मैरे सन्देशों में कुछ बातों की आवृत्ति बारम्बार की जाती है। जो सन्देश प्रसारण की मेरी मंशा स्पष्ट करती है।
मेरे मत में ---
१ मुख्य धर्मशास्त्र ऋग्वेद, शुक्ल यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद , कृष्ण यजुर्वेद संहिता है। इन वैदिक संहिताओं को ही परम प्रमाण मानता हूँ।
२ उक्त संहिताओं के ब्राह्मण ग्रन्थ, (ब्राह्मण ग्रन्थों के ही अन्तिम भाग आरण्यक और अन्तिम अध्याय उपनिषद सहित पूरे ब्राह्मण ग्रन्थों) को प्रमाण मानता हूँ।
वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में जो आदेश, निर्देश, नीति, धर्म मीमान्सा, तत्व मीमान्सा, ज्ञान मीमान्सा दर्शन हैं वही मैरे लिए प्रथम एवम् अन्तिम सत्य है और मुख्य प्रमाण है।
३ उक्त वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण,आरण्यक और उपनिषदों को समझने के लिए मुख्य आधार ग्रन्थ - उक्त चारों वेदों के उपवेद और वेदाङ्ग के ग्रन्थों तथा दर्शन शास्त्र के ग्रन्थ हैं। इन उपवेद, वेदाङ्ग और दर्शन के ग्रन्थों के आधार पर ही वेदों को समझा जा सकता है। यहीँ तक उल्लेखित ग्रन्थ ही वैदिक धर्मग्रन्थ हैं।
उपवेद - १ आयुर्वेद,२ धनुर्वेद, ३ गन्धर्व वेद ४ स्थापत्य वेद/ शिल्पवेद के ग्रन्थ उपवेद कहलाते हैं। तथा
वेदाङ्ग - १ कल्प, २ ज्योतिष, ३ शिक्षा, ४ व्याकरण, ५ निरुक्त, ६ छन्द के ग्रन्थ वेदाङ्ग कहलाते हैं । इसके अलावा जैमिनी की पूर्वमीमान्सा दर्शन और बादरायण की उत्तर मीमान्सा दर्शन और श्रीमद्भगवद्गीता के अध्ययन को भी वेदाङ्ग में ही गणना की जा सकती है।
1 कल्प - १ शुल्ब सुत्र २ श्रोत सुत्र ३ गृह्यसुत्र ४ धर्मसुत्र कल्प कहलाते हैं।
(धर्मसुत्रों के सम्पादित ग्रन्थ ही स्मृति कहलाते हैं।)
ब्राह्मण ग्रन्थों की पूर्व मीमान्सा तथा आरण्यकों और उपनिषदों की उत्तर मीमान्सा दर्शन तथा श्रीमद्भगवद्गीत भी कल्प के ही भाग माने जा सकते हैं। अतः ये भी अत्यन्त महत्वपूर्ण शास्त्र हैं।
2 ज्योतिष - सिद्धान्त ज्योतिष - १ ब्रह्माण्ड विज्ञान २ गणित (एस्ट्रोनॉमी Astronomy), ३ खगोल और ४ संहिता (मौसम विज्ञान, वास्तु शास्त्र, मुहुर्त, सामुद्रिक शास्त्र, शकुन आदि इसी के भाग हैं)
3 भाषा सम्बन्धी वेदाङ्ग ---
१ शिक्षा / उच्चारण शास्त्र (फोनेटिक्स Phonetics),
२ निरुक्त और निघण्टु - भाषा शास्त्र/ भाषाविज्ञान - शब्द व्युत्पत्ति और शब्दकोश ,
३ व्याकरण,
४ छन्द/ काव्य शास्त्र, पिङ्गल शास्त्र।
यहाँ तक उल्लेखित ग्रन्थ वैदिक धर्म शास्त्र कहलाते हैं।
4 दर्शन शास्त्र -
१जेमिनी की पूर्व मीमान्सा,
२ बादरायण की उत्तर मीमान्सा,
३ श्रीमद्भगवद्गीता कर्मयोग शास्त्र,
(उक्त तीनों मीमान्सा दर्शन भी वैदिक धर्म ग्रन्थ ही हैं।)
४ कपिल का सांख्य शास्त्र और ईश्वर कृष्ण आदि की सांख्य कारिकाएँ,
५ पतञ्जली का योग दर्शन,
६ गोतम का न्याय दर्शन,
७ कणाद का वेशेषिक दर्शन।
४ स्मृतियाँ - धर्मसुत्रों के आधार पर रचित बीस स्मृतियाँ। ये तुलनात्मक अर्वाचीन ग्रन्थ हैं। इसमें मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति तथा ब्रहस्पति स्मृति अधिक मान्य हैं।
इतिहास के ग्रन्थ ---
५ वाल्मीकि रामायण।
६ वेदव्यास रचित महाभारत।
७ गर्ग संहिता।(श्रीकृष्ण चरित्र।)
(उक्त ऐतिहासिक ग्रन्थों में उल्लेखित तथ्य भी इतिहास की दृष्टि से प्रमाण की कोटि में आते हैं।)
८ अठारह पुराण, अठारह उप पुराण।
(इनमें विष्णु पुराण वेदव्यास जी के पिता महर्षि पाराशर की रचना मानी जाती है और शेष महर्षि वेदव्यास जी की रचना। जबकि वास्तविकता यह है कि, इतिहास - पुराण का उल्लेख तो वेदों में भी है। महर्षि दयानन्द ब्राह्मण ग्रन्थों को पुराण मानते थे। कुछ लोग (पारसी धर्मग्रन्थ जेन्दावेस्ता का मूल ग्रन्थ अवेस्ता जिसपर ज़रथ्रुष्ट ने व्याख्या की है उक्त मूल ग्रन्थ) अवेस्ता को अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ और कुछ पुराण मानते हैं क्योकि, जेन्दावेस्ता के साथ भी गाथाएँ जुड़ी है जैसे वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों के साथ गाथाएँ जुड़ी है।
वर्तमान उपलब्ध पुराण पुष्यमित्र शुङ्ग से राजा भोज के शासनकाल में रचे गए ग्रन्थ हैं।
वेदव्यास जी के नाम से वायु पुराण जिसका एक भाग शिवपुराण है, भागवत पुराण और मार्कण्डेय पुराण की रचना कर तेलंङ्ग ब्राह्मण बोपदेव ने धार के राजा भोज (प्रथम) के समक्ष प्रस्तुत किये। राजाभोज नें ग्रन्थो की भाषा, शैली, काव्य की साहित्यिक दृष्टि से प्रशंसा करते हुए कहा कि, यदि इन ग्रन्थों को आपने अपने ही नाम पर लिखा होता तो मैं आपको इनाम देता। लेकिन प्राचीन ऋषि के नाम का दुरुपयोग कर आप मृत्यु दण्ड के भागी बने हैं। लेकिन ब्राह्मण अवध्य होता है, इसलिए आपको देश निकाला का दण्ड देता हूँ।
इसलिए पुराण प्रमाण की कोटि में नही आते हैं। पुराणों के केवल वेद सम्मत भाग ही ग्राह्य हैं।
९ निबन्ध ग्रन्थ - शुल्ब सुत्रों, श्रोत सुत्रों, गृह्यसुत्रों, धर्मसुत्रों, स्मृतियों और पुराणों के आधार पर सम्पादित निबन्ध ग्रन्थों में उक्त शास्त्रों के निर्णयों की मीमान्सा की गई है। इसलिए वर्तमान में कर्मकाण्ड में स्व. शास्त्री दुर्गाशंकर उमाशंकर शर्मा द्वारा रचित तथा उनके पुत्र यज्ञदत्त उमाशंकर ठाकुर द्वारा परिवर्धित ब्रह्मनित्यकर्म समुच्चय तथा यज्ञ एवम् वेदी निर्माण सम्बन्धित ग्रन्थों की मान्यता है । धार्मिक निर्णयों में स्व. कमलाकर भट्ट रचित निर्णय सिन्धु तथा काशीनाथ उपाध्याय रचित धर्मसिंधु को पौराणिक जन प्रमाण के रूप में स्वीकार करते है। जबकि आर्यसमाज महर्षि दयानन्द सरस्वती रचित ग्रन्थों को आधारभूत प्रामाणिक ग्रन्थ मानताहै।
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१० क्रमांक १ से ३ तक वेद, ब्राह्मण, उपवेद, वेदाङ्ग, शास्त्र को श्रोत्रिय / वैदिक लोग मानते हैं। और १ से ४ तक वेद, ब्राह्मण, उपवेद, वेदाङ्ग, शास्त्र और स्मृतियों को स्मार्त जन निर्विवाद स्वीकारते हैं।
१ से ७ तक वेद, ब्राह्मण, उपवेद, वेदाङ्ग, शास्त्र, स्मृतियों , रामायण, महाभारत और पुराणों के वचनों को भी स्मार्त जन आदर देते हैं। लेकिन पूर्णतः पालन केवल पौराणिक ही करते हैं
अतः निबन्ध ग्रन्थों को भी स्मार्त स्वीकार्य मानते हैं।
११ लेकिन अलग-अलग मत, पन्थ, आम्नाय, सम्प्रदायों और मठों के अलग अलग आगम ग्रन्थ हैं। ये आगम ग्रन्थ तन्त्र कहलाते हैं जिन्हें उन मत, पन्थ, आम्नाय, सम्प्रदायों और मठों के अनुयाई ही मानते हैं। उनमें भी कई शाखाएँ हो गई है। उनके अपनी अलग अलग व्याख्या है। वैदिक एम् स्मार्त इन्हें स्वीकार नही करते हैं, मान्यता नही देते हैं।
मत, पन्थ, आम्नाय, सम्प्रदायों और मठों के आगम ग्रन्थों में कई वेद विरुद्ध वचन और मत उधृत किये हैं।मत, पन्थ, आम्नाय, सम्प्रदायों और मठों के अनुयाई इनको भी श्रद्धा पूर्वक स्वीकारते हैं। इसलिए मुझे इन आम्नायों के आगम ग्रन्थों में श्रद्धा नही है।
१२ वैदिक/ श्रोत्रिय और स्मार्त जन पर्वकाल को महत्व देते हैं। अर्थात जिस व्रत, पर्व या उत्सव की जो ऋतु, जो मास, जो पक्ष, जो तिथि और जो समय शास्त्रों में बतलाये गये हैं जब इन चारों का योग होता है तभी व्रत रखा जाता है, पर्व माना जाता है और उत्सव मनाया जाता है।
इसलिए व्रत उसी निर्धारित तिथि में किया जाता है दुसरे दिन नही। जैसे एकादशी का व्रत एकादशी में ही करते हैं। द्वादशी में नही।
१३ उत्सव भी उसी समय मनाया जाता है जब सम्बन्धित उत्सव का पर्वकाल हो। जैसे मध्यान्ह में चैत्र शुक्ल नवमी तिथि हो तभी राम नवमी मनाते हैं। सूर्योदय के समय चैत्र पूर्णिमा हो तभी हनुमान जयन्ती मनाते हैं। और सूर्यास्त के समय वैशाख शुक्ल चतुर्दशी तिथि हो तभी नृसिंह जयन्ती मनाते हैं। मध्य रात्रि में अमान्त श्रावण पूर्णिमान्त भाद्रपद कृष्ण अष्टमी होनें पर ही श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाई जाती है। न उदिया तिथि को महत्व देते हैं न रोहिणी नक्षत्र पर चन्द्रमा होना आवश्यक मानते हैं।
१४ व्रत पूर्ण तभी माना जाता है जब व्रत की अगली तिथि में ही भोजन कर व्रत का पारण होना आवश्यक है। जैसे एकादशी का पारण द्वादशी तिथि में होना आवश्यक है। लेकिन शंखचक्रांकित महाभागवत, पौराणिक वैष्णव द्वादशी तिथि में भी एकादशी का व्रत करते हैं।
१५ इसी प्रकार ऋतुओं का भी महत्व है। रामनवमी वसन्त ऋतु में और सायन मेष राशि के सूर्य में जन्मोत्सव मनाया जाना चाहिए।
१५ लेकिन वर्तमान में सायन संक्रान्तियों की तुलना में निरयन सौर मासों का आरम्भ लगभग २४ - २५ दिन बाद होता है। इस कारण ऋतु और सायन सौर मास का पालन नही हो रहा है।
१६ सभी पञ्चाङ्ग शोधन समितियों में सायन संक्रान्तियों पर आधारित सौर मास के गतांश या गते के आधार पर व्रत, पर्व और उत्सव मनाने या सायन संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्र मास की तिथियों से व्रत, पर्व और उत्सव मनाने का अभिमत दिया गया। दो- दो शंकराचार्य भी स्वीकार कर चुके हैं।
१७ लेकिन पञ्चाङ्गकारों का स्वार्थ और उनकी जीद के कारण यह सम्भव नही हो पाया है। इससे सनातन धर्मियों का धर्मभ्रष्ट हो रहा है।
१८ आम्नायों और आगम ग्रन्थो के आधार पर सम्प्रदायों और मठों / मन्दिरों में गलत तिथियों में व्रत, पर्व और उत्सव मनाए जाते हैं। इससे नास्तिकता फैल रही है।
१९ इसलिए भारत शासन को पहल कर व्रत, पर्व और उत्सवों में एकरूपता लानें के लिए धर्माचार्यों, कर्मकाण्ड करवाने वालों और पञ्चाङ्ग कर्ताओं को वैदिक धर्मशास्त्र, शुल्बसुत्र, श्रोतसुत्र, ग्रह्यसुत्र, धर्मसुत्रों और सिद्धान्त ज्योतिष अर्थात गणित और खगोल (एस्ट्रोनॉमी) का गहन अध्ययन करना आवश्यक करना चाहिए।
२० वर्णाश्रम धर्म के अनुसार जीवन यापन आवश्यक होना चाहिए।
२१ पञ्च महायज्ञ, पञ्चाग्नि सेवा और अष्टाङ्गयोग तथा वैदिक दर्शन का सबको ज्ञान कराया जाए। तथा दृढ़तापूर्वक पालन करवाया जाए। इसके लिए गुरुकुल पुनर्स्थापित किये जाए।
२२ सभी को तकनीकी शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण, और सैन्य शिक्षा आवश्यक हो। ताकि, प्रत्येक व्यक्ति में राष्ट्रीयता जागृत हो।
यही मेरा मन्तव्य है जिसके लिए मैं सन्देश प्रसारित करता रहता हूँ।
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