शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः और परमात्मा भी है; मन्त्र का अर्थ।

उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः और परमात्मा भी है;  मन्त्र का अर्थ।
इस मन्त्र को समझनें के लिए इसी क्षेत्र क्षेत्रज्ञ प्रकरण के मन्त्रों को समझना होगा। अतः

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 13 मन्त्र 19, 20, 21 और 22

प्रकृतिम् पुरुषम् चैव, विद्ध्यनादी उभावपि,
विकारांश्च गुणांश्चैव, विद्धि प्रकृतिसम्भवान।
श्रीमद्भगवद्गीता 13 / 19

कार्यकरणकर्तृत्वे, हेतुः प्रकृतिरुच्यते, 
पुरुषः सुखदुःखानाम् , भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।
श्रीमद्भगवद्गीता 13 / 20

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि, भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्,
कारणम् गुणसङ्गोsस्य, सदसद्योनिजन्मसु।
श्रीमद्भगवद्गीता 13 / 21

उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः, परमात्मेति चाप्युक्तो देहsस्मिन्पुरुषः परः।
श्रीमद्भगवद्गीता 13 / 22

प्रकृतिम् पुरुषम् चैव, विद्ध्यनादी उभावपि,
विकारांश्च गुणांश्चैव, विद्धि प्रकृतिसम्भवान।19
(प्रज्ञानात्मा /प्रज्ञात्मा) परम पुरुष और पराप्रकृति दोनों को ही अनादि जान और  विकारों और (सत्वरज और तम) गुणों को भी प्रकृति से उत्पन्न जान।19

स्पष्टीकरण -- प्रज्ञानात्मा /प्रज्ञात्मा परब्रह्म अनादि हैं । इस स्वरूपमें स्थित पुरुष स्वतः विश्वात्मा ॐ और फिर परमात्मा में स्थित होजाता है। अर्थात 
परम पुरुष विष्णु और पराप्रकृति अर्थात विष्णु की माया दोनों ही अनादि है। शक्ति सदैव शक्तिमान के साथ ही रहती है । विष्णु अनादि हैं तो माया भी अनादि ही कही जायेगी।

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते, 
पुरुषः सुखदुःखानाम् भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते। 20
प्रकृति (पञ्च तन्मात्रा सहित पञ्चमहाभुत रूपी) कार्य  , (दसों इन्द्रियाँ, और अन्तःकरण चतुष्टय रूपी) करण, और  कर्तृत्व  की हेतु कही जाती है; पुरुष सुख-दुःखों और भोक्तृत्व ( भोक्तापन) का  हेतु पुरुष को कहा जाता है।20

स्पष्टीकरण ---
 पञ्च तन्मात्रा सहित पञ्चमहाभुतों को कार्य कहते हैं।
दसों इन्द्रियाँ, और अन्तःकरण चतुष्टय को करण कहते है। (उपकरण यानि औजार की तरह कार्य करनें में सहायक करण कहलाते हैं।)  और  
कर्तृत्व  यानि कर्तापन
इन चारों की हेतु प्रकृति कही जाती है।
 सुख-दुःखों और भोक्तृत्व ( भोक्तापन) का हेतु पुरुष को कहा जाता है।

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि, भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्,
कारणम् गुणसङ्गोsस्य, सदसद्योनिजन्मसु। 21 
 प्रकृतिस्थ पुरुष अर्थात मायाश्रित पुरुष  ही (अपरा प्रकृतिजन्य सत्व, रज और तम) गुणों का भोक्ता है। (अपरा प्रकृति जन्य सत्व रज तम) गुणों के सङ्ग (आसक्ति अर्थात लगाव) के कारण ही यह  प्रत्यागात्मा यानि अन्तरात्मा (पुरुष - प्रकृति)  सत- असत (अच्छी- बुरी) योनियों में जन्म लेता है।21

स्पष्टीकरण ---
प्रकृतिस्थ पुरुष अर्थात मायाश्रित पुरुष  ही (अपरा प्रकृतिजन्य सत्व, रज और तम) गुणों का भोक्ता है। (अपरा प्रकृति जन्य सत्व रज तम) गुणों के सङ्ग (आसक्ति अर्थात लगाव) के कारण ही यह  प्रत्यागात्मा यानि अन्तरात्मा (पुरुष - प्रकृति)  सत- असत (अच्छी- बुरी) योनियों में जन्म लेता है।

उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः, परमात्मेति चाप्युक्तो देहsस्मिन्पुरुषः परः।22
इस देह में (स्थित प्रत्यागात्मा) पुरुष से भी परे (प्रज्ञानात्मा) दिव्य परम पुरुष ही उपदृष्टा, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता और महेश्वर है और परमात्मा कहलाता है।

स्पष्टीकरण -
इस देह में (स्थित प्रत्यागात्मा) पुरुष से भी परे (प्रज्ञानात्मा) दिव्य परम पुरुष ही उपदृष्टा, अनुमन्ता, भर्ता, भोक्ता और महेश्वर है और परमात्मा कहलाता है।

 *उपदृष्टा* मतलब जो सर्वाधिक निकटता से देखता है।
 *अनुमन्ता* मतलब जिसकी अनुमति के बिना इस जगत में कोई क्रिया नही होती। समस्त क्रियाएँ उसके संकल्प के अनुरूप हो चुकी है जिसका साक्षात्कार हम कर रहे हैं। केवल हमारे अनुभव में अब आ रही है। इसीकारण कोई ध्यानावस्था में कोई तन्द्रा में कोई स्वप्न में और कोई किसी घटना होने के शकुन के आधार पर विकल होय ते कपि के मारे , निश्चय जानो निशिचर संहारे जैसी भविष्यवाणी करते है। तो कोई होराशास्त्र के आधार पर  जातक या ताजिक  या सामुद्रिक शास्त्र के आधार पर भविष्यवाणी कर पाते हैं। वस्तुतः उन शास्त्रियों के द्वारा वह संकल्पित घटनाओं का दर्शन करना ही है। 
किन्तु क्रियाओं के साथ जो हम अपनी अहन्ता ममता के कारण अपने संकल्प जोड़ लेते हैं। उस क्रिया को हम जिस आषय से करते हैं और उस क्रिया को हम किस उद्देश्य की पुर्ती के लिये करते हैं वह हमारा कर्म कहलाता है। 
कुछ विद्यार्थी समझने के उद्देश्य से  पढते हैं।तो कोई याद करनें के लिये और कोई केवल परीक्षा में उत्तर  लिखकर अच्छे अंक प्राप्त्यर्थ ही पढ़ाई करते हैं। पहला अध्यैता है।दुसरा रट्टु और तीसरा लोभी।
महान क्रान्तिकारी रामप्रसाद बिस्मिल,  चन्द्रशेखर, भगतसिंह शहीद कहलाते हैं क्योंकि,क्रान्तिकारी कार्यक्रम  उनका कोई व्यक्तिगत या पारिवारिक कार्य नही था।
चम्बल के बागी आदि डाकु कहलाये।और वर्तमान आतंकवादी सबकी घ्रणा के पात्र आतंकी कहलाते हैं।
तीनों की क्रियाओं कोई अन्तर नही है। पर कर्म एकदम भिन्न है।
शहीद उच्चतम लोकों को प्राप्ति के अधिकारी हुए। डाकु निम्न योनियों में जन्म के पात्र हुए। क्योंकि एकतो वे केवल बदले की भावना से किसी को दण्ड देनें के लिए बागी हुए। लूट में भी नैतिकता के आदर्शों का पालन करते थे।और लूट से प्राप्त धन जनकल्याण में निवेश भी करते थे।
और आतंकी  निम्नतम अन्धतम  लोकों के अधिकारी हुए।क्यों कि ये नृशन्स- बर्बर होते हैं। और इनका लक्ष्य भी हड़प नीति है।
किन्तु परमात्मा के ॐ संकल्प  में सर्व कल्याण ही निहित है। उनकी स्वाभाविक लीला है।इसे ही ऋत कहते हैं जिसे जाने बिना मौक्ष नही होता। उसी ॐ संकल्प के अन्तर्गत ही हम आजतक जो हो रहा है और भविष्य में भी जो होगा वह प्रभु की लीला मात्र है। उसे भ्रमवश हम अपना कर्म और कर्मफल मानेहुए हैं।
इसी ॐ संकल्प को आगे बढ़ाते हुए ही समस्त देव और देवता अपने अपने  शिवसंकल्प के अन्तर्गत ही कर्मकरते रहते हैं। जो ऋत के अनुकूल ही भावना रखकर किये जाते हैं। इसी लिए  परमात्मा के परब्रह्म स्वरूप में विष्णु और माया के परमेश्वर स्वरूप में नियत व्यवस्था के अन्तर्गत विष्णु के शासन के पदाधिकारी देवता गण है। सवित्र, नारायण, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, प्रजापति ब्रह्मा, ब्रहस्पति, इन्द्र, आदित्य ,वसु , रुद्र आदि  जोकुछ करते हैं कृते परमेश्वर विष्णु परमपद ही करते हैं। परमेश्वर विष्णु के निमित्त , परमेश्वर विष्णु के लिए, परमेश्वर विष्णु की सेवा कार्यही करते हैं। अर्थात यज्ञ ही करते हैं। उनका अपना कैई कर्म नही है। इसलिए वह परब्रह्म प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा (परम पुरुष विष्णु और उनकी माया परा प्रकृति) अनुमन्ता कहलाता है।
 *भर्ता*  अर्थात पालक, पालनहार, भरण- पोषण करनें वाला, संचालक, अर्थात वह भी ऋत के अन्तर्गत कर्म करते हैं। यही बात भगवान श्रीकृष्ण नें बीहाफ ऑफ विष्णु कही है कि, यदि मैं निष्करर्मण्य (निठल्ला) हो जाऊँ तो मेरा ही अनुसरण करके सम्पूर्ण जगत निठल्ला हो जायेगा। अतः मेरे समान सभी को लोकसंग्रहार्थ कर्म करना चाहिए न कि, स्वार्थपूर्ति हेतु।
 *भोक्ता* अर्थात यज्ञभोक्ता। सर्वदेव नमस्कारं केशवम् प्रतिगच्छति। किसी के प्रति जिस किसी भाव (आषय और उद्देष्य) से कियागया कर्म उसी रूप में परब्रह्मप्रज्ञानात्मा / प्रज्ञात्मा, परम पुरुष, विष्णु परमपद, परमेश्वर को ही प्राप्त होता है। 
हमारे द्वारा दिया गया दानभी उन्हे ही मिलता है तो हम यदि किसी का हक भी छीनते हैं तो वह भी उन्हे ही लूटते हैं।

 जिसप्रकार अतिसंग्रहकर्ता जमाखोर के प्रति भारत शासन दण्डात्मक कार्रवाई करता है वैसे ही परमेश्वर भी हमारी सरकार के रूप में जमाखोरों को (परिग्रही को) दण्ड देते हैं।
हिन्सा, मिथ्याचार, लोभ, चोरी, नारी के प्रति अभद्रता, परिग्रह, अपवित्रता, गन्दगी फैलाना, कृतघ्नता, मक्कारी, अनुचित चिन्तन,ईश्वर के प्रति अभिमान, अधीरता, आदि के मान्सिक कर्मों का दण्ड भारत शासन नही देपाता किन्तु वह परम शासक तो अविलम्ब आपके संस्कारों में उन कर्मों को भी जोड़ ही देते हैं। और तदनुसार आपके क्लेश, भय आदि रुपों में तत्काल फल भी मिलजाता है।
यह सब इसी लिए क्योंकि, हमारे मूल स्वरुप प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा परब्रह्म रूप में वही तो भोक्ता भी है। किन्तु चुँकि उसके किसी कर्म में कोई स्वार्थ निहित नही होता, कोई अहन्ता- ममता नही होती इस कारण उसके कोई नीजी भोग भी नही होते।

सभीने सुना होगा जबतक जगत का प्रत्यैक प्राणी भोजन ग्रहण नही करलेता , तृप्त नही हो जाता तबतक भगवान विष्णु भोजन ग्रहण नही करते।

अर्थात भगवान के समक्ष भोग रखकर नैवेद्य अर्पित करना ही पर्याप्त नही है बल्कि  बलिवैश्वदेव कर्म द्वारा हमसे सम्बन्धित समस्त जन्तु, वनस्पति,जड़- चेतन, दृष्य अदृष्य सभी भूतप्राणियों को भोजन अर्पित कर तृप्त कराये जाने के पश्चात ही भगवान हमारे द्वारा अर्पित नैवेद्य भोग ग्रहण करते हैं। और इस यज्ञ से बचाहुआ अन्न ही पोषण प्रदान करता है। अन्यथा इसके बिना तो वह चोरी का अन्न विष ही है।

ऐसा है परब्रह्म का भोग।

 *महेश्वर* मतलब ईश्वरों का भी ईश्वर महा ईश्वर। 
 *ईश्वरत्व* -- -  इसको ऐसे समझा जासकता है---

*ईश्वर* तो भूतात्मा, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा , महादिक (प्राण-चेतना/ देही- अवस्था / धृति - धारयित्व) भी हैं। यह प्रथम पुर्ण साकार दीर्घवृत्तीय गोलाकार यानि अण्डाकार किन्तु ठोस, दृव गेस, प्लाज्मादि अवस्थाओं से परे है। 
 *जगदीश*   -   जीवात्मा अपरब्रह्म /विराट, महाकाल,  (अपर पुरुष - जीव/ नारायण- श्री लक्ष्मी/ आयु- त्रिगुणात्मक अपराप्रकृति) *जगदीश्वर*  हैं। 
यह स्वरूप तरङ्गाकार रूप में प्रथम साकार और महाकाल है। यह सृष्टि / जगत का अचल केन्द्र स्वरूप है।   वृत्ताकार फीते से निर्मित, आपस में कहीँ काट (क्रास) नही हो ऐसे अंग्रेजी के 8 के समान परिपथ में इसी की परिक्रमा हिरण्गर्भ करते हैं।
 *महेश्वर* प्रत्यागात्मा (अन्तरात्मा) , ब्रह्म,विधाता, महाकाश , (पुरुष,/सवितृ,/श्रीहरि - कमला/ सावित्री/ प्रकृति)  महेश्वर हैं। 
यह स्वरूप सर्वगुणसम्पन्न है।किन्तु कालातीत है।
और
 *परमेश्वर*  - परमेश्वर तो प्रज्ञानात्मा/प्रज्ञात्मा परब्रह्म   (परमपुष/ विष्णु- माया/ पराप्रकृति) परमेश्वर हैं। यह प्रथम / अन्तिम सगुण स्वरूप है।जिसमे  ॐ तत्सत;   सच्चिदानन्द;   सत्यम्, ज्ञानम्, अनन्तम्  ब्रह्म;   सत्यम् शिवम् सुन्दरम्;  अनादिमत्पर ब्रह्म,न सतन्नासदुच्चते श्रीमद्भगवद्गीता 13/12 ऐसे सिमित गुण ही हैं। मूलतः तो यह स्वरूप भी लगभग गुणातीत ही है।
जबकि विश्वात्मा ॐ और परमात्मा तो गुणातीत हैं।
 *परमात्मा* चुँकि कोई भी पञ्चमहायज्ञों जिसमें अष्टाङ्गयोग और जप-तप आदि ब्रह्मयज्ञ में निहित है ही के माध्यम से और स्वयम् को परमात्मा के अर्पित कर, सदेव अविरत सोते- जागते, हँसते-रोते, ग्रहण- उत्सर्जन करते हुए भी हरिनामस्मरण  सदैव जगत्सेवा में तत्पर रहकर यानि बुद्धियोग के माध्यम से अपने अन्तःकरण को शुद्ध कर  गुरुमुख से वेदश्रवण कर चिन्तन मनन उपरान्त प्रभु कृपा से गुरु मुख से तत्वमस्यादि महावाक्य श्रवण करते ही अहम्ब्रह्मास्मि , सर्वखल्विदम् ब्रह्म, अयमात्मा ब्रह्म और प्रज्ञानम्ब्रह्म का बोध होने पर अपने प्रज्ञानात्मा/ प्रज्ञात्मा स्वरूप में स्थित होता है। यहाँ पहूँच कर गति समाप्त होजाती है। अतः इस अवस्था को परमगति कहते हैं। इसके उपरान्त विश्वात्मा ॐ और परमात्मा स्वरूपों में तो स्वतः स्थित हो जाता है।
ॐ तत्सत।इति।

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