शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

शरीरान्तर्वर्ती प्रज्ञात्मा और प्रत्यगात्मा दो पक्षी का अर्थ।

शरीरान्तर्वर्ती प्रज्ञानात्मा और प्रत्यागात्मा दो पक्षी का अर्थ।

कठोपनिषद अध्याय 01/वल्ली 03/ मन्त्र 01 , 

ऋतम् पिबन्तौ सुकृतस्य लोके, गुहाम् प्रविष्टौ परमें परार्धे ;
छाँयातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति, पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः।

तीनबार नचिकेता अग्नि चयनकर्ता पञ्चाग्निसेवी  आत्मज्ञ, ब्रह्मवेत्ता ,परमगति को प्राप्त धीर पुरुष यह कहते हैं कि,---

सुकर्मों (पुण्यों) के फलस्वरूप प्राप्त लोक में,  (या मानव देह में)  परम परार्ध  गुहा (चित्त) मे प्रविष्ट होकर ऋत का पान करने वाले छाँया और धूप के समान प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) ब्रह्म  और  प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म हैं।

स्पष्टीकरण ---

सुकर्मों (पुण्यों) के फलस्वरूप प्राप्त लोक  अर्थात (देश, कुटुम्ब,परिवार और योनि, तथा देह  या प्रकारान्तर से मानव देह ।

 परम परार्ध  गुहा में अर्थात अंगुष्ठ प्रमाण पुरुष रूपी बुद्धि आकाश में चित्त में।

ऋत का पान करने वाले अर्थात परम सत्य परमेश्वरीय विधि के पालन करने वाले।

छाँया और धूप के समान  अर्थात दो विपरीत प्रकृति वाले पुरुष या वेदान्त की भाषा में बिम्ब और प्रतिबिम्ब अर्थात प्रत्यागात्मा (पुरुष-प्रकृति) (अन्तरात्मा) ब्रह्म (सवितृ  -सावित्री) और  प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म (परमपुरुष/ दिव्य पुरुष - पराप्रकृति) (विष्णु - माया) ।

ऋग्वेद मण्डल 01/सुक्त 164/ मन्त्र 20, 
अथर्ववेद काण्ड 09/ सुक्त14/मन्त्र 20, 
मुण्डकोपनिषद मुण्डक 03/खण्ड01/ मन्त्र 01
श्वेताश्वतरोपनिषद अध्याय 04/ मन्त्र 06

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया, समानम् वृक्षम् परिषस्वजाते ;
तयोरन्यः पिप्पलम्  स्वादन्त्यनश्नन्नन्यो, अभिचाकशीति।

प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) ब्रह्म और  प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म  ये दो पक्षी मित्रता पुर्वक एकसाथ  एक ही (पिप्पल) वृक्ष अर्थात  एक ही शरीर में रहते हैं।
उनमें से प्रत्यागात्मा (पुरुष-प्रकृति) (अन्तरात्मा) ब्रह्म पिप्पल वृक्ष के फलों का (यानि कर्मफलों का) भोगकरता है और दुसरा पक्षी प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म   केवल दृष्टाभाव से केवल देखता रहता है।

स्पष्टीकरण ---

 दो पक्षी यानी   प्रत्यागात्मा (पुरुष-प्रकृति) (अन्तरात्मा) ब्रह्म (सवितृ  -सावित्री) और  प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म (परमपुरुष/ दिव्य पुरुष - पराप्रकृति) (विष्णु - माया) ये दो पक्षी है।
 मित्रता पुर्वक एक ही (पिप्पल) वृक्ष का आश्रय लेकर  अर्थात एक ही शरीर में (रहते हैं)।
उनमें से प्रत्यागात्मा (पुरुष-प्रकृति) (अन्तरात्मा) ब्रह्म (सवितृ  -सावित्री)  जो  पिप्पल वृक्ष के फलों का स्वाद लेता है  यानि कर्मफल भोगकरता है। यानि अन्य अर्थ में गुणों के सङ्ग के कारण गुण सङ्गानुसार विभिन्न योनियों में प्रवेश करता है।
दुसरा पक्षी अर्थात प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म (परमपुरुष/ दिव्य पुरुष - पराप्रकृति) (विष्णु - माया)।
दृष्टाभाव से केवल देखता रहता है। अर्थात स्वार्थ (स्वयम् के लिये) कर्म न करता है। अतः कर्मफल भोगता भी नही है बल्कि केवल दृष्टा है।

मुण्डकोपनिषद मुण्डक 03/खण्ड01/मन्त्र 02
श्वेताश्वतरोपनिषद अध्याय 04/ मन्त्र 07

समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोनीशया, शोचति मुह्यमान;
जुष्टम् यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य , महिमानमिति वीतशोकः।

अर्थ --- इस समान वृक्ष पर (शरीर में) प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) भोगों में निमग्न होकर अनीश होकर (आत्मसंयम स्वनियन्त्रण नही होने के कारण ईशित्व रहीत होकर  अनात्मा में आत्मभाव होने से मोहित होकर शोचनीय अवस्था में रहता है। वही प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा)  जब प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म की महिमा को देखता है तब संसर्ग के प्रभाव से शोकरहित हो जाता है अर्थात आनन्द का अनुभव करता है तब प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा)  प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म से जुड़ जाता है। युक्त हो जाता है। अब वह अनुभव करता है कि मूलतः पहले से ही युक्त था ही।  


स्पष्टीकरण ---

 समान वृक्ष पर अर्थात शरीर में।

अनीश होकर  अर्थात आत्मसंयम स्वनियन्त्रण नही होने के कारण  ईशित्व रहित होकर।

 गुह्यमान अर्थात मोहित होकर अर्थात अनात्मा में आत्मभाव होने से  गलत को ही सही मानने के कारण मोहित होना ।
 
 शोचनीय अवस्था अर्थात दुरावस्था ।

महिमा अर्थात महत्ता को देखता है ।
वीतशोक  अर्थात शोकरहित । यानि आनन्दित रहना।
(तब प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा)  जब प्रज्ञात्मा  (प्रज्ञानात्मा)  परब्रह्म से )
जुष्ट अर्थात जुड़ जाता है अर्थात युक्त हो जाता है।
【क्योंकि मूलतः पहले से ही युक्त था ही।】

सुचना --- यहाँ जुष्ट शब्द का अर्थ क्रिया विशेषण रूप में अर्थ जुड़ना किया गया है। जबकि अधिकांशतः जुष्ट शब्द का संज्ञारूप अर्थ जुठा / जुठन यानि उच्चिष्ठ के अर्थ में किया जाता है। जबकि यहाँ उच्चिष्ठ की कोई सार्थकता नही है। भक्तों द्वारा नित्य सेवित अर्थ भी किया गया। लेकिन इस स्थान पर सेवित शब्द भी सार्थक नही है। अतः उचित अर्थ युक्त होना या जुड़जाना ही लगता है।

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