बुधवार, 1 जुलाई 2020

वेदिक, पौराणिक काल गणना और भारतीय मौसम विज्ञान के आधार।

*वेदिक अहोरात्र, मास, ऋतु ,अयन एवम्  तोयन तथा संवत्सर चक्रीय कालगणना के आधार पर भारतीय मौसम विज्ञान*

वेदिक काल में अयन, तोयन, ऋतुओं, मासों और दिवसों में संवत्सर के विभाग किये गये। 
सुर्य, चन्द्रमा के उदय, अस्त, ग्रहण,दिनमान, रात्रिमान  तथा बुध और शुक्र के पारगमन,व्यतिपात, वैधृतिपात, अलावा बुध,शुक्र,मंगल,ब्रहस्पति और शनि ग्रहों की परस्पर युति, प्रतियोग, दर्शन, लोप, उदय, अस्त, अगस्त तारा उदयास्त ,धुमकेतु दर्शन लोप  से मोसम का सम्बन्ध का अध्ययन गुरुकुलों में कराया जाता था। उक्त सभी  सायन गणना से सिद्ध होते हैं।

इनके साथ नाक्षत्रिय पद्यति / निरयन गणनानुसार आकाश में ताराओं के दर्शन और उनके साथ ग्रहों आदि की युति प्रतियोग, दृष्टि आदि से भी मोसम का सम्बन्ध अध्ययन कराया जाता था।
और आकाश का रंग, सुर्य चन्द्रादि बिम्बों के आसपास बने मण्डल,द्वितीया के चन्द्रमा का उत्तर- दक्षिण में झुकाव का वायु की दिशा, गति, वेग,तथा बादलों के गर्भ, बादलों कारंग-रुप, आकार-प्रकार, उँचाई, गमन, दिशा आदि पर भी सतत ध्यान रखकर इनसे भी मोसम का सम्बन्ध अध्ययन कराया जाता था। 
मोसम को भारतीय पर्वोत्सव से सायन सौर, निरयन सौर एवम् निरयन सौर संस्कृत चान्द्र गणना द्वारा मोसम को सम्बद्ध किया गया था।

इनके अलावा मानवों, पशु-पक्षियों, कीट- पतङ्गों के व्यवहार और व्यवहार परिवर्तनों पर भी ध्यान रखना सिखाया जाता था।
इन सबके आधार पर मोसम की भविष्यवाणी करने के विज्ञान को उपवेद त्रीस्कन्ध ज्योतिष के संहिता स्कन्ध में सिखाया जाता था।

 *घटि, पल विपल* 
साव विपल का एक पल, साठ विपल का एक पल और 3600 विपल अर्थात साठ पल की एक घटि।और साठ घटि का एक अहोरात्र जिसे सावन दिन भी कहते हैं।
दो घटि का एक मुहुर्त होता है। तदनुसार तीस मुहुर्त का एक अहोरात्र (सावन दिन) और तीस सावन दिन का एक सावन मास होता है।

*वेदिक मास,ऋतु ,अयन एवम् तोयन, संवत्सर चक्र* 

 वेदिक मास -- 

(सुचना -- विगत हजारों वर्षों से कलियुग संवत 5071 के तपस्य मास के अन्त तक  अर्थात 20 मार्च 1971ई. तक ग्रेगोरियन केलेण्डर के अनुसार आरम्भ अगले दिनांक Next dates से आरम्भ होते थे। जैसे  मधुमास 22 मार्च से आरम्भ होता था।) 

वेदिक मास अवधि  निम्नानुसार -  ग्रेगोरियन केलेण्डर के अनुसार आरम्भ की Dates दी जा रही है।
ये Dates ईसवी वर्ष 1972 से लागु होकर आगामी कई हजारों वर्ष तक लगभग यथावत रहेगी।

मधु मास 21 मार्च से 31 दिन। सुर्य की राशि  सायन मेष ।
माधव मास 21 अप्रेल से31 दिन। सुर्य की राशि सायन वृष।
शुक्र मास 22 मई से 31 दिन। सुर्य की राशि  सायन मिथुन।
शचि मास 22 जून से 31दिन। सुर्य की राशि  सायन कर्क।
नभस मास 23 जुलाई से 31दिन। सुर्य की राशि  सायन सिंह।
नभस्य मास 23 अगस्त 31दिन। सुर्य की राशि  सायन कन्या।
ईष मास 23 सितम्बर से 30दिन। सुर्य की राशि सायन तुला।
उर्ज मास 23 अक्टूबर से 30दिन। सुर्य की राशि सायन वृश्चिक।
सहस मास 22 नवम्बर से 30दिन। सुर्य की राशि सायन धनु।
सहस्य मास 22 दिसम्बर से 29 दिन। सुर्य की राशि  सायन मकर।
तपस मास 20 जनवरी से 30 दिन। सुर्य की राशि  सायन कुम्भ।
तपस्य मास 19 फरवरी से 30 या 31 दिन। सुर्य की राशि   सायन मीन।

 वेदिक ऋतु चक्र 

ऋग्वेद में मुख्य रुप से पाँच ऋतुओं के ही नाम आये हैं हेमन्त ऋतु का नाम नही आया है। और अधिक मास की छटी ऋतु कहा गया है।
किन्तु यजुर्वेद में छः ऋतुएँ और उनके नाम और अवधि की धारणा स्पष्ट है।
तदनुसार

 *वेदिक उत्तरायण में तीन ऋतुएँ होती है।* 

 वेदिक वसन्त ऋतु - 

वेदिक मधु एवम्  माधव मास की वेदिक वसन्त ऋतु  होती थी।21 मार्च से  22 मई तक।
वेदिक मधु मास सायन मेष का सुर्य दिनांक 21 मार्च से 20 अप्रेल तक।
तथा वेदिक माधव मास सायन वृष का सुर्य  21 अप्रेल से 21 मई तक में वेदिक वसन्त ऋतु होती थी। 

 वेदिक ग्रीष्म ऋतु - 

वेदिक शुक्र एवम्  शचि मास की वेदिक ग्रीष्म ऋतु  होती थी। 22 मई से 22 जुलाई तक।
वेदिक शुक्र मास सायन मिथुन का सुर्य 22 मई से 21 जून तक
तथा वेदिक शचि मास सायन कर्क के सुर्य  22 जून से 22 जुलाई तक वेदिक ग्रीष्म ऋतु होती थी ।

 वेदिक वर्षा ऋतु -

वेदिक नभस एवम् नभस्य मास  की वेदिक वर्षा ऋतु  होती थी।23 जुलाई से 22 सितम्बर तक।
वेदिक नभस मास सायन  सिंह  का सुर्य दिनांक 23 जुलाई से 22 अगस्त तक 
तथा वेदिक नभस्य मास सायन कन्या का सुर्य 23 अगस्त से 22 सितम्बर तक में वेदिक वर्षा ऋतु होती थी।

तथा वेदिक दक्षिणायन में तीन ऋतुएँ होती है।


 वेदिक शरद ऋतु -

वेदिक ईष एवम् उर्ज मास की वेदिक शरद ऋतु  होती थी। 23 सितम्बर से 21 नवम्बर तक।
वेदिक ईष मास सायन तुला का सुर्य 23 सितम्बर से 22 अक्टूबर तक 
तथा वेदिक उर्ज मास सायन वृश्चिक का सुर्य 23 अक्टूबर से 21 नवम्बर तक में वेदिक शरद ऋतु होती थी।

 वेदिक हेमन्त ऋतु - 

वेदिक सहस एवम् सहस्य मास की वेदिक हेमन्त ऋतु होती थी। 22 नवम्बर से 19 जनवरी तक।
वेदिक सहस मास सायन धनु का सुर्य  22 नवम्बर से 21 दिसम्बर तक
तथा वेदिक सहस्य मास सायन मकर का सुर्य 22 दिसम्बर से 19 जनवरी तक वेदिक हेमन्त ऋतु होती थी।

 वेदिक शिशिर ऋतु - 

वेदिक तपस मास एवम् तपस्य मास की वेदिक शिशिर ऋतु होती थी। 20 जनवरी से 20 मार्च तक।
वेदिक तपस मास सायन कुम्भ का सुर्य 20 जनवरी से 18 फरवरी तक
तथा वेदिक तपस्य मास मीन का सुर्य 19 फरवरी से 20 मार्च  तक वेदिक शिषिर ऋतु होती थी।
 

 वेदिक अयन और वेदिक तोयन

 वेदिक काल में उत्तरायण  मधु मासारम्भ से से नभस्य मासान्त तक छः मास का होता था । अर्थात-
 सायन मेष संक्रान्ति से सायन तुला संक्रान्ति  तक
 दिनांक 21 मार्च से दिनांक 23 सितम्बर तक उत्तरायण होता था।
तथा वेदिक काल में दक्षिणायन  ईष मासारम्भ से तपस्य मासान्त तक छः माह का होता था।अर्थात - 
 सायन तुला संक्रान्ति  से सायन मेष संक्रान्ति तक।
 दिनांक 23 सितम्बर से दिनांक 21 मार्च तक दक्षिणायन होता था।

पौराणिक काल में वेदिक  उत्तरायण (सायन मेष संक्रान्ति) दिनांक 21 मार्च से दिनांक 23 सितम्बर (सायन तुला संक्रान्ति) तक को उत्तर गोल कहा जाने लगा। 
 और  पौराणिक काल में वेदिक दक्षिणायन (सायन तुला संक्रान्ति) दिनांक 23 सितम्बर से दिनांक 21 मार्च (सायन मेष संक्रान्ति) तक को दक्षिण गोल कहा जाने लगा। 

इसी प्रकार वेदिक काल में संवत्सर के दो विभाग और थे जिन्हे तोयन कहा जाता था।

 वेदिक काल मेंं उत्तर तोयन  सहस्य मासारम्भ से से शुक्र मासान्त तक छः माह का होता था।
अर्थात वेदिक काल में सायन मकर संक्रान्ति दिनांक 22 दिसम्बर  से सायन कर्क संक्रान्ति दिनांक 23 जून तक उत्तर तोयन कहा जाता था।

 तथा वेदिक काल से दक्षिण तोयन  शचि मासारम्भ से सहस मासान्त तक छः मास का होता था। अर्थात
 वेदिक काल में सायन कर्क संक्रान्ति दिनांक  23 जून से सायन मकर संक्रान्ति दिनांक 22 दिसम्बर तक दक्षिण तोयन कहा जाता था।

 वेदिक संवत्सर वसन्त विषुव सम्पात से अर्थात सायन मेष संक्रान्ति 20/21 मार्च से आरम्भ होता था।

सावन वर्षान्त के बाद के पाँच दिन यज्ञ पुर्वक उत्सव मनाये जाते थे।
आज भी वसन्त पञ्चमी, दशापुजा, होला या होली पर्वोत्सव, तथा गुड़ीपड़वाँ , अक्षय तृतीया इसी के अवशेष हैं।

 पौराणिक सौर संवत्सर
 
वेदिक तोयन को अयन नाम देना, वेदिक अयन को गोल नाम देना।और ऋतुओं को एक मास पहले आरम्भ करना। वेदिक मासों को भी एक मास पहले आरम्भ करना।

पौराणिक काल से वेदिक उत्तर तोयन दिनांक 22 दिसम्बर से  दिनांक 23 जून तक को उत्तरायण कहा जाने लगा तथा वेदिक दक्षिण तोयन दिनांक  23 जून से दिनांक 22 दिसम्बर तक को   दक्षिणायन कहा जाने लगा।
क्योंकि,शुभ कार्य उत्तरायण में यानि सायन मेष के सुर्य से सायन कन्या के सुर्य तक  21मार्च से 23 सितम्बर तक  में किये जाते थे। किन्तु इसी अवधि में जून से सितम्बर तक वर्षा होती है।
इस कारण पौराणिक काल में धर्मशास्त्रियों ने विकल्प खोजा । और 
सायन मकर के सुर्य से सायन मिथुन के सुर्य  दिनांक 22 दिसम्बर से 23 जून तक उत्तर तोयन को उत्तरायण घोषित कर दिया। तथा - 
सायन कर्क के सुर्य से सायन धनु के सुर्य दिनांक 23 जून से 22 दिसम्बर तक दक्षिण तोयन को दक्षिणायन  घोषित कर दिया।
इससे वर्षाकाल की समस्या हल होगयी। कलियुग का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।

किन्तु जब वेदिक उत्तर तोयन को पौराणिक उत्तरायण कहा जाने लगा और वेदिक दक्षिण तोयन को पौराणिक दक्षिणायन कहा जाने लगा तो ऋतुओं के आरम्भ माह को एक मास पहले खिसकाना पड़ा। इसके लिये मासों का आरम्भ भी एक माह पहले से करना पड़ा। इसके लिये सावन वर्ष के स्थान पर निरयन सौर वर्ष सें संस्कारित चान्द्र वर्ष लागु किया जिसमें अधिक मास और क्षय मास का लाभ लिया गया। ताकि, प्रजा / जनता समझ नही पाये ।
 किन्तु वसन्त ऋतु का प्रथम मास मधुमास गत संवत्सर में और माधव मास वर्तमान संवत्सर में आने लगा। ऐसे ही पौराणिक उत्तरायण के तीन मास गत संवत्सर गत वर्ष में तो शेष तीन मास वर्तमान संवत्सर में आते है। वेदिक पद्यति में छः मास का वर्ष और दौ वर्ष का एक संवत्सर वाली पद्यति बन्द कर संवत्सर और वर्ष पर्यायवाची मानना पड़े। मधुमास के स्थान पर माधवमास से संवत्सर का आरम्भ  मानना पड़ा।
स्पष्ट ही गोलमाल  दृष्टगोचर हो रहा है।
खेर जो उस अवधि में होगया वह इतिहास तो बदला नही जा सकता पर आगे तो वापस सुधार होना ही चाहिए। 

वर्तमान में प्रचलित मासारम्भ की ग्रेगोरियन केलेण्डर से Dates और अवधि निम्नानुसार है -- 
 पौराणिक अयन, पौराणिक गोल, पौराणिक ऋतुएँ और पौराणिक मासारम्भ की  Dates .।

 पौराणिक उत्तरायण। पौराणिक दक्षिण गोल। पौराणिक वसन्त ऋतु।

मधु मास 19 फरवरी से 30 या 31 दिन। सायन मीन।

 *पौराणिक उत्तरायण। पौराणिक उत्तर गोल आरम्भ। पौराणिक वसन्त ऋतु।* 

माधव मास 21 मार्च से 31 दिन। सायन मेष ।

 पौराणिक ग्रीष्म ऋतु। 

शुक्र मास 21 अप्रेल से31 दिन। सायन वृष।
शचि मास 22 मई से 31 दिन। सायन मिथुन।

 पौराणिक दक्षिणायन आरम्भ। पौराणिक उत्तर गोल। पौराणिक वर्षा ऋतु।

नभस मास 22 जून से 31दिन। सायन कर्क।
नभस्य मास 23 जुलाई से 31दिन। सायन सिंह।

 पौराणिक दक्षिणायन ।  पौराणिक उत्तर गोल । पोराणिक शरद ऋतु।
ईष मास 23 अगस्त 31दिन। सायन कन्या।

 पौराणिक दक्षिणायन। पौराणिक दक्षिण गोल आरम्भ। शरद ऋतु

उर्ज मास 23 सितम्बर से 30दिन। सायन तुला।

 पौराणिक हेमन्त ऋतु।

सहस मास 23 अक्टूबर से 30दिन। सायन वृश्चिक।
सहस्य मास 22 नवम्बर से 30दिन। सायन धनु।

 पौराणिक उत्तरायण आरम्भ। पौराणिक दक्षिण गोल।.पौराणिक शिषिर ऋतु।

तपस मास 22 दिसम्बर से 29 दिन। सायन मकर।
तपस्य मास 20 जनवरी से 30 दिन। सायन कुम्भ।

 पौराणिक उत्तरायण। पौराणिक दक्षिण गोल। पौराणिक वसन्त ऋतु।

मधु मास 19 फरवरी से 30 या 31 दिन। सायन मीन।


 संवत्सर, अयन,तोयन, ऋतुओं और मासों के लिए  वेदिक काल में सायन सौर गणना ही प्रयुक्त होती थी। 
किन्तु आकाशीय विवरण के लिए वेदिक काल में नाक्षत्रिय निरयन गणनाएँ  प्रचलित थी।जैसी की आजतक भी है।

सायन गणनानुसार और नाक्षत्रिय निरयन गणनानुसार सौर वर्ष  में लगभग इकहत्तर सायन वर्ष में एक दिन का और 25780 सायन वर्षों में पुरे एक वर्ष का अन्तर पड़ता है। जब सायन सौर युग संवत्सर 25780 होगा तब निरयन सौर युग संवत्सर 25779 होगा।

चुँकि ग्रेगोरियन केलेण्डर सायन सौर गणनाधारित है अतः यही अन्तर ग्रेगोरियन केलेण्डर ईयर में भी लागु होता है। इस कारण लगभग 71 वर्ष में निरयन संक्रान्तियों की एक तारीख (Date) बढ़ जाती है। निरयन मेष संक्रान्ति 13 अप्रेल के स्थान पर 14 अप्रेल को होने लगती है।

वर्तमान में निरयन मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु मकर, कुम्भ और मीन मास का आरम्भ की ग्रेगोरियन केलेण्डर के दिनांक निम्नानुसार है।

 वर्तमान में निरयनमास का आरम्भ की ग्रेगोरियन केलेण्डर के दिनांक-- 

मेष         14 अप्रेल से          30 दिन।
वृष          14 मई से               31 दिन।
मिथुन     15 जून से             32 दिन। 
कर्क        16 जुलाई से         31 दिन।
सिंह        17 अगस्त से       31 दिन।
कन्या       17 सितम्बर से    30 दिन।
तुला         17 अक्टोबर से   30 दिन।
वृश्चिक      16 नवम्बर से      30 दिन।
धनु          16 दिसम्बर से    30 दिन।
मकर        14 जनवरी से      29 दिन।    
कुम्भ        13 फरवरी से      30 दिन।
मीन          14 मार्च से            31 दिन।

सुचना -- 
जब सुर्य और भूमि के केन्द्रों की दूरी जिस अवधि में अधिक होती है उस शिघ्रोच्च   (Apogee एपोजी) के  समय 30° की कोणीय दूरी पार करने में भूमि को अधिक समय लगता है अतः उस अवधि में पड़ने वाला सौर मास 31 दिन से भी अधिक 32 दिन का होता है। इसके आसपास के दो -तीन मास भी 31 होते हैं। इससे विपरीत उससे 180° पर शीघ्रनीच (Perigee  पेरिजी) वाला सौर मास 28 या 29 दिन का छोटा होता है। इसके आसपास के सौर मास भी 30- 30 दिन के होते हैं।
वर्तमान में 05 जनवरी को सुर्य सायन मकर  13°16' 20" या निरयन धनु 19° 08'25 " पर शिघ्रनीच का रहता है इस कारण यह मास 29 दिन का और इसके आसपास  तीन महिनें 30-30 दिन के  होते हैं। इसी कारण निरयन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर में यह मास क्षय नही होता।
इसके 180° पर 04 जुलाई को सुर्य सायन कर्क  13°16' 20" या निरयन मिथुन 19° 08'25 " पर शिघ्रोच्च का रहता है इसी कारण यह मास 32 दिन का और इसके आसपास तीन तीन महिनें 31-31 दिन के  होते हैं।इसी कारण निरयन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर में इस अवधि में ही कोई  मास  अधिक  होता है।

 निरयन सौर वर्ष और सायन सौर वर्ष में 25780 वर्षों में पुरे एक संवत्सर का अन्तर पड़ जाता है। इस अवधि में एक निरयन सौर संवत्सर से   सायन सौर संवत्सर एक वर्ष अधिक होता है। अर्थात यदि निरयन सौर संवत्सर 25780 है तो सायन सौर संवत्सर 25781 होगा। या यों भी कह सकते हैं कि,जब सायन सौर युग संवत्सर  
 25781होगा तब निरयन सौर युग 25780 रहेगा।
 लगभग 71 वर्षों में एक दिन का अन्तर एवम् 2148 वर्षों में एक मास का अन्तर पड़ जाता है। लगभग 4296 वर्षों में एक ऋतु का अन्तर, 6445 वर्षों में तीन मास का अन्तर पड़ता है।तथा 12890 वर्षों में एक अयन यानि छः मास का अन्तर पड़ जाता है। 

 लगध के ऋग्वेदीय वेदाङ्ग ज्योतिष के समय संवत्सरारम्भ सायन मेष संक्रान्ति के समय निरयन मकर संक्रान्ति भी पड़ती थी।
तो श्रीमद्भगवद्गीता में ऋतुओं में वसन्त और माहों में मार्गशीर्ष मास को विभूतिमय बतलाया है। क्यों कि किसी समय  संवत्सरारम्भ सायन मेष संक्रान्ति के समय निरयन सौर वृश्चिक संक्रान्ति पड़ती थी।

इसी कारण कभी संवत्सरारम्भ सायन मेष संक्रान्ति के समय निरयन सिंह संक्रान्ति भी पड़ती थी।
इसकारण केरल में निरयन सिंह संक्रान्ति को संवत्सर परिवर्तन होता है। 

 निरयन सौर युधिष्ठिर संवत

महाभारत काल के चान्द्र मास आधारित हर उनसाठवें और साठवें मास को अधिक मास कर फिर सामान्य मास वाली क्लिष्ट गणना को बन्द कर शुद्ध निरयन सौर युधिष्ठिर संवत लागु किया।
युधिष्ठिर नें निरयन सौर गणनानुसार  संवत्सर गणना आरम्भ करवा दी। ता कि, तारामंडल देखकर भी चलते रास्ते भी व्यक्ति संवत्सर और मास गणना कर सके।
किन्त इस गणना में 2248 वर्ष में एक मास का, 4296 वर्ष में एक ऋतु का अन्तर पड़ जाता है। इस कारण यह भी विशेष लोकप्रिय नही हुई। 

विक्रम संवत

युधिष्ठिर संवत 3044 पुर्ण होने पर उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य ने निरयन सौर विक्रम संवत  चला दिया। 


वेदिक सावन वर्ष गणना।

एक  सावन दिन दो सुर्योदय के बीच के समय को सावन दिन कहते हैं।
एक अहोरात्र या एक सावन दिन लगभग 60 घटिका का होता है।  
घटीका को घटी, घड़ी और नाड़ी भी कहते हैं। 
वर्तमान गणनानुसार एक सावन दिन 24 घण्टे का होता है।
एक सावन मास 30 सावन दिन का सावन मास होता है।
सामान्य सावन वर्ष  में बारह मास होते हैं अतः सामान्य सावन वर्ष में 360 सावन दिन होते हैं। 
पाँचवेँ वर्ष में एक अधिकमास किया जाता था अर्थात पाँचवा सावन वर्ष तेरह सावन मास का होता था। इसकारण पाँचवा वर्ष 390 सावन दिन का होता था।
किन्तु चालिसवाँ सावनवर्ष,और 3835 वाँ सावनवर्ष और 3840 वाँ सावन वर्ष 360 दिन का सामान्य वर्ष होता था। चालिसवाँ सावन वर्ष , तीन हजार आठ सौ पेंतीसवें सावन वर्ष और  तीन हजार आठ सौ चालिसवाँ सावन वर्ष बारह सावन मास का ही सामान्य सावन वर्ष होता था। फिर 7308 वाँ (सात हजार तीन सौ आठवाँ) सावन वर्ष भी 360 दिन का होता था।
इस प्रकार इन युग वर्षों में सायन वर्ष और सावन वर्षारम्भ एकसाथ हो जाते थे। यह गणना गणितागत न होकर मुलतः वेध आधारित थी । किन्तु गणीतीय सुत्र उपर्युक्तानुसार बनते हैं यह ऋषि गण जानते थे। 

                  वेदिक चान्द्र मास 

 वेदिक काल में भी अमावास्या से अमावस्या तक वाले चान्द्रमास भी प्रचलित थे। किन्तु संवत्सर आरम्भ का आधार सायन सौर मेष संक्रान्ति ही थी।
मा शब्द चन्द्रमा सुचक है। चन्द्रमा के मा से ही अमा अर्थात बिना चन्द्रमा वाली रात अमावस्या शब्द बना। और पुरे चन्द्रमा वाली रात पुर्णिमा से पुर्णिमा शब्द बना ।
मास यानि चन्द्रमा की एक सत्र पुर्ण होना। यह अवास्या से अमावस्या तक लगभग 29. 531 दिन का चान्द्रमास हो या पुर्णिमा से पुर्णिमा तक 29. 531 दिन का होता है।
तदनुसार बारह चान्द्रमास  354.367 दिन की अवधि को शुद्ध चान्द्र वर्ष कहते हैं। जो निरयन सौर वर्ष / नाक्षत्रीय वर्ष से 10.889 वर्ष छोटा है।और सायन सौर वर्ष से 10.875 दिन छोटा है।
बारह शुद्ध चान्द्रमास वाले शुद्ध चान्द्रवर्ष को सायन सौर वर्ष या निरयन सौर वर्ष से संगति बिठाने हेतु लगभग 32 चान्द्र  मास से 38 चान्द्र मास पश्चात अधिक मास करते हैं। इसकारण प्रायः अधिक मास वाला चान्द्र वर्ष तेरह चान्द्र मास का होता है। यानि अधिक मास वाला चान्द्र वर्ष 383.898 दिन का होता है।
इस पद्यति में चान्द्र मासों का नामकरण  चान्द्रमास के मध्य में  पुर्णिमा तिथि को चन्द्रमा जिस नक्षत्र में रहता है उस नक्षत्र के नाम के अनुसारं चैत्र, वैशाख, ज्यैष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन  नामकरण किया गया है। जो पुर्णिमा को होने वाले चन्द्र नक्षत्रानुसार  क्रमशः चित्रा से चैत्र, विशाखा से वैशाख, ज्यैष्ठा से ज्यैष्ठ, पूर्वाषाढ़ा से आषाढ़, श्रवण से श्रावण, उत्तराभाद्रपद से भाद्रपद, अश्विनी से आश्विन, कृतिका से कार्तिक, मृगशिर्ष से मार्गशीष, पुष्य से पौष, मघा से माघ और उत्तराफाल्गुनी से फाल्गुन मास नाम पड़े।

चान्द्र मास में अमावस्या से पुर्णिमा तक शुक्ल पक्ष और पुर्णिमा से अमावस्या तक कृष्णपक्ष कहलाता है। साथ ही चान्द्र मास मे अर्ध चन्द बिम्ब  रात्रि यानि शुक्ल पक्ष की साढ़े सप्तमी से कृष्णपक्ष की साढ़े सप्तमी तिथी  (साढ़े बाईसवीँ तिथी) तक उज्वल निषा से  अर्ध चन्द्र बिम्ब यानि कृष्णपक्ष की साढ़े सप्तमी तिथी  (साढ़े बाईसवीँ तिथी)  से शुक्ल पक्ष की साढ़े सप्तमी तक अन्धियारी रात वाले  तथा अष्टका एकाष्टका ( अष्टमी तिथि) के विभाग किये गये थे। यह प्रथक ईकाई है।

सुर्य से चन्द्रमा की 12° के अन्तर वाली  तिथियाँ  नही थी। केवल अमावस्या , पुर्णिमा तथा अर्धचन्द्र बिम्ब वाली रात्रि  अष्टमी तिथी तथा तेईसवीँ चन्द्रकला  (अष्टका - एकाष्टका)  ही प्रचलित थी।

 सुर्य से चन्द्रमा की 06° के अन्तर वाले करण भी प्रचलित नही थे।  सुर्य के सायन भोगांशों और चन्द्रमा के सायन भोगांशों के योग 180° और 369° या 00° होने पर व्यतिपात और वैधृतिपात योग प्रचलित थे।

                    महाभारत काल में

महाभारत काल मे निरयन सौर गणना और  चान्द्र मास तथा सावन दिन और चन्द्र नक्षत्र से तिथि गणना  प्रचलित हो गये थे।
 हर अट्ठावन चान्द्र मास के बाद दो अधिक मास होते थे।अर्थात हर उनसाठवाँ और साठवाँ चान्द्र मास अधिक होकर फिर अगले माह सामान्य होकर संवत्सर षुर्ण किया जाता था।
यह बहुत असहज गणना थी जो केवल भीष्म,विदुर, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, और युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण जैसे धर्मशास्त्री ही समझ पाते थे। दुर्योधन एवम् उसके साथी लोग भी समझाने पर भी नही समझ पाते थे।

पौराणिक निरयन सौर संस्कृत चान्द्र वर्ष 

निरयन सौर संक्रान्तियों से संस्कारित अमावस्या से अमावस्या तक वाले चान्द्र मास वाला निरयन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर 

निरयन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर जिस चान्द्र मास में दो निरयन सक्रान्तियाँ  पड़े अर्थात दो अमावस्याओं के बीच यदि दो निरयन सक्रान्तियाँ  पड़े  तो वह चान्द्रमास क्षय मास कहाता है। यह प्रायः 30 दिन वाले शीघ्र नीच वाले सौर मास के पहले वाले चान्द्रमास और बाद वाले चान्द्र मास में ही सम्भव होता है।  ऐसे क्षय मास 19 वें वर्ष,122 वें वर्ष और 141वें वर्ष मे पड़ते हैं।और
जिस निरयन सौर मास में दो अमावस्या पड़े अर्थात जब दो निरयन संक्रान्तियों के बीच दो अमावस्या पड़े तो वह चान्द्रमास अधिक मास कहलाता है। यह प्रायः 31 दिन वाले शिघ्रोच्च वाले सौर मास के पहले वाले चान्द्रमास और बाद वाले चान्द्र मास में ही सम्भव होता है।
जिस संवत्सर में क्षय मास आता है उस संवतसर में क्षय मास के पहले अधिक मास और क्षयमास के बाद पुनः अधिक मास होता है। इस प्रकार क्षय संवत्सर में दो अधिक मास होते हैं। इस कारण क्षय मास वाला संवत्सर और अधिक मास वाला संवत्सर दोनों ही  संवत्सर में तेरह चान्द्र मास होते हैं। इसकारण प्रायः क्षय मास वाला और अधिक मास वाले वर्ष भी 383.898 दिन का ही होता है। जबकि बिना अधिक मास बिना क्षयमास वाला सामान्य चान्द्रवर्ष शुद्ध चान्द्रवर्ष ही होता है इस कारण यह शुद्ध चान्द्र वर्ष 354.367   दिन का होता है।

 निरयन सौर संस्कृत चान्द्र शकाब्द

फिर विक्रम संवत 135 पुर्ण होनें पर  पेशावर, पटना और मथुरा में कुषाण वंशी सम्राट कनिष्क के राज्यारोहण पर कनिष्क नें शक संवत चला दिया। और उसी समय  दक्षिण में पैठण महाराष्ट्र में गोतमी पुत्र शातकर्णि  ने निरयन सौर संस्कृत चान्द्र गणनाधारित शकाब्द चला दिया गया। शक संवत चला दिया।जो लगभग अधिकांश.भारत में प्रचलित है।
अर्थात, 
युधिष्ठिर संवत 3178 वर्ष पश्चात युधिष्ठिर संवत 3179 के स्थान पर  और विक्रम संवत 135 समाप्त होने पर विक्रम संवत136 के स्थान पर शक संवत एक के साथ  निरयन सौर संस्कृत चान्द्र गणनाधारित शकाब्द चला दिया गया। जो आजतक चल रहा है।
ईस गणना से पुर्णिमा, अमावस्या तिथियों  और अष्टका एकाष्टका पर्व के अलावा चतुर्थी,  एकादशी, प्रदोष, शिवरात्रि आदि वृत आरम्भ हो गये।

 चन्दमा का भू परिभ्रमण

 चन्द्रमा के एक परिभ्रमण अवधि निरयन मेषादि बिन्दु / अश्विनी नक्षत्र आरम्भ बिन्दु से आरम्भ होकर पुनः निरयन मेषादि बिन्दु /अश्विनी नक्षत्र आरम्भ बिन्दु पर पहूँचने की  27. 322 दिन कीअवधि हो।

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