्सर 25780 है तो सायन सौर संवत्सर 25781 होगा। या यों भी कह सकते हैं कि,जब सायन सौर युग संवत्सर  
 25781होगा तब निरयन सौर युग 25780 रहेगा।
 लगभग 71 वर्षों में एक दिन का अन्तर एवम् 2148 वर्षों में एक मास का अन्तर पड़ जाता है। लगभग 4296 वर्षों में एक ऋतु का अन्तर, 6445 वर्षों में तीन मास का अन्तर पड़ता है।तथा 12890 वर्षों में एक अयन यानि छः मास का अन्तर पड़ जाता है। 

 लगध के ऋग्वेदीय वेदाङ्ग ज्योतिष के समय संवत्सरारम्भ सायन मेष संक्रान्ति के समय निरयन मकर संक्रान्ति भी पड़ती थी।
तो श्रीमद्भगवद्गीता में ऋतुओं में वसन्त और माहों में मार्गशीर्ष मास को विभूतिमय बतलाया है। क्यों कि किसी समय  संवत्सरारम्भ सायन मेष संक्रान्ति के समय निरयन सौर वृश्चिक संक्रान्ति पड़ती थी।

इसी कारण कभी संवत्सरारम्भ सायन मेष संक्रान्ति के समय निरयन सिंह संक्रान्ति भी पड़ती थी।
इसकारण केरल में निरयन सिंह संक्रान्ति को संवत्सर परिवर्तन होता है। 

 *निरयन सौर युधिष्ठिर संवत* 

महाभारत काल के चान्द्र मास आधारित हर उनसाठवें और साठवें मास को अधिक मास कर फिर सामान्य मास वाली क्लिष्ट गणना को बन्द कर शुद्ध निरयन सौर युधिष्ठिर संवत लागु किया।
युधिष्ठिर नें निरयन सौर गणनानुसार  संवत्सर गणना आरम्भ करवा दी। ता कि, तारामंडल देखकर भी चलते रास्ते भी व्यक्ति संवत्सर और मास गणना कर सके।
किन्त इस गणना में 2248 वर्ष में एक मास का, 4296 वर्ष में एक ऋतु का अन्तर पड़ जाता है। इस कारण यह भी विशेष लोकप्रिय नही हुई। 
युधिष्ठिर संवत 3044 पुर्ण होने पर उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य ने निरयन सौर विक्रम संवत  चला दिया। 


*वेदिक सावन वर्ष गणना।* 

एक  सावन दिन दो सुर्योदय के बीच के समय को सावन दिन कहते हैं।
एक अहोरात्र या एक सावन दिन लगभग 60 घटिका का होता है।  
घटीका को घटी, घड़ी और नाड़ी भी कहते हैं। 
वर्तमान गणनानुसार एक सावन दिन 24 घण्टे का होता है।
एक सावन मास 30 सावन दिन का सावन मास होता है।
सामान्य सावन वर्ष  में बारह मास होते हैं अतः सामान्य सावन वर्ष में 360 सावन दिन होते हैं। 
पाँचवेँ वर्ष में एक अधिकमास किया जाता था अर्थात पाँचवा सावन वर्ष तेरह सावन मास का होता था। इसकारण पाँचवा वर्ष 390 सावन दिन का होता था।
किन्तु चालिसवाँ सावनवर्ष,और 3835 वाँ सावनवर्ष और 3840 वाँ सावन वर्ष 360 दिन का सामान्य वर्ष होता था। चालिसवाँ सावन वर्ष , तीन हजार आठ सौ पेंतीसवें सावन वर्ष और  तीन हजार आठ सौ चालिसवाँ सावन वर्ष बारह सावन मास का ही सामान्य सावन वर्ष होता था। फिर 7308 वाँ (सात हजार तीन सौ आठवाँ) सावन वर्ष भी 360 दिन का होता था।
इस प्रकार इन युग वर्षों में सायन वर्ष और सावन वर्षारम्भ एकसाथ हो जाते थे। यह गणना गणितागत न होकर मुलतः वेध आधारित थी । किन्तु गणीतीय सुत्र उपर्युक्तानुसार बनते हैं यह ऋषि गण जानते थे। 

                  *वेदिक चान्द्र मास* 

 *वेदिक काल में भी अमावस्या से अमावस्या तक वाले चान्द्रमास भी प्रचलित थे। किन्तु संवत्सर आरम्भ का आधार सायन सौर मेष संक्रान्ति ही थी।* 
मा शब्द चन्द्रमा सुचक है। चन्द्रमा के मा से ही अमा अर्थात बिना चन्द्रमा वाली रात अमावस्या शब्द बना। और पुरे चन्द्रमा वाली रात पुर्णिमा से पुर्णिमा शब्द बना ।
मास यानि चन्द्रमा की एक सत्र पुर्ण होना। यह अवास्या से अमावस्या तक लगभग 29. 531 दिन का चान्द्रमास हो या पुर्णिमा से पुर्णिमा तक 29. 531 दिन का होता है।
तदनुसार बारह चान्द्रमास  354.367 दिन की अवधि को शुद्ध चान्द्र वर्ष कहते हैं। जो निरयन सौर वर्ष / नाक्षत्रीय वर्ष से 10.889 वर्ष छोटा है। और सायन सौर वर्ष से 10.875 दिन छोटा है।
बारह शुद्ध चान्द्रमास वाले शुद्ध चान्द्रवर्ष को सायन सौर वर्ष या निरयन सौर वर्ष से संगति बिठाने हेतु लगभग 32 चान्द्र  मास से 38 चान्द्र मास पश्चात अधिक मास करते हैं। इसकारण प्रायः अधिक मास वाला चान्द्र वर्ष तेरह चान्द्र मास का होता है। यानि अधिक मास वाला चान्द्र वर्ष 383.898 दिन का होता है।
इस पद्यति में चान्द्र मासों का नामकरण  चान्द्रमास के मध्य में  पुर्णिमा तिथि को चन्द्रमा जिस नक्षत्र में रहता है उस नक्षत्र के नाम के अनुसारं चैत्र, वैशाख, ज्यैष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन  नामकरण किया गया है। जो पुर्णिमा को होने वाले चन्द्र नक्षत्रानुसार  क्रमशः चित्रा से चैत्र, विशाखा से वैशाख, ज्यैष्ठा से ज्यैष्ठ, पूर्वाषाढ़ा से आषाढ़, श्रवण से श्रावण, उत्तराभाद्रपद से भाद्रपद, अश्विनी से आश्विन, कृतिका से कार्तिक, मृगशिर्ष से मार्गशीष, पुष्य से पौष, मघा से माघ और उत्तराफाल्गुनी से फाल्गुन मास नाम पड़े।

चान्द्र मास में अमावस्या से पुर्णिमा तक शुक्ल पक्ष और पुर्णिमा से अमावस्या तक कृष्णपक्ष कहलाता है। साथ ही चान्द्र मास मे अर्ध चन्द बिम्ब  रात्रि यानि शुक्ल पक्ष की साढ़े सप्तमी (अष्टमी) से कृष्णपक्ष की साढ़े सप्तमी  तिथी  (साढ़े बाईसवीँ तिथी) / (अष्टमी) तक उज्वल निषा से  अर्ध चन्द्र बिम्ब यानि कृष्णपक्ष की साढ़े सप्तमी तिथी  (साढ़े बाईसवीँ तिथी)/ (अष्टमी)  से शुक्ल पक्ष की साढ़े सप्तमी (अष्टमी) तक अन्धियारी रात वाले  के विभाग किये गये थे। यह प्रथक ईकाई है।
एक (तन्त्र की) मान्यतानुसार अमावस्या पिशाचों का मध्यान्ह होता है। और पूर्णिमा गन्धर्वों का मध्याह्न है।

सुर्य से चन्द्रमा की 12° के अन्तर वाली  तिथियाँ  नही थी। केवल अमावस्या , पुर्णिमा तथा अर्धचन्द्र बिम्ब वाली रात्रि  अष्टमी तिथी तथा तेईसवीँ चन्द्रकला  (अष्टका - एकाष्टका)  ही प्रचलित थी।

 सुर्य से चन्द्रमा की 06° के अन्तर वाले करण भी प्रचलित नही थे।  सुर्य के सायन भोगांशों और चन्द्रमा के सायन भोगांशों के योग 180° और 369° या 00° होने पर व्यतिपात और वैधृतिपात योग प्रचलित थे।
चान्द्रमास को पितरों का एक दिन माना गया है। कृष्णपक्ष पितरों का दिन होता है तथा  शूक्लपक्ष पितरों की रात्रि होती है।

     *महाभारत काल में* 

महाभारत काल मे निरयन सौर गणना और  चान्द्र मास तथा सावन दिन और चन्द्र नक्षत्र से तिथि गणना  प्रचलित हो गये थे।
 हर अट्ठावन चान्द्र मास के बाद दो अधिक मास होते थे।अर्थात हर उनसाठवाँ और साठवाँ चान्द्र मास अधिक होकर फिर अगले माह सामान्य होकर वर्ष षुर्ण किया जाता था।
यह बहुत असहज गणना थी जो केवल भीष्म,विदुर, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, और युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण जैसे धर्मशास्त्री ही समझ पाते थे। दुर्योधन एवम् उसके साथी लोग भी समझाने पर भी नही समझ पाते थे।

*पौराणिक चान्द्र वर्ष/ शकाब्द या शक संवत।* अर्थात
*निरयन सौर संक्रान्तियों से संस्कारित अमावस्या से अमावस्या तक वाले चान्द्र मास वाला निरयन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर* 

निरयन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर जिस चान्द्र मास में दो निरयन सक्रान्तियाँ  पड़े अर्थात दो अमावस्याओं के बीच यदि दो निरयन सक्रान्तियाँ  पड़े  तो वह चान्द्रमास क्षय मास कहाता है। यह प्रायः 30 दिन वाले शीघ्र नीच वाले सौर मास के पहले वाले चान्द्रमास और बाद वाले चान्द्र मास में ही सम्भव होता है।  ऐसे क्षय मास 19 वें वर्ष,122 वें वर्ष और 141वें वर्ष मे पड़ते हैं।और
जिस निरयन सौर मास में दो अमावस्या पड़े अर्थात जब दो निरयन संक्रान्तियों के बीच दो अमावस्या पड़े तो वह चान्द्रमास अधिक मास कहलाता है। यह प्रायः 31 दिन वाले शिघ्रोच्च वाले सौर मास के पहले वाले चान्द्रमास और बाद वाले चान्द्र मास में ही सम्भव होता है।
जिस संवत्सर में क्षय मास आता है उस संवतसर में क्षय मास के पहले अधिक मास और क्षयमास के बाद पुनः अधिक मास होता है। इस प्रकार क्षय संवत्सर में दो अधिक मास होते हैं। इस कारण क्षय मास वाला संवत्सर और अधिक मास वाला संवत्सर दोनों ही  संवत्सर में तेरह चान्द्र मास होते हैं। इसकारण प्रायः क्षय मास वाला और अधिक मास वाले वर्ष भी 383.898 दिन का ही होता है। जबकि बिना अधिक मास बिना क्षयमास वाला सामान्य चान्द्रवर्ष शुद्ध चान्द्रवर्ष ही होता है इस कारण यह शुद्ध चान्द्र वर्ष 354.367   दिन का होता है।

 *निरयन सौर संस्कृत चान्द्र शकाब्द* 

फिर विक्रम संवत 135 पुर्ण होनें पर  पेशावर, पटना और मथुरा में कुषाण वंशी सम्राट कनिष्क के राज्यारोहण पर कनिष्क नें शक संवत चला दिया। और उसी समय  दक्षिण में पैठण महाराष्ट्र में गोतमी पुत्र शातकर्णि  ने निरयन सौर संस्कृत चान्द्र गणनाधारित शकाब्द चला दिया गया। शक संवत चला दिया।जो लगभग अधिकांश.भारत में प्रचलित है।
अर्थात, 
युधिष्ठिर संवत 3178 वर्ष पश्चात युधिष्ठिर संवत 3179 के स्थान पर  और विक्रम संवत 135 समाप्त होने पर विक्रम संवत136 के स्थान पर शक संवत एक के साथ  निरयन सौर संस्कृत चान्द्र गणनाधारित शकाब्द चला दिया गया। जो आजतक चल रहा है।
ईस गणना से पुर्णिमा, अमावस्या तिथियों  और अष्टका एकाष्टका पर्व के अलावा चतुर्थी,  एकादशी, प्रदोष, शिवरात्रि आदि वृत आरम्भ हो गये।

 *चन्दमा का भू परिभ्रमण* 

 चन्द्रमा के एक परिभ्रमण अवधि निरयन मेषादि बिन्दु / अश्विनी नक्षत्र आरम्भ बिन्दु से आरम्भ होकर पुनः निरयन मेषादि बिन्दु /अश्विनी नक्षत्र आरम्भ बिन्दु पर पहूँचने की  27. 322 दिन कीअवधि होती है। इस अवधि में चन्द्रमा सम्पूर्ण नक्षत्र मण्डल का परिभ्रमण पूर्ण कर लेता है। इसे नाक्षत्रिय मास भी कहते हैं। यह आकाश अवलोकन में चन्द्रमा का नक्षत्रों में परिभ्रमण दर्शन में उपयोगी है।

शुक्रवार, 28 मई 2021

मानवेत्तर योनियों में कर्म,ज्ञान और मौक्ष तथा मरणोपरान्त कर्मकाण्ड का मनोविज्ञान*

देव,देवता, किन्नर, गन्धर्व, असूर, दैत्य, दानव,राक्षस, तिर्यक योनियों, पशु -पक्षी योनियों, पिशाच योनी तक में में कर्म,ज्ञान और मौक्ष तथा मरणोपरान्त कर्मकाण्ड का मनोविज्ञान

आपके श्राद्ध सम्बन्धी प्रश्न और लोकवास मतलब उस योनि में जन्म ग्रहण करना ही है।और श्राद्ध किसके लिए और क्यों किये जाते हैं प्रश्न का उत्तर ।

लोकवास की परम्परा स्मृतियों , और पुर्वमिमान्सा दर्शन से वैष्णव और शैवों में आई है।
जिसका अर्थ है मृत्यलोक से मरकर किसी उर्ध्व या अधोलोक में जन्म ग्रहण करना।
किसी लोक में वास होना मतलब उसलोक में जन्म लेना। जन्मलिया मतलब योनि ही है।
हनुमान चालिसा में तुलसीदास जी नें कहा है, अन्तकाल रघुवर पुर जाईं जहा जन्म हरिभक्त कहाई।
शतक्रतु का मतलब भी सौ अश्वमेधी है। नारद तम्बूरा आदि के भी पुर्वजन्मों का उल्लेख है।
अर्थात वे सब यमराज वैवस्वत मनु की सन्तानों मे सर्वप्रथम मरनें वाले व्यक्ति थे।उन्हें  धर्मशासन करने मृत्यलोक का  शासक बनाया।
जय विजय का तीन जन्मों तक राक्षस योनि में जन्म लेना, यमलार्जुन का वृक्ष होना और पुनः पुर्व में विजीत लोक में पुनः जाना की कहानी, पद्मा अप्सरा द्वारा रसायन विद्या द्वारा सदानन्द ऋषि के नवजात पुत्रों को युवा बनाकर विद्या के दुरुपयोग के फल स्वरूप आसुरी योनि में जन्म लेकर बन्ध्या होना और  रसायन विद्या से प्रद्युम्न को युवा बना कर लोक कल्याणकारी कार्य के पुण्य से पुनः अप्सरा होकर पुर्व लोक में जाना, पुष्पदन्त का शिव गणों में जन्म लेना, शिवपुत्र कार्तिकेय और इन्द्रपुत्र जयन्त, बृहस्पति पुत्र कच, सभी देवयोनियों में प्रजनन के प्रमाण हैं। और कर्म के भी। उपनिषदों में  विभिन्न मन्वन्तरों में  देवताओं का ब्रह्मज्ञ होनें की कथाएँ आती है। जिसमें इन्द्र को उमा द्वारा ब्रह्मज्ञान का उपदेश पाकर अग्नि और वायु को भी ब्रह्मज्ञानोपदेश देकर ब्रह्मज्ञानी बनादेते हैं।
और 101 वर्ष धैर्यपूर्वक तप कर अन्तःकरण निर्मल कर शास्त्र चिन्तन करनें से विवेक जाग्रत होनें के कारण प्रजापति से उपदेश ग्रहण कर आत्मज्ञानी होगये।
असुरों में विरोचन भी आत्मज्ञानोपदेश हेतु प्रजापति के पास बत्तीस वर्ष ब्रह्मश्चर्य पुर्वक तपस्या रत रहे। किन्तु कर्मवादी होनें के कारण ज्ञान को भी कर्मफल समझनें वाले होनें के कारण ज्ञानमार्ग का अनुसरण न कर सके। गजेन्द्र मौक्ष में भी गज द्वारा श्रद्धा भक्ति पुर्वक स्तुति करनें यानि पशुयोनि में भी कर्माधिकार का वर्णन है।
अर्थात मानवैत्तर उच्च योनियाँ और निम्न योनियों में भी कर्म करना, कर्मफलभोग, परलोक गमन, और मौक्ष प्राप्ति सबकछ होता होता है।

परलोक में जन्म होनें की बात नयी और अटपटी लगेगी इस सम्भावना के कारण उच्च और अधो लोकों में जन्म, मरण, कर्म और ब्रह्मज्ञान, आत्मज्ञाश और  मौक्ष सबकी कथाएँ याद दिलाई।
अन्तरात्मा जैसे ही देह छोड़ती है।उसीके साथ ही जीवात्मा से लिङ्ग शरीर तक रहते हैं।
अतः अधिकतम दस दिन तक कारण शरीर, सुक्ष्म शरीर और लिङ्ग शरीर  ही प्राण / देही की देह रह पाती है। जिसके  आकार के कारण ही उस प्राणी / देही को पहचाना जासकता है । परिवार को झलक दिखलाने वाला लिङ्ग शरीर ही होता है। ऐसी कहानियाँ सुनी होगी कि,   ही  दुर्घटना में मरनें वाले व्यक्ति के परिवार वालों को  अपनी दुर्घटना सुचना देता है वह लिङ्ग शरीर ही होता है।
सुक्ष्म शरीर स्वप्न और सम्मोहन में यात्रा करता है।और कारण शरीर केवल दृष्टाभाव से उस यात्री सुक्ष्मशरीर की पीठ और आँख भी देख पाता है।
इस लिङ्ग शरीर को देह के प्रति लगाव त्यागने के निर्देश देनें हेतु तिर्थ स्थान पर जाकर दशाह कर्म के अन्तर्गत विसर्जन से के उपरान्त अवशिष्ट अस्थी को देह मानकर उसका पुनः दाह कर अन्त्येष्टि की जाती है। दसवें की क्रियाओं से लिङ्ग शरीर नही रहा यह मान लिया जाता है।
एकादशाह में मृतक की अतृप्त इच्छाओं के के रहते आसक्ति समाप्त करनें हेतु ब्राह्मणों के लिए चाँवल का पिण्ड बनाकर उसके टुकड़े टुकड़े कर उसे इस जीवन की स्मृतियों की आसक्ति छोड़ने का सन्देश और  गौ दान, भूमि दान आदि कर  उसके शेष रहे संकल्पों, निश्चयों और कामनाओं की पुर्ति कर सुक्ष्म शरीर को बिदाई दी जाती है। और मान लिया जाता है कि सुक्ष्म शरीर नष्ट होगया।
द्वादशाह श्राद्ध में  घर पर आकर दशाह एकादशाह कर्म की क्रियाओं के दृष्य की प्रतिकात्मक पुनरावृत्ति कर  वैसे ही पिण्ड निर्माण कर पुनः उनको विसर्जित कर घर में बचे उस जीव की स्मृतियाँ, लगाव का विसर्जन कर कारण शरीर को बिदा कर दिया जाता है। और मानलिया जाता है कि, अब उस जीव का हमसे सम्बन्ध विच्छेद हो गया।
तृयोदशाह कर्म में तो बारह दिनों से जारी शोक की निवृत्त कर बन्द हुए माङ्गलिक कार्य आरम्भ के प्रतिक रूप मंगल श्राद्ध, तथा तथा कथित पगड़ी रस्म के माध्यम से उत्तराधिकार घोषणा  की जाती है।
इसके बाद भी हमारी स्मृति में रहने के कारण स्पप्न आदि में दिखनें के कारण दो वर्ष तक यह माना जाता है कि,हम उसके प्रति प्रत्यक्ष उत्तरदायी हैं अतः मासिक कुम्भ, त्रेमासिक, अर्धवार्षिक और वार्षिक तथा द्विवार्षिक श्राद्ध कर पिण्डोदक आदि क्रियाओं के द्वारा यह आश्वस्त किया जाता है कि, हम आपको भूले नहीँ हैं। आपकी शिक्षाओं का पालन कर रहे हैं। कुआ, बावड़ी, तालाब, बगीचा, धर्मशाला निर्माण जैसी दिर्घकालिक योजनाओं की पुर्ति इन दो वर्षों में कर ली जाती है। फिर तीसरे वर्ष श्राद्ध तिथि में पुनः श्राद्ध कर यह मान लिया जाता है कि, अब वे देव रूप सप्त पितरः के रूप में हमारे द्वारा अर्पित नित्य श्राद्ध को ग्रहण कर सकेंगे।
अस्थि विसर्जन उपरान्त गृहशुद्धि यज्ञ के उपरान्त की जानें वाली उक्त सभी क्रियाएँ चन्द्रवंशियों , नागों, और आग्नेयों के साथ भारत में आई। और दुष्यन्त - शाकुन्तल चन्द्रवर्षिय सम्राट भरत के उत्तराधिकारी  महर्षि भारद्वाज नें वैवस्वत मन्वन्तर में  आरम्भ की।
बलिवैश्वदेव कर्म के साथ सप्त पितर और विश्वेदेवाः के निमित्त स्वधा अर्पण रूप नित्य श्राद्ध, तर्पण और शुभकार्यारम्भ के पहले होनें वाले नान्दिमुख सांकल्पिक श्राद्ध आदि गृह्य सुत्रों के अनुसार शोत्रिय विधि से की जानेंवाली क्रियाएँ वेदिक कर्म है।
ऋग्वेद का वचन है कि, दस दिन में ही या अधिकतम ग्यारहवें दिन जीवात्मा और देही (प्राण) सहित अन्तरात्मा (प्रत्यगात्मा) , किसी भी योनि में प्रवेश कर लेता है यानि गर्भ में स्थापित हो जाता है।
स्मृति निर्माताओं और पुराणकारों नें स्वयम् स्वीकार किया है कि, स्मृतियों और  पुराणों में वेदवाह्य और वेद विरुद्ध कई वचन निहित है। साथ ही मनिषियों के लिए स्मृति निर्माताओं और पुराणकारों नें स्वयम् निर्देश दिये हैं कि स्मृतियों और  पुराणों में उल्लेखित केवल वेदिक मत और तथ्य ही स्वीकार किये जायें। वेद विरुद्ध और वेदवाह्य मत त्याज्य हैं।
अतः समय समय पर प्रविष्टि कुरीतियाँ त्यागी जाना ही उचित और धर्म है।

बुधवार, 26 मई 2021

धार्मिक पतन, सांस्कृतिक पतन, दुराचरण / भ्रष्टाचार का सुत्रपात का इतिहास।

*धार्मिक पतन, सांस्कृतिक पतन,  दुराचरण / भ्रष्टाचार का सुत्रपात* 

 *देव, मानव, गन्धर्व, किन्नर,सूर, असूर, दैत्य, दानव,, यक्ष,और  राक्षस जाति का वास स्थान --* 

 *देवभूमि* ---उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, कश्मीर, लद्दाख,  सिक्किम, तिब्बत, तजाकिस्तान, किर्गिस्तान, दक्षिण पूर्वी उज़्बेकिस्तान का ताशकन्द, समरकन्द क्षेत्र,, पूर्वी तुर्कमेनिस्तान, अफगानिस्तान का काबुल क्षेत्र, पाकिस्तान का इस्लामाबाद के उत्तर का भाग स्वर्ग कहलाता था। और यहाँ तकनीकी रूप से अत्यन्त उन्नत देवतागण रहते थे।जिनमे मुख्य 1 प्रजापति - सरस्वती, 2 इन्द्र - शचि, 3 अग्नि -स्वाहा, 4अर्यमा (पितरः) - स्वधा, 5 शिवशंकर -  सतिउमा, और 6 धर्म - और उनकी तेरह पत्नियाँ (1श्रद्धा, 2 लक्ष्मी, 3 धृति, 4 तुष्टि,5 पुष्टि, 6 बुद्ध , 7 मेधा, 8 क्रिया, 9 लज्जा, 10 शान्ति, 11 सिद्धि, 12 किर्ती , 13 वपु  ये दक्ष कन्याएँ है।) 
 7  देवर्षि नारद के अलावा 
8 द्वादश आदित्य -- 1विष्णु , 2 सवितृ , 3 त्वष्टा,  4  इन्द्र, 5  वरुण, 6  पूषा 7 विवस्वान,  8 धातृ,  9  भग, 10 अर्यमा,  11 मित्र  12 अंशु।
 9अष्ट वसु --- 1प्रभास, 2  प्रत्युष, 3 धर्म, 4  ध्रुव, 5 सोम , 6  अनल, 7 अनिल और  8 आपः।
और 10 एकादश रुद्र --- 1शंकर , 2 त्र्यम्बक, 3 हर, 4 वृषाकपि, 5 कपर्दी, 6  अपराजित, 7 रैवत्, 8 बहुरूप, 9 अजैकपात्,10 अहिर्बुध्न्य,11 कपाली।
और 11 कुबेर - का निवास है।
( सुचना ---इनमें से 33 देवता  स्वर्गाधिकारी  है। ⤵️
1 प्रजापति - सरस्वती, 2 इन्द्र - शचि,3विष्णु आदित्य , 4 सवितृ आदित्य , 5 त्वष्टा आदित्य, 6 इन्द्र आदित्य,   7 मित्र आदित्य, 8 वरुण आदित्य, 9  पूषा आदित्य  10 विवस्वान आदित्य,  11 धातृ आदित्य,12 भग आदित्य, 13 अर्यमाआदित्य  14 अंशु आदित्य और 15 प्रभासवसु, 16  प्रत्युषवसु, 17 धर्म वसु, 18 ध्रुव वसु, 19 सोम वसु, 20  अनल वसु,21 अनिल वसु 22 आपः वसु और  23 शंकर , 24 त्र्यम्बक, 25 हर, 26 वृषाकपि, 27 कपर्दी, 28  अपराजित, 29  रैवत्, 30 बहुरूप, 31 अजैकपात्,32 अहिर्बुध्न्य,33 कपाली। )

 *किन्नर देश* --- किन्नोर (उत्तराखण्ड -भारत)

 *ब्रह्मर्षि देश* --- हरियाणा पञ्जाब के कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पाञ्चाली, और शूरसेनक क्षेत्र  ब्रह्मर्षि देश कहलाता था। ब्रह्मर्षि देश के निवासी 
 1 दक्ष-प्रसुति 2 रुचि-आकुति, 3 कर्दम - देवहूति (ये तीनो स्वायम्भुव मनु की पुत्री हैंं),  4 मरीचि- सम्भूति, 5भृगु- ख्याति, 6अङ्गिरा - स्मृति, 7 वशिष्ठ- ऊर्ज्जा, 8 अत्रि - अनसूया, 9 पुलह -क्षमा, 10 पुलस्य - प्रीति, 11 कृतु - सन्तति।  (ये क्रमांक 4 से 11 तक आठ ब्रह्मर्षि हुए इनकी पत्नियाँ दक्ष कन्याएँ हैं।)।
 *मानव देश* --- 
क *स्वायम्भुव मनु और मनुर्भरत देश* ---पञ्जाब, सिन्ध, बलुचिस्तान, उत्तरपश्चिम सीमा प्रान्त, अफगानिस्तान ,राजस्थान, गुजरात, उत्तर
 प्रदेश और उत्तरी मध्यप्रदेश में 1 स्वायभ्भुव मनु - शतरूपा और उनकी सन्तान  2 प्रियवृत -कर्दम की पुत्री ,   -> 3 आग्नीध्र -  (जम्बूद्वीप नरेश),  -> अजनाभ या नाभि - मरुदेवी (हिमवर्ष का नाम अजनाभ वर्ष  रखा अतः नाभीवर्ष नरेश कहाये), -> ऋषभदेव -  (नाभीवर्ष), -> भरत चक्रवर्ती -  (जड़ भरत) ( नाभीवर्ष का नामभारत वर्ष  किया), -> सुमति -> इन्द्रधुम्न्य, - > परमेष्ठी -> प्रतिहार -> प्रतिहर्ता -> भव, -> उद्गीथ, -> अतिसमर्थ  प्रस्ताव,  -> पृथु,  -> नक्त, ->  गय -> नर और विराट, -> महावीर्य ,-> धीमान, -> महान्त, -> मनन्यु, -> त्वष्टा, -> विरज, -> रज, -> शतजित, -> विध्वरज्योति की सन्तान मनुर्भरत का निवास स्थान है। 
ख *वैवस्वत मनु* --- कश्मीर, उत्तर प्रदेश, उत्तरी और पूर्वी मध्य प्रदेश बिहार, बङ्गाल, उड़िसा,

 *गन्धर्व - अप्सरा देश* --- सिन्ध,बलुचिस्तान और अफगानिस्तान, 

 *सूर देश* ---मेसापोटामिया विशेषकर सीरिया,
असूर देश --- मेसापोटामिया  विशेषकर असीरिया (इराक)
दैत्य देश --- मेसापोटामिया विशेषकर बेबीलोनिया  (इराक) तथा  मिश्र, स्वेज,इज्राइल,जोर्डन और लेबनान ,  
दानव देश ---बुल्गारिया,रोमानिया, हङ्गरी, स्लावाकिया (प्राग), 
 *राक्षस देश* ---अफ्रीका महाद्वीप, आष्ट्रेलिया महाद्वीप, उत्तर अमेरिका महाद्वीप और दक्षिण अमेरिका महाद्वीप के निग्रो लोगों का देश

हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने  *अधर्म और हिन्सा का वास नर्क में* रखा *था* ।किन्तु धीरे धीरे *कैसे वह त्रिलोकव्यापी होगया* इसका रोचक *विवरण* प्रस्तुत है।⤵️

देवताओं में धार्मिक पतन, सांस्कृतिक पतन,  दुराचरण / भ्रष्टाचार का सुत्रपात त्वष्टा पुत्र विश्वरूप ने किया। ---
 देवताओं के पुरोहित रहते असुरों के लिए आहुति और यज्ञभाग देकर त्वष्टा पुत्र *विश्वरूप नें अधर्म का सुत्रपात* किया।
यही भ्रष्ट आचरण का प्रथम उदाहरण बना। राजधर्म निर्वाह कर  इन्द्र द्वारा विश्वरूप का वध किया। इससे रुष्ट त्वष्टा ने दूसरा पुत्र वत्रासुर उत्पन्न किया। विश्वरूप के अनुज वत्रासुर ने आतंकी गतिविधियों का सुत्रपात किया। यहाँ से आतंक का अभ्युदय हुआ।
वत्रासुर ने जल संसाधनों पर कब्जा कर लिया। जल आपूर्ति रोक दी। विवश होकर इन्द्र को वत्र का भी वध करना पड़ा।

फिर देवताओं ने भृगु पुत्र शुक्राचार्य को पुरोहित बनाया।    *शुक्राचार्य नें भी* पुरोहित रहते हुए *विश्वरूप का अनुसरण* कर असुरों के लिए आहुति और यज्ञभाग देकर वही गलती दुहराई।
विवश हो देवताओं को शुक्राचार्य को छोड़कर पुनः *अङ्गिरा पुत्र ब्रहस्पति को ही पुरोहित बनाना पड़ा। तब जाकर भ्रष्टाचार रुका।* 
देवताओं द्वारा शुक्राचार्य से पौरोहित्य छिन कर उनके प्रतिद्वंद्वी ब्रहस्पति को पुरोहित बनाने से *शुक्राचार्य नें रुष्ट होकर अपने पुत्र त्वष्टा के साथ मिलकर अथर्वाङ्गिरस ऋषि  अथर्ववेद की क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त कर उसके आधार पर नवीन पन्थ तन्त्रमार्ग की खोज की। शुक्राचार्य के पुत्र ने युनान के पास क्रीट नामक द्वीप  में शाक्तपन्थ की स्थापना की।* 

उधर इराक में मेसोपोटामिया,असीरिया, बेबीलोनिया  क्षेत्र में दैत्यराज *कश्यप दिति पुत्र हिरण्याक्ष था*। ब्रहस्पति और देवताओं के प्रति द्वेष रखने के कारण *शुक्राचार्य ने असुरों को भड़का कर शुक्राचार्य के आदेशानुसार हिरण्याक्ष ने भूमि पर अपना आतंक स्थापित किया।* अन्ततः  वराह द्वारा उसके वध कर भूमि को अत्याचारों से मुक्त कराया।  
हिरण्याक्ष के अनुज **हिरण्यकशिपु ने पुनः* भूमण्डल पर *आतंक* का साम्राज्य *स्थापित किया* । *नृसिह द्वारा हिरण्यकशिपु का वध* करने पर एक पीढ़ी तक प्रहलाद के शासन में शान्ति रही। किन्तु प्रहलाद के पुत्र *विरोचन* ने पुनः भारत के उत्तरी भाग के देवताओं से भिड़न्त हो गई। इन्द्र को विरोचन का भी वध करना पड़ा। विरोचन का पुत्र बलि फोनेशिया लेबनान के राजा था।  विरोचन का उत्तराधिकार बलि को मिला। बलि  शुक्राचार्य का प्रिय शिश्य था। *शुक्राचार्य के निर्देश पर  विरोचन ने फिर आतंक मचाया। उसने भारत में केरल तक अधिकार कर लिया।* और केरल में एक बड़ा *तान्त्रिक अनुष्ठान कर रहा था* तभी वामन ने  बलि से तीन पग भूमि माँग ली। शुक्राचार्य द्वारा विरोध करने पर भी बलि ने वामन को तीन पग भूमि का दान कर दिया। *वामन नें तीन पग में बलि का सम्पूर्ण साम्राज्य माप लिया और बलि को  दक्षिण अमेरिका में बोलिविया पहूँचा दिया। तब कई केरल वासी और अन्य दक्षिण भारतीय भी बलि के साथ बोलिविया गये।* ये सिन्ध, ईरान, इराक, टर्की, होते हुए पहले लेबनान गये। बीच मे बहुत लुटमार, चोरी-डकेती करते हुए पहले लेबनान पहूँचे। वहाँ से कुछ अफ्रीका के दास लेकर बोलिविया गये।

चुँकि, बलि ने शुक्राचार्य की आज्ञा की अवहेलना कर वामन को तीनपग भूमि दान दी थी। इसकारण शुक्राचार्य बलि से रुष्ट होनें के कारण बलि के साथ नही गये।
 
*शुक्राचार्य नें दानवी नदी (डेन्यूब नदी) के तट पर जर्मनी,आस्ट्रिया, हङ्गरी, स्लावाकिया, रोमानिया, बुल्गारिया और युक्रेन  के दानवों के राजा वृषपर्वा का पौरोहित्य स्वीकारा। दानवों नें शुक्राचार्य के शिष्य इन्द्रपुत्र कच की हत्या कर शुक्राचार्य को मदिरा पान करवा कर छल पूर्वक कच का मान्स खिला दिया। शुक्राचार्य को उनकी पुत्री देवयानी द्वारा जानकारी देने पर शुक्राचार्य नें कच को मृतसंजीवनी विद्या सिखाकर पेट से बाहर निकाला। फिर कच नें शुक्राचार्य का मृतसंजीवनी विद्या से उपचार कर जीवनदान दिया।* 
*इस घटना से रुष्ट होकर रुष्ट होकर शुक्राचार्य  ने दानवों का साथ छोड़कर दिया*

*अत्रि के पुत्र चन्द्रमा नें ब्रहस्पति की पत्नी तारा का हरण कर बुध को जन्म दिया। बुध नें वैवस्वत मनु की पुत्री ईला से विवाह कर एल पुरुरवा को जन्म दिया। पुरुरवा नें इराक के तेल अल मुकाय्यार के उर शहर की अप्सरा और इन्द्र की नर्तकी उर्वशी से  अल्पसमय के लिए संविदा विवाह (मूता निकाह) कर उससे आयु (आदम) को जन्म दिया। किन्तु जन्म देकर पुत्र आयु (आदम) को पुरुरवा के पास छोड़कर उर्वशी वापस इन्द्र के दरबार में चली गई। पुरुरवा ने आयु (आदम) को दक्षिण पूर्वी टर्की के युफ्रेटिस घाँटि में ईलाझी शहर में अदन वाटिका में अकेले ही पाला। पुरुरवा के समय राजा के देवीय अधिकार और राजा को ईश्वर माननें की अवधारणा विकसित हुई।*
*प्रजा पुरुरवा को ईश्वर मानने लगी थी। इस कारण सीरिया के सूर एल पुरुरवा के विरोधी हो गये। सीरिया के सुरेश के निर्देश पर सुरसा पुत्र एक नागवंशी ने आयु (आदम) को भड़का दिया। आयु आदम ने एल पुरुरवा के आदेश के विरुद्ध बुद्धि वृक्ष का फल पकने से पहले ही तोड़़कर कच्चा फल ही खा लिया। पुरुरवा ने नाराज होकर   आयु को अदन वाटिका के पूर्वीद्वार से एक गुब्बारे में बिठाकर निकाल दिया।*
*आयु हवा के सहारे  सिंहल द्वीप के श्रीपाद पर्वत शिखर पर उतरा। वहाँ श्रीपाद पर्वत पर आयु (आदम ) के लंक यानी पैर के पञ्जे के चिह्न बन गये। इसलिए सिहलद्वीप को श्रीलंका कहने लगे। वहाँ से 48 कि.मी. के उथले तट (आदम सेतु) से भारत आकर केरल से नाविकों के सहयोग से वापस टर्की पहूँचा। तबतक पुरुरवा भी बुढ़ा हो गया था। अतः  वापस लोटने पर पुत्र को अपना लिया।*
*आयु के वंशज नहुष (न्युहु) के समय जल प्रलय हो गया।मत्स्य देश के महामत्स्य की भविष्यवाणी के आधार महापर मत्स्य की सहायता से  नहुष एक नाव में बैठकर अन्य जीव जन्तुओं और कुछ मानवों सहित जीवित हिमालय स्थित स्वर्ग पहुँच गया। किन्तु ऋषि देश के सप्तर्षियों से पालकी उठवाकर पुरन्दर इन्द्र की पत्नी शचि से विवाह करनें पहूँच रहा था कि, सप्तर्षियों के शाप से वापस उसके देश को लौटादिया। किन्तु वह टर्की तक नही पहूँच पाया और सऊदी अरब में ही अटक गया।*

*शुक्राचार्य ने टर्की से सऊदी अरब तक के नहुष के वंशज राजा ययाति (इब्राहिम) को  शिक्षित किया साथ ही सऊदी अरब में काव्य नगर में काबा का शिव मन्दिर स्थापित किया। उसके बाद अफ्रीका महाद्वीप में  सुडान को केन्द्र बना कर शैव पन्थ का प्रचार किया।* 
*आयु (आदम) के वंशज  ययाति (इब्राहिम) ने मानवों में आसुरी मत को अपनाया। बुध और ईला के पुत्र एल को ईश्वर घोषित कर शिवाई / शिवाई पन्थ बनाया जिसका प्रथम प्रचारक स्वयम् ययाति (इब्राहिम) होगया।* 
*ययाति (इब्राहिम) के वंशजों, और शिष्यों ने शिवाई (शैव) मत को आगे बड़ाया।*

*अत्रिपुत्र दत्तात्रय ने विश्वरूप की परम्परा को पुनर्जीवित किया और शुक्राचार्य का तन्त्रमत अपनाया और अष्टाङ्गयोग को हटयोग में परिवर्तित कर दिया।* 
*भारत में मण्डला में यदुवंशी कार्तवीर्य सहस्त्रार्जून और लक्ष्यद्वीप में लंकापति रावण को अपना शिष्य बनाया।* 
*कार्तवीर्य सहस्त्रार्जून नें पूरे राज्य में मदिरालय खुलवाये। मान्साहार, मदिरापान, व्यभिचार को वैध कर दिया। यही स्थिति रावण की भी थी। वह स्वयम् परम दुराचारी था। रावण नें भी समस्त दुराचारों को वैध घोषित कर दिया। अन्त में परशुराम जी ने कार्तवीर्य सहस्त्रार्जून का वध करना पड़ा। और रावण का वध श्री राम को करना पड़ा।*

*मानवों में विश्वावसु नें वशिष्ठ जी की प्रतिस्पर्धा में क्रियाओं, कर्मकाण्डों के माध्यम से अधर्म सुत्रपात किया। यहीँ से मानवों में अधर्म और भ्रष्टाचार का सुत्रपात हुआ।*
*राजा विश्वावसु वशिष्ठ के प्रभाव से पराभूत होने के पश्चात राज्य शक्ति को तुच्छ मानकर राज्य त्याग कर कठोर तपस्या कर ब्रह्मर्षि पद पाकर वशिष्ठ के समतुल्य होने का प्रयत्न करनें लगे।*
*इसी धून में वे पौरोहित्य कर्म में अवेदिक और वेद विरुद्ध प्रयोगों के माध्यम से असम्भव माने जाने वाले लक्ष्य प्राप्ति का प्रयत्न करने लगे। उनने वेदिक  क्रियाओं में तन्त्र का समावेश करने की भूल की।जिसका प्रभाव कल्पसुत्रों में परिलक्षित होता है।बाद में समझ आनें पर गलतियों का प्रायश्चित भी किया। किन्तु एक नई परम्परा सृजित होचुकी थी।*वर्तमान में जो आगम प्रचलित हैं, तथा निबन्धकारों नें  सर्वतोभद्र चक्र में योगिनियों, असुरों को जो स्थान दिया है वह उसी का परिणाम है।*
*वेदिक काल मेंशास्त्रीय कर्मों में सायन सौर वर्ष तथा सायन मास और संक्रान्ति गतांश प्रचलित थे। साथ ही लोक प्रचलित सावन वर्ष प्रचलित था जिसे  अधिक मास करके एक यज्ञ सत्र में सायन सौर संवत्सर से मिला दिया जाता था।  आज यह वेदिक संवत्सर पारसियों में ही प्रचलित है। भारत सरकार ने परिवर्तन के साथ शकाब्द के साथ पुनः लागू किया है।
 किन्तु ऋषि विश्वामित्र जी द्वा्रा ज्योतिष वेदाङ्ग में नक्षत्रीय पद्यति को निरयन गणना में परिवर्तित कर दिया।  नाक्षत्रिय वर्ष का निरयन सौर संवत्सर  विश्वामित्र ऋषि की ही खोज है। जो  वर्तमान में  पञ्जाब, उड़िसा, बंगाल, केरल, तमिलनाड़ु में प्रचलित है। विक्रमादित्य ने भी विक्रम संवत में इसी निरयन सौर संवत्सर और निरयन सौर संक्रान्ति से मासारम्भ एवम् संक्रान्ति गत दिवस (गते) का ही प्रचलित रखा था। तब से सायन सौर संवत विलुप्त हो गया था।
महाराज नाबोवाहन ने पञ्जाब- हरियाणा के मालव प्रान्त से आकर (भोपाल के निकट सोनकच्छ से लगभग २० कि.मी. दर) गंधर्वपुरी को राजधानी बनाया था। बाद में नाबोवाहन के पुत्र गन्धर्वसेन गन्धर्वपुरी के राजा हुए। जिन्हें महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था। उनकी पत्नी सोम्यदर्शना थी जिनका अन्य नाम वीरमती था।

भृतहरि और विक्रमादित्य के पिता गन्धर्व पूरी के शासक  गन्धर्वसेन कट्टर वेदिक धर्मावलम्बी और विष्णु भक्त थे। इस कारण जैन आचार्य महेसरा सूरी उनसे रुष्ट थे। जैन आचार्य महेसरा सूरी ने अफगानिस्तान तक पैदल जाकर शक राजा/ कुषाण क्षत्रप के दरबार में गंधर्वसेन के विरुद्ध गुहार लगाई तथा उज्जैन पर आक्रमण हेतु आमन्त्रित किया। शक शासक/ कुषाण क्षत्रप ने महाराज गन्धर्वसेन पर अनेक अत्याचार किये परिणाम स्वरूप गंधर्वसेन की मृत्यु जंगल में होगई। जैन ग्रन्थों में गन्धर्वसेन को गर्दभिल्ल, गदर्भ भिल्ल, गदर्भ वेश भी कहा गया है।
जैनाचार्य ने अफगानिस्तान तक पैदल यात्रा कर गन्धर्व पूरी के राजा गन्धर्व सेन पर आक्रमण करनें के लिए शकराज को आमन्त्रित किया। गन्धर्व सेन के पुत्र भृतहरि की पत्नी को पर भ्रष्टकर भृतहरि को नाथ सम्प्रदाय में सम्मिलित करने की कुटिल चाल तान्त्रिकों ने चली। बौद्धाचार्यों वें चन्द्रगुप्त द्वितीय के भाई रामगुप्त के विरुद्ध चीन के शकराज को समर्थन दिया और समझोते में रामगुप्त की पत्नी ध्रुव स्वामिनी को शकराज के हवाले करनें का दुष्ट समझोता करवाया। जिसे चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने असफल कर शकराज का वध किया।
 विक्रम संवत 135 में कुषाण वंशी कनिष्क  द्वारा राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, में  शक संवत और निरयन सौर संवत से संस्कारित चान्द्र वर्ष लागू किया और गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश में सातवाहन वंशी शालिवाहन  गोतमीपुत्र सातकर्णी द्वारा  निरयन सौर संस्कारित चान्द्र पञ्चाङ्ग के शकाब्ध लागु किया। 
किन्तु  (बाद में महर्षि विश्वामित्र बने) राजा विश्वावसु की निरयन सौर गणना पूरे भारत पर हावी होगई। यहाँ तक कि, वेदिक और पौराणिक प्रमाण होनें के बावजुद भी जन सामान्य सायन गणना को विदेशी मान बैठा है। और इराक, मिश्र और चीन की चान्द्र वर्ष गणना को , सप्ताह के वारों को और घण्टा मिनट को भारतीय मानता है। Hour (घण्टा) के लिये  तो होरा शब्द बना लिया पर मिनट सेकण्ड के लिए कोई शब्द भारतीय भाषाओं में नही है।
ऐसे ही भारतीय जनता ने मध्य रात्रि में वार बदलना और दिन बदलना मान लिया।
धर्म में यह भ्रष्टाचार की सीमा होगई।

सोमवार, 10 मई 2021

श्रीमद्भगवद्गीता का मूल उपदेश सदाचार है।

0 वेदों का उपदेश सबके लिए समान है चाहे वह वर्णाश्रमी हो या श्रमण हो, आस्तिक हो नास्तिक हो, या तान्त्रिक हो। देवोपासक सनातन धर्मी हो या असुरोपासक पैशाच धर्मी हो; 
वेदों में सबके लिए समभाव से एक समान एक ही ज्ञान है।
इसी कारण पूर्वमिमान्सा दर्शन अनिश्वरवादी आस्तिक (वेदमार्गी) दर्शन कहलाता है। सांख्य दर्शन और वैशेषिक दर्शन भी आस्तिक दर्शन हैं पर पूर्ण ईश्वरवादी नही है।

1 सभी उपनिषद ईशावास्योपनिषद के एक,दो  या कुछ मन्त्रों की ही व्याख्या करते हैं।ईशावास्योपनिषद में प्रथम दो मन्त्रों में मुख्य चार बातें कही गई है। शेष सोलह मन्त्रों मे  इनकी ही विवेचना की गई है ऐसा भी जा सकता है।
1 ईशावास्यम् इदम् सर्वम, यत्किञ्च जगत्याम् जगत।
अर्थात सर्वखल्विदम् ब्रह्म, प्रज्ञानम् ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म, तत् त्वम्असि (तत्वमसि), अहम् ब्रह्मास्मि, 
इस जगत में जो कुछ है सबकुछ परमात्मा ही है। उसके अतिरिक्त कुछ भी नही है।
2 तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा ।
उसे त्याग पूर्वक भोग करो।
 वास्तविक अस्तित्व केवल परमात्मा का ही है और जगत का वास्तविक अस्तित्व नही है अतः इसी त्याग भाव से जगत में रहो।
मा गृधः कस्यस्वीधनम् ।
किसी के धन का लोभ मत करो। क्योंकि, मूलतः यह जगत है ही नही। जो दृष्याभास है वह भी तभी तक है जब तक इस आभास का सृजक हिरण्यगर्भ ब्रह्मा स्वयम् जाग्रत रहता है। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का दिन समाप्त होते ही उसकी रात्रि में यह आभास भी लुप्त हो जायेगा। जब यह जगत अपनें सृजेता की भी केवल कल्पना मात्र में है। तो तुम्हारा हमारा वास्तव में कैसे हो सकता है। अतः किसीचीज से लगाव मत रखो। 
पराई चीज को अपना मानना, अपना होनें की इच्छा रखना चोरी है। अतः लोभ मत करो।
कुर्वनैवेह कर्माणि..
कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीवित रहनें की इच्छा करें। इसको छोड़कर कोई उपाय नही है जिससे तुझे कर्म का लेप न हो।
अकर्मण्य भी नही रहा जा सकता वह सम्भव ही नही है कर्म फल निश्चित है अतः फलाशा भी व्यर्थ ही है।
अतः सदैव ध्यान रखें कि, मै परमात्मा का हूँ।केवल परमात्मा ही मेरे हैं। अतः अविरत यह बात स्मरण रहे। परमात्मा ही सदैव ध्यान में रहे।
और ये देहेन्र्द्रिय मन,अहंकार, बुद्धि, चित्त ,तेज, ओज आदि सब जगत के ही भाग हैं। अतः इन्हे हर घड़ि, हरपल पूर्ण रूपेण जगत की सेवा में लगादो।
 ये जगत इसकी  वस्तुएँ आपसे असम्बद्ध  हैं अतः इनके सुख दुःख की चिन्ता आपको नही करना है  इनके सुख दुःख से भी आपका कोई सम्बन्ध नही है। इनको तो केवल शास्त्रोक्त विधि से शास्त्रोक्त कर्मों में लगाये रखो। बस।

2  जिस समय श्रीमद्भगवद्गीतोपदेश हुआ उसके ठीक उसी स्थान पर आनेवाले दुसरे ही दिन से ठीक उसी ढंग से व्युह रचकर वास्तविक युद्ध लड़ा जाने के युद्धाभ्यास हेतु तैयार खड़ी दोनो सेनाओं के बीच खड़े होकर श्रीकृष्ण नें जिज्ञासु अर्जुन को दिया गया। क्योंकि, अर्जून ने युद्ध भूमि में युद्ध करने से इन्कार कर दिया।   धर्मयुद्ध के मुख्य सेनानायक अर्जुन को युद्ध के लिए वापस दमखम से तैयार करनें के लिए ईशावास्योपनिषद के द्वितीय मन्त्र कुर्वन्नेवेह कुरमाणि...के आधार पर मन्त्र की सबविधि से व्याख्या कर श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश दिया गया था।

अतः  वहाँ श्रीकृष्ण का उद्देश्य और मुख्य ध्येय केवल युद्ध में उपस्थित बाधा दूर कर अर्जुन को युद्ध में  क्षत्रीय निष्ठापूर्वक तत्परता से युद्ध के लिए खड़ा करना ही था। ध्यान रखें निष्काम कर्मयोगशास्त्र, सांख्ययोग या अद्वैत वेदान्त, भेदाभेद वेदान्त, या विशिष्ठाद्वैत वेदान्त या शुद्धाद्वैत वेदान्त का कोई प्रामाणिक ग्रन्थ रचने के उद्देश्य से श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश नही दिया गया था।।

3 श्रीमद्भगवद्गीता भी में द्वितीय अध्याय के आरम्भ में ही श्रीकृष्ण नें अर्जून से किसी भी मत की अपेक्षा नही रखी। प्रत्यैक दर्शन की दृष्टि से उसे युद्ध करना ही कर्तव्य कर्म (कार्यकर्म) है केवल यही सिद्ध किया है।
 अतः श्रीमद्भगवद्गीता का मुख्य विषय धर्म पुरुषार्थ है न कि, मौक्ष पुरुषार्थ।

4 धर्म मिमान्सा के अन्तर्गत श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन को स्पष्टतः समझाया गया है कि,
 क्या किया जाये? क्या नही करना चाहिए?
 कोई भी कर्तव्य कर्म (कार्य कर्म) क्या सोचकर किया जाये और क्या समझकर कर्म किया जाये? 
क्या सोच और क्या समझकर अकर्तव्य कर्म (अकार्य)  न किया जावे?
यही मुख्य विवेचन है। न कि, केवल मौक्ष पुरुषार्थ।

5 अतः श्रीमद्भगवद्गीता में योगदर्शन को अधिक महत्व दिया है। योग दर्शन के पाँच यम और पाँच नियम में से पाँचवा और अन्तिम निमय ईश्वर प्रणिधान है। इसी कारण श्रीकृष्ण ने ईश्वरप्रणिधान पर भी  पर्याप्त जोर दिया। किन्तु उसे ध्यैयवाक्य नही बतलाया है। ध्यैय वाक्य कर्मण्येवाधिकारस्तेव मा फलेशु कदाचन बतलाया है।

6 अतः श्रीमद्भगवद्गीता भी ईश्वरवादी तो है। पर उसका मुख्य सिद्धान्त शास्त्रोक्त विधि से,यज्ञार्थ शास्त्रोक्त कर्म ही करना है। शास्त्रविरुद्ध कर्म और शास्त्र विधि के विरुद्ध कर्म पूर्ण निषिद्ध मानें हैं।

7 अतः श्रीमद्भगवद्गीता में  योग दर्शनोक्त यम नियमों और मनुसमृति में उल्लेखित  धृति सहित दस धर्मलक्षणों को मुख्यता प्रदान की है।अहिन्सा  सत्य (सत्यवचन, सदविचार,सदाचार, सदाशयता, सत्याग्रह,), अस्तेय ,निर्लोभत्व,  ब्रह्मश्चर्य  अपरिग्रह , शोच , सन्तोष , तप , तितिक्षा ,ईश्वरप्रणिधान , धृति , दया, करुणा भाव रखना ये धर्म लक्षण हैं,पञ्च महायज्ञ ,1 ब्रह्मयज्ञ, अष्टाङ योगाभ्यास, , 2देवयज्ञ,3 भूतयज्ञ , 4 नृयज्ञ,5  पित्रयज्ञ करना आदि विशेष महत्वपूर्ण मान्यता है।

8 अतः श्रीमद्भगवद्गीता में ब्रह्मसुत्रों अर्थात उपनिषदों की पुष्टि की है लेकिन बादरायण कृत शारीरक सुत्रों (ब्रह्मसुत्र) की व्याख्या करना या पूष्टि करना इष्ट नही है।

9 अतः  वेदों के प्रति आस्तिकवाद  या नास्तिकवाद, योग दर्शन या सांख्य दर्शन को महत्ता देने, योग या ज्ञान या भक्ति में किसको महत्ता दी गई सर्वप्रथम इन वाद विवादों को अलग रखकर ही श्रीमद्भगवद्गीता का अध्ययन करें। क्योंकि, युद्धकाल में ये विषय अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए कहीं गई है; न कि, इनको सिद्ध करनें या इन मतों की पुष्टि करने हेतु।

10 श्रीमद्भगवद्गीता का मुख्य विषय धर्मपालन पूर्वक जीवन का उपदेश है। और इसी धर्म पालन के रूप में अर्जुन के समक्ष उपस्थित धर्मयुद्ध का निष्ठापूर्वक निर्वहन के लिए ही विचलित मनःस्थिति वाले अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन की विभिन्न जिज्ञासाओं का समाधान कर  विवेक को प्राधान्य देकर , निश्चयात्मिका बुद्धि से मन पर नियन्त्रण करने और, मनोवाक्कायकर्मभि सदाचारी होकर, शास्त्रोक्त कर्म शास्त्रोक्त विधि से ही यज्ञार्थ ही कर्म करने का उपदेश करते हैं और उपस्थित कर्तव्य को प्राथमिकता देने का ही धर्मोपदेश देते है।

11 मौक्ष पुरुषार्थ तक पहूँचने के लिए धर्म पुरुषार्थ, अर्थ पुरुषार्थ, काम पुरुषार्थ सभी  सीढ़ियों (स्टेप्स) के समान सहयोगी है, न कि, बाधक । किन्तु आवश्यक है शास्त्रोक्त विधि अनुसार शास्त्रोक्त मर्यादा में ही रह कर केवल यज्ञार्थ कर्म ही करना ताकि, कर्म का लेप न हो।

12 ध्यान रहे पुरुषार्थ शब्द का तात्पर्य पुरुष के लिए होता है न कि, पौरुष या पुरुष द्वारा किया जानेवाला कर्म। लोग भ्रमवश पुरुषार्थ का अर्थ पौरुष या पुरुष द्वारा किया जानेवाला कर्म लगाते हैं जबकि, पुरुषार्थ का वास्तविक अर्थ प्रत्यगात्मा (अन्तरात्मा) पुरुष के लिये होता है।

13 जैसे यहाँ प्रत्यगात्मा और पुरुष दो शास्त्रीय शब्द आये। प्रत्यगात्मा मतलब सबकी व्यक्तिगत अन्तरात्मा और पुरुष मतलब व्यक्ति का नीज स्वरूप जिससे वे प्रथक प्रथक पहचान रखते हैं। जबकि परमात्मा, विश्वात्मा , प्रज्ञात्मा सार्वभौम है व्यक्तिगत नही।
ऐसे उपस्थित तथ्यों का स्पष्टीकरण करनें के कारण श्रीमद्भगवद्गीता में अध्यात्म विषय पर चर्चा का समावेश हुआ है। क्योंकि, सिद्धान्त समझाये बिना धर्म का तत्व समझ में नही आता। किन्तु ये सब विवरण सहायक के रूप में है मुख्य उद्देश्य को ध्यान में रखते भगवान बारम्बार अर्जुन से आग्रह करते हैं कि, इसलिए है अर्जुन युद्ध के लिए तैयार होजा और उठकर युद्ध कर।" ये वचन प्रायः हर एक अध्याय में आया है।

14 यहाँ यह भ्रम उपस्थित हो सकता है कि, अलग अलग धर्माचार्यों नें श्रीमद्भगवद्गीता का उद्देश्य ज्ञान, वैराग्य, निष्काम कर्म, या भक्ति को ही निरुपित किया है। यह तो किसी नें नही कहा कि, शास्त्रोक्त विधि से ही शास्त्रोक्त कर्म अर्थात यज्ञ के लिए यज्ञ करने का ही उपदेश दिया है।
इसका स्पष्टीकरण यह है कि, हर एक सम्प्रदाय के आचार्य को ऐसे जन समुह को समाधान देना था जो पूर्वकाल में बौद्ध या जैन मत में परिवर्तित हो चुके थे। अधिकांश जन नास्तिक और बौद्ध जैन आचार विचार, मध्यम मार्ग, या घोर तप लङ्घन रूप व्रतोपवास अपना चुके थे, तान्त्रिकों से अत्यधिक प्रभावित हो चुके थे और तान्त्रिक अनुष्ठानों से ही सुख समृद्धि प्राप्त करना जीवन का अन्तिम ध्यैय, जीवनचर्या और जीवन दर्शन बन चुके थे। जिसका प्रभाव आजतक है।
उन्ही आचार्यों के शिष्य आज भी गुरुपरम्परा का निर्वहन करनें को बाध्य है।
किन्तु वे ही आचार्य आजके नास्तिक, विश्वव्यापी ईसाई नैतिकता के सिद्धान्तों, इस्लामी कट्टरता का समाधान करनें करवाने में असमर्थ हैं। लोग अपना धर्म संस्कृति छोड़ रहे हैं। क्योंकि, धर्माचरण की शिक्षा उन्हें कहीँ नही मिली। कुछ इस्कॉन के भक्ति आन्दोलन को ही चरम लक्ष्य मान बैठे तो कुछ साई को नारियल प्रसाद, भेंट देकर अपना काम निकालने को ही धर्म मान बैठे। अस्तु,

15 अब बतलाया जायेगा कि, श्रीमद्भगवद्गीता में  मानव जीवन के विषय में क्या दिशा निर्देश दिये गये हैं। धर्मयुक्त जीवन कैसे जीया जाए। आगे इसी विषय पर चर्चा होगी।

धर्म क्या है। -- मनुसमृति एवम याज्ञवल्क्य स्मृति, विदुर नीति, श्रीमद्भागवत महापुराण और योगदर्शन ने धर्म के जो लक्षण बतलाये हैं, योग दर्शन नें भी जो यम नियम बतलाये हैं  उसके अनुसार धर्म  यह है--
अहिन्सा (सबसे अपने समान ही प्रेम करना), सत्य (सत्यवचन, सदविचार,सदाचार, सदाशयता, सत्याग्रह,), अस्तेय (निर्लोभत्व पराईवस्तु के प्रति अनाकर्षण), ब्रह्मश्चर्य (ब्रह्म की ओर चलना, वेदमार्ग पर चलना, वर्णाश्रम धर्म पालन, वीर्य रक्षण), अपरिग्रह (सर्वजन हिताय संग्रह को छोड़ भविष्य में स्वयम् के उपयोग हेतु संग्रह वृत्ति का अभाव), शोच (मनोवाकाय,कर्मर्भि स्वच्छता, शुद्धता, पवित्रता), सन्तोष (ईश्वर के दिये और दुसरों द्वारा अपनें लिए किये में पूर्ण सन्तुष्ट रहना किनतु, अध्ययन, सेवा, परहित कार्म , त्याग तपस्या में अधिकतम करनें का उत्साह होना), तप (स्वधर्म पालन में सदैव अहोरात्र तत्परता, धर्मपालन के लिए, परहित में, परदूःख कातरता में आये कष्टों को महत्व ही नही देना तितिक्षा),ईश्वरप्रणिधान (अनन्य भाव से ईश्वराश्रित होना, सम्पूर्ण समर्पण, स्व का पूर्ण त्याग , स्वाहा भाव),, धृति (धारण शक्ति, धैर्य, ध्रूव / स्थैर्य होना, दृढ़ता होना।), दया, करुणा भाव रखना ये धर्म लक्षण हैं, यज्ञ (परमार्थ/ परम के लिए कर्म, अपनी कमाई में से पहले सबको उनका भाग सोंपकर शेष का ही उपभोग करना। ब्रह्मयज्ञ(अष्टाङ योगाभ्यास, और अध्ययन अध्यापन), देवयज्ञ(अग्निहोत्र, जप), भूतयज्ञ (पेड़ पौधे, जीव जन्तुओं की निष्काम सेवा सुश्रुषा), नृयज्ञ / अतिधि,बालको, अबलाओं, वृद्धों, रोगियों, अशक्तो की निष्काम सेवा सुश्रुषा) पित्रयज्ञ (पूर्वजों के प्रति श्रद्धाभाव रखते हुए उनके बचे प्रोजेक्ट पूर्ण करना, उनके सत्कार्यों को आगे बड़ाना, उनका मानप्रतिष्ठा संवर्धन हेतु लोकोपकारी कार्य करना।)

16 नित्य का हम सबका अनुभव है कि,उक्त विधि धर्म पालन में किसी का मन नही लगता। तो फिर श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार ऐसे धर्मपालन में मन रम जाये इसका उपाय क्या है। उसमें बाधाएँ क्या है, उन्हे कैसे दूर किया जाये। और शास्त्रोक्त कर्म शास्त्रविधि से ही किया जाना है तो ऐसा तो कोई शास्त्र नही जिसमेँ सभी कर्तव्यकर्म और उनकी विधि लिखी हो। तो कैसे निर्धारित करें कि, कर्तव्यकर्म (कार्यकर्म) क्या है। और निषिद्ध कर्म (विकर्म)  और अकार्य क्या है। तथा कार्य कर्म करते हुए कर्म में अकर्म देखना कैसे सम्भव है। तथा अकर्म (कर्मेन्द्रियों द्वारा न करते हुए भी मन से उस कर्म का चिन्तन करना) को कर्म कैसे समझना।

17 उक्त सब प्रश्नो का उत्तर और समस्याओं का समाधान केवल श्रीमद्भगवद्गीता में ही दिया गया है। अतः श्रीमद्भगवद्गीता को कर्मयोगशास्त्र कहा गया है।

18 अब हम श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय और श्लोक संख्या दर्शाते हुए उक्त प्रश्नो के हल खोजेंगे। ⤵️

*मन को वश में करनें का उपाय*
 *भूमिका में स्थित प्रज्ञ लक्षण* 
श्रीमदभगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 54 से 59 तक।
54- प्रश्न --अर्जुन ने पूछा--
 हे केशव स्थितप्रज्ञ की भाषा क्या होती है?  स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है? वजगत में) कैसा रहता है?   कैसे व्यवहार करता है?  स्थितप्रज्ञ के क्या लक्षण हैं?

उत्तर -- भगवान बोले
55 - मनोगत सम्पूर्ण  कामनाओं का त्यागी ,अपने आप में ही सन्तुष पुरुष स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
56 - दुःखो से उद्विग्न नही होने वाला, सुखों में निस्पह अनुकूलता की इच्छा रहित और प्रतिकूलता से द्वेष रहित निर्भय,  क्रोध रहित, मौन (शान्तचित्त) स्थिरबुद्धि कहलाता है।
57-- जो सर्वत्र स्नेह (लगाव) रहित, हुआ उन शुभाशुभ (फलों)  को प्राप्त होकर न अभिनन्दन करता है न द्वेष करता है उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है।
अर्थात अनूकूल परिस्थिति आने पर अतिप्रसन्नता पूर्वक उछलता नही और प्रतिकूलता आने पर विशाद नही करता वह स्थितप्रज्ञ है ।
58 - जैसे कछुआ अपने सभीअंङ्गों कोसब (ओर से) समेट लेता है वैसे ही जो समस्त इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों (शब्द, स्पर्ष, रूप, रस और गन्ध) का संहार कर देता है उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित है।
59 -- इन्द्रियों के विषयों को इन्द्रयों से ग्रहण न करनें वाले निराहार देही (प्राणी) (हटयोगी) के भी केवल विषयों से तो निवृत्ति हो जाती है पर इन्द्रियों से विषयों को हटालेने पर भी मन से रस लेना नही छूटता।  आत्मसाक्षात्कार कर लेने पर ही (उस) परम दृष्टा पुरुष के विषयों के (प्रति लगाव और) रस से भी निवृत्ति होजाती है।
 
 *अब आते हैं मूल विषय मन पर नियन्त्रण पर।* 
 *श्रीमदभगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 60-61*
*60-- हे कुन्तीपुत्र!(अनेक प्रकार से) यथार्थ तत्व को अच्छी तरह जानने वाले विवेकी पुरुष (विपश्चितः) द्वारा अनेक यत्न करने पर भी प्रमथन स्वभाव वाली मथ देने वाली ये इन्द्रियाँ मन को बल पू्वक जबर्जस्ती (प्रसभम्) हर लेती है।* 

61 --  जिसकी इन्द्रियाँ  वश में है वही स्थितप्रज्ञ है। उन सभी इन्द्रियों को संयमित करके मेरे परायण होजा।

 *(आगे विशेष निर्देश किया हे कि, --*
*केवल इन्द्रिय जय होना ही पर्याप्त नही है बल्कि ईश्वर प्रणिधान भी आवश्यक है। क्योकि, यदि ईश्वरार्पण नही हुआ तो --)* 

 *मूल प्रश्न भाग 1 इन्द्रियाँ और मन वश में क्यों नही होती का उत्तर तो मिल गया। अब*
*मूल प्रश्न भाग 2  इन्द्रियों और मन को वश में कैसे करें का उत्तर --* 
 
 *श्रीमदभगवदगीता अध्याय 2 श्लोक 62*
62 -- *विषयों का ध्यान करनें वाले पुरुष को (उन) विषयों से सङ्ग (आसक्ति) उत्पन्न हो जाता है। विषयों  के संङ्ग (लगाव) होने पर (उन विषयों की) कामना उत्पन्न हो जाती है।  उन विषयों  की कामना होने पर उन विषयों की प्राप्ति में विघ्न पड़नें पर  क्रोध उत्पन्न होता है।* 

अर्थात --  विषयों के चिन्तन, मनन करने, लगातार स्मरण रखनें  वाले पुरुष को उन विषयों से लगाव हो जाता है। विषयों से लगाव  होजाने पर उन विषयों को प्राप्त करनें की इच्छा  उत्पन्न हो जाती है।  उन विषयों की  प्राप्ति में बाधा पड़नें पर क्रोध उत्पन्न होता है।

63 -- *क्रोध से सम्मोह उत्पन्न होता है।  सम्मोह से स्मृतिविभ्रम हो जाता है स्मृतिविभ्रम से बुद्धिनाश हो जाता है। बुद्धिनाश से नष्ट हो जाता है।* 

अर्थात -- क्रोध से *मूढ़भाव* होजाता है।सही को गलत समझने और गलत को सही समझने लगता है। सम्मोह / मूढ़ भाव याददाश्त में भ्रम पड़ जाता है। अतः निर्णायक क्षमता समाप्त हो जाती है।) स्मृतिविभ्रम से कुछ भी समझ पड़ना बन्द हो जाता है। बुद्धिनाश से अपनी  नष्ट हो जाता है।  गिर जाता है।

64 --  *परन्तु अपने अन्तःकरणों को स्वयम् के अधीन करने वाला विधेयात्मा  रागद्वेष रहित होकर अपने वश में की हुई इन्द्रियों के विषयों में विचरता हुआ ईश्वरीय कृपा को प्राप्त होता है।* 

65 -- *प्रसाद (ईश्वर की कृपा से) से सब दुःखों समाप्त हो जाते हैं और प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि भँलीभाँति स्थिर हो जाती है।* 

66 --  *अयुक्त की (जो योगस्थ नही हुआ हो/ परमात्मा में तल्लीन न हो उसे) बुद्धि (प्रज्ञा) नही होती, अयुक्त में भावना भी नही होती; भावनहीन को शान्ति नही मिलती, अशान्त को सुख कहाँ (मिल सकता है)।* 

67 -- *जैसे जल वायु नाव को हर लेती है।वैसे ही इन्द्रियों में विचरता हुआ मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, उस इन्द्रिय से युक्त मन वाले की प्रज्ञा (बुद्धि) को हर लेती है।

68 -- *हे महाबाहो ! जिस पुरूष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषय से सब प्रकार निग्रह की हुई है उसी की प्रज्ञा (बुद्धि) स्थिर है।

शेष 69 से 72 तक के श्लोकों में स्थितिप्रज्ञ की विशेषताओं का वर्णन है।

श्रीमद्भगवद्गीता 3/9 *यज्ञ के लिए कर्मों के अतिरिक्त कर्म ही बांधने वाले हैं।* 
3/10 *प्रजापति का प्रजाओं को रचकर दिया यज्ञ का उपदेश।ही  निष्कामता का वास्तविक स्वरूप है।* 
3/17 *इसके विरुद्ध आचरण ही पाप है।* 

3/36 *अर्जुन का प्रश्न मन पाप में क्यों प्रेरित होता है।* 
3/37 *रजोगुण से उत्पन्न काम ही क्रोध है। यही पाप में लगाता है। इसे ही वैरी जान।* 
3/40 *इन्द्रियाँ, मन , बुद्धि इसके वास स्थान हैं।* 


*मन को वश में करनें का उपाय* --

श्रीमद्भगवद्गीता 06/35
हे महाबाहो । *निस्सन्देह मन चञ्चल (और) कठिनाई से निग्रह होने वाला है  (नियन्त्रण या वश में करनें में कठिन है।); परन्तु है कून्तिपुत्र  (यह) अभ्यास और वैराग्य से  वश में होता है। (अभ्यास और वैराग्य से हीकाबू मे या कब्जे में आता है)।* 06/35

【 *यहाँ अभ्यास से तात्पर्य भगवत्प्राप्ति के लिये भगवान के नाम और गुणों का   भजन, कीर्तन,श्रवण,मनन, चिन्तन तथा श्वास के द्वारा जप (प्राणायाम पूर्वक जप), और भगवत्प्राप्ति विषयक शास्त्रों का पठन - पाठन इत्यादिक चेष्ठाओं से है।* 】

श्रीमद्भगवद्गीता 12/09
हे अर्जुन! *यदि (तु) चित्त को समाधि में (चित्त को सम करनें मे) (चित्त को) मुझमे स्थिर  समर्थ नही है, तो अभ्यास योग से मुझको प्राप्त करनें की इच्छा कर।* 12/09

(इस युद्धकाल में तु इतना भी कुछ करनें में भी असमर्थ हैं उनके लिए भी उपाय है।-- --श्रीमद्भगवद्गीता 12/10 एवम् 11 में बतलाये हैं। वे उपाय आभासकाल में कियेजाने योग्य है। महत्व  श्रीमद्भगवद्गीता 12/12 में बतलाया है। किन्तु भक्तिमार्गियों नें बस इसी को आधार बना लिया है। जबकि सदाचार का कोई विकल्प है ही नही।)

श्रीमद्भगवद्गीता 6/36
 *जिसका मन वश में किया हुआ नही है, ऐसे पुरुष द्वारा योग दुष्राप्य है। और वश में किये हुए मन वाले प्रयत्न शील पुरूष द्वारा साधन से (उसका) प्राप्त होना सहज है -  ऐसा मेरा मत है।* 6/36

श्रीमद्भगवद्गीता 12/08
 *(निश्चयात्मिका बुद्धि द्वारा) मन को (दृढ़तापूर्वक) मुझमें ही स्थिर कर, बुद्धि को मुझमें ही लगा इसके उपरान्त (तु) मुझमें ही स्थित हो जायेगा अर्थात मुझमें ही तेरा वास होगा या तु मुझमें ही निवास करेगा।(इसमें कुछ भी) संशय नही है / सन्देह नही है।* 12/08

अतः इन्द्रियों को मन के वश में, मन को बुद्धि के वश में। बुद्धि को स्थिर रखते हुए निश्चयात्मिका बुद्धि से चित्त को सम कर (समाधि में) स्थित रहने से तेज और ओज वर्धन होगा। चित्त को तेज से अभिभूत कर ओज में स्थित करने से धृति वर्धन होगा। धृति वृद्धि से धीरबुद्धि होगा। इसके बाद ही यज्ञ में स्वाहा और समर्पण की सार्थकता होगी।