रविवार, 29 अगस्त 2021

महाभारत के गूढ़ रहस्योद्घाटन स्व. श्री ग. वा. कवीश्वर द्वारा।

आदरणीय ग. वा. कवीश्वर जी ने ही गहन अध्ययन कर महाभारत के गुढ़ रहस्य और महाभारत के तेरह वर्ष एवम् गीता तत्व मीमान्सा जैसी कालजयी पुस्तकों में महाभारत के ऐसे बहुत से रहस्यों पर से पर्दा उठाया इसमें ---

 गीता प्रवचन अमान्त कार्तिक (पूर्णिमान्त मार्गशीर्ष) कृष्ण अमावस्या को हुआ। और युद्ध में परस्पर भिड़न्त दुसरे दिन मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ हुआ।

युद्ध एक दिन छोड़ कर होता था। कुल अठारह बार दोनों सेनाएँ भिड़ी किन्तु एक दिन छोड़कर युद्ध होने से अमान्त कार्तिक पूर्णिमान्त मार्गशीर्ष कृष्ण अमावस्या से पौष शूक्ल चतुर्थी तक कुल पैंतीस दिन युद्ध चला। 
महाभारत युद्ध में प्रथम दिन युद्धाभ्यास रखा, दुसरे दिन प्रत्यक्ष युद्ध हुआ। तीसरे दिन युद्धक्षेत्र की सफाई,और मरहम-पट्टी हेतु विश्राम दिवस रखा। चौथे दिन फिर प्रत्यक्ष युद्ध हुआ। ऐसे एक दिन युद्ध एक दिन विश्राम दिवस रखा जाता था। 

दो अपवाद -  
कुरुक्षेत्र में सेना आने के सत्ताईसवें दिन और प्रत्यक्ष लड़ाई के चौदहवें दिन की लड़ाई में जयद्रथ वथ के बाद रात्रि में बिना विश्राम के मशालों के प्रकाश मेंं युद्ध जारी रहा और कुछ देर विश्राम पश्चात चन्द्रोदय के बाद पुनः युद्धारम्भ हुआ जो दुसरे दिन भी चलता रहा। 
ऐसे ही दुर्योधन वध के बाद भी अन्तिम दिन रात्रि में भी युद्ध चला। कुल मिलाकर अठारह लड़ाइयाँ पैंतीस दिन में लड़ी गई।

 महाभारत युद्ध में वास्तविक युद्धारम्भ के एक दिन पहले अर्थात अमान्त कार्तिक पुर्णिमान्त मार्गशीर्ष कृष्ण अमास्या को प्रथम बार व्युह रचनाकर तैयार कर युद्धाभ्यास के लिए  सेना खड़ी की गई थी । बिना युद्ध वाले दिन अर्थात मात्र युद्धाभ्यास वाले दिन अमान्त कार्तिक (पुर्णिमान्त मार्गशीर्ष) कृष्ण अमास्या को गीताप्रवचन हुआ था।
उसके अगले दिन मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा से प्रत्यक्ष लड़ाई से व्यावहारिक युद्ध आरम्भ हुआ था। 
(न कि मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को। )
दुर्योधन वध एवम् युद्ध समाप्ति पैंतीसवें दिन पौष शुक्ल चतुर्थी को हुआ। उस दिन सूर्य ज्यैष्ठा नक्षत्र पर एवम् चन्द्रमा श्रवण नक्षत्र पर था।

उन्नीसवें दिन अर्थात प्रत्यक्ष लड़ाई के दसवें दिन अमान्त मार्गशीर्ष (पूर्णिमान्त पौष) कृष्ण तृतीया को शरशय्या पर भीष्म का पतन हुआ। सञ्जय नें स्वयम् पूरे युद्ध में प्रत्यक्ष लड़ाइयाँ लड़ी। और युद्ध में सञ्जय ने कुछ पाण्डवपक्षी योद्धाओं का वध भी किया था।  
कौरव सेना के सेनापतियों के पतन पर दुसरे दिन अवकाश होनें के कारण हस्तिनापुर जाकर (भीष्मपर्व, द्रोण पर्व, कर्णपर्व और शल्य पर्व) सुनाया था।भीष्म के शरशय्या पर पतन के बाद भी विश्राम दिवस होने के कारण सञ्जय नें हस्तिनापुर जाकर धृतराष्ट्र को महाभारत का भीष्मपर्व सुनाया। और फिर लौट आया। (भीष्मपर्व में ही  अध्याय 25 से 42 तक अमान्त मार्गशीर्ष (पूर्णिमान्त पौष) कृष्ण चतुर्थी को सञ्जय वें धृतराष्ट्र को श्रीमद्भगवद्गीता भी है सुनाई थी।) 
कुरुक्षेत्र में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता प्रवचन अमान्त कार्तिक (पुर्णिमान्त मार्गशीर्ष) कृष्ण अमास्या को दिया था। और सञ्जय वें धृतराष्ट्र को अमान्त मार्गशीर्ष (पूर्णिमान्त पौष) कृष्ण चतुर्थी को श्रीकृष्ण अर्जून संवाद रूप श्रीमद्भगवद्गीतासुपनिषद सुनाया था। अतः मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को गीता जयन्ती मनाने का कोई तुक नहीं है।

अर्जुन का मोह -  
अर्जून को भ्रम हुआ कि, युद्ध में उसके भाग लेने के कारण कुरुवंश के पुरुषों के वध से उन योद्धाओं विधवाओं में व्यभिचार पनपेगा इस पाप का दोषी मैं भी होऊँगा; इस पाप भय के भ्रम/ सम्मोह से अर्जुन युद्ध से विरत हो रहा था। 
श्री ग. वा. कविश्वर नें श्रीमद्भगवद्गीता के भी कई कूट स्पष्ट किये जैसे अर्जुन को लग रहा था कि, 
इस महायुद्ध के अन्त में लगभग सभी पुरुवंशी पुरुषों का वध हो जायेगा तो उनकी विधवाओं में व्यभिचार पनपेगा और संकर / वर्णसंकर जन्मेंगे जो पितरों के भी पतन का कारण बनेंगें। इस कारण उसके स्वयम् के साथ ही सभी योद्धा इस पाप के दोषी होंगे। इस पाप से बचने के लिए अर्जून युद्ध नही करना चाहता था। श्रीकृष्ण नें अर्जुन को यह बात समझाया कर युद्ध के लिए तैयार किया कि, यदि युद्ध में तेरे भाइयों का वध होगा और लोग तुम पर भय वश युद्ध से विरत होनें का आक्षेप लगायेंगे तब तुम विवश होकर या भाइयों के वध से उत्तेजित होकर युद्ध में उतरोगे तो तुम्हारे इस कर्म से तुम्हारा और तुम्हारे कुल का अपयश फैलेगा अतः इसके बजाय क्षत्रिय धर्म पालन कर कर्तव्य पालनार्थ युद्ध करो। यह बात जब अर्जुन को समझ आई तभी वह अपने क्षात्रधर्म निर्वहनार्थ युद्ध करने को तैयार हुआ।

 जयद्रथ वध -- 
कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़ी पाण्डव सेना का मुख पश्चिम की ओर तथा कौरव सेना का मुख पुर्व की ओर था। जयद्रथ मृत्युपर्यन्त पीछे मुड़ कर सुर्य देखता रहा। उसे मायीक या ऐन्द्रजालिक या जादुई सुर्यास्त कभी भी नही दिखा। इसलिये वह चिन्तित था। जबकि पुरी कौरव सेना को जयद्रथ वध के पहले वह मायीक सुर्यास्त दिखा। कौरव सेना द्वारा सुर्यास्त के भ्रम मे जयद्रथ की सुरक्षा करना छोड़ दी। उसी समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि, वास्तव में सूर्यास्त नही हुआ है अतः बाण चला और जयद्रथ वध कर तब अर्जुन ने युद्ध जारी रखते हुए असुक्षित जयद्रथ का वध किया।
उसदिन सूर्य अनुराधा नक्षत्र में और चन्द्रमा चित्रा नक्षत्र में होकर अमान्त मार्गशीर्ष पूर्णिमान्त पौष कृष्ण एकादशी थी अतः कोई सुर्य ग्रहण नही हुआ था। 
जयद्रथ वध अमान्त मार्गशीर्ष पूर्णिमान्त पौष कृष्ण एकादशी को हुआ था, अमावस्या को नही अतः सूर्यग्रहण होना सम्भव नही है।
वह सुर्यास्त माया रचकर किया था जैसे जादुगर लोग चलती ट्रेन गायब कर देते हैं या ताज महल गायब कर देते हैं श्रीकृष्ण ने भी वैसी ही माया  रची थी। 
(सुचना --- उल्लेखनीय है कि, श्रीकृष्ण ने महर्षि सान्दीपनि से चौसठ विद्याओं/ कलाओं के अन्तर्गत इन्द्रजाल भी सीखा था।)

महाभारत युद्ध के छिंयत्तरवें दिन भीष्म के शर शय्या पर गिरने के अट्ठावनवें दिन  जब सूर्य उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में और चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र में था उस समय उत्तरायण आरम्भ में माघ शुक्ल पूर्णिमा को भीष्म नें देह त्यागी थी। 

श्री ग. वा. कविश्वर नें महाभारत के तेरह वर्ष और महाभारत के गुढ़ रहस्य पुस्तक में युधिष्ठिर और दुर्योधन के बीच तेरह वर्ष पूर्ण होने के बाद अज्ञात वास का वर्ष पूर्ण हुआ या नहीं? इस विवाद को भीष्म ने कैसे हल किया? दोनों पक्षों को कैसे समझाया कि, युधिष्ठिर का पक्ष सही है।जिसे दुर्योधन ने न नही माना। बहुत विद्वता पूर्ण तरीके से इसका  विवेचन किया। 
श्री ग.वा. अधिश्वर नें सिद्ध किया कि, महाभारत काल में हर अट्ठावन माह पश्चात दो अधिक मास रखकर पाँच वर्ष की युग गणना की जाती थी।इसका रहस्य सुलझा कर तेरह वर्ष पुरे होनें का गणित, हल किया। और महाभारत युद्ध के पैंतीस दिनों की भी शुद्ध गणना कर इसे प्रमाणित किया।

ऐसे बहुत से कुट रहस्यों के अर्थ स्पष्ट किये हैं। किन्तु पता नही क्यों कविश्वर जी के वंशजों ने इन महान रचनाओं का प्रकाशन बन्द कर दिया।फल स्वरूप इस यथार्थ ज्ञान का प्रसार नही हो पाया।

कृपया विद्वतजन पहल करें।

मंगलवार, 24 अगस्त 2021

सायन निरयन दोनों का महत्व है। दोनों गणनाओं के अलग अलग उपयोग हैं।

क्या सायन गणना के बिना श्रोत, स्मार्त और पुराणोक्त व्रतपर्वोत्सव और मुहुर्तादि की गणना सम्भव है?
क्या नाक्षत्रीय/ निरयन गणना के बिना नक्षत्रों में भ्रमणशील ग्रहों की स्थिति दर्शाना और  होराशास्त्रीय फलित के नियम बनाना सम्भव है?
इन दोनों ही प्रश्नों के उत्तर नकारात्मक हैं।

प्रथम प्रश्न क्या सायन गणना के बिना श्रोत, स्मार्त और पुराणोक्त व्रतपर्वोत्सव और मुहुर्तादि की गणना सम्भव है? का उत्तर ---
1 श्रोत, स्मार्त और पुराणोक्त व्रतपर्वोत्सव और मुहुर्तादि का आधार उत्तरायण/ दक्षिणायन और ऋतुएँ तथा सायन सौर मधु, माधवादि मास एवम् सूर्य के भोगांश और बाण आदि में कहीँ कहीँ संक्रान्ति गत दिवस हैं। इसके बाद अमावस्या, पूर्णिमा और अर्ध चन्द्र दिवस (शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि)  तथा करण का महत्व है। फिर व्यतिपात, वैधृतिपात आदि योग का भी महत्व है। इनके अलावा क्रान्ति- शर ग्रहण- मौक्ष, सूर्योदय-सूर्यास्त, चन्द्रोदय-चन्द्रास्त,  ग्रहों और नक्षत्रों का लोप- दर्शन-अदर्शन (बृहस्पति-शुक्र और अगस्त तारे का उदय अस्त), ग्रहों का वक्री-मार्गी इत्यादि सबकुछ सायन गणना से ही सिद्ध होते हैं। 
इसके अलावा चन्द्रमा का नक्षत्र भ्रमण अर्थात चन्द्रमा का नक्षत्र भी देखा जाता है जो एकमात्र नाक्षत्रीय/ निरयन गणना आधारित है। क्योंकि, नक्षत्रमण्डल भृचक्र (स्थिर झोडिएक) में निर्धारित नक्षत्रों की निश्चित आकृतियों में चन्द्रमा का भ्रमण ही दिवस नक्षत्र कहलाता है। अतः यह नाक्षत्रीय (सेडरल) गणना आधारित होता है।
अर्थात सायन गणना के बिना न आप व्रत पर्व, उत्सव का दिन और समय ज्ञात कर सकते हैं न मुहूर्त देख सकते हैं।
मात्र 2004 वर्ष बाद कलियुग संवत 7126, विक्रम संवत 4079 शके 3944  ईसवी सन 4025 में दो ऋतु आगे निकल जाने के कारण वर्तमान निरयन सौर वर्ष और निरयन संक्रान्तियों पर आधारित 19, 122, 141 वर्षीय चक्र वाली पञ्चाङ्गों के आधार पर मनाये जाने वाले व्रत पर्व, उत्सव के दिन और मुहुर्त शास्त्र सब अप्रासङ्गिक हो जायेंगे। कुछ तो अभी भी हो चुके हैं किन्तु चान्द्रमास स्वयम् भी लगभग 29 दिन आगे पीछे होनें से 24-25 दिन का अन्तर जन साधारण को समझ नही आता है।
किन्तु जिस समय रामनवमी वर्षा ऋतु में आने लगेगी। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी शिशिर ऋतु (ठण्ड) में आने लगेगी। आषाढ़ मास में कोयल नही दिखेगी तो कोकिला व्रत कैसे होगा। 
एवम् 3424 वर्ष बाद कलियुग संवत 8546, विक्रम संवत 5499 शके 5364 में निरयन मकर संक्रान्ति वैदिक उत्तरायण परम्परागत उत्तरगोल में पड़ेगी। उत्तरायण के चैत्रादि मास दक्षिणायन में पड़ेंगें। तब मुहुर्त शास्त्र फिर से गड़बड़ा जायेगा।
 दक्षिण भारत में वसन्त ऋतु पहले आ जाती है और उत्तर भारत में देरी से आती है। सायन मेष संक्रान्ति से सायन तुला संक्रान्ति के बीच पड़ने वाला उत्तरायण (20 मार्च से 23 सितम्बर के बीच) वर्षाऋतु होनें से वैवाहिक कार्यक्रमों में विघ्न पडता था अतः वराह मिहर से भास्कराचार्य के काल में उत्तरायण तीन मास पहले सायन मकर संक्रान्ति से आरम्भ मान लिया गया। मधु मास जो सायन मेष संक्रान्ति (20/21 मार्च) से आरम्भ होता था उसे सायन मीन संक्रान्ति (18 फरवरी) से आरम्भ बतला कर चैत्र मास से जोड़नें का प्रयोग किया गया। कुछ कार्य तो निरयन संक्रान्तियों पर आधारित चान्द्रमासों के 29 दिन आगे पीछे होनें से अपने आप होजाता है।
ऐसा ही संकट 3424 वर्ष बाद पुनः आने वाला है। तब  निरयन संक्रान्तियों से सम्बद्ध वर्तमान पञ्चाङ्ग बे मतलब हो जायेंगे। जैसे आज भी व्यतिपात और वैधृतिपात का सम्बन्ध व्यतिपात योग और वैधृतिपात योग से नही बैठता।
अतः सर्वश्रेष्ठ हल यही है कि, सायन सौर वर्ष और मधु माधव मास आधारित पञ्चाङ्ग का ही उपयोग किया जावे। 
ग्रेटर नोएडा के आचार्य दार्शनेय लोकेश ने श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम प्रकाशित कर उक्त बातें आवश्यकता की पूर्ति की है।
पूर्व में यह कार्य वाराणसी के बापूजी शास्त्री कर चुके थे। किन्तु जन सहयोग न मिलने और विद्वानों के असहयोग के कारण उन्हें बन्द करना पड़ा।
यही स्थिति श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम की न हो इस हेतु सभी विद्वानों और विदुषियों का कर्तव्य है कि, आचार्य दार्शनेय लोकेश को पूर्ण समर्थन दिया जावे। और श्री मोहन कृति आर्ष पत्रकम का ही उपयोग किया जावे।
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अब दुसरे प्रश्न क्या नाक्षत्रीय/ निरयन गणना के बिना नक्षत्रों में भ्रमणशील ग्रहों की स्थिति दर्शाना और  होराशास्त्रीय फलित के नियम बनाना सम्भव है? का उत्तर ---
तैतरीय संहिता में चित्रा तारे को आकाश के मध्य में बतलाया गया है। यही बात अन्य भी कई वैदिक ग्रन्थों में उल्लेखित है। इसका तात्पर्य यह भी निकलता है कि, चित्रा तारा नक्षत्र मण्डल (फिक्स्ड झोडिएक ) में 180° पर अवस्थित है। इस तथ्य से वर्तमान में लगभग सभी ज्योतिर्विज्ञानि सहमत हैं। ऐसे ही मघा और चित्रा के योगताराओं में लगभग 54° का अन्तर वैदिक काल से आज तक यथावत है। ऐसे हैं सभी नक्षत्रों के ताराओं की परस्पर दूरी यथावत बनी हुई होने से इसे फिक्स्ड झोडिएक कहते हैं।  लाहिरी की इण्डियन इफेमेरीज़ में 01 जनवरी की स्थिति में नक्षत्र ताराओं के निरयन स्थिति (पोजीशन) बतलाई जाती है। वही स्थिति हजारों वर्षों में भी बहुत कम बदलने वाली है।
अतः रामायण-महाभारत आदि ग्रन्थों में उल्लेखित नक्षत्रीय और ग्रहों की स्थिति के आधार पर उनके काल का ज्ञान प्राप्त किया जाता रहा है।
चूँकि इनकी परस्पर दूरी अपरिवर्तित है अतः इनसे बनने वाले रेखाचित्रों के आधार पर ही इनके नक्षत्रों के नाम रखे गये। और इन नक्षत्रों में भ्रमणशील ग्रहों के आधार पर होराशास्त्र में जातक का फलित देखा जाता है।
ईसवी सन 285 में जो सायन और निरयन मेष राशि एक समान ही थी जबकि ईसवी सन 2435 में निरयन मीन राशि सायन मेष राशि बन जायेगी। अर्थात जो उत्तराभाद्रपद और रेवती के जो तारे सायन मेष राशि में माने जायेंगे। तब क्या सायन मेष राशि का स्वभाव निरयन मीन का स्वभाव समान माना जाये या अलग अलग? यह विचारणीय मुद्दा बन जायेगा। वैसे तो यह समस्या अभी भी है। 
कम से कम इतिहास की दृष्टि से तो नाक्षत्रीय/ निरयन स्थिति (पोजीशन) दर्शाना आवश्यक ही है।

रविवार, 22 अगस्त 2021

ब्रह्मायु, कल्प, सृष्टि, प्रलय, मन्वन्तर, महायुग और चतुर्युग।

ब्रह्मायु, प्रजापति की आयु -कल्प, सृष्टि संवत,सर्ग-प्राकृत, नैमित्तिक और जैविक प्रलय, मन्वन्तर, महायुग और युग व्यवस्था। 
(विष्णु पुराण प्रथम अंश/ अध्याय तीन से पाँच तक।
मनुस्मृति प्रथम अध्याय।
सूर्य सिद्धान्तोक्त मतानुसार।)

सायन मतानुसार दिनांक 20 मार्च 2021 को पुर्वाह्न 15:07 बजे (तथा निरयन मतानुसार दिनांक 13 उपरान्त 14 अप्रेल 2021 को उत्तर रात्रि में पूर्वाह्न 02:33 बजे ) नवीन कलियुग संवत्सर 5122 के आरम्भ होनें के समय के अनुसार संवत्सर संख्या दी जा रही है। ——
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की आयु -- हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के  कुल शत वर्ष (100 वर्ष) की ब्रह्मायु रहती है। जिसे एक पर कहते हैं। ब्रह्मायु को दो परार्ध भी कहते हैं।
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की कुल आयु मानव वर्ष अर्थात सायन सौर वर्षानुसार 31,10,40,00,00,00,000 वर्ष है। 
इसमें से वर्तमान हिरण्यगर्भ ब्रह्मा अपनी आयु के पचास वर्ष (अर्धायु) पूर्ण कर चुके हैं इसलिए वर्तमान में द्वितीय परार्ध चल रहा है। 
ब्रह्मायु के पचास वर्ष पूर्ण होने के पश्चात  द्वितीय परार्ध में अर्थात 51 वें वर्ष के प्रथम दिन (कल्प) का भी लगभग 45.67% भाग (छः मन्वन्तर) व्यतीत हो चुके हैं। अर्थात वर्तमान प्रजापति की आयु भी 45 वर्ष 08 माह 01 दिन  पूर्ण हो चुकी है। 
वर्तमान कल्प के छः मन्वन्तर व्यतीत होकर सातवें मन्वन्तर के अट्ठाइसवें महायुग का कलियुग के 5120 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं।
एक कल्प में चौदह मन्वन्तर होते हैं। एक मन्वन्तर में सन्धि संन्ध्यांश  सहित 71 महायुग होते हैं। 43,20,000×71 = 30,67,20,000 सायन सौर वर्ष का मन्वन्तर होता है।

वर्तमान हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के आयु 31,10,40,00,00,00,000 सायन सौर वर्ष में से 
 15,55,21,97,29,49,122 सायन सौर वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। तथा हिरणगर्भ ब्रह्मा के जीवन के 15,55,18,02,70,50,878 सायन सौर वर्ष शेष रहेंगे। 
इसके बाद हिरण्यगर्भ ब्रह्मा अपने कारण जीवात्मा अपरब्रह्म विराट (नारायण - श्रीलक्ष्मी) में लीन हो जायेंगे और प्राकृत प्रलय होजायेगा। प्राकृत प्रलय की अवधि भी ब्रह्मायु के बराबर ही होती है ।अर्थात  31,10,40,00,00,00,000 सायन सौर वर्ष प्राकृत प्रलय रहेगा। इसके बाद ही दुसरे हिरण्यगर्भ ब्रह्मा प्रकट होंगे।
 इसी प्रकार वर्तमान हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की उत्पत्ति के पहले भी 31,10,40,00,00,00,000 सायन सौर वर्ष का प्राकृत प्रलय ही था।

प्रजापति ब्रह्मा की कुल आयु अर्थात हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के एक अहोरात्र अर्थात एक कल्प के बराबर होती है। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के एक दिन अर्थात एक कल्प की कुल अवधि 4,32,00,00,000 सायन सौर वर्ष होती है। 
वर्तमान हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के वर्तमान दिन का नाम श्वेत वराह कल्प है।
जिसमें से वर्तमान प्रजापति को उत्पन्न हुए अर्थात कल्पारम्भ हुए 1,97,29,49,122 वर्ष पुर्ण हो चुके होंगे। तथा प्रजापति की शेष आयु अर्थात कल्प समाप्त होने को 2,34,70,50,878 वर्ष शेष रहेंगे । इसके बाद  4,32,00,00,000 सायन सौर वर्ष की हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की रात्रि में प्रजापति ब्रह्मा अपने कारण भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा विश्वकर्मा में लय होजायेंगे परिणाम स्वरूप नैमित्तिक प्रलय होगा जिसकी अवधि प्रजापति की आयु या कल्प के बराबर 4,32,00,00,000 वर्ष ही रहेगा। 
नैमित्तिक प्रलय में आकाशादि समस्त ब्रह्माण्ड अपने कारण प्रजापति में बीज रूप में लय होकर प्रजापति भी अपनें कारण हिरण्यगर्भ ब्रह्मा में लीन रहेंगे। 
तथा 4,32,00,00,000 सायन सौर वर्ष बाद पुन्ः हिरणगर्भ ब्रह्मा के दिनोदय में नवीन कल्पारम्भ होगा। फिर नवीन सृष्टि सृजन होगा।

अर्थात वर्तमान प्रजापति ब्रह्मा की आयु भी 45 वर्ष 08 मास 01 दिन व्यतीत हो चुके हैं और  छियालीसवें वर्ष के नौवे मास का दुसरी रात्रि यानी दुसरा अहोरात्र चल रहा है। अर्थात सायन सौर 1,97,29,49,122 वर्ष व्यतीत हो चुके और 2,34,70,50,878  सायन सौर वर्ष कल्प समाप्ति को शेष है। इसके बाद नैमित्तिक प्रलय होजायेगा। सम्पूर्ण भौतिक जगत प्रजापति में बीज रूप में लय हो जायेगा और प्रजापति अपने कारण हिरण्यगर्भ में लय हो जायेगा। 
फिर एक ब्रह्मरात्रि 4,32,00,00,000 सायन सौर वर्ष तक नैमित्तिक प्रलय बना रहेगा। इसके बाद नवीन कल्प (हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के नये दिन) में नये प्रजापति उत्पन्न होंगे और नवीन सर्ग आरम्भ करेंगे। हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के केन्द्र / चित्त में बीज रूप में स्थित स्थावर जङ्गम जगत  पुनः नये सिरे से सृष्टि के रूप में प्रकट होगा।

प्रजापति का एक अहोरात्र  1,20,000सायन सौर वर्ष का होता है। और 60,000 सायन सौर वर्ष का एक दिन होता है और 60,000 सायन सौर वर्ष की ही एक रात्रि होती है।
कल्प संवत्सर गणना मन्वन्तर गणनानुसार -- पहले कृतयुग तुल्य (17,28,000 वर्ष की) संधि, फिर (30,67,20,000 वर्ष का) मन्वन्तर, फिर सन्धि फिर मन्वन्तर इस क्रम में
 (17,28,000 वर्ष की) 7 (सात) सन्धि = 1,20,96,000 वर्ष की सात सन्धि हुई।और 30,67,20,000 वर्ष के छः मन्वन्तर व्यतीत हो गये अर्थात (30,67,20,000×6) = 1,84,03,20,000 वर्ष। सातवें (वैवस्वत) मन्वन्तर के 27 महायुग व्यतीत हो चुके (43,20,000×27)= 11,66,40,000 वर्ष। 
अट्ठाइसवें महायुग के कृतयुग / सतयुग 17,28,000 वर्ष + त्रेतायुग 12,96,000 वर्ष+ द्वापरयुग 8,64,000 वर्ष + कलियुग के 5122 वर्ष व्यतीत हो गये। अर्थात वर्तमान महायुग के 38,93,122 वर्ष व्यतीत हो चुके।
सात सन्धियाँ,+ छ मन्वन्तर+ सत्ताइस महायुग + वर्तमान महायुग के व्यतीत वर्ष = कल्प संवत⤵️

          1,20,96,000 वर्ष सन्धियाँ
+1,84,03,20,000 वर्ष मन्वन्तर
+    11,66,40,000 वर्ष महायुग
+           38,93,122 वर्ष वर्तमान महायुग
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=1,97,29,49,122  वर्ष कल्प ।

कल्प संवत 1,97,29,49,122  सायन सौर वर्ष।

मान्यता है कि, कल्पारम्भ के बाद सृष्टि सृजन में 1,70,64,000 लगे। अतः सृष्टि संवत कल्प संवत से 1,70,64,000 वर्ष छोटा है। सृष्टि के आरम्भ से 1,95,58,85,122 वर्ष पुर्ण हो चुके होंगे। इसकारण कल्प संवत 1,97,29,49,122 है तो  सृष्टि संवत 1,95,58,85,122 है।

एक मन्वन्तर की अवधि 30,67,20,000 वर्ष में से सप्तम मन्वन्तर यानि वैवस्वत मन्वन्तर आरम्भ हुए 12,05,33,122 वर्ष होचुके होंगें। अर्थात वैवस्वत मनु की अवस्था 39 वर्ष 03 मास 17 दिन से अधिक हो चुकी है।
तथा वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर समाप्त होने को 18,61,86,878 वर्ष शेष हैं। इसके पश्चात वैवस्वत मनु, इन्द्र,तथा देवगण, सप्तर्षिगण अपने कारण  सुत्रात्मा प्रजापति विश्वरूप में लय होजायेंगे। तथा 
एक कृतयुग तुल्य अवधि 17,28,000 वर्ष तक जैविक प्रलय रहेगा। फिर आठवें मनु सावर्णि मनु नवीन जैविक सृष्टि करेंगे।

कलियुग की कुल आयु 4,32,000 वर्ष है।कलियुग आरम्भ हुए 5122 वर्ष हो चुके होंगे। तथा कलियुग समाप्त होने को 4,26,878 वर्ष शेष रहेंगे। इसके बाद उन्तीसवाँ सतयुग (कृतयुग) आरम्भ होगा।

भारतीय गणना पद्यति 0,1,2,3,4,5,6,7,8,9,10,11 के क्रम में चलती हैं।इस कारण संवत्सर भी गताब्ध में दिये जाते हैं क्योंकि जब संवत्सर आरम्भ हुआ होता है तब संवत 00 कहलाता है। आरम्भ हुए एक वर्ष पुर्ण होने पर संवत 01 कहलाता है।अस्तु मारतीय संवत गताब्ध में दर्शाये जाते हैं। तदनुसार — —
कल्प संवत 01अरब 97 करोड़ 29 लाख 49 हजार 122 चल रहा है।
सृष्टि संवत 01अरब 95 करोड़ 58 लाख 85 हजार 122 चल रहा है।
एवम् कलियुग संवत 5122 चल रहा है।

  31,10,40,00,00,00,000 सायन सौर वर्ष की हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की आयु में सर्ग (सृष्टि) रहती है और इतनी ही अवधि के प्राकृत प्रलय रहता है। इस अवधि में
4,32,00,00,000 सायन सौर वर्ष के प्राकृत, वैकृत और प्राकृत-वैकृत नौ सर्ग होते हैं। और 4,32,00,00,000 का नैमित्तिक प्रलय रहता है।  सृष्टि में एक ब्राह्मदिन यानी एक कल्प या  सृष्टि काल  4,32,00,00,000 सायन सौर वर्ष में पन्द्रह सन्धि- सन्ध्यांश सहित चौदह मन्वन्तर होते है।
(30,67,20,00,000×14= 4,29,40,80,000 सायन सौर वर्ष कल्पावधि।
17,28,000×15= 2,59,20,000 सायन सौर वर्ष सन्धियाँ।)
4,29,40,80,000 चौदह मन्वन्तर अवधि
+    2,59,20,000 पन्द्रह सन्धि अवधि
----–-------------------
4,32,00,00,000 सायन सौर वर्ष  कल्पावधि।

पहले कृतयुग तुल्य 17,28,000 वर्ष की सन्धि फिर 30,67,20,000 सायन सौर वर्ष का मन्वन्तर फिर 17,28,000 वर्ष की सन्धि फिर 30,67,20,000 सायन सौर वर्ष का मन्वन्तर फिर 17,28,000 वर्ष की सन्धि इस क्रम में चौदह मन्वन्तर होते है। भौतिक सृष्टि में यह जैविक सृष्टि और सन्धि सन्ध्यांश अवधि में जैविक प्रलय होते रहते हैं। यह सृजन प्रलय की कालगणना है।
ब्राह्मदिन यानी कल्प को मनोवैज्ञानिक कालावधि में भी विभाजित किया गया है। जिसे महायुग और युगों में विभाजित किया गया है। क्रमशः व्यक्ति आत्म केन्द्रित होने लगते हैं और धर्म कम होने लगता है और अधर्म बड़ने लगता है। एक सीमारेखा पार होनें पर आपसी संघर्ष इतना बड़ जाता है कि, जनसंख्या बहुत कम बचती है। कुछ विरक्ति और बची हुई जनसंख्या के अनुपात में संसाधन बड़जाने और प्रतिस्पर्धी नही बचने के कारण पुनः धर्म प्रवृत्ति बढ़ने लगती है और कलियुग के अन्त में सतयुग आ जाता है। यही युग व्यवस्था है।
4,32,00,00,000 सायन सौर वर्ष के एक कल्प में 43,20,000 सायन सौर वर्ष के 1000 महायुग होते हैं।
प्रत्येक महायुग में 4:3:2:1 के अनुपात वाली कालावधि 17,28,000ः12,96,000:8,64,000:4,32,000 वर्षावधि वाले कृतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग होते हैं।  1,44,000 वर्ष की सन्धि, फिर 14,40,000 वर्ष का मूल कृतयुग फिर 1,44,000 वर्ष का सन्ध्यांश = कुल17,28,000 सायन सौर वर्ष का कृतयुग होता है। 
कृतयुग में सभी सदाचारी रहते हैं। धर्म शत प्रतिशत रहता है। अतः इसे सतयुग भी कहते हैं। 
इसके बाद मान्सिक दशा परिवर्तन होकर 75% धर्म (और 25% अधर्म) वाला 12,96,000 सायन सौर वर्ष का त्रेता युग रहता है। यह भी 1,08,000 वर्ष सन्धि, फिर 10,80,000 वर्ष का मूल त्रेतायुग फिर 1,08,000 वर्ष का सन्ध्यांश कुल 12,28,000 सायन सौर वर्ष का त्रेतायुग होता है। 
ऐसे ही इसके बाद फिर मान्सिक दशा परिवर्तन होकर 50% धर्म (और 50% अधर्म) वाला  72,000  वर्ष की सन्धि, फिर 7,20,000 वर्ष का मूल द्वापर युग फिर 72,000 वर्ष का सन्ध्यांश सहित कुल 8,64,000 सायन सौर वर्ष का द्वापर युग रहता है।
फिर मान्सिक दशा परिवर्तन होकर 25% धर्म (और 75% अधर्म) वाला 36,000 वर्ष की सन्धि फिर 3,60,000वर्ष का मूल कलियुग फिर 36,000 वर्ष के सन्ध्यांश सहित 4,32,000 सायन सौर वर्ष का कलियुग रहता है। 
पुनः इसी क्रम में मान्सिक दशा परिवर्तन होकर 100% धर्म (और 00% अधर्म) वाला 17,28,000 सायन सौर वर्ष का कृतयुग आजाता है। 
फिरसे मान्सिक दशा परिवर्तन होकर 75% धर्म (और 25% अधर्म) वाला 12,96,000 सायन सौर वर्ष का त्रेता युग आजाता है। 
फिर मान्सिक दशा परिवर्तन होकर 50% धर्म (और 50% अधर्म) वाला 8,64,000 सायन सौर वर्ष का द्वापर युग आजाता है। 
फिर मान्सिक दशा परिवर्तन होकर 25% धर्म (और 75% अधर्म) वाला 4,32,000 सायन सौर वर्ष का कलियुग होजाता है। 
पुनः मान्सिक दशा परिवर्तन होकर शतप्रतिशत धर्म (और शुन्यप्रतिशत अधर्म) वाला 17,28,000 सायन सौर वर्ष का कृतयुग आजाता है।
तदनुसार अभी 36,000 वर्ष की कलियुग सन्धि में से मात्र 5122 सायन सौर वर्ष व्यतीत हुए हैं। और 30880 सायन सौर वर्ष की कलियुग सन्धि व्यतीत होने के बाद मूल कलियुग आयेगा।
हमे तो इस कलियुग सन्धि में ही जीवन दुभर लगता है तो मूल कलियुग कैसा होगा?  उस कलिकाल से तो प्रभु ही बचाए।


सुचना - 1यह वर्णन स्मृतियों, रामायण, महाभारत,  लगभग सभी पुराणों में, सूर्य सिद्धान्त, सिद्धान्त शिरोमणि, संहिताओं आदि ज्योतिष ग्रन्थों में विस्तार से देखा जा सकता है। यहाँ केवल गणीतिय भाग की ही व्याख्या ही प्रस्तुत की गई है।  
2 कुछ आग्रही जन आपत्ति लेंगे कि, पुराणों और सिद्धान्त ग्रन्थों में नाक्षत्रीय वर्ष/ निरयन वर्ष के स्थान पर सायन वर्ष क्यों लिखे गये? 
इसका उत्तर यह है कि, प्राचीन ग्रन्थों में जहाँ भी मानवीय वर्ष का उल्लेख है या व्रत, पर्वोत्सवों का वर्णन है उनको सदैव अयन और ऋतुओं से सम्बन्धित बतलाया गया है।ऋतु और अयन सायन गणना से ही सिद्ध होते हैं निरयन या नाक्षत्रीय गणना से नही। नाक्षत्रीय/ निरयन सौर संवत्सर से सदा जन्माष्टमी वर्षा ऋतु में नही आ सकती, और न रामनवमी वसन्त में। न आषाढ़ मास में होनें वाले कोकिला व्रत में सदा कोयल की आवाज सुन कर व्रत खोलना सम्भव है। क्योंकि, साढ़े छः हजार वर्ष में ये व्रतोत्सव तीन मास (एक/दो ऋतु) पहले और तेरह हजार वर्ष में छः माह (तीन ऋतु) पहले होनें लगेंगे।
इसी कारण शास्त्रों में कहीँ माघ मास से संवत्सर आरम्भ बतलाया जाता है तो कहीँ, मार्गशीर्ष मास से तो कहीँ कार्तिक मास से तो कहीँ वैशाख मास से तो वर्तमान में चैत्र मास से आरम्भ होता है। ऐसे ही कहीँ कृतिका को प्रथम नक्षत्र मानते हैं तो कहीँ मघा को तो कहीँ, धनिष्टा को तो कहीँ चित्रा को और वर्तमान में अश्विनी को प्रथम नक्षत्र मानते हैं। ये सब प्रमाण सायन सौर वर्ष को ही मानव वर्ष मानने के प्रमाण है। लेकिन यह तथ्य केवल सिद्धान्त ज्योतिष गणिताध्याय और गोलाध्याय के जानकार (एस्ट्रोनॉमर्स) ही समझ पायेंगें। जिनको एस्ट्रोनॉमी (सिद्धान्त ज्योतिष) की जानकारी और समझ ना हो कृपया वे दिमाग को कष्ट न दें।

बुधवार, 18 अगस्त 2021

विक्रम संवत 136 में शकाब्द का आरम्भ होना एक अद्भुत घटना।

महाराज नाबोवाहन ने पञ्जाब- हरियाणा के मालव प्रान्त से आकर (भोपाल के निकट सोनकच्छ से लगभग २० कि.मी. दर) गंधर्वपुरी को राजधानी बनाया था। बाद में नाबोवाहन के पुत्र गन्धर्वसेन गन्धर्वपुरी के राजा हुए। जिन्हें महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था। उनकी पत्नी सोम्यदर्शना थी जिनका अन्य नाम वीरमती था।
भृतहरि और विक्रमादित्य के पिता गन्धर्व पूरी के शासक  गन्धर्वसेन कट्टर वेदिक धर्मावलम्बी और विष्णु भक्त थे। इस कारण जैन आचार्य महेसरा सूरी उनसे रुष्ट थे। जैन आचार्य महेसरा सूरी/ कालक आचार्य ने अफगानिस्तान तक पैदल जाकर शक राजा/ कुषाण क्षत्रप के दरबार में गंधर्वसेन के विरुद्ध गुहार लगाई तथा उज्जैन पर आक्रमण हेतु आमन्त्रित किया। शक शासक/ कुषाण क्षत्रप ने महाराज गन्धर्वसेन पर अनेक अत्याचार किये परिणाम स्वरूप गंधर्वसेन की मृत्यु जंगल में होगई। जैन ग्रन्थों में गन्धर्वसेन को गर्दभिल्ल, गदर्भ भिल्ल, गदर्भ वेश भी कहा गया है।
जैनाचार्य ने अफगानिस्तान तक पैदल यात्रा कर गन्धर्व पूरी के राजा गन्धर्व सेन पर आक्रमण करनें के लिए शकराज को आमन्त्रित किया। गन्धर्व सेन के पुत्र भृतहरि की पत्नी को पर भ्रष्टकर भृतहरि को नाथ सम्प्रदाय में सम्मिलित करने की कुटिल चाल तान्त्रिकों ने चली। बौद्धाचार्यों वें चन्द्रगुप्त द्वितीय के भाई रामगुप्त के विरुद्ध चीन के शकराज को समर्थन दिया और समझोते में रामगुप्त की पत्नी ध्रुव स्वामिनी को शकराज के हवाले करनें का दुष्ट समझोता करवाया। जिसे चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने असफल कर शकराज का वध किया।
इस प्रकार वास्तविक विक्रमादित्य और चन्द्रगुप्त द्वितीय में अन्तर स्पष्ट कर मूल विषय पर आते हैं।

विक्रम संवत पञ्जाब, हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश और उड़िसा  में नक्षत्रीय वर्ष के रूप में  निरयन मेष संक्रान्ति (वर्तमान में 14 अप्रेल) से आरम्भ होता है।
यही विक्रम संवत गुजरात में निरयन सौर संस्कृत चान्द्र वर्ष के रूप में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होता है।
मालवा क्षेत्र (मःप्र) में यही विक्रम संवत निरयन सौर संस्कृत चान्द्र वर्ष के रूप में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होता है।

इन तीनों में सम्राट विक्रमादित्य द्वारा प्रचलित विधान अनुसार कौनसी परम्परा सही है इसका प्रमाण प्रायः अनुपलब्ध है।
किन्तु पञ्चाङ्गों में सर्वसम्मत मत से लिखा जाता है कि विक्रम संवत की प्रचलन अवधि मात्र 135 वर्ष ही रही । विक्रम संवत 135 व्यतीत होते ही विक्रम संवत 136 के (लगभग) आरम्भ में गान्धार क्षेत्र के पुरुष्पुर जिसका वर्तमान नाम  पैठण (पाकिस्तान) है और उत्तर भारत के मथुरा (उत्तर प्रदेश) में कुषाण वंश के क्षत्रप  (राजा) कनिष्क  और पैठण महाराष्ट्र में शालिवाहन / सातवाहन वंश के राजा गोतमीपुत्र  सातकर्णी नें शालिवाहन शक केलेण्डर प्रचलित कर दिया। जो निरयन सौर संस्कृत चान्द्र वर्ष के रूप में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होता है।
यदि विक्रम संवत भी निरयन सौर संस्कृत चान्द्र वर्ष के रूप में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होता होता तो शायद केवल संवत्सर का नाम बदलने की इतनी आवश्यकता नही थी। किन्तु कुषाणों में पहले से प्रचलित प्रणाली को भारत में लागू करनें के उद्देश्य से शक केलेण्डर लागु किया गया हो मह सम्भव है। जिसमें सासों के   परम्परागत भारतीय नाम होनें से जनता ने सहज स्वीकार कर लिया हो। सम्भव है कुशाणों के प्रभाव में सातवाहनों नें भी अपनें क्षेत्र में यही प्रणाली लागु कर दी हो।
यह प्रणाली आज तक प्रचलित है।  जैसा कि, पञ्चाङ्गों में लिखा जाता है कि, यह प्रणाली और शकाब्द अठारह हजार वर्ष तक चलेगा। भँलेही अठारह हजार वर्ष न  भी चले किन्तु दो हजार वर्ष तो चल ही गया। और भारत सरकार नें सायन सौर केलेण्डर के साथ आगे भी चलना सुनिश्चित कर दिया।
उल्लेखनीय है कि, 1 शक संभवतः उत्तरी चीन तथा यूरोप के मध्य स्थित झींगझियांग प्रदेश के निवासी थे। कुषाणों एवं शकों का कबीला एक ही माना जाता है
पश्चिमी चीन के गांसु प्रदेश में जिउक्वान शहर क्षेत्र में  डुहुआंग नगर,  उत्तर अक्षांश 40 ° 08″32"  N और पुर्व देशान्तर  94 ° 39 '43" E  पर स्थित डुहुआंग नगर, (डुनहुआंग नगरपालिका क्षेत्र) को युझी जाती  का मूल स्थानों में से एक माना जाता है। अर्थात कनिष्क आदि  (भारतीय शकों) का मूल स्थानों में से एक माना जाता है।
3 शक प्राचीन मध्य एशिया में रहने वाली स्किथी लोगों की एक जनजाति या जनजातियों का समूह था, जो सीर नदी की घाटी में रहता था
 4 (आर। ५२२-४८६ ईसा पूर्व) के शासनकाल के लिए , कहा जाता है कि शक सोग्डिया की सीमाओं से परे रहते थे। [४४] इसी तरह ज़ेरक्सस I
5 (आर। ४८६-४६५ ईसा पूर्व) के शासनकाल के एक शिलालेख ने उन्हें मध्य एशिया के दहे लोगों के साथ जोड़ा है । 
6 सोग्डियन क्षेत्र आधुनिक उज्बेकिस्तान में समरकंद और बोखरा के आधुनिक प्रांतों के साथ-साथ आधुनिक ताजिकिस्तान के सुगद प्रांत से मेल खाता है
मध्य चीन के तुर्फन के आसपास युएझी प्रान्त के निवासी युएझी कहलाते थे। वे लोग विजेता के रुप में पहले पश्चिम में ईली नदी पर पहूँच कर अकसास नदी की घाँटी घाँटी पामिर पठार की ओर फिर दक्षिण में हिन्दूकुश पर्वत, ईरान, अफगानिस्तान होते हुए सिन्ध में तक्षशिला,पञ्जाब होते हुए मथुरा तक पहूँच गये। गुर्जरों के कषाणा वंश या कसाणा कबीले को आत्मसात कर कोसोनो कहलाते थे तथा गुसुर कबिले के समान थे। भारत में कुषाण कहलाये । इनने पहले ग्रीक भाषा, फिर बेक्ट्रियाई भाषा और अन्त में पुरानी गुर्जर गांन्धारी और फिर संस्कृत भाषा अपनाई। तथा भारत में गुर्जर के रुप में भी प्रसिद्ध हुए।

इसी कुषाण वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कनिष्क हुआ। जिसका जन्म गान्धार प्रान्त के पुरुषपुर (पेशावर) में (वर्तमान पाकिस्तान) में 98 ई.पू. में हुआ। और निधन 44 ई. मे हुआ। इसकी राजधानी पेशावर थी एवम् उप राजधानी कपिशा (अफगानिस्तान) और मथुरा उ.प्र. भारत) को बनाया। तथा मथुरा से अफगानिस्तान, दक्षिणी उज़्बेकिस्तान , ताजिकिस्तान से लेकर मध्यचीन के तुर्फन तक फैला था। जन्मसे यह सनातन धर्मी था किन्तु बाद में बौद्ध धर्म अपना लिया। अफगानिस्तान तथा चीन में महायान बौद्धधर्म फैलाने में विशेष योगदान दिया।

चीन में प्रचलित उन्नीस वर्षिय चक्र वाला सायन सौर संस्कारित चान्द्र केलेण्डर कुषाणों में प्रचलित था।इससे मिलता जुलता उन्नीस वर्षीय चक्र मिश्र और मेसापोटामिया में भी प्रचलित था।  इसी का भारतीय स्वरुप उन्नीस वर्ष, एकसौ बाईस वर्ष और एक सौ एकतीस वर्षिय चक्र वाला निरयन सौर संस्कारित चान्द्र केलेण्डर कनिष्क ने ही उत्तर भारत तथा गुजरात में तथा दक्षिण में महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश के अलावा मध्यप्रदेश, और पुर्वी, दक्षिणी गुजरात में सातवाहन या शालिवाहन वंशी गोतमीपुत्र सातकर्णि ने प्रचलित किया। यह संवत उत्तर भारत में कनिष्क के सत्त्तारूढ़ होने की खुशी में और दक्षिण भारत में शकों पर शालिवाहन गोतमीपुत्र सातकर्णि की विजयोपलक्ष्य में इस्वी सन 78 में विक्रम संवत 135 में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से लागु किया गया।


शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

सेवा या मुर्तिपूजा धर्मानुसार उचित क्या है।

मूल धर्म तो सेवा ही है। मुर्तिपूजा कदापि धर्म नहीं हो सकता। सर्वव्यापी परमात्मा को सीमित (एकदेशी), और साकार बतलाना धर्म कैसे हो सकता है। सर्वव्यापी परमात्मा को परम आत्म (अपना वास्तविक स्वरूप) समझने -माननें वाले अपनें इष्ट को किसी मुर्ति में सीमित कर उसके प्रति प्रेम-भाव कैसे रख सकते हैं।

वेदों में मूर्तिपूजा निषिद्घ थी।  (यजुर्वेद ३/३२ में) तस्य प्रतिमा अस्ति कहने वाले और (ऋग्वेद में) शिश्नेदेवाः (लिङ्गपूजक) की छाँव पड़नें पर यज्ञ बन्दकर पुनः शुद्धिकरण करनें के पश्चात ही यज्ञ आरम्भ करने वाले, ब्रह्मर्षियों के आर्ष ब्राह्म धर्म में मुर्ति पूजन की तो कल्पना भी नही थी। वैदिक काल में तो पूजा का मतलब सेवा ही होता है।

मातृदेवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव मानने वाले, सूर्य को अर्घ्य देनें वाले, अग्नि को परमात्मा का मुख मानकर देवताओं के लिए अग्नि में हविष्य की आहुति देकर स्वाहा (स्व / अहंकार का हनन्) करने वाले धर्म में, मुर्ति पूजा की तो कल्पना भी नही थी। 

वैदिक परम्परा में प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग ये दो जीवन पद्यति थी। ये दोनो ही वैदिक मार्ग थे। उस समय देव, असुर और मानव तीनों जातियों के गुरु प्रजापति ही थे।
छान्दोग्योपनिषद् में अष्टम अध्याय, सप्तम खण्ड से द्वादश खण्ड तक में आत्मज्ञान प्राप्ति के लिए देवराज इन्द्र  और असुरराज विरोचन द्वारा प्रजापति के पास जाना, उनके निर्देश पर इन्द्र ने १०१ वर्ष तप कर प्रजापति से पूर्ण आत्मज्ञान प्राप्त करना किन्तु,  विरोचन द्वारा मात्र ३२ वर्ष तप कर अल्प जानकारी प्राप्त कर ही सन्तुष्ट होकर लौट जाने का विस्तृत वर्णन है।तथा छान्दोग्योपनिषद् में अष्टम अध्याय,पञचदश खण्ड में स्पष्ट कहा गया है कि, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा द्वारा प्रजापति को आत्मज्ञान दिया। प्रजापति ने स्वायम्भुव  मनु को आत्मज्ञान का उपदेश दिया।
अर्थात वैदिक काल में देवताओं, मानवों और असुरों के सर्वमान्य गुरु प्रजापति ही थे।
वृहदारण्यकोपनिषद पञ्चम अध्याय, द्वितीय ब्राह्मण मन्त्र १से ३ प्रजापति ने बोला, देवताओं ने न इन्द्रिय दमन करना चाहिए, मानवों नें दान करना चाहिए, और असुरों ने दया करना चाहिए उपदेश ग्रहण किया। उक्त वर्णन से स्पष्ट है कि देवता, मानव और असुर तीनों ही प्रजापति को ही गुरु मानते थे। 
छान्दोग्योपनिषद् और वृहदारण्यकोपनिषद में कई बार प्रजापति द्वारा आत्मज्ञान उपदेश प्रकरण आये हैं। इससे सिद्ध है कि, पहले सभी वेदमार्गी ही थे। पुराणों को भी स्वीकार है कि, प्रहलाद जी असुर होते हुए परम वैष्णव थे। जैन परम्परा भी मानती है कि, ऋषभदेव जी तक तो केवल वैदिक धर्म ही था। ऋषभदेव जी के बाद श्रमण परम्परा आरम्भ हुई।

वैवस्वत मन्वन्तर में में शंकरजी द्वारा तन्त्र मार्ग की खोज कर नवीन पन्थ चला दिया।  कुछ वेद विरोधी मानवों, यक्षों, असुरों, दैत्यों और दानवों ने तन्त्र मार्ग अपनाया। शंकर जी, विश्वरूप, वत्रासुर, दत्तात्रेय, शुक्राचार्य, (शुक्राचार्य का पुत्र) त्वष्टा, कार्तवीर्य सहस्त्रार्जून, रावण, (जीवन के पूर्वार्द्ध में विश्वामित्र भी) जैसे लोग सर्वप्रथम तान्त्रिक हुए। 

वेदमार्ग में प्रवृत्ति मार्ग (वर्णाश्रम व्यवस्था)  और निवृत्ति मार्ग की पुष्टि भी वैदिक संहिताओं, ब्राह्मण ग्रन्थों-आरण्यकों-उपनिषदों के आख्यानों से होती है। 
बादमें कुछ वेद विरोधी लोगों ने वैदिक निवृत्ति मार्ग को श्रमण परम्परा में परिवर्तित कर दिया। अवैदिक श्रमणों (जैन, बौद्ध और नाथों) नें तन्त्र मार्ग अपनाया। इन तान्त्रिकों नें मुर्तिपूजा आरम्भ की। ये लोग यक्षों को उपास्य मानकर, यक्ष- यक्षिणियों की पूजा-अर्चना करते हैं।

शंकर जी के शिष्य शुक्राचार्य थे। शुक्राचार्य जी ने शैवपन्थ चलाया। शंकरजी को संन्यासी मान कर शैवों में श्रमण परम्परा विकसित हुई। ये लोग शंकरजी को संन्यासी मानते हैं। शुक्राचार्य के पुत्र त्वष्टा ने शाक्त पन्थ की स्थापना शैव पन्थ की ही शाखा रूप में की। शाक्त पन्थ घोर तान्त्रिक पन्थ है। शाक्त पन्थ का मुख्य गड़ युनान के निकट क्रीट द्वीप रहा। फिर वहाँ से ही उत्तर पूर्वी भारत में और तिब्बत में और बाद में चीन तक फैला।  गाणपत्य सम्प्रदाय और कार्तिकेय सम्प्रदाय शैवों की ही शाखा है। चन्द्रवंशियों में दत्तात्रेय ने  घोर तान्त्रिक शाक्तपन्थ का प्रचार किया। दत्तात्रेय के शिष्य कार्तवीर्य सहस्त्रार्जून और रावण थे। इन लोगों ने पिशाचों और पिशाचीनियों की पूजा-अर्चना आरम्भ की।

सीरिया, मेसापोटामिया, असीरिया, बेबीलोन (इराक), सऊदी अरब,यमन, मिश्र, युनान, क्रीट, उत्तर अमेरिका महाद्वीप, दक्षिण अमेरिका महाद्वीप में मुर्तिपूजा पहले से प्रचलित थी। भारतीय तान्त्रिकों ने भी सीरिया, मेसापोटामिया, असीरिया, बेबीलोन (इराक), सऊदी अरब, यमन, मिश्र, युनान, क्रीट से मुर्ति पूजा सीखी थी। 
मुर्तिपूजा और मन्दिर निर्माण सर्वप्रथम जैनों और फिर बौद्धों नें आरम्भ किया। फिर शाक्त और शैवपन्थी बाबाओं नें अपने आश्रमों में मुर्तियाँ रखना शुरू की जिससे उनके सनातनधर्मी अनुयायियों में मुर्तिपूजा प्रचलित हुई। सबसे अन्त में पुष्यमित्र शुङ्ग के बाद वैष्णवाचार्यों वें मुर्तिपूजा अपनाई। विशेषकर गुप्तकाल में मुर्तिपूजा का बहुत प्रचार हुआ। बहुत से मन्दिर बनाये गये।
चूँकि, मुर्तिपूजा का गड़ मध्य एशिया, पश्चिम एशिया,  पूर्वी युरोप और मिश्र था इसलिए मुर्तिपूजा का विरोध भी इब्राहिम द्वारा मध्य एशिया और पश्चिम एशिया में ही आरम्भ किया। भारत में केवल तान्त्रिक लोग ही दबे छुपे अपने क्रियाकलाप करते थे और वैदिक इनके कट्टर विरोधी थे। इसलिए जब-तक मुर्तिपूजा का व्यापक चलन नहीं हुआ, तब तक विशेष विरोध भी नहीं हुआ। इब्राहिमी पन्थ अर्थात यहुदी, ईसाई और इस्लाम मत के आगमन तक यहाँ मुर्तिपूजा व्यापक स्तर पर प्रचलित हो गई थी। अतः इस्लाम के प्रभाव से कबीर पन्थियों और उनके ही अनुयाई नानक पन्थियों ने प्रथम बार मुर्तिपूजा विरोधी रुख अपनाया। बाद में सनातन धर्म में ही दयानन्द सरस्वती ने मुर्तिपूजा विरोध किया।
 मुर्तिपूजा के दोष - 
सर्वव्यापी को सीमित बतलाना। निराकार को आकार देना। परमात्मा को परम आत्म मानकर परमात्मा से प्रेम करनें के स्थान पर ईश्वर से डरो का प्रचार होना। परमात्मा के स्थान पर देवी-देवताओं को इष्ट मानकर अनेकानेक सम्प्रदायों में बँटना। और फिर अन्तर्विरोध, मनमुटाव, और द्वन्द उत्पन्न होना।
मन्दिर में देवता के सम्मुख भय मानकर सदाचारी रहना और मन्दिर के बाहर देवताओं की अनुपस्थिति मानकर निर्भिक होकर मनमाना दुराचरण, व्यभिचार करना। प्रतिमा भञ्जकों की कोई हानि न होते देख नास्तिकता का उदय होना और मुर्ति भञ्जकों का पन्थ अपनाना।आदि,-आदि।
जबसे सनातन धर्मियों नें वेदमार्ग के विरुद्ध जाकर तन्त्रोक्त मुर्तिपूजा अपनाई तभी से सनातन धर्म पतनोन्मुखी होगया। वर्ण व्यवस्था जातिप्रथा में बदल गई, गुरुकुल समाप्त हो गये।  वेदों में अधिक से अधिक धनार्जन सामाजिक और राष्ट्रीय कर्तव्य बतलाया गया है। जबकि पौराणिक धनार्जन को गौण बतलानें लगे। वेदों में आताताइयों, आक्रमणकारियों को येन-केन प्रकारेण नष्ट करनें के निर्देश होनें और धनुर्विद्या/ धनुर्वेद को उपवेद कहनें वाले धर्म में- दुष्ट, आक्रमणकारियों द्वारा बचने के लिए पीठ दिखानें पर,  गौ, ब्राह्मण, स्री, बालक, कमजोर को ढाल बनाकर छलने वालों को, शरणाङ्गत होनें वालों को अभयदान देनें का पाठ पढ़ाया जाने लगा। और बौद्धों और जैनों ने इसे अहिंसा से जोड़ दिया। जबकि यह अहिंसा नहीं आत्मघात है, राष्ट्रद्रोह है।
अब आप कहेंगे इन सबका मुर्ति पूजा से क्या सम्बन्ध?
इसका उत्तर है कि, मुर्तियो में ही भगवान देखने वाले, मुर्तियों को भगवान मानने वाले, मुर्तियों के सामने  नाच गा कर भगवान को रीझानें वाले स्वयम् को भक्त कहने लगे। जबकि पञ्चमहायज्ञ, अष्टाङ्गयोग, आत्मज्ञान और मौक्ष पुरुषार्थ को स्वार्थ और गौण आराधना कहकर अपमानित करनें लगे।
 मुर्तिपूजकों को उक्त अहिंसा इतनी रास आई कि, उन्होनें  (मुर्तिपूजकों ने) युद्ध करना, युद्धकला,  अस्श-शस्त्रार्थ संचालन सीखने और अभ्यास करनें हेतु आखेट को हिन्सा करार देकर निन्दनीय घोषित कर दिया। 
मुर्ति पूजा समर्थकों ने पुराण रचकर  इन्द्रादि वैदिक देवताओं और महाविज्ञानी ऋषियों को कामुक, ईर्ष्यालु, भीरु (डरपोक) घोषित कर दिया। जबकि वेदों में इन्द्र को जिष्णु, अजेय कहा है। ऋषियों को सदाचारी और व्रतधारी कहा है। पौराणिकों और मुर्तिपूजकों नें क्षत्रियों, राजा- महाराजाओं को मन्दिर निर्माण में संलग्न कर दिया और राष्ट्र रक्षा के कर्तव्य से विमुख कर दिया। परिणाम स्वरूप राजा- महाराजा रासरङ्ग में डुब गये।
मुर्ति पूजक तन्त्र मार्गियों के राष्ट्रद्रोह के कुछ उदाहरण --
महाराज नाबोवाहन ने पञ्जाब- हरियाणा के मालव प्रान्त से आकर (भोपाल के निकट सोनकच्छ से लगभग २० कि.मी. दर) गंधर्वपुरी को राजधानी बनाया था। बाद में नाबोवाहन के पुत्र गन्धर्वसेन गन्धर्वपुरी के राजा हुए। जिन्हें महेन्द्रादित्य भी कहा जाता था। उनकी पत्नी सोम्यदर्शना थी जिनका अन्य नाम वीरमती था। गन्धर्वसेन के पुत्र राजा भृतहरि और विक्रमादित्य हुए। विक्रमादित्य ने ही शकों को पराजित कर विक्रम संवत चलाया था।
भृतहरि और विक्रमादित्य के पिता गन्धर्व पूरी के शासक  गन्धर्वसेन कट्टर वेदिक धर्मावलम्बी और विष्णु भक्त थे। इस कारण जैन आचार्य महेसरा सूरी उनसे रुष्ट थे। जैन आचार्य महेसरा सूरी ने उज्जैन से अफगानिस्तान तक पैदल जाकर शक राजा/ कुषाण क्षत्रप के दरबार में गंधर्वसेन के विरुद्ध गुहार लगाई तथा गन्धर्वपपूरी और उज्जैन पर आक्रमण हेतु आमन्त्रित किया। शक शासक/ कुषाण क्षत्रप ने महाराज गन्धर्वसेन पर अनेक अत्याचार किये परिणाम स्वरूप गंधर्वसेन की मृत्यु जंगल में होगई। जैन ग्रन्थों में गन्धर्वसेन को गर्दभिल्ल, गदर्भ भिल्ल, गदर्भ वेश भी कहा गया है।
जैनाचार्य ने अफगानिस्तान तक पैदल यात्रा कर गन्धर्व पूरी के राजा गन्धर्व सेन पर आक्रमण करनें के लिए शकराज को आमन्त्रित कर देशद्रोह किया। 
तान्त्रिकों ने गन्धर्व सेन के पुत्र भृतहरि की पत्नी को पथ भ्रष्टकर भृतहरि को पत्नी और संसार के प्रति घृणा भाव पैदा कर नाथ सम्प्रदाय में सम्मिलित करने की कुटिल चाल (तान्त्रिकों) ने चली। 
बौद्धाचार्यों वें चन्द्रगुप्त द्वितीय के भाई रामगुप्त के विरुद्ध चीन के शकराज को उकसा कर आक्रमण का निमन्त्रण दिया और शकराज के विजयी होनें पर समझोते में रामगुप्त की पत्नी ध्रुव स्वामिनी को शकराज के हवाले करनें का दुष्ट समझोता करवाया। जिसे चन्द्रगुप्त (द्वितीय) ने असफल कर शकराज का वध किया।
इस प्रकार अपने राजाओं का विरोध, अपनें राजाओं को कमजोर करना, और अपने राज्य और राजाओं की कमजोरियाँ विदेशियों को बतलाना और उन्हें भारतीय राज्यों पर आक्रमण का निमन्त्रण देकर देशद्रोही कार्य किये।
मुर्तिपूजक तान्त्रिकों, पौराणिकों, जैनों, बौद्धों के द्वारा कमजोर किये गये राष्ट्र पर पारसियों, चीनियों, शक, हूण, बर्बर, और इब्राहिमी (ईसाई/ मुस्लिम) आक्रमणकारियों द्वारा विजित करना बहुत आसान हो गया।
भारत राष्ट्र और वैदिक धर्म को हानि पहूँचानें में मुर्तिपूजा के परम समर्थक  तान्त्रिकों, पौराणिकों, जैनाचार्यों, बौद्धाचार्यों का भरपूर योगदान रहा। 

इस प्रकार परहित को परम धर्म बतलाने वाले, सर्वव्यापी परमात्मा के उपासक धर्म में मुर्तिपूजा आ गई। और पञ्चमहायज्ञ, अष्टाङ्गयोग और आत्मज्ञान प्रधान मूल वैदिकधर्म को मूर्तिपूजक बना दिया।
फिर मुर्ति भञ्जकों द्वारा मुर्ति भञ्जन कर उनकी आस्था को चकनाचूर कर दिया। परिणाम स्वरूप वे इब्राहिमी ईसाई या मुसलमान बन गये।
आज पञ्चमहायज्ञ, अष्टाङ्गयोग और आत्मज्ञान प्रधान मूल वैदिक धर्मावलम्बी नगण्य ही बचे हैं। इतनी हानियाँ मुर्तिपूजा से हुई। क्या ये कम हैं?
अतः धार्मिक दृष्टि से मुर्तिपूजा को कहीँ से कहीँ तक उचित नहीं ठहराया जा सकता। सेवा ही उचित है।
पञ्चमहायज्ञ,अष्टाङ्गयोग और आत्मज्ञान पूर्वक सदा सर्वदा परमात्मा का स्मरण बनाते रखते हुए हर क्षण जगत की सेवा हेतु तत्पर रहना ही धर्म है।
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एक सुझाव आया है कि, पञ्चदेवोपासना तथा श्रीमत् शंकराचार्य महाभाग की मुर्तिपूजा पर प्रकाश डाला जाये।
भगवान आदि शंकराचार्य जी के उपदेशामृत से प्रभावित हो जैन मत त्याग कर वैदिक मत में लौटने वाले राजा सुधन्वा के ताम्रपत्र में अंकित उल्लेखानुसार के अनुसार शंकराचार्य जी का जन्म युधिष्ठिर संवत २६३१ में अर्थात ई. पू. ५०७ में हुआ एवम् देहत्याग युधिष्ठिर संवत २६६३ अर्थात ई. पू. ४७५ में हुआ। अर्थात आज के २५२८ से २४९६ वर्ष पूर्व का है जो शंकराचार्य जी का काल सनातन धर्म के आधार स्तम्भ वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद, उपवेद, वैदाङ्ग, तो ठीक षडदर्शन, रामायण से ही नही महाभारत और विष्णु पुराण तक की तुलना में अति आधुनिक है। 
शंकराचार्य जी का स्वयम् का मुख्य लक्ष्य अद्वैत वेदान्त मत की स्थापना था। न कि, कर्मकाण्ड की पुनर्स्थापना। कर्मकाण्ड की पुनर्स्थापना का कार्य आचार्य कुमारिल भट्ट और उनके शिष्य मण्डन मिश्र कर रहे थे। जिनमें से आचार्य कुमारिल भट्ट तुषाराग्नि में प्रवेश कर चुके थे। और मण्डल मिश्र को शास्त्रार्थ में पराजित कर उनसे कर्मकाण्ड का त्याग करवा कर संन्यास की दीक्षा दे दी। इससे स्पष्ट है कि, पञ्चमहायज्ञ, अष्टाङ्ग योग, कर्मकाण्ड और आराधना-उपासना का महत्व शंकराचार्य जी की दृष्टि में गौण था एवम् मनुष्य के सोच-विचार, मानसिकता मुख्य थी। इसी को बदलना शंकराचार्य जी का लक्ष्य था। इसलिए योग, कर्मकाण्ड की क्रियाओं, आराधना-उपासना के क्षेत्र में प्रचलित परम्पराओं को यथावत रखते हुए, अद्वैत वेदान्त दर्शन अपनाने पर ही जोर दिया।
उस समय कई सम्प्रदाय प्रचलित थे। वे आपस में झगड़ते रहते थे, इसलिए शंकराचार्य जी ने मुख्यरूप से प्रचलित प्राचीन वैष्णव मत, सवितृ सावित्री या ब्रह्म सावित्री के रूप में वैदिक परम्परा का पौराणिक स्वरूप सौरमत और शैव मत को ही मुख्यता देते हुए तीन मतों को ही प्रधानता दी थी। किन्तु तान्त्रिकों को ध्यान रखते हुए शाक्त मत को भी स्वीकारना और बाद में महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु से गाणपत्यों को स्वीकरते हुए पञ्चदेवोपासना स्वीकारी। किसी एक को इष्ट मानकर शेष चारों को भी स सम्मान पूजना प्रचलित करवा दिया। उनके समय मुर्तिपूजा प्रतिष्ठित हो चुकी थी। बौद्धों और जैनों से पुनः वैदिक मत में आनें वालों को तो मुर्तिपूजा की लय लग चुकी थी। अस्तु उनको भी स्वीकारते हुए स्वयम् भी दाक्षिणात्य शैल पूजन विधि अपनाई।
अतः शंकराचार्य जी मुर्तिपूजा करते थे और शंकराचार्य जी ने पञ्चदेवोपासना प्रचलित की अस्तु यह कोई प्रमाण नहीं हो जाता।


भारतीय न्याय दर्शन - इतिहास और प्रधान तत्व

वेद में सांसारिक बन्धनों से मुक्ति के लिए आत्मदर्शन या तत्त्वसाक्षात्कार आवश्यक तत्त्व के रूप में निर्दिष्ट है। बृहदारण्यक उपनिषद का कहना है कि पहले आत्मा आदि पदार्थों का शास्त्र द्वारा श्रवण उपासना, पुन: हेतु द्वारा मनन अर्थात् विवेचन रूप उपासना और पश्चात् निदिध्यासन अर्थात एक चित्त होकर ध्यान रूप उपासना करनी चाहिए।
 आत्मदर्शन के साधन - मनन रूप उपासना के सम्पादनार्थ मुख्यत: न्याय शास्त्र का आविर्भाव हुआ। 
चूँकि श्रवण के पश्चात् मनन का विधान है, अत: इस शास्त्र की प्रक्रिया को शास्त्रों में अन्वीक्षा कहा गया है। अनु अर्थात् श्रवणमनु, ईक्षा दर्शनं मननम् इति अन्वीक्षा-  उक्त पद की यह व्युत्पत्ति है। श्रवण के बाद युक्ति द्वारा आत्मा आदि पदार्थों की ईक्षा-दर्शन-मनन अर्थात् शास्त्रानुमत रीति से अनुमान करना ही अन्वीक्षा है।

न्याय शास्त्र के  प्राचीन नाम भिन्न-भिन्न हैं। यथा - आन्तीक्षकी, हेतुशास्त्र, हेतुविद्या, तर्कशास्त्र, तर्कविद्या, वादविद्या, प्रमाणशास्त्र, वाकोवाक्य, तक्की, विमंसि आदि।

आपस्तंब धर्मसूत्र में भी न्याय शब्द आया है वहाँ न्याय से अभिप्राय पूर्वमीमांसा ही समझना चाहिए। 
माधवाचार्य ने पूर्वमीमांसा का सारसंग्रह का नाम 'न्यायमाला-विस्तार' रखा। 
वाचस्पति मिश्र ने मीमांसा पर एक ग्रंथ  'न्यायकणिका' के नाम से लिखा है।
खुर्दा अवेस्ता में युक्तिवादी गौतम का उल्लेख है।
उक्त सब न्याय शास्त्र की प्राचीनता के प्रमाण हैं।

महाभारत स्पष्टत: कहता है कि न्याय शास्त्र को छोड़कर केवल वेद का अवलम्बन करके कोई मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता है।
 श्रीमद् भागवत पुराण में प्रतिपादित है कि विश्वस्स्रष्टा के हृदयाकाश से व्याहृति और प्रणव के साथ आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति रूप चार विद्याएँ, उत्पन्न हुईं।

भारतीय वाङ्मय में न्यायशास्त्र के दो भेद माने जाते हैं- वैदिक न्याय और अवैदिक न्याय। 
वैदिक न्याय में - वैशेषिक न्याय, सांख्य, योग न्याय, पूर्व मीमांसा तथा उत्तर मीमांसा न्याय का समावेश है, किंतु न्यायशास्त्र के नाम से अक्षपाद गौतम के न्यायसूत्र तथा उनके आधार पर निर्मित समस्त प्राचीन अर्वाचीन साहित्य को ही अभिहित किया जाता है। 
अवैदिक न्याय में बौद्ध न्याय तथा जैन न्याय का समावेश है।

ईसा की छठी शताब्दी में वासवदत्ताकार सुबंधु ने मल्लनाग, न्यायस्थिति, उद्योतकर और धर्मकीर्ति इन चार नैयायिकों का उल्लेख किया है। इनमें धर्मकीर्ति प्रसिद्ध बौद्ध नैयायिक थे। उद्योतकराचार्य ने प्रसिद्ध बौद्ध नैयायिक दिंनागाचार्य के 'प्रमाणसमुच्चय' नामक ग्रंथ का खंडन करके वात्स्यायन का मत स्थापित किया। 'प्रमाणसमुच्चय' में दिड्नाग ने वात्स्यायन के मत का खंडन किया था। इससे यह निश्चित है कि वात्स्यायन दिंनाग के पुर्व हुए। मल्लिनाथ ने दिंनाग को कालिदास का समकालीन बतलाया है,

न्यायशास्त्र के विकास को तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है - आद्यकाल, मध्यकाल तथा अंत्यकाल (1200 ई. से 1800 ई. तक का काल)। आद्यकाल का न्याय "प्राचीन न्याय", मध्यकाल का न्याय "सांप्रदायिक न्याय" (प्राचीन न्याय की उत्तर शाखा) और अंत्यकाल का न्याय "नव्यन्याय" कहा जाएगा।

वैदिक, बौद्ध और जैन नैयायिकों के बीच विवाद ईसा की पाँचवीं शताब्दी से लेकर १३ वीं शताब्दी तक बराबर चलता रहा। इससे खंडन मंडन के बहुत से ग्रंथ बने। १४ वीं शताब्दी में गंगेशोपाध्याय हुए जिन्होंने 'नव्यन्याय' की नींव डाली।

 प्राचीन न्याय में प्रमेय आदि जो सोलह पदार्थ थे उनमें से और सबको किनारे करके केवल 'प्रमाण' को लेकर ही भारी शब्दाडंबर खडा किया गया। 
इस नव्यन्याय का आविर्भाव मिथिला में हुआ। मिथिला से नदिया में जाकर नव्यन्याय ने और भी भयंकर रूप धारण किया। न उसमें तत्वनिर्णय रहा, न तत्वनिर्णय की सामर्थ्य।

 न्याय के प्रवर्तक गौतम ऋषि कहे जाते हैं। गौतम के न्यायसूत्र अबतक प्रसिद्ध हैं। इन सूत्रों पर वात्स्यायन मुनि का भाष्य है। इस भाष्य पर उद्योतकर ने वार्तिक लिखा है। वार्तिक की व्याख्या वाचस्पति मिश्र ने 'न्यायवार्तिक तात्पर्य ठीका' के नाम से लिखी है। इस टीका की भी टीका उदयनाचार्य कृत 'ताप्तर्य-परिशुद्धि' है। इस परिशुद्धि पर वर्धमान उपाध्याय कृत 'प्रकाश' है।

प्रथम धारा सूत्रकार गौतम से आरम्भ होती है, जिसे षोडश पदार्थों के यथार्थ निरूपक होने से 'पदार्थमीमांसात्मक' प्रणाली कहते हैं। इस प्रथम धारा को 'प्राचीन न्याय' कहा जाता है। प्राचीन न्याय में मुख्य विषय 'पदार्थमीमांसा' है।

दूसरी प्रणाली को 'प्रमाणमीमांसात्मक' कहते हैं, जिसे गंगेशोपाध्याय ने 'तत्त्वचिन्तामणि' में प्रवर्तित किया। इस द्वितीय धारा को 'नव्यन्याय' कहते हैं और इस 'नव्यन्याय' में 'प्रमाणमीमांसा' वर्णित है।

जिन पदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्ष होता है उनकी संख्या इस शास्त्र में सोलह मानी गई है; उनके नाम ये हैं :
प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान।

अभिधान - 
इसी अन्वीक्षा के निर्वाहार्थ प्रकाशित विद्या आन्वीक्षिकी नाम से प्रसिद्ध हुई। प्रत्यक्ष और आगम के अविरोधी अनुमान अन्वीक्षा है। न्यायविद्या या न्याय शास्त्र इसका नामान्तर है। इसे समझने के लिए इसके प्रतिपाद्य सभी पदार्थों का परिज्ञान आवश्यक है, जिन्हें यह विद्या प्रकाशित करती है।
 हेतुविद्या - हेतुशास्त्र, युक्तिविद्या, युक्तिशास्त्र, तर्कविद्या तथा तर्कशास्त्र आदि इस आन्वीक्षिकी विद्या के नामान्तर हैं। चूँकि यहाँ अनुमान की प्रधानता है और अनुमान का मुख्य अवयव है हेतु, अत: हेतुविद्या आदि इसके अन्वर्थक नाम हैं। इसी तरह युक्त एवं तर्क का साङ्गोपाङ्ग विवेचन यहाँ प्रमुख रूप से होता है, अत: तर्कशास्त्र या युक्तिशास्त्र आदि नाम भी इसका संगत है। 
प्रमाण - परीक्षित प्रमाणों के आधार पर ही प्रमेय का यहाँ प्रतिपादन किया जाता है, अत: इसे 'प्रमाणशास्त्र' भी कहते हैं। 'प्राधान्येय व्यपदेशा: भवन्ति' इस सूक्ति के आधार पर इसकी प्रमाणशास्त्रता सिद्ध है। यहाँ प्रमाण का विवेचन प्रमुख रूप से किया गया है।

सोलह पदार्थ या विषय में हैं - प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धांत, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान। इन विषयों पर विचार किसी मध्यस्थ के सामने बादी प्रतिवादी के कथोपकथन के रूप में कराया गया है।

किसी विषय में विवाद उपस्थित होने पर पहले इसका निर्णय आवश्यक होता है कि दोनों वादियों के कौन कौन प्रमाण माने जायँगे। इससे पहले 'प्रमाण' लिया गया है। 
इसके उपरांत विवाद का विषय अर्थात् 'प्रमेय' का विचार हुआ है। विषय सूचित हो जाने पर मध्यस्त के चित्त में संदेह उत्पन्न होगा कि उसका यथार्थ स्वरुप क्या है। उसी का विचार 'संशय' या 'संदेह' पदार्थ के के नाम से हुआ है। 
संदेह के उपरंत मध्यस्थ के चित्त में यह विचार हो सकता है कि इस विषय के विचार से क्या मतलब। यही 'प्रयोजन' हुआ। 
वादी संदिग्ध विषय पर अपना पक्ष दृष्टांत दिखाकर बदलाता है, वही 'दृष्टांत' पदार्थ है। 
जिस पक्ष को वादी पुष्ट करके बतलाता है वह उसका 'सिद्धांत' हुआ। 
वादी का पक्ष सूचित होने पर पक्षसाधन की जो जो युक्तियाँ कही गई हैं प्रतिवादी उनके खँड खँड करके उनके खंडन में प्रवृत्त होता है। 
युक्तियों की खंडित देख वादी फिर से और युक्तियाँ देता है जिनसे प्रतिवादी की युक्तियों का उत्तर हो जाता है। यही 'तर्क' कहा गया है। 
तर्क द्वारा पंचावयवयुक्त युक्तियों का कथन 'वाद' कहा गया है। वाद या शास्त्रार्थ द्वारा स्थिर सत्य पक्ष को न मानकर यदि प्रतिवादी जीत की इच्छा से अपनी चतुराई के बल से व्यर्थ उत्तर प्रत्युत्तर करता ।

गौतम का न्याय केवल प्रमाण, तर्क आदि के नियम निश्चित करनेवाला शास्त्र नहीं है बल्कि आत्मा, इंद्रिय, पुनर्जन्म, दुःख अपवर्ग आदि विशिष्ट प्रमेयों का विचार करनेवाला दर्शन है। गौतम ने सोलह पदार्थों का विचार किया है और उनके सम्यक् ज्ञान द्वारा अपवर्ग या मोक्ष की प्राप्ति कही है। 

 न्यायशास्त्र के अध्ययन से पदार्थों का तत्वज्ञान होता है और उससे आत्मतत्व का साक्षात्कार होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है। तत्व साक्षात्कार से मिथ्याज्ञान की निवृत्ति, मिथ्याज्ञान की निवृत्ति से राग, द्वेष और मोह रूपी दोषों की निवृत्ति, दोषों की निवृत्ति से अर्ध एवं अर्ध रूप प्रवृत्ति की निवृत्ति से पुनर्जन्म का अभाव और पुनर्जन्म के अभाव से समस्त दु:खों से आत्यंतिक मुक्ति होती है।

गुरुवार, 12 अगस्त 2021

नागपञ्चमी कब और क्यों मनाते हैं।

आश्लेषा नक्षत्र का स्वामी नाग है।
जब सूर्य आश्लेषा नक्षत्र पर होता था तब नाग नागिन के जोड़े का प्रतिक दिवारों पर दर्शाने की परम्परा थी। ताकि, लोगों को सूर्य नक्षत्र की जानकारी रहे।
उसी का नवीन स्वरूप नाग पञ्चमी है।
नाक्षत्रीय / निरयन गणनानुसार कर्क राशि के 18°29'30" पर आश्लेषा का योगतारा E Hydrae दक्षिण आकाश में 11°06'28" शर पर देखा जा सकता है। 
जो 01 जनवरी को भुमध्य रेखा के 06° 20'08" उत्तर में दिखता है।

आश्लेषा के योग तारा पर सूर्य वर्तमान में लगभग 05 अगस्त को रहता है। चूँकि, अंग्रेजी दिनांक सायन सौर गणनाधारित है अतः प्रति 71 वर्ष में एक दिनांक बाद में दिखता है।
27 नक्षत्रीय गणनानुसार आश्लेषानक्षत्र निरयन कर्क के03°16'40" से कर्क के 30°00'00" तक रहता है। तदनुसार वर्तमान में सूर्य 02/03 अगस्त से 16/17 अगस्त तक आश्लेषा नक्षत्र में रहता है। जो प्रति 71 वर्ष में एक दिनांक बाद में दिखेगा।
तदनुसार वर्तमान में 16 जुलाई से 16/17 अगस्त के बीच रहने वाले निरयन कर्क राशि के सूर्य में पड़ें वाली अमावस्या के बाद वाली पञ्चमी तिथि को नाग पञ्चमी मनाते हैं।शुक्ल पञ्चमी तिथि मतलब सूर्य से चन्द्रमा की दूरी 48° से 60° के बीच रहने को शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि होती है।

शनिवार, 7 अगस्त 2021

अन्वाधान औ इष्टि

अन्वाधान औ इष्टि --

विष्णु भक्त वैदिकों के लिए अन्वाधान और इष्टि अति महत्वपूर्ण है।   शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा और कृष्ण पक्ष की अमावस्या की तिथि को अन्वाधान करते हैं एवम् दुसरे दिन अर्थात शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तथा कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को इष्टि अर्थात सामुदायिक यज्ञ किया जाता है।  

  हवन के बाद भी अग्नि प्रज्वलित रखते हुए होमाग्नि कभी कम नही होने देना चाहिए।  वैदिक शब्द अन्वाधान का अर्थ अग्निहोत्र (हवन या होम्) करने के बाद यज्ञाग्नि को प्रज्वलित रखने के लिए होमाग्नि में समिधा अर्पित करना है। वैष्णव अन्वाधान (पूर्णिमा और अमावस्या) तथा इष्टि (दोनो पक्षों की प्रतिपदा) के दिन उपवास रखते हैं।  उन्हेंअन्वाधान और इष्टि पर लोग एक-दूसरे को बधाई देते हैं।

वैष्णव लोग मानते हैं कि, अन्वाधान और इशिता (इष्टि) के दिन उपवास करने से शांति और खुशी प्राप्त होती है। और इच्छाओं की भी पूर्ति होती है।
शैवजन तृयोदशी के दिन (प्रदोष को) नक्तव्रत कर प्रदोषकाल में भोजन कर कृष्णपक्ष की चतुर्दशी (मास शिवरात्रि) को पार्थिव शिवलिङ्ग बनाकर अभिषेक करते हैं। 

बुधवार, 4 अगस्त 2021

यज्ञ, योग और तप से देवताओं की उन्नति होती है इसकारण इन्द्र, आदित्य, वसु आदि देवता गण यज्ञ, योग और तप में सहायक होते हैं बाधक नही।

यज्ञ, योग और तप से देवताओं की उन्नति होती है,इन्द्र का सिंहासन नही डोलता।
वेदों और महाभारत/ अध्याय 27 (श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय) /03/ 09 से 16 के अनुसार सृष्टि के आदि में प्रजापति ने देवताओं और मनुष्यों को रच कर कहा कि, मनुष्यों, तुम वेदिक विधि से यज्ञ करके देवताओं को यज्ञभाग देकर देवताओं की उन्नति करो, इसके बदले देवता गण तुम्हें भोग्य सामग्री देंगे। उनके द्वारा प्रदत्त भोग्य सामग्री का आवश्यक्तानुसार भोग ही उचित है। बिना देवताओं के दिये और अनावश्यक भोग निश्चित ही चोरी मानी जायेगी।

अतः इन्द्र द्वारा यज्ञकर्ता ऋषियों के यज्ञ में विघ्न डालना केवल पुराणकारों का नीजीमत है। अन्य प्रमाणों से पुष्ट नही होता। रामायण में राक्षसों द्वारा यज्ञ में विघ्न डालने का उल्लेख है। महाभारत में सभापर्व अध्याय 12 (लोकपाल सभाख्यानपर्व) 29 में नारदजी के कथनानुसार भी लिखा है कि, ब्रह्मराक्षस यज्ञ में विघ्न डालनें के लिए छिद्र ढूँढते रहते हैं। महाभारत/ शान्ति पर्व/ मौक्षपर्व/ ज्वर उत्पत्ति/ अध्याय 283 में दक्ष यज्ञ रुद्रगणों द्वारा विध्वंस करनें का उल्लेख है।

जब इन्द्रादि देवताओं के विकास के लिए यज्ञ किया जाता है, यज्ञ में देवताओं को यज्ञभाग अर्पित किया जाता है तो; देवता यज्ञ में बाधा क्यों डालेंगे। वस्तुतः अ वेदिक, वेद विरुद्ध तान्त्रिक हवनादि में वेदों के रक्षक देवता बाधा डालें यह तो समझ आता है।जैसे वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमानजी द्वारा राक्षसों की कुलदेवी निकुम्भला के मन्दिरों को नष्ट करना, लक्ष्मण द्वारा मेघनाद का तान्त्रिक यज्ञ विनाश करना, श्रीराम द्वारा रावण द्वारा किये जारहे तान्त्रिक यज्ञ में बाधा डालना तो समझ आता है। क्योंकि, यह तो देवताओं, देवांशों और अवतारों का कर्तव्य ही है। वैदिक यज्ञों में देवतागण सहयोग ही करते हैं बाधा नही डालते। रागद्वेष जैसी आसुरी प्रवृत्तियों से उपर उठे आदतन परम सदाचारी जीवों को ही देवता पद मिलता है। देवता लगभग वितरागी ही होते हैं। उपनिषदों में केनोपनिषद, छान्दोग्योपनिषद आदि में इन्द्र ,अग्नि और वायु को ब्रहज्ञानी बतलाया गया है। अतः ये रागद्वेष से परे हैं। संशय और भ्रम से मुक्त हैं यह सिद्ध है।

महर्षि वेदव्यास महाभारत में कुछ और लिखे और पुराणों में कुछ और लिखें यह सम्भव नही है। पुराणों में आपसी मतान्तर अत्यधिक है जबकि महाभारत तुलनात्मक अधिक प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है। इस कारण गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत के प्रमाण सन्दर्भ सहित दिये हैं। मिलान कर सकते हैं।

विश्वैदेवगण और मरुद्गण

विश्वेदेवाः -
वेदों में नारायण, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, प्रजापति ब्रह्मा, ब्रहस्पति, इन्द्र, ब्रह्मणस्पति, आदित्य, वाचस्पति, वसु, पशुपति, रुद्र गणपति, स्वायम्भुव मनु और सदसस्पति आदि सभी देवताओं को संयुक्त रूप से विश्वेदेवाः कहा है। 
पुराणों में विश्वेदेवा: उन सभी नौ या दस देवताओं के समूह के लिए आता है जिनके नाम वेद, संहिता तथा अग्निपुराण आदि में दिए गए हैं। भागवत में इन्हें धर्म ऋषि तथा (दक्षकन्या), विश्वा के पुत्र बताया है और इनके नाम 1 दक्ष,2 व्रतु, 3वसु,4 काम,5 सत्य, 6 काल, 7रोचक, 8आद्रव, 9पुरुरवा तथा 10 कुरज दिए हैं। इन सबों ने राजा मरुत के यज्ञ में सभासदों का काम किया था।
 मरुद्गण - मुख्य मरुत सात हैं। इनके छः छः पुत्र मिलकर उन्चास मरुद्गण कहलाते हैं।
सप्त मरुतः --- 1 आवह, 2.प्रवह, 3.संवह, 4.उद्वह, 5.विवह, 6.परिवह और 7.परावह है। ये सातों सैन्य प्रमुख  समान गणवेश धारण करते है।
 ये भी सुकर्मों के फलस्वरूप देवता श्रेणी में पदोन्नत हुए।अतः कर्मदेव कहलाते हैं।
इस तरह वेदों में 7 प्रकार की वायु का वर्णन मिलता है। ये 7 प्रकार हैं-
1.प्रवह, 2.आवह, 3.उद्वह, 4. संवह, 5.विवह, 6.परिवह और 7.परावह।

1. प्रवह : पृथ्वी को लांघकर मेघमंडलपर्यंत जो वायु स्थित है, उसका नाम प्रवह है। इस प्रवह के भी प्रकार हैं। यह वायु अत्यंत शक्तिमान है और वही बादलों को इधर-उधर उड़ाकर ले जाती है। धूप तथा गर्मी से उत्पन्न होने वाले मेघों को यह प्रवह वायु ही समुद्र जल से परिपूर्ण करती है जिससे ये मेघ काली घटा के रूप में परिणत हो जाते हैं और अतिशय वर्षा करने वाले होते हैं।

2. आवह : आवह सूर्यमंडल में बंधी हुई है। उसी के द्वारा ध्रुव से आबद्ध होकर सूर्यमंडल घुमाया जाता है।

3. उद्वह : वायु की तीसरी शाखा का नाम उद्वह है, जो चन्द्रलोक में प्रतिष्ठित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध होकर यह चन्द्र मंडल घुमाया जाता है।

4. संवह : वायु की चौथी शाखा का नाम संवह है, जो नक्षत्र मंडल में स्थित है। उसी से ध्रुव से आबद्ध होकर संपूर्ण नक्षत्र मंडल घूमता रहता है।

5. विवह : पांचवीं शाखा का नाम विवह है और यह ग्रह मंडल में स्थित है। उसके ही द्वारा यह ग्रह चक्र ध्रुव से संबद्ध होकर घूमता रहता है।

6. परिवह : वायु की छठी शाखा का नाम परिवह है, जो सप्तर्षिमंडल में स्थित है। इसी के द्वारा ध्रुव से संबद्ध हो सप्तर्षि आकाश में भ्रमण करते हैं।

7. परावह : वायु के सातवें स्कंध का नाम परावह है, जो ध्रुव में आबद्ध है। इसी के द्वारा ध्रुव चक्र तथा अन्यान्य मंडल एक स्थान पर स्थापित रहते हैं।

इन सातो वायु के सात सात के गण हैं जो निम्न जगह में विचरण करते हैं- -

1 ब्रह्मलोक, 2 इन्द्रलोक, 3 अन्तरिक्ष, 4 भूलोक की पूर्व दिशा, 5 भूलोक की पश्चिम दिशा, 6 भूलोक की उत्तर दिशा और 7 भूलोक की दक्षिण दिशा। इस तरह 7×7=49 अर्थात कुल 49 मरुत हैं जो देव रूप में विचरते रहते हैं।

योग्यता ग्रहिता की महत्वपूर्ण है, दाता की नही।

योग्यता ग्रहिता की महत्वपूर्ण है, दाता की नही।
एकलव्य ने केवल द्रोणाचार्य के प्रतीक से ही शिक्षा ग्रहण करली। जिसकी जानकारी स्वयम् आचार्य द्रोण को भी नही थी।
दक्षिणामूर्ति के समक्ष स्थिरमन से बैठे शिष्यों को स्वतः ज्ञान हो जाता था। न शिष्य कुछ पुछते थे , न गुरु कुछ बोलते - बतलाते थे।
पर शिष्य को जाकर श्रद्धापूर्वक स्थिर होकर बैठना तो पड़ता ही था ना। उछलकूद कर रहे व्यक्ति को तो व आँ भी ज्ञान नही मिलता। मौन गुरु को देखकर सहस्त्रों समस्याओं का समाधान चाहनें वाला बालक उन्हें जगानें के प्रयत्न करेगा। हिलायेगा डुलायेगा। वह नही जान सकता। कोई अधीर व्यक्ति उन्हें मौन देखकर उठकर और कहीँ जाकर अपनी समस्याओं का समाधान पूछेगा। उसे भी उनसे ज्ञान नही मिल सकता।
लोग पूछते हैं सच्चे और अच्छे सत्गुरु की क्या पहचान है। सत्गुरु की खोज कैसे करें। सत्गुरु कहाँ मिलेंगे।
इसका सीधा सच्चा उत्तर यही है कि, योग्य जिज्ञासु, प्रसन्नता पूर्वक धैर्य पूर्वक सीखने को तैयार, आज्ञापालक धर्मनिष्ठ, सदाचारी शिष्य बननें का लगन पूर्वक प्रयत्न करते रहो। गुरु स्वयम आकर मार्गदर्शन देकर अगले स्तर पर पहूँचा देंगे। उस स्तर को सफलतापूर्वक निर्वहन करलोगे तो अगला गुरु या वही गुरु फिर अगले स्तर पर पहूँचा देंगे।
यदि आप गुरु को पहचानने की योग्यता रखते तो आपको गुरु स्वयम् पहले ही खोज लेंगे। 
अनन्य भाव से आश्रित सदाचारी भक्त की मदंद करनें स्वयभ् भगवान ही आकर करते है। उसे सहायता माँगने के लिए भगवान के पास नही जाना पड़ता।

परमात्मा कोई व्यक्ति, वस्तु या स्थान नही जिसे कर्म से पाया जा सके।

कर्म से अन्तःकरण शुद्ध हो सकता है। शुद्ध अन्तःकरण में ही ज्ञान की स्थिति होती है। अन्यथा जानते तो सब हैं पर ज्ञानी कोई नही हुआ।
ज्ञान होनें पर ही भक्ति का उदय होता है।
बिना जानें श्रद्धा नही होती। बिना श्रद्धा भक्ति नही होती। बिना भक्ति के अभेद नही होता।
जब मैं था तब हरि नही अब हरि है तो मैं नही।
प्रेमगली अति सांकरी, ताँ मे दो न समाय।

साधना, कर्म और कर्मफल

देही से लेकर देह तक के विषय में विचार बहुत कम ही करना स्वभाव में ढालना है। अतः इनके विषय में चर्चा नही करना और मैं मेरा, हम, हमारा का उपयोग करने से बचना। यह भी साधना है। 
साधना मतलब सतर्क, सावधान , सचेत होना / रहना। पतङ्ग उड़ाई हो तो याद होगा कि,  जबतक आप सचेत हो पतङ्ग स्वतः उड़ती है। जैसे ही किसी अन्य चिन्तन में बहे, पतङ्ग पर से ध्यान हटा, पतङ्ग को भूले कि पतङ्ग ने गोत लगाई।
बस यह सावधानी ही तो साधना है।

देही से लेकर देह तक के विषय में विचार बहुत कम ही करना स्वभाव में ढालना है। अतः इनके विषय में चर्चा नही करना और मैं मेरा, हम, हमारा का उपयोग करने से बचना। यह भी साधना है। 
साधना मतलब सतर्क, सावधान , सचेत होना / रहना। पतङ्ग उड़ाई हो तो याद होगा कि,  जबतक आप सचेत हो पतङ्ग स्वतः उड़ती है। जैसे ही किसी अन्य चिन्तन में बहे, पतङ्ग पर से ध्यान हटा, पतङ्ग को भूले कि पतङ्ग ने गोत लगाई।
बस यह सावधानी ही तो साधना है।

ऋग्वेद एवम् सभी वेदों का प्रमुख देव विष्णु है; विष्णु को परमपद कहा है और इन्द्रादि देवता उस पद को केवल देख पाते हैं।

ऋग्वेद प्रथम मण्डल के बाइसवें सुक्त का बीसवाँ मन्त्र है अर्थात ऋग्वेद 1/22/20 जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि, तद् विष्णोः परमं पदम् सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्।। 20 "
 सूरगण यानि देवता सदा विष्णु परमपद को देखते हैं।"
तद् विप्रासो विपन्यवो जागृवगांसः समिन्धते। विष्णोर्यत् परमम् पदम्।। 21
विष्णु को परम पद कहा है, उस विष्णु परमपद को कर्मकुशल जाग्रत रहने वाले वेदज्ञ विप्र सम्यक प्रकाशित हुआ देखते हैं।
अर्थात स्पष्ट रूप से विष्णु को परमपद कहा है देवता उस विष्णु परमपद के दर्शनाभिलाषी है। द्वादश प्रजापति, इन्द्र, द्वादश आदित्य, अष्टवसु, और ग्यारह रुद्रगण जिनकी ओर टकटकी लगाये रहते हैं, देखते  हैं वह परमपद विष्णु है। सायणाचार्य के भाष्य के अनुसार विष्णु परमपद को देखनें के लिए तरसते हैं। इस प्रकार सर्वोच्च / परम सत्ता का स्पष्ट रूप से वर्णन वेदों में है।
पद्मभूषण डॉ. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर जी ने अनुवाद किया है —-
तद् विष्णोः परमं पदम् सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्।। 20
विष्णु का वह परम स्थान द्युलोक में फैले हुए प्रकाश के समान ज्ञानी सदा देखते हैं।
वह विष्णु परम पद है।
ऋग्वेद के एतरेय ब्राह्मण ग्रन्थ का प्रथम मन्त्र भी यही कहता है कि, अग्नि प्रथम देवता और विष्णु अन्तिम/ चरम/ परम देव है।
पौराणिक दृष्टि से वरीष्ठता क्रम गङ्गा अवतरण में स्पष्ट होता है।
गङ्गा विष्णु पदीय है, अर्थात विष्णु के चरणों सें गङ्गा का उद्गम है।
विष्णु पद से निकलकर गङ्गा ब्रह्मा जी के कमण्डल में समाई। कमण्डल चाहे हाथ में लटका कर खड़े रहें या आसन पर बैठ कर पार्श्व में रखा हो शरीर के मध्य भाग के समीप रहता है।
विष्णु पद से निकलकर गङ्गा ब्रह्मा जी के कमण्डल में होती हुई शंकर जी के शिर्ष (जटाओं) में समाई।
जहाँ विष्णु के चरण, वहीँ ब्रह्मा जी का मध्यभाग और वहीँ शंकर जी का सिर है।
विष्णु पुराण हो या शिव पुराण सभी में विष्णु की नाभी (केन्द्र) से ब्रह्मोत्पत्ति और ब्रह्मा जी के रोष से रुद्रोत्पत्ति स्वीकारी गई है। एकादश रुद्र में एक शंकर भी हैं।
कुलपति मुखिया पालक होता है, युवा सृजन करते हैं और बालक पुरानी वस्तुएँ तोड़ फोड़ कर घर का नवीनीकरण करवाते हैं। यही कार्य विष्णु पालक, ब्रह्मा सृजन कर्ता और रुद्र प्रलयकारी हैं ।पुराने को नष्ट कर नवीन के लिए स्थान बनाते हैं।