गुरुवार, 23 जुलाई 2020

सभी प्रकार के जन्तु और वनस्पति में जीवात्मा होती है।

भारतीय वेदिक दर्शनानुसार सभी प्रकार के जन्तु और वनस्पति में जीवात्मा होती है।

श्वेताश्वतरोपनिषद अध्याय 03/मन्त्र 20 और 
कठोपनिषद अध्याय 01/वल्ली02/मन्त्र 20 

अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य, जन्तोर्निहितो गुहायाम्, 
तमक्रतु पश्यति वीतशोको , धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः ।

इस जीवधारि के चित्त में रहने वाला प्रज्ञात्मा  सुक्ष्मतम  भी है और महा से अतिमहा भी है। आत्मा की उस महिमा (महत्ता) को उस जीवधारी को धारण करने वाले प्रज्ञात्मा की कृपा प्रसाद से ही वह कामनारहित जानता है, वह यह जानता है कि, अपर पुरुष की त्रिगुणात्मक प्रकृति के तीनों गुणों का आपसी व्यवहार या बर्ताव ही सब क्रियाएँ है। यह जानने वाला अकृत पुरुष ;  जिनके समस्त दुख सन्तान निवृत्त हो गये है वे ही जीवन्मुक्त धीरपुरुष ही प्रज्ञात्मा परब्रह्म को जानपाते हैं।
जैसे विज्ञान की दृष्टि से उर्जा को भी आप केवल सुक्ष्म या केवल विराट नही कहा जा सकता ऐसे ही प्रज्ञात्मा का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म और सबसे बड़ा दोनों है।  यह स्पष्ट किया गया है कि,  प्रज्ञात्मा न केवल शरीरान्तर्वर्ती है अपितु समस्त शरीर भी प्रज्ञात्मा के अन्तर्वर्ती हैं। अतः यह नही कहा जा सकता कि पैड़ पौधों में हृदय या मस्तिष्क नही होता तो आत्मा कहाँ रहेगी। यह भी कहना गलत सिद्ध होजायेगा कि, हृदय या मस्तिष्क के प्रत्यारोपण होनें से आत्मा का भी प्रत्यारोपण होजायेगा। या कृत्रिम हृदय या कृत्रिम मस्तिष्क लगादिया अतः आत्मा कैसे होगी? यह सभी प्रश्न खारिज हो जाते हैं। क्योंकि आत्मा हर कण में है और हर चीज आत्मा में है। क्योंकि मूलतः सब पदार्थ ,दिक, काल, एटम के इलेक्ट्रॉन ,फोटान, आदि सभी सुक्ष्मतर कण भी आत्मा का ही रुपान्तरण मात्र हैं।
इसी सन्दर्भ में छान्दोग्योपनिषद  06/खण्ड03/मन्त्र 01 एवम् 02 भी अवलोकनीय हैं।

छान्दोग्योपनिषद  06/खण्ड03/मन्त्र 01 एवम् 02

तेषाम् खल्वेषाम् भूतानाम् त्रीण्येव बीजानि भवन्त्याण्डजम् जीवजमुद्भिज्जमिति।। छान्दोग्योपनिषद  06/खण्ड03/मन्त्र 01 

 उन इन (पक्षी आदि) प्रसिद्ध प्राणियों के तीन ही बीज होते हैं -- 01आण्डज यानि अण्डे से उत्पन्न अण्डज,
02 जीवज यानि जरायुज यथा मानव और पशु आदि गर्भ से सीधे बच्चा होने वाले और 
03 उद्भिज यानि वनस्पति के बीज / दाने से उत्पन्न। 

(सुचना -- यहाँ  पसीने से उत्पन्न स्वेदज और उष्मा से उत्पन्न शंकोकज को भिन्न नही माना है।)

सेयम् देवतैक्षत हन्ताहमिमास्तिस्रो देवता अनेन , जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरव्राणीति।। छान्दोग्योपनिषद  06/खण्ड03/मन्त्र  02

उस इस ('सत' नामक) देवता ने ईक्षण किया , 'मै इस जीवात्मा रूप से' इन तीनों देवताओं में अनुप्रवेश कर नाम और रूप की अभिव्यक्ति करूँ।

अर्थात अण्डज, जरायुज (जीवज) और बीजों से उत्पन्न वनस्पति (उद्भिज) में भी जीवात्मा अपरब्रह्म, विराट होता है या रहता है।
इसी प्रकार जड़ पदार्थों में भी भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा होता है या रहता है। इसलिए इनके लिये भूतमात्र शब्द प्रयोग किया जाता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें