गुरुवार, 26 जून 2025

क्या यम नियम पालन किए बिना, पञ्च महायज्ञ पूर्ण किए बिना, सदाचारी जीवन के बिना केवल नाम जप से उद्धार सम्भव है?

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूपीधर्म में दृढ रहते हुए शोच, सन्तोष, तप (जिसमें नाम जप सम्मिलित है।), स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान रूपी नियमों का पालन करते हुए ब्रह्म यज्ञ (अष्टाङ्ग योग इसी का भाग है।), देव यज्ञ, नृयज्ञ (अतिथि यज्ञ- दान आदि), भूत यज्ञ (प्रकृति,जीव- जन्तुओं और वनस्पतियों की सेवा), तथा पितृ यज्ञ (बुजुर्गों और दिवङ्गत जनों की लोक सेवार्थ प्रतिज्ञा और इच्छाओं को पूर्ण करने हेतु पाठशाला,  व्यायाम शाला, धर्मशाला, वाचनालय, सदावर्त, कूप-तड़ाग, बान्ध, घाट, नहर, औषधालय, चिकित्सालय, मार्ग, स्ट्राम वाटर लाइन, सिवरेज, ड्रेनेज, प्रकाश व्यवस्था, आदि के निर्माण और रखरखाव में यथाशक्ति सहयोग करना) जिसे निष्काम कर्म योग भी कहा है, इसके बिना अन्तःकरणों की मलिनता दूर हो नहीं सकती। और निर्मल अन्तःकरण में ही सद्विचार, सद्भाव और सत्कर्म के सङ्कलप पूर्ण करने के निश्चय के लिए निश्चयात्मिका बुद्धि का वास होता है।
ऐसे व्यक्ति ही श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 09 श्लोक 22 के अनुसार सदाचारी जीवन जीनेवाले ईश्वर प्रणिधान किये हुए लोगों के लिए ही अनन्याश्चिन्तयन्तो मां: कहा गया है। उनके योग क्षेम  परब्रह्म भगवान विष्णु स्वयम ही निर्वहन करते हैं।
अन्यथा तोता रटन्त से कुछ नहीं होता।

बुधवार, 25 जून 2025

ब्रह्म-यज्ञ के अन्तर्गत भगवत-कथा और लौकिक भागवत कथा या राम कथा आयोजन की मर्यादा में अन्तर होता है।


वैदिक काल में यज्ञ सत्र के दौरान रात्रि में प्राचीन काल का इतिहास-गौरव जानकर धर्म कार्य में प्रेरणा और उत्साह वर्धन हेतु इतिहास श्रवण होता था। धार्मिक लोगों की कथा-साहित्य शास्त्र मनोरञ्जनार्थ पुराण श्रवण होता था।
ऋग्वेद के ऋषि और स्वायम्भुव मनु के पाँचवी पीढ़ी में उत्पन्न ऋषभदेव ने अपनी पुत्री को चौदह भाषाएँ और उनकी लिपियाँ सिखाई थी। फिर भी मुखाग्र और अन्तस्थ स्मरण रखने की परम्परा थी। जो बारहखड़ी, गिनती-पहाड़े, और कविताओं को मुखाग्र स्मरण की परम्परा आज भी कायम है। इसलिए उस समय लेखन की परम्परा नहीं थी। इसलिए वह श्रुति काल कहलाता है। श्रुति काल में कथा वाचन नही कथा-कथन और श्रवण होता था।
इस इतिहास को महर्षि पराशर जी नें संहिता बद्ध कर अपने पुत्र श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास जी को सुनाया। फिर पुराण कथाओं का सम्पादन कर पुराण संहिता अपने पुत्र श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी को सुनाया।
श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास जी ने इस इतिहास को बत्तीस हजार श्लोक की जय संहिता के रूप में पढ़ाया- सिखाया। फिर जय संहिता का विस्तार भारत ग्रन्थ के रूप में हुआ और श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी के शिष्यों ने उसे लगभग एक लाख श्लोकों का बना दिया। अतः इसका लेखन अपरिहार्य हो गया था। अस्तु शीघ लेखन के ज्ञाता गणेश जी की सहायता ली गई। यह भी प्रमाणित करता है कि, लिपियाँ महाभारत रचना के पहले से अस्तित्व और प्रचलन में थी।
महाभारत की मारकाट से वृहद वर्णन से महर्षि वेदव्यास जी को वितृष्णा होने लगी। अतः श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी ने ललित साहित्य के रूप में रूपकात्मक पुराण कथा संहिता बद्ध कर अपने शिष्यों को पढ़ाई- सुनाई।
शिष्यों में जिस शिष्य ने अपनी योग्यता अनुसार जैसा ग्रहण किया उसे लिपिबद्ध कर वेद व्यास जी के नाम पर पुराणों की रचना की। व्यास जी के शिष्य व्यास ही कहलाते हैं। अस्तु समस्त पुराण साहित्य वेदव्यास जी के नाम पर प्रचलित हो गई। जिसका प्रवर्तन, प्रवर्धन, सम्पादन, लेखन गुप्त काल और धार के राजा भोज के समय तक होता रहा।
इन पाण्डुलिपियों में भी शिष्य गण अपनी समझ और आस्था अनुसार वर्तमान इतिहास जोड़ते गये। जो वर्तमान स्वरूप में उपलब्ध है। यह पूर्णतः लौकिक साहित्य है। 
अतः इन कथाओं का कथनोपकथन, उपदेश, श्रवण घरों में, सभाओं में भी होता है और मठों में तथा मठों के अधीन मन्दिरों में महन्त जी या उनके अनुयाई आगमोक्त पूजन विधि से पूजन कर केवल श्रद्धालु भक्तों को कथा सुनाते हैं, केवल वही व्यास पीठ कहलाती है।
जैसे यज्ञ के पहले उचित पवित्र भूमि की परीक्षा कर खुदाई कर जाँच-पड़ताल कर भूमि शोधन होता था। भूमि का पवित्रिकरण होता था। तत्पश्चात यज्ञ-सत्र का आयोजन होता है। वैसी शुद्ध की हुई भूमि पर सायं काल में व्यासपीठ स्थापित कर पुराण वाचन एवम् प्रवचन  होता है तब तो व्यासपीठ की मर्यादा का प्रश्न उपस्थित होता है।
लेकिन जब किसी भी खाली पड़े कॉलोनी का कचरा डालने के काम आने वाले प्लाट पर या किसी किसान के खेत को समतल कर उस खेत पर कथा आयोजन होता है तो, उसमें कौन सी व्यास-पीठ स्थापित हो सकती है? तो यहाँ तो गली-मोहल्लों में आयोजित होने वाली सत्यनारायण कथा, तेजाजी की कथा और रामदेवजी की कथा के समान ही परम्परा निर्वहन होगी।
निर्वयसनी, ऋतुकाल में ही केवल सन्तानोपत्ति हेतु गर्भाधान संस्कार के निमित्त स्वयम् की पत्नी के साथ रति करने वाले नैष्ठिक ब्रह्मचारी, ईश्वर प्रदत्त सम्पदा से सन्तुष्ट, ब्रह्म कर्म में प्रवृत्त, पञ्चमहायज्ञ सेवी, निष्काम कर्मयोगी ब्राह्मण न तो सुलभ हैं, न ऐसे ही धर्म प्रेमी श्रोता सुलभ हैं।
अतः स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती जी का नियम था कि वे किसी योग्य संन्यासी के आग्रह पर ही भागवत कथा सुनाते थे। उस बीच जो श्रद्धालु हो वह भी सुनले। इसमें उन्हें कोई आपत्ती नही थी।
ऐसे आयोजन में व्यासपीठ की मर्यादा होती है।
लेकिन खेतों में और प्लॉटों में व्यासपीठ हो ही नहीं सकती।

एक तरफ कहा जाता है कि, पुराण की रचना ही उनके नैतिक - धार्मिक विकास के लिए रची गई जो वेदों में उल्लेखित धर्म- दर्शन की गूढ़ बातों को नहीं समझ पाते थे। अर्थात सेवा क्षेत्र में लगे हुए श्रम जिवियों के लिए पुराण रचे गए ‌। और दुसरी ओर व्यास पीठ की मर्यादा की बात करना। दोहरी मानसिकता है।
इस लिए ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य जी स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द जी का यह कथन उचित है कि, अपना वर्ण, जाति, गोत्र घोषित कर ही वैधानिक तरीके से किसी के द्वारा कथा करने पर किसी को कोई आपत्ती नही हो सकती। उसके श्रोता ऐच्छिक रूप से कोई भी हो सकते है।
लेकिन यदि व्यासपीठ मर्यादा की घोषणा के साथ भगवत कथा ब्रह्म यज्ञ आयोजित किया जाता है तो, फिर, विधि-विधान से व्यासपीठ स्थापित कर, योग्य विप्र या ब्राह्मण के मुख से ही भगवत कथा होना चाहिए। और केवल धर्म मर्यादा पालक श्रोताओं को ही श्रवणाधिकार है।

समान गोत्र - प्रवर में विवाह त्याज्य है।

चतुर्मुखी प्रजापति ब्रह्मा की मानस सन्तान जो स्वयम् ब्रह्मर्षि थे वे भी प्रजापति कहलाते हैं।
इनमे दक्ष प्रजापति प्रथम और उनकी पत्नी प्रसुति, रुचि प्रजापति और उनकी पत्नी आकुति (इन्ही ने श्राद्ध चलाया जिसे सांकल्पिक नान्दिश्राद कहते हैं) और कर्दम प्रजापति और उनकी पत्नी देवहूति (जिनके पुत्र सांख्य दर्शन के रचयिता महर्षि कपिल हुए।)
शेष ब्रह्मर्षि (4) मरीची-सम्भूति, (5) भृगु-ख्याति, (6) अङ्गिरा-स्मृति, (7) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (8) अत्रि-अनसुया, (9) पुलह-क्षमा, (10) पुलस्य-प्रीति, (11) कृतु-सन्तति।
इनके अलावा नारद ने विवाह नहीं किया।
इन आठ मे से जिन्होंने गुरुकुल चलाए उन कुल गुरुओं के गोत्र चले।
फिर इनके योग्य शिष्यों के भी गुरुकुल चले उनके नाम पर भी गोत्र चले।
लेकिन एक महागुरु के जितने शिष्यों के गोत्र होते हैं वे एक ही प्रवर में माने जाते हैं। इसलिए समान प्रवर में भी विवाह नहीं होता है।

पिता का गोत्र तो विवाह में त्याज्य है ही, माता, दादी, पर दादी, वृद्ध परदादी का गोत्र भी त्याज्य है। नाना जी, नानी और माँ की दादी और नानी का गोत्र भी त्याज्य है ।

शुक्रवार, 20 जून 2025

आत्मा द्वारा वरण करने पर ही आत्मज्ञान होना ---

श्री शिशिर भागवत: 

ईश्वर में पूर्ण समर्पण भी ईश्वरेच्छा के बिना नहीं होता ।
 
मेरा उत्तर 

 यहाँ आपने प्रज्ञात्मा (परम पुरुष- परा प्रकृति) या परब्रह्म (विष्णु-माया) जिन्हें परमेश्वर कहा है उनकी इच्छा को ईश्वरेच्छा कहा है।
जबकि,
उपनिषद के वाक्य आत्मा जिसे स्वयम् वरण करता है वहाँ उपनिषद मे आत्मा का तात्पर्य परमात्मा से होता है। इसमें 
प्राणायाम कर धारणा, ध्यान और समाधि एक साथ कर संयम द्वारा विश्वात्मा ॐ को धनुष बनाकर उसमें प्रत्यगात्मा (पुरुष-प्रकृति) अर्थात ब्रह्म (प्रभविष्णु - श्री एवम लक्ष्मी) को बाण की नोक पर बैठाकर प्रज्ञात्मा (परम पुरुष- परा प्रकृति) या परब्रह्म (विष्णु-माया) जिन्हें परमेश्वर में स्थाई रूप से स्थापित कर दिया जाता है। इसके बाद प्रज्ञात्मा स्वाभाविक रूप से विश्वात्मा ॐ के द्वारा परमात्म भाव में स्थित और स्थिर हो जाता है।
यही सद्योमुक्ति है।

अन्यथा संसार में रत स्वभावतः प्रत्यगात्मा सदैव प्रज्ञात्मा और जीवात्मा के बीच दोलन करता रहता है।

श्री शिशिर भागवत का कथन -
सद्यो मुक्त तो हुवे नहीं है तो अभी जहां है उसी के बारे में कह सकते है ।
जब वो वरण करेगा तब बात दूसरी होगी । 100 % हरि कर्ता भाव उसके कृपा के बिना लगभग असंभव ही है ।
मेरा उत्तर -
वह शब्द परमात्मा के लिए ही प्रयुक्त होता है।

वेद शास्त्र (शब्द प्रमाण) ही प्रमाणों में परम प्रमाण है।
स्मृति (रामायण, महाभारत, मनुस्मृति आदि तथा महापुरुषों के अनुभव एवं उनके अनुभव के आधार पर कथित वचन) प्रमाण कोटि में नहीं आती।

श्री शिशिर भागवत ---

ये मान्य है ।

योग दिवस वसन्त विषुव दिवस सायन मेष संक्रान्ति (20-21 मार्च) और इण्टरनेश्नल योगा डे उत्तर परम क्रान्ति दिवस सायन कर्क संक्रान्ति (21-22 जून)

समत्वम् योग उच्चते।
इस परिभाषा के अनुसार तो जिस दिन दिन-रात बराबर हो, प्रकृति प्रफुल्लित हो अर्थात सभी पेड़ पौधों पुष्पित हो, जीवों का मन उत्साहित हो उस दिन योग दिवस मनाया जाना चाहिए।
वह दिन वसन्त विषुव दिवस, सायन मेष संक्रान्ति 20-21 मार्च को होता है।
दिन-रात बराबर, सृष्टि का प्रारम्भ दिवस, संवत्सर, प्रारम्भ दिवस, वसन्त ऋतु, उत्तरी ध्रुव पर सूर्योदय, सूर्य की स्थिति और गति उत्तर में (उर्ध्व में) होती है। यह प्राकृतिक योग दिवस होता है।
ध्यान रखें व्यायाम प्रारम्भ करने और जम कर व्यायाम करने के लिए ठण्ड का समय ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है। गर्मी और बरसात में चल रहा नियमित हल्का व्यायाम करन ही उचित माना जाता है।

अष्टाङ्ग योग में मुख्यता यम- नियम की है। बिना यम-नियम पालन के आसन मात्र जिम्नास्टिक है। प्राणायाम ब्रीदिंग एक्सरसाइज है, बिना प्रत्याहार, बिना धारणा के ध्यान होता ही नहीं। केवल रिलेक्सेशन हो सकता है। तो समाधि की तो कल्पना ही नहीं।
यह योग नहीं योगा है। YOGA योगा, योगा में सब-कुछ होगा वाला योगा डे सायन कर्क संक्रान्ति 21-22 जून को मनाया जाता है जिस दिन सूर्य का परम उत्तर क्रान्ति दिवस होता है अर्थात जिस दिन सूर्य उत्तरी गोलार्ध में उत्तर की ओर गति करते हुए, परम उत्तर सीमा पर अर्थात कर्क रेखा पर पहूँच कर दक्षिण की ओर गति प्रारम्भ करता है।

मैरे एक मित्र श्री अरविन्द शुक्ला जी के अनुसार ---

अष्टाङ्ग योग ---
जब कोई व्यक्ति यम (जैसे अहिंसा, सत्य), नियम (जैसे शौच, संतोष) के मार्ग पर चलता है, तब उसके भीतर तप, स्वाध्याय और अंततः ईश्वर प्रणिधान यानी ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण उत्पन्न होता है। यही समर्पण उसे वास्तविक धर्म का पालनकर्ता बनाता है।

जो व्यक्ति परमात्मा को ही अपने भीतर के ‘मैं’ के रूप में पहचान लेता है — वह अपने आप में अडिग होता है, स्थिर होता है, और वही सच्चा आत्म-विश्वास (आत्मा में विश्वास) प्राप्त करता है।

> "ईश्वर में पूर्ण समर्पण ही आत्मविश्वास की सबसे ऊँची अवस्था है।"

गुरुवार, 19 जून 2025

आत्मविश्वास

आत्मविश्वास उसी को होता है जिसने ईश्वर प्रणिधान कर दिया हो।
 पञ्च महायज्ञ के अन्तर्गत ब्रह्म यज्ञ के अन्तर्गत अष्टाङ्ग योग में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूपी पाँच धर्म (यम) के बाद पाँच नियम शोच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय के बाद ईश्वर प्रणिधान आता है।
अर्थात पूर्णतः धर्मपालक व्यक्ति में ही ईश्वर प्रणिधान (ईश्वरीय व्यवस्था के प्रति पूर्ण समर्पण) होता है।
अर्थात जो परम आत्म (परमात्मा) को ही वास्तविक मैं समझ ले वही व्यक्ति आत्म विश्वास रखता है।

मंगलवार, 17 जून 2025

वेदव्यास कौन कहलाता है?

वेदों के सभी मन्त्र मिलकर भी बहुत सीमित है। लेकिन वेदों में प्रत्येक विषय का सम्पूर्ण ज्ञान समाहित है।
हजारों ब्रह्मचारियों को जो नित्य पञ्च महायज्ञ और ब्रह्म यज्ञ के अन्तर्गत अष्टाङ्ग योग के पूर्ण अभ्यासी हो उन्हें चारों वेद, सभी ब्राह्मण ग्रन्थ, शिक्षा (फोनेटिक्स), व्याकरण, निरुक्त (भाषाशास्त्र), निघण्टु, छन्द शास्त्र, मीमांसा, ज्योतिष, कल्प सूत्र, श्रोत सूत्र, गृह्यसूत्र धर्म सूत्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, शिल्पवेद (स्थापत्य वेद), गन्धर्ववेद और अर्थशास्त्र, न्याय दर्शन , वैशेषिक दर्शन, योग दर्शन, सांख्य दर्शन, पूर्व मीमांसा दर्नश और उत्तर मीमांसा दर्शन, प्राचीन इतिहास-पुराण, बौद्ध, जैन और नास्तिक दर्शन के सब ग्रन्थ भली-भाँति पढ़ादो, समझा दो, सिखादो, फिर उसे वर्तमान प्रचलित गणित, ब्रह्माण्ड विज्ञान, रोबोटिक्स, भुगोल , खगोल, भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, जन्तु विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, सभी प्रकार की तकनीकी शिक्षा, सभी प्रकार के चिकित्सा शास्त्र, गृह शास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शन शास्त्र, गृह शास्त्र समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, लेखाकर्म, मुद्रा और बेंकिंग आदि सभी विषयों में पारङ्गत कर दो, जो यह सभी समझ जाएगा वह विद्वान कहलाएगा। उसके बाद उन्हें वेदों का भाष्य करने को कहो, तो उनमें जो सभी विषयों के अनुसार प्रत्येक वेद मन्त्र का अलग-अलग अर्थ और व्याख्या कर देगा। वह भाष्यकार वेदव्यास कहलाता है। 
फिर उसे वह भाष्य वर्तमान विद्वानों को सिखाने के लिए कहोगे तो जो व्यक्ति जिस विषय का ज्ञाता होगा उसे वही अर्थ और व्याख्या समझ आएगी। शेष अधिकांश या तो गलत लगेगी या थोड़ी बहुत ही ठीक लगेगी।
इस प्रकार सबकी राय अलग-अलग हो जाएगी।
पूर्वकाल में भी यही हुआ।देवताओं, मानवों और असुरों ने वेदों के अर्थ अपनी अपनी प्रवृत्ति के अनुसार ही समझे थे।
 

सोमवार, 16 जून 2025

क्वोरा लेखक श्री राहुल गुप्ता जी के अनुसार जैन परम्परा के गणधर गोतम बुद्ध

राहुल गुप्ता जी का मत है कि, शान्तिनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ की परम्परा जिसमें वर्धमान महावीर हुए उसी परम्परा के अन्तर्गत सिद्धार्थ को गोतम बुद्ध कहा गया। 
लेकिन उस श्रमण परम्परा में बुद्ध और अर्हत दो अवस्थाएँ हैं। लेकिन उस गोतम बुद्ध ने कोई नया पन्थ बौद्ध पन्थ का प्रवर्तन नहीं किया था।
उस गोतम बुद्ध की मृत्यु के लगभग डेढ़ सौ से तीन सौ वर्ष बाद उनके शिष्यों ने बौद्ध मत प्रतिपादित किया।

सिद्धार्थ एक व्यक्ति था, उसे अर्हत वादी श्रमण परम्परा में गोतम की उपाधि मिली, और माना गया कि, उन्हें बोध हुआ इसलिए बुद्ध भी कहा गया। लेकिन बुद्ध के रूप में सर्वसम्मति या मान्यता नहीं मिली। उस परम्परा में अर्हत महत्वपूर्ण होता है, बुद्ध नहीं। और तीर्थंकर नियत निर्धारित होते थे।

सनातन धर्म के मत पन्थ, सम्प्रदाय

भारत में दो परम्परा रही है।
1  निवृत्ति मार्ग - ये वेदों के प्रति आस्थावान होने से आस्तिक कहलाये। इसमें सनक, सनन्दन, सनत्कुमार, सनातन, नारद, भरत मुनि और शुकदेव आदि प्रसिद्ध हैं

परवर्ती काल में श्रमण परम्परा इसी से विकसित हुई। इसमें वेदों के प्रति आस्थावान सिद्ध गण कहलाते हैं। इसमें  कपिल देव और पतञ्जली मुख्य रहे।
इसी श्रमण परम्परा वेदों के प्रति नास्तिक तन्त्र मार्गी हुए इनमें मुख्य अर्धनारीश्वर महारुद्र एवम् उनके एकादश रुद्र, तथा इनके अनुयाई  शुक्राचार्य, शुक्राचार्य के पुत्र त्वष्टा और पौत्र विश्वरूप, अत्रि पुत्र दत्तात्रेय , दधीचि आदि हुए। 
इसी परम्परा में आगे चलकर वर्धमान महावीर के अनुयाई जैन कहलाई।

2 प्रवृत्ति मार्ग - ये वेदों के प्रति आस्थावान होने से आस्तिक कहलाये। यह वर्णाश्रम धर्म में विश्वास करते थे।
इसमें भी दो शाखाएँ है - 
(क) ब्राह्मण - प्रजापति के पुत्र 1 दक्ष प्रजापति (प्रथम) इनकी पत्नी प्रसुति, 2 रुचि प्रजापति इनकी पत्नी आकुति और 3 कर्दम प्रजापति मुख्य थे। इनके अलावा 
(4)मरीची-सम्भूति, (5) भृगु-ख्याति, (6) अङ्गिरा-स्मृति, (7) वशिष्ट-ऊर्ज्जा, (8) अत्रि-अनसुया, (9) पुलह-क्षमा, (10) पुलस्य-प्रीति, (11) कृतु-सन्तति। मुख्य रहे हैं।
(ख)  क्षत्रिय - स्वायम्भुव मनु और उनके पुत्र उत्तानपादासन और प्रियव्रत, और पौत्र ध्रुव और उत्तम। तथा प्रियव्रत शाखा में आग्नीध्र ->  या अजनाभ या नाभी -> ऋषभदेव -> भरत चक्रवर्ती और बाहुबली। (बाद में बाहुबली  श्रमण परम्परा में दिक्षित हो गये।)
वृद्धावस्था आने पर ऋषभदेव और भरत चक्रवर्ती भी सन्यस्त हो गये थे। लेकिन ये श्रमण नहीं हुए।
उक्त सभी स्वायम्भुव मन्वन्तर में हुए थे।
वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के ब्राह्मणों और क्षत्रियों के लिए ये आदर्श हुए।

शनिवार, 14 जून 2025

वाल्मीकि रामायण और रामचरित मानस में अन्तर ‌

राघव आयंगर की बहुमूल्य खोजों के आधार पर यह मान लिया गया है कि तमिल कवि कम्बन द्वारा रचित इरामवतारम्‌ ११७८ ई. में समाप्त हुआ और इसका प्रकाशन ११८५ में हुआ।  इरामावतारम् जिसे हिन्दी में रामावतारम या कम्ब रामायण कहते हैं उसके आधार पर रचित तुलसीदास जी कृत रामचरितमानस पठन-पाठन की परम्परा के कारण कई भ्रम प्रचलित हो गये।
जैसे-
1 गोतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ इन्द्र ने छल पुर्वक सम्बन्ध बनाए। जबकि, अहिल्या इन्द्र पर आसक्त थी। उन्होंने स्वयम् कहा था कि, आओ इन्द्र, जबतक ऋषि सन्ध्या करके लौटे इसके पहले तुम मुझे सन्तुष्ट कर निकल जाओ, यदि ऋषि तुम्हें देख लेंगे तो शाप दे देंगे।
2 अहिल्या पाषाण की हो गई थी, श्री राम ने पाषाण बनी अहिल्या जी को अपने पेर छुआए जिससे वे पुनः जीवित नारी बन गई।
जबकि सच यह है कि, गोतम ऋषि ने उनके उद्धार की व्यवस्था करते हुए कहा था कि, (केवल प्राणवायु लेकर) निराहार रहकर पाषाणवत स्थिर रहकर (अचल रहकर) पर प्रायश्चित करना और जब श्री रामचन्द्र जी इधर से गुजरेंगे, उनका आतिथ्य सत्कार करने पर तुम्हारा प्रायश्चित पूर्ण होगा। जब महर्षि विश्वामित्र जी के साथ श्री रामचन्द्र जी उधर से गुजरे तब, सूनसान आश्रम के विषय में पुछने पर महर्षि विश्वामित्र जी ने श्री रामचन्द्र जी को पुरा प्रकरण सुनाया और अहिल्या जी के उद्धार के लिए आश्रम में ले गये। यज्ञभस्म लपेटे, अचल निराहार रहकर तपस्या करती हुई अहिल्या जी के चरणों का स्पर्श कर श्री रामचन्द्र जी ने उन्हें प्रणाम किया, अहिल्या जी ने प्रसन्न होकर श्री रामचन्द्र जी का आतिथ्य सत्कार किया। तब उनका प्रायश्चित पूर्ण हुआ।

3 सीता स्वयम्वर - वास्तव में विश्वामित्र जी श्री रामचन्द्र जी और लक्षण जी को जनक जी के यहाँ शिव धनुष (पिनाक) के दर्शन कराने ले गये थे। उस समय वहाँ कोई स्वयम्वर नहीं हो रहा था।
जनक जी ने सीता जी के विवाह हेतु पिनाक शिव धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ाने वाले से ही सीता जी का विवाह करने की प्रतिज्ञा सुनाई एवम् कहा कि, पहले कई राजा असफल होने पर रुष्ट होकर सामुहिक रूप हमला कर चुके हैं, तब देवलोक की सहायता से उनसे सामना कर विजयी हुआ था। लेकिन आजकल कोई प्रतापी इस धनुष पर प्रत्यञ्चा नहीं चढ़ा पाया। अधिकांश तो उठा भी नहीं पाते हैं।
दर्शनार्थ एक गाड़ी में सन्दूक में रखे उस धनुष को बहुत से सेवक खींच कर सभा मे लाये। तब विश्वामित्र जी की आज्ञा पर श्री रामचन्द्र जी ने धनुष को नमस्कार कर सहज ही उठाया और उसपर प्रत्यञ्चा चढ़ाकर टंकार की तो वह धनुष टूट गया।
तब प्रसन्न जनक जी ने रामचन्द्र जी से सीता जी का विवाह प्रस्ताव रखा। जिसे महर्षि विश्वामित्र जी और श्री रामचन्द्र जी ने स्वीकार किया एवम् लक्ष्मण जी ने भी प्रसन्नता व्यक्त की।

4 श्रीरामचन्द्र जी और परशुराम जी का संवाद - लौटते समय श्री परशुराम जी सामने आ गये और नाराज होने पर श्री रामचन्द्र ने तर्क दिया कि, धनुष पुराना होने के कारण टंकार देने पर टूट गया।
तब श्री परशुराम जी ने श्री रामचन्द्र जी को वैष्णव धनुष देते हुए उसपर प्रत्यञ्चा चढ़ाने को कहा। लेकिन जैसे ही परशुरामजी ने श्री रामचन्द्र जी के हाध में वैष्णव धनुष दिया वैसे ही परशुरामजी के शरीर से अवतारत्व का तेज निकल कर श्री रामचन्द्र जी के शरीर में समा गया। श्री परशुराम जी अब साधारण ऋषि मात्र रह गये और श्री रामचन्द्र जी को अवतार हो गये।

5 वानर अर्थात वनवासी जनजाति के स्थान पर बन्दर मानना।
जिसके प्रमाण आप पढ़ चुके हो।

5 रामेश्वर ज्योतिर्लिंग श्री रामचन्द्र जी द्वारा स्थापित नहीं है। श्री रामचन्द्र जी कभी तमिलनाडु गये ही नहीं।इस विषय में वाल्मीकि रामायण के श्लोक संख्या और गीता प्रेस गोरखपुर का अनुवाद के आधार पर विस्तृत ब्लॉग भेज चुका हूँ। पुनः प्रेषित कर रहा हूँ।

6 रावण की लङ्का लक्ष्यद्वीप में न कि, सिंहल द्वीप (श्रीलंका)
इस विषय में वाल्मीकि रामायण के श्लोक संख्या और गीता प्रेस गोरखपुर का अनुवाद के आधार पर विस्तृत ब्लॉग भेज चुका हूँ। पुनः प्रेषित कर रहा हूँ।

7 केरल के नीलगिरी के कण्णूर या कोझिकोड से लक्ष्यद्वीप के किल्तान द्वीप तक लगभग तीन सौ किलोमीटर का रामसेतु नल के विश्वकर्म (स्थापत्य वेद/ शिल्पवेद) के ज्ञान (सिविल इंजीनियरिंग) के बल पर समुद्र मे तेरते लम्बे पेड़ों की जाली बना कर उसपर शिलाएँ जमाकर उसपर मिट्टी डालकर बनाया गया था। न कि, तेरते पत्थरों से।
 इस विषय में वाल्मीकि रामायण के श्लोक संख्या और गीता प्रेस गोरखपुर का अनुवाद के आधार पर विस्तृत ब्लॉग भेज चुका हूँ। पुनः प्रेषित कर रहा हूँ।

8 रावण वध अमान्त फाल्गुन पूर्णिमान्त चैत्र कृष्ण चतुर्दशी और अमावस्या की सन्धि काल में हुआ था, न कि, आश्विन शुक्ल दशमी को।
इस विषय में पहले भी वाल्मीकि रामायण के सन्दर्भ सहित सप्रमाण जानकारी भेज चुका हूँ। और पुनः प्रेषित है।

9 श्री रामचन्द्र जी वनवास पूर्ण कर चैत्र शुक्ल पञ्चमी को चित्रकूट पहूँचे। उसी दिन या दुसरे दिन नन्दिग्राम पहूँचे, फिर नन्दिग्राम से अयोध्या चैत्र शुक्ल षष्ठी को पहूँचे। न कि, अमान्त आश्विन पूर्णिमान्त कार्तिक कृष्ण अमावस्या (दीपावली) को।
फिर चैत्र शुक्ल नवमी पुष्य नक्षत्र के दिन श्री रामचन्द्र जी का राज्याभिषेक हुआ था।

10 वाल्मीकि रामायण का उत्तर काण्ड महर्षि वाल्मीकि जी के शिष्य भरद्वाज जी की रचना है।

11 गर्भवती सीता जी को वाल्मीकि आश्रम में छोड़ने का निर्णय गुप्तचरों की सुचना के आधार पर लिया गया था। गुप्तचरों की सुचना के अनुसार रावण के अधीन लंका में रही सीता जी को पटरानी बनाना धर्म-विरुद्ध आचरण माना गया। इसलिए सीताजी का त्याग किया। न कि, केवल एक धोबी के उलाहने पर।

12 महर्षि वाल्मीकि प्रणेताओं के पुत्र थे न कि, डाकु बाल्या भील।
 हो सकता है कि, यह घटना महर्षि वाल्मीकि के किसी अन्य जन्म मे घटित हुई हो।
13 कैकई और भरत का चरित्र और उनका श्री रामचन्द्र जी के प्रति प्रेम वैसा नहीं था जैसा रामचरितमानस में लिखा है।
भरत ने जब अयोध्या लौटने पर जनता का अपने प्रति घोर घृणा भाव देखा तब उनका हृदय परिवर्तन हुआ।
 दशरथ जी का कैकई के प्रति अधिक लगाव होने के कारण माता कौशल्या  और श्री रामचन्द्र जी को कैकई  और भरत के सामने दब कर रहना पड़ता था।

गुरुवार, 12 जून 2025

शिक्षा

मेकाले शिक्षा प्रणाली बहुत गलत है। जो सबको क्लास रूम में एक जैसा भाषण पिलाया जाता है।
होना यह चाहिए कि, बच्चों को खेतो में, बगीचों में, लघु उद्योगों में, बड़े उद्योगों में, खदानों में,  ट्रेफिक में, वन में सब जगह ले जाओ।
वहाँ बच्चे को जो जिज्ञासा हो उनका उत्तर तत्काल दे सके ऐसे जानकर साथ रखो।
फिर उसकी रूचि अनुसार विषय के पाठ पढ़ाओ, उसी के अन्तर्गत बच्चे को मात्रभाषा, संस्कृत, अंग्रेजी और गणित, हिन्दी आदि भाषाओं का ज्ञान करवाओ। चित्रकला, मूर्ति कला, गायन, वादन और नृत्य नाट्य सिखाओ।
भुगोल, खगोल, धर्म-नीति और शरीर रचना और मनोविज्ञान सिखाओ।
जब बच्चे की मूलभूत जिज्ञासाएँ शान्त हो जाएगी तब उसकी रूचि के विषयों को सिखाया जाए।
ध्यान रखें सिखाना है। पढ़ाना नहीं है।
इसी बीच उसकी उत्पादकता विकसित करो, ताकि वह कुछ उत्पादन करने लगे, उससे उसका खर्च निकले।