श्वेताश्वतरोपनिषद के तृतीय अध्याय के बीसवें मन्त्र और कठोपनिषद के प्रथम अध्याय की द्वितीय वल्ली के बीसवें मन्त्र अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य मन्त्र का अर्थ।
श्वेताश्वतरोपनिषद के तीसरे अध्याय का बीसवाँ मन्त्र है। और कठोपनिषद प्रथम अध्याय की द्वितीय वल्ली का बीसवाँ मन्त्र--
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य, जन्तोर्निहितो गुहायाम्,
तमक्रतु पश्यति वीतशोको , धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः।।का अर्थ --
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य, जन्तोर्निहितो गुहायाम्,
तमक्रतु पश्यति वीतशोको , धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः
श्वेताश्वतरोपनिषद 03/20 और कठोपनिषद 01/02/20
इस जीवधारी के चित्त में रहने वाला प्रज्ञात्मा सुक्ष्मतम भी है और महा से अतिमहा भी है। आत्मा/ प्रज्ञात्मा की उस महिमा (महत्ता) को उस जीवधारी को धारण करने वाले प्रज्ञात्मा या प्रज्ञात्मा की कृपा प्रसाद से ही वह कामना रहित पुरुष जानता है कि, अपर पुरुष की त्रिगुणात्मक प्रकृति के तीनों गुणों का आपसी व्यवहार या बर्ताव ही सब क्रियाएँ है। यह जानने वाला अकृत पुरुष ; जिनके समस्त दुख सन्तान निवृत्त हो गये है वे वीतशोक पुुुुरुष ही याानि जीवन्मुक्त धीरपुरुष ही प्रज्ञात्मा परब्रह्म को जान पाते हैं।
स्पष्टीकरण ---
जन्तु यानि जीवधारी।
बुद्धिगुहा के केन्द्र मे अर्थात चित्त में ।
निहित अर्थात रहने वाला प्रज्ञात्मा ही देहधारी तत्व है। अतः प्रज्ञात्मा को जन्तोर्निहित कहा गया है।
इलेक्ट्रॉन, पॉजिट्रॉन या फोटान, क्वार्क आदि का भी कारण होने से अणोरणीयान् अर्थात सुक्ष्मातिसुक्ष्म कहा है।
जीवात्मा अपरब्रह्म को विराट कहते हैं। इस विराट से महत् विधाता, प्रत्यागात्मा ब्रह्म होता है; किन्तु उस प्रत्यागात्मा ब्रह्म से भी परे, सबसे महा (महान) प्रज्ञात्मा परब्रह्म है अतः महतो महीयान् कहा है।इसी कारणउन्हे परम ब्रह्म कहा है।
जिससे आगे या जिसके बादमे उस श्रेणी में कुछ नही हो उसे परम कहते हैं। बरः यानि बड़ा से भी महः यानि महा होता है।अतःः ब्रह्म का मतलब बड़े से भी महत्तर होता है।अतःपरम ब्रह्म कहते हैं। परब्रह्म कहते हैैं।
परमात्मा और विश्वात्मा ॐ गुणातीत हैं अतः उन्हे धारणकर्ता भी नही कहा जा सकता।अतः जीवनधारक प्रज्ञात्मा ही कही जा सकता है।
क्रियाओं को अपने द्वारा होना न मानने वाला, जो ज्ञानता है कि, अपर पुरुष की त्रिगुणात्मक प्रकृति के तीनों गुणों के आपसी व्यवहार या बर्ताव को ही सब क्रियाएँ है उसे अक्रत कहते हैं। उसके कर्म अकर्म हो जाते हैं।
जिनके समस्त दुख सन्ताप निवृत्त हो गये है उन्हे वीतशोक कहते हैं।
वे ही देखपाते है अर्थात वे ही जान पाते है। ऐसे आत्मज्ञ को ईशावास्योपनिषद में धीरपुरुष कहा है। वे सद्योमुक्त यानी जीवनमुक्त होते हैं अर्थात इस जीवन में जीवीत रहते हुए भी मुक्त रहते हैं।
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