बुधवार, 24 अगस्त 2022

खगोलीय पिण्डों (Celestial object) और पातों / नोड्स (Nodes) की स्थिति/ पोजीशन (Position) बतलाने की विधियाँ।


आज का विज्ञान उस स्थिर केन्द्र की खोज नहीं कर पाया अन्ततः सभी निहारिकाएँ  और समस्त ब्रह्माण्ड भी जिसका परिभ्रमण कर रहे हैं। जिसको वेदों में हिरण्यगर्भ कहा है।
लेकिन दो गतिशील पिण्डों में आधार पिण्ड को स्थिर मानकर उसपर आधारित गतिशील पिण्ड की दिशा, दूरी और उँचाई मापन किया जाता है। एस्ट्रोनॉमी में भी यही होता है।
चाहे 
१ सायन पद्यति में विषुवत में वसन्त सम्पात से पूर्व की ओर ग्रह के साथ बनने वाला कोण का माप तथा विषुववृत से उत्तर दक्षिण कोण की गणना अर्थात शर की गणना हो  या 
२ निरयन पद्यति में  चित्रा तारे को भचक्र में क्रान्तिवृत का मध्य स्थान मान कर चित्रा से १८०° पर ०००° मान कर उससे पूर्व में ग्रह के साथ बनने वाले कोण का माप हो तथा क्रान्तिवृत से उत्तर दक्षिण परम क्रान्ति तक बनने वाले कोण अर्थात क्रान्ति की गणना हो, या 
३ नाक्षत्रीय पद्यति में 
३(क) भचक्र को स्थिर मानकर  वैदिक सत्ताइस या अट्ठाइस नक्षत्रों में ग्रह की स्थिति दर्शाना हो या 
३ (ख)आधुनिक एस्ट्रोनॉमी की अठासी तारा मण्डल (constellation) में किसी ग्रह की स्थिति दर्शाना हो या
३ (ग) वराहमिहिर के तेरह अरों में ग्रह की स्थिति दर्शाना हो या 
३ (घ) आधुनिक एस्ट्रोनॉमी की तेरह साइन (Sign) में किसी ग्रह की स्थिति दर्शाना हो। या
४ एक पिण्ड से दुसरे पिण्ड की दिशा, दूरी और उँचाई का मापन हो।
सभी विधियों की अलग-अलग विशेषता है, अलग-अलग  आवश्यकता है, अलग-अलग उपयोगिता है,अलग-अलग लाभ हैं। इसी कारण सभी विधियों का अस्तित्व है।
आचार्य वराहमिहिर नें भचक्र में १३ आर्याओं की  बात बहुत पहले बतलाई थी। जिसे बीसवीं सदी में जाकर एस्ट्रोनॉमर्स ने स्वीकारा।
ऐसे ही क्रान्तिवृत में भचक्र और भचक्र मे सत्ताइस और अट्ठाइस नक्षत्रों में विभाजन सर्वप्रथम भारत में ही हुआ जो आजतक प्रचलित है।
यूरोपीयों नें अठासी तारा मण्डल (Constilation) को बहुत बाद में अपनाया। पहले वे बारह राशियों (Sign) को ही जानते थे।

विषुवांश अर्थात सायन भोगांश कभी भी राशि अंश में नही दर्शाये जाते हैं। बल्कि ३६०° तक केवल अंश, कला, विकलादि में ही दर्शाये जाते हैं।
 (ऐसे ही शर और क्रान्ति भी केवल अंशादि में ही दर्शाते हैं।)
द्वादश राशि,अंश,कला, विकला में दर्शाना निरयन पद्यति की देन है। क्योंकि द्वादश राशियाँ, और तेरह आर्याएँ, (Sign) स्थिर भचक्र में ही होती है। एस्ट्रोनॉमर्स एक दूसरे को प्रायः किसी भी नये पिण्ड दिखने की सुचना इन्हीं तेरह Sign और अठासी तारा मणू (Constilation) में जानकारी का आदान-प्रदान करते हैं, फिर विषुवांश/ भोगांश, शर और क्रान्ति के अंशादि बतलाते हैं। अर्थात नाक्षत्रीय पद्यति और सायन गणना दोनों का प्रयोग करते हैं।
चित्रा तारे को क्रान्तिवृत/ भचक्र के मध्य में / १८०° पर मानकर राशि अंशादि में दर्शाने वाली निरयन गणना केवल भारत में ही प्रचलित है।
निरयन गणना का लाभ यह है कि, इसमें ताराओं (Star's) के निरयन अंशादि हजारों, लाखों वर्षों तक लगभग अपरिवर्तित रहते हैं।

*खगोलीय पिण्डों (Celestial object) और पातों / नोड्स (Nodes) की स्थिति/ पोजीशन (Position) बतलाने की तीन विधियाँ है -* 
 *१ सायन/ ट्रॉपिकल पोजीशन (Tropical Position)* 
*२ नाक्षत्रीय/ साइडरियल पोजीशन  (Sidereal position)* और 
*३ उन्नतांश और दिगंश/ एल्टिट्युड अजिमुथ (Altitude azimuth) पद्यति।* 

 *उक्त तीनों ही गणना दृक सिद्ध , वेधसिद्ध  और शुद्ध वैज्ञानिक गणना होती है।* 
आधुनिक वैज्ञानिक शोधों से इसमें न्युटन तक, न्यूटन से आइंस्टाइन तक, आंइस्टाइन के बाद लेकिन युनिवर्सल थ्योरी डेवलप होनें तक। विभाजित किया जा सकता है। लेकिन अति विस्तार भय से अभी नही जोड़ा जा रहा है।
(१) *सायन गणना* -- इसमें पिण्डों को पूर्ण गोलाकार मानकर *पिण्डों के केन्द्र से केन्द्र तक की दूरी को लम्बन माना जाता है। सायन गणना विषुववृत / सेलेस्टियल सर्कल/सेलेस्टियल इक्वेटर  (Celestial cercle/ Celestial Equator) और क्रान्तिवृत/ ईक्लिप्टिक  (Ecliptic cercle) दोनों में दर्शाई जा सकती है।*
 *पाश्चात्य खगोल वैज्ञानिकों को और वैदिक ऋषियों को विषुव वृत्त में सायन ग्रह स्थिति अधिक मान्य है।* आधुनिक वैज्ञानिक पिण्डों के केन्द्र से केन्द्र की दूरी द्वारा और सतह से सतह की दूरी द्वारा दोनों विधियों का उपयोग करते हैं। वे  *विषुवांश (राइट एसेंशन Right Ascension) और उत्तर या दक्षिण शर  (लेटिट्युड Latitude) में दर्शाते हैं। जो विषुव वृत्त से ही होगी। विशुवांश (Right Ascension) (वसन्त विषुव से गुजरे जितना समय हुआ) जो खगोलीय देशान्तर  ( लांगिट्युड Longitude) तुल्य होता है। वसन्त विषुव/ वर्नल इक्विनॉक्स (Vernal equinox) से अंशात्मक दूरी अर्थात  सायनांश / ट्रॉपिकल लाङ्गिट्युड (Tropical longitude) में भी दर्शाई जाती है।*
 *वैदिक काल में  सायन गणना में ही अंशात्मक गणना होती थी नाक्षत्रीय गणना अंशात्मक नही होती थी। आर्यभट भी विषुववृत में सायनांश और क्रान्ति दर्शानें के पक्ष में थे।* 
क्रान्तिवृत विषुववृत को दो स्थानों पर काटता जिसे सम्पात कहते हैं। उत्तरी सम्पात को वसन्त सम्पात / वर्नल इक्विनॉक्स (Vernal equinox) कहते हैं। दक्षिण सम्पात को शरद सम्पात (Autumnal equinox) कहते हैं। ये दोनों सम्पात एक दुसरे से १८०° पर स्थित होते हैं।
सायन गणना वसन्त सम्पात को आरम्भ बिन्दु मानकर ही की जाती है। यह बिन्दु वामावर्त हो लगभग ५०.३ प्रति वर्ष चलनशील है। 
१ (क)  *यूरोपीय विषुव वृत्त में ही ग्रहों का परिभ्रमण मानते हैं। जबकि भारतीय नक्षत्र पट्टी/ भचक्र में या क्रान्तिवृत में ग्रहों का परिभ्रमण मानते हैं।भारतीयों में पिण्डों के केन्द्र से केन्द्र तक दूरी को ही लम्बन  मान्य है।  इसलिए भारतीय इसे भोगांश / ट्रॉपिकल लांगिट्युड (Tropical Longitude) और शर / लेटिट्युड (Latitude) से देखते हैं। लेकिन यह असुविधाजनक है।* 
(२) *नाक्षत्रीय पद्यति -दूसरी पद्यति है। इसमें भी पिण्डों को पूर्ण गोलाकार माना जाता है। इसकी गणना केवल भचक्र (नक्षत्र पट्टी) में ही होती है। इसलिए इसमें क्रान्तिवृत ही मुख्य है। क्रान्तिवृत में दोनों परमक्रान्ति के के आसपास लगभग नौ -नौ अंश चौड़ी पट्टी को ही भचक्र या नक्षत्र पट्टी  कहते हैं। इस भचक्र को अंग्रेजी में फ़िक्स्ड झॉडिएक (Fixed zodiac) कहते हैं। नाक्षत्रीय गणना इसी भचक्र/ नाक्षत्रीय पट्टी/ फ़िक्स्ड झाडिएक (Fixed zodiac) में चित्रा तारे को १८०° पर मानकर चित्रा तारे से १८०° को आरम्भ बिन्दु (शुन्य अंश) मानकर गणना करते हैं।* 
 *वैदिक नक्षत्र - वैदिक काल में असमान भोग वाले २८ नक्षत्र माने जाते थे। कुछ निश्चित निर्धारित तारों से निर्मित आकृति विशेष को नक्षत्र कहते थे। जैसे हस्त नक्षत्र की आकृति चार तारों से बना चौकोर है। तो मृगशीर्ष नक्षत्र में मात्र तीन तारे एक पंक्ति में हैं। जबकि चित्रा नक्षत्र में मात्र एक ही तारा है, और शतभिषा नक्षत्र में सौ तारे माने गये थे जबकि वर्तमान में शतभिषा नक्षत्र में लगभग ८८ तारे हैं। यूरोपीय खगोलविदों ने भचक्र को  ऐसे ही निश्चित आक्रतियों वाले लगभग ८८ नक्षत्र में और तेरह राशियों में विभाजित माना हैं।* 
 *इन्हीं तारा समुह में सूर्य, चन्द्रमा या ग्रह होनें पर कहा जाता था कि, ग्रह उस अमूक नक्षत्र या अमुक राशि में भ्रमण कर रहा है।*
चूंकि, चित्रा तारे से १८०° पर कोई तारा वर्तमान में भी नही है और पूर्व काल में भी बहुत सीमित समय तक रेवती योग तारा चित्रा तारे से १८०° पर रहा था अतः वेध लेनें में समस्या आती है। *पूर्वकाल में नाक्षत्रीय पद्यति में गणना अंशों में नही होती थी इसलिए कोई विशेष समस्या नही थी। अंशात्मक गणना सायन गणना में ही होती थी।* लेकिन *वर्तमान में निरयन गणना पद्यति में चित्रा तारे से १८०° को ०००° मान कर अंशात्मक गणना होती है।* 
 *चूंकि इराक के बेबीलोनिया में भी भचक्र या फिक्स्ड झॉडिएक (Fixed zodiac) में ही राशियों के चित्र तैयार किए गए थे। उसी   आधार का विकसित रूप वर्तमान वैज्ञानिक/ यूरोपीय खगोलीय मानचित्र है। जिसमें असमान भोग वाली ८८ नक्षत्र और तेरह राशियाँ है। वैध लेते समय आज भी किसी पिण्ड की स्थिति इसी भचक्र या फिक्स्ड झॉडिएक (Fixed zodiac) में ही बतलाई जाती है। इसके साथ ०००° से ३६०° विषुवांश में सायन स्थिति बतलाई जाती है और साथ हई क्षैतिजिक स्थिति उन्नतांश और  दिगंश / एल्टिट्युड & अजीमुथ (altitude azimuth) पद्यति में भी बतलाई जाती है। इससे वक्ता और श्रोता दोनों को सबकुछ एकदम स्पष्ट/क्रिस्टल क्यियर (Crystal clear) समझ आ जाता है।* 

(३) तीसरी पद्धति उन्नतांश और  दिगंश / एल्टिट्युड & अजीमुथ (altitude azimuth) पद्यति हैं। यह नेवीगेशन की पद्यति है।इसमें गणना हेतु क्षितिज रेखा ली जाती है। इसमें गणना में  उन्नतांश/ ऊचाई और दूरी  बतलाई जाती है।दूरी को किलोमीटर में या प्रकाशवर्ष में भी बतलाई जा सकती है। और दिगंश दो पिण्डों की दिशा अंशात्मक दूरी भी दर्शाई जाती है। 
दृष्यात्मक गणना जैसे दृष्य सूर्योदयास्त, दृष्य चन्द्रोदयास्त, ग्रहों का उदय/ अस्त ( Combustion la/ Heliacl Setting) दृष्य गहण मौक्ष, लोप दर्शन (Occultation), वक्री मार्गी (Retrogression) , परमोच्च/ परमनीच Apogee/ Perigee/Aphelion/Perihelion आदि की गणना के लिए यह पद्यति का उपयोगी  है।
 *(४) भू केन्द्रीय सूर्य स्पष्ट में चित्रा के योगतारा पर सूर्य होने के समय पर या सूर्य केन्द्रीय Heliocentric position में चित्रा नक्षत्र के तारे पर भूमि होनें के समय (अर्थात निरयन मेष संक्रान्ति के समय) सायन  सूर्य स्पष्ट  से और निरयन सूर्य मेष ००° के अन्तर को नोट कर स्पष्ट अयनांश ज्ञात किया जा सकता है। अथवा वसन्त सम्पात के समय भू केन्द्रीय निरयन ग्रहस्पष्ट में सूर्य का चित्रा नक्षत्र के योग तारा से १८०° पर स्थित निरयन मेषादि बिन्दु से अंशात्मक दूरी को नोट कर स्पष्ट अयनांश ज्ञात कर सकते हैं।* 
(५) भारत में नक्षत्रों की स्थिति सदैव से भचक्र (नक्षत्र मण्डल) /फिक्स्ड झॉडिएक (Fixed zodiac)  में ही माना जाती है। और लगभग सभी विद्वानों नें क्रान्तिवृत के आसपास उत्तर दक्षिण में आठ-नौ अंश की पट्टी को फिक्स्ड झॉडिएक में ही नक्षत्र मण्डल / भचक्र माना है।
(६) नक्षत्र मण्डल/ भचक्र/ फिक्स्ड झॉडिएक  (Fixed zodiac) और नाक्षत्र वर्ष गणना आधुनिक एस्ट्रोनॉमी में भी मान्य है। अन्तर इतना ही है कि, भारतियों के समान चित्रा तारे को भचक्र में १८०° पर मानकर उसके सम्मुख (१८०° पर) निरयन मेषादि बिन्दु को भचक्र का आरम्भ बिन्दु नही मानकर किसी भी स्थिर तारे से आरम्भ कर  उसी तारे पर भूमि, चन्द्रमा या ग्रह के परिभ्रमण पूर्ण करनें को नाक्षत्र गणना कहते हैं।
 सूर्य के केन्द्र से भूकेन्द्र चित्रा तारे के सम्मुख आने से आरम्भ कर पुनः चित्रा तारे के सम्मुख आने तक की अवधि लगभग ३६५.२५६३६३ दिन को नाक्षत्र वर्ष माना जाता है।
(७) Fixed zodiac पर नक्षत्र पट्टी में चित्रा नक्षत्र के तारा से आरम्भ होकर उसी तारे पर भूमि के सूर्यपरिभ्रमण या सापेक्ष में निरयन मेषादि बिन्दु से आरम्भ होकर पूनः निरयन मेषादि बिन्दु पर सूर्य के लौटने पर एक नाक्षत्र वर्ष या निरयन सौर वर्ष पूर्ण होता है।
(८) क्रान्तिवृत के इस वृत्त के बारहवें भाग ३०° में भूमि के सापेक्ष सूर्य के रहने की अवधि को एक नाक्षत्र मास कहते हैं। और ३६० वें भाग अर्थात ००१° पार करने की अवधि को एक नाक्षत्र दिन कहते हैं।
 *(९) क्रान्ति Declination  से पूर्ण असम्बद्ध होनें के कारण नाक्षत्र मास के आरम्भ बिन्दुओं पर सूर्य की स्थिति को संक्रान्ति कहना अनुचित है किन्तु सिद्धान्त ग्रन्थों में इसके लिए निरयन संक्रान्ति शब्द रूढ़ हो गया है। इसे बदलना होगा।* 
( *१०) एस्ट्रोनॉमिकल इफेमेरीज /Nautical almanac में दिये जाने वाले नक्षत्र योगताराओं के सायन भोगांश कुछ वर्षों में परिवर्तित होते रहते हैं । जबकि, इन्हीं नक्षत्र योगताराओं के निरयन राशिअंशादि हजारों वर्ष तक अपरिवर्तित है।* 
 *(११) नक्षत्र पट्टी Fixed zodiac पर ही नक्षत्रों की आकृति हजारों वर्षों तक यथावत रहती हैं। इस कारण हमारे कृषक भी चलते रास्ते आकाश में देखकर बतला देते हैं कि, सूर्य, चन्द्रमा किस नक्षत्र पर है या शुक्र और ब्रहस्पति और मंगल किस नक्षत्र में हैं। सूर्योदय पूर्व और सूर्यास्त पश्चात आकाश अवलोकन करने वाले सूर्य किस नक्षत्र में हैं बतला देते हैं, लेकिन सायन पोजीशन बतलाना सम्भव नही है।* 
 *(१२) इराक के बेबिलोनिया की राशियों की आकृति भी इस नक्षत्र पट्टी Fixed zodiac पर ही हजारों वर्षों से अपरिवर्तित है।*
*जबकि सन २८५ ईस्वी में जो मानचित्र सायन और निरयन मेष राशि का था; सन २४३३ ईस्वी में वही मानचित्र निरयन मेष राशि तथा सायन वृष राशि का हो जायेगा।* 
 *इसी कारण नक्षत्रों को नाक्षत्रीय गणना/ निरयन गणना पर आधारित ही मानना होगा।* 
(१३) वर्तमान में कुछ ज्योतिषी १३°२०' के एक समान निश्चित मान वाले न मानकर दो नक्षत्र योगताराओं के बीच के सन्धि स्थल से अगले दो  योग ताराओं के सन्धि स्थल तक नक्षत्रमान माना जाना उचित मानते हैं, जैसा कि, भारतीय जातक/ होरा शास्त्र में दो भावों की सन्धियों के बीच के अंशादि में भाव  माना जाता है।तो कुछ ज्योतिषी दो योग ताराओं के मध्य नक्षत्र मानने के पक्ष में हैं, जैसा भाव स्पष्ट से भाव स्पट के बीच भाव House मानने वाली यूरोपिय पद्यति के अनुसार नक्षत्र योग तारा को आरम्भ बिन्दु  माना जाता है। लेकिन यह पद्धति भारतीय नहीं है।
(१४) १८वर्ष ११ दिन में  ग्रहण  पुनरावर्तित होता है। और १८ वर्ष १८ दिन में ४१ सूर्यग्रहण और २९ चन्द्रग्रहण होते हैं।
भास्कराचार्य के अनुसार १९ वर्ष,१२२ वर्ष और १४१ वर्ष में अर्थात २८२ वर्ष में निरयन सौर वर्ष और निरयन सौर राशियों पर आधारित चान्द्र वर्ष / मार/ तिथियाँ यथावत पूनरावर्तित होते हैं।
(१५) अर्थात जैसे निरयन सौर संस्कृत चान्द्र पञ्चाङ्ग में तिथि, करण, नक्षत्र, निरयन सूर्य के अंशादि और विष्कुम्भादि योगों की आवृत्ति लगभग २८२ वर्षों में होती है ऐसे ही सायन सौर संस्कृत चान्द्र पञ्चाङ्ग में भी लगभग २८२ वर्षों में ही आवृत्ति हो सकती है। क्योंकि, २८२ वर्षों में अयनांश केवल ४° ही पीछे जायेगा। अर्थात सायन सौर वर्षारम्भ (वसन्तसम्पात) और निरयन सौर वर्षारम्भ (निरयन मेष संक्रान्ति) में केवल ४ दिन का अन्तर आयेगा।
 *(१६) लो. मा. बाळगङ्गाधर तिळेक हो, व्यंकटेश बापूजी केतकर हो, या शंकर बालकृष्ण दीक्षित हो, दीनानाथ शास्त्री चुलैट हो या श्री निलेश ओक हों सब ने स्वीकारा है।कि,* 
 *(१७)मधु माधवादि सायन सौर मास हैं और चैत्रादि मास निरयन सौर संस्कृत चान्द्र मास है।* 
 *(१८) संवत्सरारम्भ सदैव वसन्त सम्पात से होता रहा है। अर्थात संवत्सर सायन सौर वर्ष मान्य है। जिसमें दो अयन औ़र छः ऋतुएँ होती है।* 
 *(१९) संवत्सर का प्रथम मास सदैव चैत्र ही नही रहा। बल्कि सदैव बदलता रहा है।* 
 *(२०) संवत्सरारम्भ का प्रथम मास सदैव परिवर्तन होता रहा इसलिए ऋतु आधारित व्रत, पर्व और उत्सव के मास तिथि बदलती रही है। जैसा कि, श्री निलेश ओक ने संवत्सर आरम्भ दिन (गुड़ी पड़वा) को ब्रह्मोत्सव और इन्द्रध्वजारोहण के सम्बन्ध में बड़ी महत्वपूर्ण बात कही कि, भारत में उक्त पर्व वसन्त सम्पात से जुड़े रहे इसलिए चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ब्रह्मध्वज/ इन्द्रध्वज लगाया जाता है लेकिन नेपाल में इन्द्रध्वजारोहण रामायण काल से आजतक आश्विन मास में ही होता आया है। उनने मास परिवर्तन नही कर मास को महत्व दिया।* 
 *वैदिक साहित्य में वैशाख मास (अक्षय तृतिया), माघ मास (लगधाचार्य का वेदाङ्ग ज्योतिष), और कभी मार्गशीर्ष मास/ अग्रहायण (श्रीमद्भगवद्गीता), कभी कार्तिक मास (गुजरात), कभी आश्विन मास (नवरात्र) से संवत्सर आरम्भ बतलाया जाता है।* 
*२१ चूँकि, नाक्षत्रीय पद्यति सायन पद्यति से भिन्न है अतः पूर्णिमा को चन्द्रमा का नक्षत्रों से युति या योग के आधार पर रखे चान्द्र मासों के नाम भी नाक्षत्रीय पद्यति/ निरयन पद्यति के लिए ही मान्य हैं। अतः इसे निरयन सौर संस्कृत मास ही मानना उचित है। जैसा कि, परम्परा से भी यही प्रचलित है वही उचित भी है।*
 *(२२) तदनुसार ही चैत्रादि मासों को निरयन संक्रान्तियों पर आधारित ही मानकर सायन संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्रवर्ष का आरम्भ मास बदलते हुए पीछे की ओर चलना पड़ेगा। जैसा कि वैदिक साहित्य में उल्लेख मिलता है।* 
 *वस्तुतः सन २४३३ ईस्वी में सायन सौर संस्कृत चान्द्र संवत्सर का आरम्भ फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से होगा। इसे चैत्र मास कहना अपरम्परागत और अनुचित होगा। लेकिन ऋतुबद्ध मास में ही व्रत, पर्व उत्सव मनानें के लिए सायन संक्रान्ति से शोधित मास को ही मान्यता दी जाना आवश्यक है। जैसे इस वर्ष शके १९४४ (२०२२ ईस्वी) में अधिकांश व्रत पर्व उत्सव एक माह पहले वाले मास में मनाया जाना उचित है। *
*२३ जिस प्रकार नाक्षत्रीय मास / तथाकथित निरयन संक्रान्तियों से चैत्र वैशाख आदि मासों की परम्परा रही है। वैसे ही सायन संक्रान्तियों पर आधारित (सायन सौर संस्कारित) चान्द्र मासों का नामकरण संख्यात्मक पद्यति प्रथम/ द्वितीय आदि रखना उचित होगा। ताकि, दोनों नामों के एकसाथ उल्लेख और सायन निरयन दोनों मास एकसाथ बतलानें पर ऋतु और आकाश में सूर्य चन्द्रमा की स्थिति एकदम स्पष्ट हो जाए।*

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