शुक्रवार, 30 अगस्त 2024
चतुर्मास
अमान्त आषाढ़-पूर्णिमान्त श्रावण कृष्ण अमावस्या हरियाली अमावस्या या दिवासा से कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा तक प्रायः हर दिन कोई कोई-न-कोई व्रत-पर्व, उत्सव- त्योहार रहता ही है।
चार नवरात्र
चैत्र शुक्ल (वसन्त विषुव) मुख्य नवरात्र,वासन्ति नवरात्र, आषाढ़ शुक्ल (कर्कायन/ दक्षिणायन संक्रान्ति) गुप्त नवरात्र, आश्विन शुक्ल (शारदीय विषुव) शारदीय नवरात्र और माघ शुक्ल (उत्तरायण/ सायन मकर संक्रान्ति) (गुप्त नवरात्र); पर चार नवरात्र पड़ते हैं। अर्थात विशुवांश 00°, 90°, 180° और 270° पर या मेष, कर्क, तुला और मकर संक्रान्ति के उपलक्ष्य में नवरात्र पड़ते हैं।
बुधवार, 28 अगस्त 2024
भगवान प्रभविष्णु (सवितृ) का एक नाम सुनील भी है।
कभी जगन्नाथपुरी में भगवान जगन्नाथ जी के मन्दिर के पीछे वाले हिस्से में जाएँगे तो वहाँ *नील माधव (भगवान विष्णु) की नीलवर्ण पाषाण प्रतिमा है।*
*वह जगन्नाथ तीर्थ का मुख्य भाग या कहें मूल भाग है।*
विष्णु सहस्त्रनाम में भी एक श्लोक में आता है --
*भूता वासो वासुदेव सर्वा सुनील्यो नलः*
लेकिन लोगों को इसका हिंदी अर्थ नहीं मिलता है।
श्री लक्ष्मी को मा कहते हैं और धव मतलब पति। मा लक्ष्मी के पति माधव कहलाते हैं।
सुनील अर्थात अच्छे सुन्दर नील वर्णी मा (लक्ष्मी का नाम) के धव अर्थात पति यानि भगवान प्रभविष्णु हैं।
संस्कृत में नील शब्द कृष्ण (काले) का पर्यायवाची शब्द है। जैसे चोंट लगने पर त्वचा में जो काला धब्बा बन जाता है उसे नील पड़ना कहते हैं।
मतलब डार्क इण्डिगो कलर / गहरा नील वर्ण लगभग काला दिखता है। सुनील शब्द घनश्याम शब्द से मिलता जुलता समानार्थी शब्द है
कुछ काले चमकीले चेहरे वालों के चेहरे पर नीलाभ दृष्टिगोचर होता है।
भगवान विष्णु का नाम सुनील है यह ज्ञान नगण्य सुनील नामधारी लोगों को है।
मंगलवार, 27 अगस्त 2024
व्रत में तिथि और पूजा का ही महत्व है।
निर्णय सिन्धु के रचयिता आचार्य श्री कमलाकर भट्ट महाभाग का स्पष्ट कथन है कि, *व्रत-पर्व में तिथि और पूजा ये ही मुख्य है।*
*न वार, न नक्षत्र न योग केवल तिथि ही मुख्य है।*
*ऐसे ही तीर्थ में स्नान मुख्य है।*
*व्रत-पर्व में पूजा ही मुख्य है।*
लङ्घन अर्थात पूरे दिन नहीं खाना- पीना, फलाहारी उपवास, फरयाली उपवास, एक भक्त व्रत अर्थात एक बार दिन में ही खाना, या नक्त व्रत जैसे प्रदोष यानी एक ही बार लेकिन रात में खाना या एकासना अर्थात एक आसन पर बैठकर जितना खाना हो खालो, फिर उठने के बाद नहीं खाना।
ये सब व्रत के अङ्ग हैं व्रत नहीं। लेकिन पूजा मुख्य है।
शुक्रवार, 16 अगस्त 2024
करण
करण मतलब *औजार, या यन्त्र* ।
जीव और प्राण *अधिकरण* है। अर्थात मुख्य या आधारभूत करण हैं।
(प्राण अर्थात चेतना अर्थात देही।)
"ओज और तेज *अभिकरण* है। अर्थात निकटस्थ या अधिनस्थ करण हैं।
चित्त, बुद्धि, अहंकार और मन *अन्तःकरण* चतुष्ठय हैं ही। अर्थात आन्तरिक करण हैं।
और
१ श्रोत (कान), २ त्वक (त्वचा), ३ नैत्र (आँखें), ४ रसना (जीह्वा), ५ घ्राण (नाक) ये पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ ।
तथा
१ वाक (कण्ठ), २ हस्त (हाथ), ३ पाद (पैर), ४ उपस्थ (जननेन्द्रिय/ मुत्रेन्द्रिय), ५ पायु (गुदा) ये पाँच कर्मेंद्रियाँ
ये दसों बहिर्करण हैं। अर्थात बाहरी करण हैं।
बुधवार, 14 अगस्त 2024
कल्प अर्थात हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का एक दिन या प्रजापति ब्रह्मा का जीवनकाल।
विष्णु पुराण के अनुसार हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की आयु ३१ नील, १० खरब, ४० अरब वर्ष होती है। इसमें उनकी आयु के सौ वर्ष पूर्ण हो जाते हैं। इसके बाद इतने ही समय का प्राकृत प्रलय होता है। प्राकृत प्रलय मे जीवात्मा अपरब्रह्म में भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा लय हो जाते हैं। फिर केवल जीवात्मा अपरब्रह्म (नारायण - नारायणी), प्रत्यगात्मा ब्रह्म (सवितृ-सावित्री अर्थात प्रभविष्णु-श्री लक्ष्मी), प्रज्ञात्मा परब्रह्म (विष्णु-माया), विश्वात्मा प्रणव अर्थात ॐ और परमात्मा ही रह जाते हैं। शेष कुछ नहीं रहता।
वर्तमान हिरण्यगर्भ ब्रह्मा अपनी आयु के पचास वर्ष पूर्ण कर चुके हैं और एक्कावनवें वर्ष के प्रथम दिन (कल्प) में चल रहे हैं।
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का एक अहोरात्र ८,६४,००,००,००० वर्ष (आठ अरब, चौंसठ करोड़) का होता है। जिसमें केवल ४,३२,००,००,००० वर्ष के दिन में (कल्प में ) ही सृष्टि रहती है। ४,३२,००,००,००० वर्ष की रात्रि में नेमित्तिक प्रलय ही रहता है।
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के एक दिन को कल्प कहते हैं। प्रत्येक कल्प में एक सुत्रात्मा प्रजापति होता है। प्रजापति की आयु एक कल्प अर्थात ४,३२,००,००,००० वर्ष होती हैं ।
प्रत्येक कल्प में ४,३२,००,००,००० वर्ष होते हैं । इसके बाद इतने ही समय का नैमित्तिक प्रलय होता है। नैमित्तिक प्रलय में भूतात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा में सुत्रात्मा प्रजापति लय हो जाते हैं। ब्रह्माण्ड (आकाशगङ्गाएँ) नष्ट हो जाता है। और अगले कल्प में पुनः सृजित होता है। सुत्रात्मा प्रजापति की आयु भी अपने वर्षमान के अनुसार सौ वर्ष होती है। वर्तमान प्रजापति अपनी आयु के पचास वर्ष पूर्ण कर चुके हैं और एक्कावनवें वर्ष में चल रहे हैं।
लेकिन
हर एक कल्प में एक सतयुग तुल्य १२,२८,००० वर्ष की पन्द्रह सन्धियों सहित ३०,६७,२०,००० वर्ष मान वाले १४ मन्वन्तर होते हैं। एक मन्वन्तर में संधि संध्यांश सहित इकहत्तर महायुग होते हैं।
प्रत्येक मन्वन्तर में एक इन्द्र, देवगण और एक मनु होता है। मन्वन्तर समाप्ति पर इन्द्र, देवगण, और मनु सुत्रात्मा प्रजापति में लय हो जाते हैं। सतयुग तुल्य १२,२८,००० वर्ष जैविक प्रलय रहता है। लेकिन सौर मण्डल आदि रह जाते हैं। सन्धि व्यतीत होने पर अगले इन्द्र, देवगण और मनु उत्पन्न होते हैं और शतपथ ब्राह्मणोक्त जल प्रलय और वैवस्वत मन्वन्तर की कथा के अनुसार बचाये गए बीजों से पुनः जैविक सृष्टि करते हैं।
कुछ कर्मदेव आदि की आयु एक महायुग तुल्य अर्थात ४३,२०,००० वर्ष होती है। फिर वे इन्द्र मे लय हो जाते हैं। तो कुछ देवताओं की आयु युग विशेष तक ही रहती है। अर्थात १७,२८,००० वर्ष के सतयुग के देवता सतयुग में ही उत्पन्न होते हैं और मत्स्य, कुर्म, वराह और नृसिंह अवतारों की सहायता कर सतयुग समाप्ति पर इन्द्र में लय हो जाते हैं। १२,९६,००० वर्ष के त्रेता युग के देवता त्रेता युग पर्यन्त ही जीते हैं। और वामन, परशुराम और श्री राम की सहायता कर त्रेता युग समाप्ति पर इन्द्र में लय हो जाते हैं। ८,६४,००० वर्ष के द्वापर युग के देवता द्वापरयुग में ही रहते हैं और बलराम तथा श्रीकृष्ण अवतारों की सहायता कर द्वापर समाप्ति पर इन्द्र में लय हो जाते हैं।
कलियुग का मान ४,३२,००० वर्ष होता है।
कलियुग का प्रारम्भ ५१२५ वर्ष पहले हुआ। कलियुग में उत्पन्न देवता कलियुग समाप्ति के साथ ही इन्द्र में लय हो जाएंगे। ये देवता कलियुग समाप्ति के ८३१ वर्ष पहले जन्म लेने वाले कल्कि अवतार की सहायता कर के कलियुग समाप्ति के समय अर्थात आज के ४,२७,८७५ वर्ष बाद कलियुग समाप्ति पर इन्द्र में लय हो जाएंगे।
इस प्रकार एक महायुग में ४:३:२:१ के अनुपात में चारों युग होते हैं इसलिए सतयुग में मत्स्य , कुर्म, वराह और नृसिंह ये चार अवतार होते हैं। त्रेता युग में वामन, परशुराम और श्री राम ये तीन अवतार होते हैं।द्वापरयुग में बलराम और श्री कृष्ण ये दो अवतार होते हैं और कलियुग में केवल एक ही कल्कि अवतार ही होता है।
पौराणिक मान्यता है कि, वेदों में उल्लेखित पुराणों की रचना विभिन्न कल्पों के प्रारम्भ में हुई।
सभी पुराणों में केवल तीस कल्प के नाम ही दिये गए हैं। जिन्हें हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के एक माह की तीस तिथियाँ मानी गई है। केवल वायु पुराण में तैंतीस कल्पों के नाम दिए हैं। शिव पुराण वायु पुराण का ही भाग है।
मत्स्य पुराण के अध्याय 53 में लगभग सभी पुराणों के कल्पों का उल्लेख है। केवल ब्रह्म पुराण और मार्कण्डेय पुराण का ही उल्लेख नहीं है।
"मत्स्य पुराण में भी तीस कल्पों के नाम दिए हैं । जिनमें से प्रत्येक कल्प का नाम ब्रह्मा ने कल्प में हुई किसी महत्वपूर्ण घटना और कल्प की शुरुआत में सबसे गौरवशाली व्यक्ति या अवतार के नाम के आधार पर कल्प का नाम रखा है ।
ये तीस दिन या तीस कल्प तथा तीस रात्रि या तीस नेमित्तक प्रलय मिलाकर हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का तीस दिवसीय माह बनता हैं। ये तीस दिन तीस तिथियाँ मानी जाती है।
तीस कल्पों के नाम ---
१ श्वेत (वराह) कल्प (वर्तमान)।
२ नीलालोहित कल्प।
३ वामदेव कल्प।
४ रथन्तर कल्प।
५ रौरव कल्प।
६ देव कल्प। (प्राण कल्प)
७ वृहत कल्प।
८ कन्दर्प कल्प।
९ साध्य कल्प। सत्य कल्प। साद्य कल्प
१० ईशान कल्प।
११ तमाह कल्प। (व्यान कल्प)
१२ सारस्वत कल्प।
१३ उदान कल्प।
१४ गरुड़ कल्प।
१५ कौर्म कल्प। कुर्म कल्प ।(हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की पूर्णिमा)
१६ नारसिंह कल्प। नृसिंह कल्प ।
१७ समान कल्प।
१८ आग्नेय कल्प। अग्नि कल्प।
१९ सोम कल्प।
२० मानव कल्प।
२१ तत्पुमान कल्प। (पुमान कल्प)
२२ वैकुण्ठ कल्प।
२३ लक्ष्मी कल्प।
२४ सावित्री कल्प।
२५ अघोर कल्प। (घोर कल्प)
२६ वराह कल्प ।
२७ वैराज कल्प।
२८ गौरी कल्प ।
२९ महेश्वर कल्प।
३० पितृ कल्प । (हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की अमावस्या)
अन्य पुराण के अनुसार ब्रह्मा के तीस दिनों के नाम ये हैं—
(१) श्वेत (वाराह) कल्प।
(२) नीललोहित कल्प।
(३) वामदेव कल्प।
(४) रथन्तर कल्प।
(५) रौरव कल्प।
(६) प्राण कल्प। (देव कल्प)
(७) बृहत्कल्प।
(८) कंदर्प कल्प।
(९) सत्य कल्प या साध्यकल्प।
(१०) ईशान कल्प ।
(११) व्यान कल्प। (तमाह)
(१२) सारस्वत कल्प।
(१३) उदान कल्प।
(१४) गारूड़ कल्प।
( १५) कौर्म कल्प। (हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की पूर्णिमा)।
(१६) नारसिंह कल्प।
(१७) समान कल्प।
(१८) आग्नेय कल्प।
(१९) सोम कल्प।
(२०) मानव कल्प।
(२१) पुमान् कल्प। (तत्पुमान कल्प)
(२२) वैकुण्ठ कल्प ।
(२३) लक्ष्मी कल्प
(२४) सावित्री कल्प।
(२५) घोर कल्प। (अघोर कल्प)
(२६) वाराह कल्प ।
(२७) वैराज कल्प ।
(२८) गौरी कल्प ।
(२९) महेश्वर कल्प।
(३०) पितृ कल्प।(हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की अमावस्या) ।
अन्य पुराण के अनुसार भी कल्प ३० हैं :
१ श्वेत, २ नीललोहित, ३ वामदेव, ४ रथन्तर, ५ रौरव, ६ देव, ७ वृहत, ८ कंदर्प, ९ साध्य, १० ईशान, ११ तमाह, १२ सारस्वत, १३ उदान, १४ गरूढ़, १५ कुर्म, १६ नरसिंह, १७ समान, १८ आग्नेय, १९ सोम, २० मानव, २१ तत्पुमन (पुमान), २२ वैकुंठ, २३ लक्ष्मी, २४ सावित्री २५ अघोर, २६ वराह, २७ वैराज, २८ गौरी, २९ महेश्वर,३० पितृ।
लेकिन पुराणकारों ने पांच प्रमुख कल्पों की गाथा का ही वर्णन किया है।
ये पांच कल्प है- १.महत कल्प, २ हिरण्य गर्भ, ३ ब्रह्मकल्प, ४ पद्मकल्प और ५ वराहकल्प।
पुराने किसी भी कल्प का पुरातात्विक प्रमाण और इतिहास इसलिए मिलना लगभग असम्भव है क्योंकि प्रत्येक कल्प के अन्त में नैमित्तिक प्रलय हो जाता है। पूरा ब्रह्माण्ड नष्ट हो जाता है। तो प्रमाण कहाँ बचेंगे।
१. महत कल्प -
लेकिन पुराणकार मानते हैं कि, महत् कल्प में विचित्र-विचित्र और महत् (अंधकार से उत्पन्न) वाले प्राणी और मनुष्य होते थे। संभवत: उनकी आंखें नहीं होती थीं।
२. हिरण्यगर्भ कल्प --
हिरण्यगर्भ कल्प में भूमि का रंग सुनहरा था इसीलिए इसे हिरण्य कहते हैं।
हिरण्य के तीन अर्थ होते हैं- एक जल और दूसरा स्वर्ण और तीसरा धतुरा।
हिरण्यगर्भ कल्प में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ, हिरण्यवर्णा लक्ष्मी, देवता, हिरप्यानी रैडी (अरंडी), वृक्ष वनस्पति एवं हिरण ही सर्वोपयोगी थे। सभी पशु और पक्षी हिरण्यवर्ण के एकरंगी थे।
माना जाता है कि हिरण्य कल्प में स्वर्ण के भंडार बिखरे पड़े थे।
३. ब्रह्मकल्प --
ब्रह्मकल्प में मनुष्य जाति सिर्फ ब्रह्म (ईश्वर) की ही उपासक थी। क्रम विकास के तहत प्राणियों में विचित्रताओं और सुंदरताओं का जन्म हो चुका था। *जम्बूद्वीप में इस काल में ब्रह्मर्षि देश, ब्रह्मावर्त, ब्रह्मलोक, ब्रह्मपुर, रामपुर, रामगंगा केंद्र आदि नाम से स्थल हुआ करते थे। यहां की प्रजाएं परब्रह्म और ब्रह्मवाद की ही उपासना करती थी।* ब्रह्म कल्प का ऐतिहासिक विवरण हमें ब्रह्मपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण में मिलता है।
४. पद्मकल्प --
पुराणों के अनुसार इस कल्प में १६ समुद्र थे। पुराणकारों अनुसार पद्म कल्प नागवंशियों का कल्प था। धरती पर जल की अधिकता थी और नाग प्रजातियों की संख्या भी अधिक थी। कोल, कमठ, बानर (बंजारे) व किरात जातियां थीं और कमल पत्र पुष्पों का बहुविध प्रयोग होता था। सिंहल द्वीप (श्रीलंका) की नारियां पद्मिनी थीं। तब के श्री लंका की भौगोलिक स्थिति आज के श्रीलंका जैसी नहीं थी। पद्म कल्प का विस्तार से विवरण पद्म पुराण में है।
५. वराहकल्प -- (श्वेत वराह कल्प)
वर्तमान में श्वेत वराह कल्प चल रहा है। श्वेत वराह कल्प में विष्णु ने वराह रूप में ३ अवतार लिए-
पहला नील वराह, दूसरा आदि वराह और तीसरा श्वेत वराह।
वराह कल्प में ही विष्णु के चौबीस अवतार हुए और वराह कल्प में ही वैवस्वत मनु का वंश चल रहा है। वराह कल्प में भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने नई सृष्टि की थी। वराह कल्प का विवरण वराह पुराण में मिलता है।
वर्तमान में चल रहे वराह कल्प में पूरी भूमि पर जल ही जल फैला था। भूमि जल में ही डूबी हुई लगती थी। पृथ्वी पर से जल हटाकर समुद्र में बहाने के लिए इस कल्प में विष्णु ने वराह रूप में तीन अवतार लिए- पहला नील वराह, दूसरा आदि वराह और तीसरा श्वेत वराह। इस कल्प में भगवान वराह और ऋषि मुनियों के अथक प्रयास से सात समुद्र हो गए।
वराह कल्प में छठा मन्वंतर अपनी संध्याओं सहित व्यतीत हो चुके हैं, अब सातवां मन्वंतर काल चल रहा है जिसे वैवस्वत: मनु और उनकी संतानों का काल माना जाता है।
ब्रह्मा के द्वितीय परार्ध में श्वेतवराह नाम के कल्प में १ स्वायम्भु मनु, २ स्वरोचिष मनु, ३ उत्तम मनु, ४ तामस मनु, ५ रेवत मनु और छटे चाक्षुष मनु व्यतीत हो चुके है।और
सप्तम वैवस्वत मनु के मन्वंतर में सत्ताईस चतुर्युगी व्यतीत हो चुकी है। वर्तमान सप्तम मन्वन्तर अर्थात वैवस्वत मन्वन्तर में यह अट्ठाईसवें चतुर्युग का १ कृतयुग, २ त्रेता और ३ द्वापर युग व्यतीत हो चुका है और चतुर्थ युग कलियुग चल रहा है। वर्तमान में कलियुग का प्रथम चरण ही चल रहा है।
एक मत के अनुसार श्वेत वराह कल्प के वैवस्वत मन्वन्तर में सावर्णि मनु की अंतरदशा चल रही है। सावर्णि मनु की अन्तर दशा विक्रमी संवत् प्रारंभ होने से लगभग ५,५०० वर्ष पूर्व हुई। लेकिन इस मत का कोई शास्त्रीय आधार न होने के कारण यह मत सर्वसम्मत नहीं है ।
सुचना -
पौराणिक मान्यता है कि, वेदों में उल्लेखित पुराणों की रचना विभिन्न कल्पों के प्रारम्भ में हुई।
मत्स्य पुराण के अध्याय 53 में लगभग सभी पुराणों के कल्पों का उल्लेख है। केवल ब्रह्म पुराण और मार्कण्डेय पुराण का ही उल्लेख नहीं है।
१ पद्म कल्प में पद्म पुराण रचा गया।
२ वर्तमान वराह कल्प में विष्णु पुराण रचा गया।
३ श्वेत कल्प में वायु पुराण रचा गया। शिव पुराण वायु पुराण का ही भाग है।
४ सारस्वत कल्प में भागवत पुराण रचा गया।
५ बृहत कल्प में नारद पुराण रचा गया।
६ इशान कल्प में अग्नि पुराण रचा गया।
७ अघोर कल्प भविष्य पुराण रचा गया।
८ रथन्तर कल्प मे ब्रह्म वैवर्त पुराण रचा गया।
९ आग्नेय कल्प में लिंग पुराण रचा गया।
१० मानव कल्प में वराह पुराण रचा गया।
११ सतपुरुष कल्प में स्कंद पुराण रचा गया।
१२ कूर्म कल्प में वामन पुराण रचा गया।
१३ लक्ष्मी कल्प में कूर्म पुराण रचा गया।
१४ वराह कल्प के वैवस्वत मन्वन्तर में मत्स्य पुराण रचा गया।
१५ भावी कल्प में ब्रह्माण्ड पुराण रचा गया। भावी कल्प का कोई विशिष्ट नाम नहीं बताया गया।
मीडिया पर प्राप्त सुचनाओं के अनुसार ---
जैन मत में कल्प ---
जैन सम्मेंप्रदाय में १२ कल्प बताए गए हैं:- १ सौधर्म, २ ईशान, ३ सानत्कुमार, ४ माहेन्द्र, ५ब्रह्म, ६ लांतव, ७ महाशुक्र, ८ सहस्रार, ९ आनत, १० प्राणत, ११ आरण और १२ अच्युत।
*बौद्ध मत में कल्प --*
गौतम बुद्ध ने दावा किया कि पिछले कल्पों में असंख्य बुद्ध हुए हैं : विपस्सी बुद्ध ९१ कल्प पहले, सिख बुद्ध ३१ कल्प पहले, और वर्तमान कल्प में तीन पूर्व बुद्ध । वह अपनी शिक्षाओं को वर्तमान कल्प तक सीमित रखते हैं , जिसकी अवधि वे अंकगणितीय रूप से परिभाषित नहीं करते हैं, लेकिन एक समानता का उपयोग करते हैं।
कल्प की एक और परिभाषा है वह दुनिया जहाँ बुद्ध पैदा होते हैं। आम तौर पर कल्प के २ प्रकार होते हैं, सुन्न-कल्प और असुन्ना-कल्प । सुन्न -कल्प वह दुनिया है जहाँ कोई बुद्ध पैदा नहीं होता। असुन्ना-कल्प वह दुनिया है जहाँ कम से कम एक बुद्ध पैदा होता है। असुन्ना-कल्प के ५ प्रकार हैं ।
सारा-कल्प - वह विश्व जहाँ एक बुद्ध का जन्म हुआ।
मण्ड-कल्प - वह संसार जहाँ दो बुद्ध जन्म लेते हैं।
वर-कल्प - वह संसार जहाँ तीन बुद्ध जन्म लेते हैं।
सरमण्ड-कल्प - वह विश्व जहाँ चार बुद्धों का जन्म हुआ।
भद्द-कल्प - वह विश्व जहाँ पाँच बुद्धों का जन्म हुआ।
पिछला कल्प व्यूहकल्प (शानदार कल्प) था , वर्तमान कल्प को भद्रकल्प (शुभ कल्प) कहा जाता है, और अगला कल्प नक्षत्रकल्प (नक्षत्र कल्प) होगा ।
शनिवार, 10 अगस्त 2024
चतुर्युग में दशावतार
कृतयुग (सतयुग) चार कलियुग के बराबर होता है और सतयुग में चार अवतार होते हैं। १ मत्स्य (मधुकेटभ को मार कर ब्रह्मा जी का भ्रम निवारण /लुप्त ज्ञान अर्थात वेद वापस देना), मत्स्य विशुद्ध जलचर है।
२ कुर्म/कश्यप (समुद्र मन्थन में अपनी पीठ पर मन्दराचल रखवा कर मन्दराचल को आधार देना), कुर्म उभयचर है। जलचर होकर भी भूमि पर रह सकता है।
३ वराह (हिरण्याक्ष वध कर भूमि का जल वापस समुद्र में पहूँचा कर जल मग्न भूमि को सुखाना), वराह स्थलचर होकर भी जल के निकट बलवान होता है।
४ नृसिंह (हिरण्यकशिपु का वध कर प्रहलाद को राज्य दिया।), नृसिंह आधे पशु आधे द्विपद या मनुष्य थे।
त्रेता युग तीन कलियुग तुल्य है। त्रेता में तीन अवतार हुए। तीनों मानव विकास क्रम में।
१ वामन ( दैत्य राज बलि से केरल भारत का राज्य छीन कर बोलिविया / दक्षिण अमेरिका में बसाया) पूर्ण विकसित नही, बोने थे।
२ परशुराम (तान्त्रिक कार्तवीर्य सहस्त्रार्जून को मार कर तन्त्र मन्त्र, मान्समदिरा बन्द कराया।) पूर्ण नागरिक (सिविलाइज्ड) नही थे।
३ श्री राम (रावण के नेतृत्व में उसके ननिहाल से आये और लक्ष्यद्वीप, कर्नाटक, महाराष्ट्र, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और निमाड़ तक फैल चुके अफ्रीकी राक्षसों को मार भगाया), श्री राम पूर्ण सभ्य थे फिर भी कुछ समय वनवास में रहकर वन्य जीवन का अनुभव लिया।
द्वापर दो कलियुग तुल्य था। द्वापर में दो अवतार हुए।
१ बलराम (श्रीकृष्ण के सहयोगी)। मल्ल, गदाधर, हलधर किसान
२ श्रीकृष्ण (कन्स द्वारा भारत में फिर से बसाये गए तान्त्रिकों और आक्रमणकारियों को मार कर भगाया।), पूर्ण सभ्य, दार्शनिक , वैज्ञानिक, युद्धकला विशेषज्ञ, कूटनीतिक।
कलियुग के अन्त में कलियुग समाप्ति के ८३१ वर्ष पूर्व ब्राह्मण माता-पिता की सन्तान कल्कि अवतार होंगे। जो दुर्दान्त योद्धा होंगे। सभी आसुरी प्रवत्ति वालों का नाश कर सतयुग का मार्ग प्रशस्त करेंगे।
सत्कार्य वाद के अन्तर्गत विवर्तवाद
मैं किसी भी वाद- विवाद में श्रद्धा नहीं रखता। सांख्य कारिकाओं में उल्लेखित सत्कार्यवाद और उसके अन्तर्गत विवर्तवाद वेदान्त लगता है लेकिन है नही।
किसी व्यक्ति का विवाह हुआ और उस पुरुष ने स्वयम् को पति मान लिया और स्त्री ने स्वयम् को पत्नी मान लिया। यह कौन सा वाद है?
उसी युगल में पत्नी की दो सन्तान हुई, पहली पति से और दुसरी किसी अन्य पुरुष से।
पुरुष स्वयम् को दोनों सन्तान का पिता मानता है। उसमें दुसरी सन्तान का पिता मानना कौनसा वाद हुआ?
अर्थात संसार मान्यता का फेर है। यह भी एक मत है।
स्वप्न में स्वयम् को किसी स्त्री से विवाह होना देखकर स्वयम् को उसका पति मानना, लेकिन जागने पर सत्य ज्ञान होने पर भ्रम निवारण होना।
यह माया वाद है तो पहला क्या है?
ऐसे कितने वाद विवाद में पढ़ें?
ऐसे ही हॉस्पिटल में बच्चे बदल दिए जाते हैं। जिस माता- पिता को इसका ज्ञान नहीं हो, वे स्वयम् को उस बच्चे के माता-पिता मानते हैं और दोनों बच्चे अपने पालक माता-पिता को ही अपने वास्तविक माता-पिता मानते हैं।
यहाँ एक माता-पिता को सत्य का ज्ञान है, लेकिन बच्चे को नहीं है। और दुसरे माता-पिता और बच्चे तीनों को ही सत्य का ज्ञान नहीं है। इस सम्बन्ध को कौनसा वाद कहेंगे?
जैसे नन्द-यशोदा और श्रीकृष्ण का सम्बन्ध। इस सम्बन्ध मानने को कौनसा वाद कहेंगे?
ये सब विवर्तवाद के अन्तर्गत आने वाले उप वाद हैं। जबकि विवर्तवाद स्वयम् सत्कार्य वाद का उप वाद है।
कुल मिलाकर ये सब न्याय प्याज के छिलके निकालकर सत्य/ केन्द्र तक पहूँचने का वैज्ञानिक प्रयास है।
एक बड़े खाली हॉल के बीचोंबीच में पूर्ण अन्धकार में एक निद्रा मग्न व्यक्ति को छोड़ दिया। जागने पर उसे न कुछ दिखाई दिया और फर्श को छोड़कर और कुछ छू भी पाया। निराश हो बैठ गया।
कुछ देर बाद थोड़ी दूर होलोग्राम से चार व्यक्ति झगड़ते दिखाई देते हैं। वह उन गुत्थमगुत्था युद्ध रत लोगों अलग-अलग कर शान्ति स्थापित करने गया। तो वहाँ कुछ भी छू नहीं पाया। और कुछ ही देर में पूरा हॉल प्रकाशित हो गया।
उस घटना को वह व्यक्ति अलग-अलग बार अलग-अलग दृष्टिकोण से सोचता समझता है। लेकिन किसी निष्कर्ष पर नहीं पहूँचता है।
फिर उसे अल्ट्रारेड केमरे से खीँची गई पूरी रील उसे दिखाई जाती है। वह सत्य जान लेता है। फिर भी उसे रह-रहकर स्मृतियों के कारण बार-बार भ्रम होता है।
इसे क्या कहेंगे?
विष्णु की कल्पना से कल्प, दिवा स्वप्न (मनो राज्यम्), रात्रि स्वप्न, तन्द्रा, स्व सम्मोहन, सम्मोहन और सम्मोहन अवस्था में में दी गई भावना, इन्द्रजाल (जादू), रस्सी सर्प भ्रम, या रजत शुक्ति भ्रम, आकाश कुसुम, जैसे अनेक रूपों में माया को समझाया जाता है।
दूसरा प्रकार सूर्य और उसके प्रकाश के रूप में विष्णु और माया को समझा जाता है। अर्थात शक्तिमान और शक्ति के रूप में। लेकिन यहाँ शक्ति का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। न ही किसी भी अवस्था में शक्तिमान निशक्त होता है। शक्ति शक्तिमान के अधीन और पूर्ण नियन्त्रण में रहती है । जिसे जब चाहे शक्तिमान समेट सकता है, जो चाहे करवा सकता है।
शनिवार, 3 अगस्त 2024
दिवासा अर्थात हरियाली अमावस्या या अमान्त आषाढ़ पूर्णिमान्त श्रावण कृष्ण अमावस्या।
भारतीय पर्यावरण दिवस
*दिवासा अर्थात हरियाली अमावस्या*
अमान्त आषाढ़/पूर्णिमान्त श्रावण कृष्ण पक्ष अमावस्या को हरियाली अमावस्या और दिवासा के नाम से जाना जाता है। *इस दिन भूत यज्ञ अर्थात पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, नदी-तालाब, कुए-बावड़ी आदि का संरक्षण किया जाता है। और रात्रि को पितरों के निमित्त दीप पूजा कर दीपदान करते हैं।*
देश के कई भागों विशेषकर उत्तर भारत में इसे एक धार्मिक पर्व के साथ ही पर्यावरण संरक्षण के रूप में मनाया जाता है।
इस दिन पितरों के निमित्त ग्यारह या एक्कीस (एकादश या एकवीश) आटे के दीपक बनाकर पूजा की जाती है, इसलिए इसे दीप अमावस्या भी कहते हैं। इसी का अपभ्रंश दीवासा है।
महाराष्ट्र और कर्नाटक में इसका विशेष प्रचार है। वहाँ कुछ लोग आटे के दीपकों तल कर फिर उनमें रूईं से बनी बत्ती घी या तेल मे डुबाकर दीपक में रखकर जलाकर पूजा करते हैं। कुछ पूरण के दीपक बनाते हैं। पूजा के पश्चात उन्ही दीपकों को प्रसाद के तौर पर सपरिवार खाया जाता है।
श्रावण मास में महादेव के पूजन की परम्परा है इसीलिए हरियाली अमावस्या पर विशेष तौर पर शिवजी का पूजन-अर्चन किया जाता है।
*इस दिन नदियों व जलाशयों के किनारे स्नान के बाद भगवान का पूजन-अर्चन करने के बाद शुभ मुहूर्त में वृक्षों को रोपा जाता है। इसके तहत शास्त्रों में विशेषकर आम, आंवला, पीपल, वटवृक्ष और नीम के पौधों को रोपने का विशेष महत्व बताया गया है।*
भारतीय संस्कृति में प्राचीनकाल से पर्यावरण संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाता रहा है। पर्यावरण को संरक्षित करने की दृष्टि से ही पेड़-पौधों में ईश्वरीय रूप को स्थान देकर उनकी पूजा का विधान बताया गया है। *जल में वरुण देवता की परिकल्पना कर नदियों व सरोवरों को स्वच्छ व पवित्र रखने की बात कही गई है। वायुमंडल की शुचिता के लिए वायु को देवता माना गया है।*
*वेदों व ऋचाओं में इनके महत्व को बताया गया है। शास्त्रों में पृथ्वी, आकाश, जल, वनस्पति एवं औषधि को शांत रखने को कहा गया है। इसका आशय यह है कि इन्हें प्रदूषण से बचाया जाए। यदि ये सब संरक्षित व सुरक्षित होंगे तभी हमारा जीवन भी सुरक्षित व सुखी रह सकेगा।*
*इस दिन गुड़ व गेहूं की धानी का प्रसाद दिया जाता है। स्त्री व पुरुष इस दिन गेहूं, जुवार, चना व मक्का की सांकेतिक बुआई करते हैं जिससे कृषि उत्पादन की स्थिति क्या होगी, इसका अनुमान लगाया जाता है।*
*मध्यप्रदेश में मालवा व निमाड़, राजस्थान के दक्षिण-पश्चिम, गुजरात के पूर्वोत्तर क्षेत्रों, उत्तरप्रदेश के दक्षिण-पश्चिमी इलाकों के साथ ही हरियाणा व पंजाब में हरियाली अमावस्या को इसी तरह पर्व के रूप में मनाया जाता है।*
वृक्षों में देवताओं का वास -
धार्मिक मान्यता के अनुसार वृक्षों में देवताओं का वास बताया गया है।
शास्त्रों के अनुसार पीपल के वृक्ष में त्रिदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु व शिव का वास होता है।
आंवले के पेड़़ में लक्ष्मीनारायण के विराजमान होने की परिकल्पना की गई है। इसके पीछे वृक्षों को संरक्षित रखने की भावना निहित है।
पर्यावरण को शुद्ध बनाए रखने के लिए ही हरियाली अमावस्या के दिन वृक्षारोपण करने की प्रथा बनी।
शुक्रवार, 2 अगस्त 2024
रक्षा बन्धन मुहूर्त।
रक्षा बन्धन मुहूर्त
धर्म सिन्धु एवम् निर्णय सिन्धु के अनुसार रक्षाबन्धन अपराह्न व्यापी श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को की जाती है। यदि पूर्णिमा उदिया तिथि अपराह्न व्यापी न मिले तो शाकल्यपादिता पूर्णिमा तिथि अर्थात पूर्णिमा तिथि कम से कम त्रि मुहूर्ता अर्थात सूर्योदय पश्चात छः घटि (02 घणटे 24 मिनट ) तक पूर्णिमा रहे तभी उदिया पूर्णिमा तिथि में रक्षाबन्धन करें। अन्यथा पूर्व दिवस चतुर्दशी युक्त पूर्णिमा में भद्रा व्यतीत होने के बाद ही रक्षा बन्धन करें। चाहे रात्रि हो जाए, तो भी देवताओं को रक्षासूत्र अर्पित कर, फिर श्रवण को रक्षासूत्र अर्पित करने के बाद राजा और अपने भाई को रक्षासूत्र (राखी) बान्धे।
लेकिन नन्दा तिथि अर्थात प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी तिथि में रक्षाबन्धन नही करें।
श्रावणी कर्म मुहूर्त।
ऋग्वेदीय उपाकर्म श्रावण मास में श्रवण नक्षत्र में लेकिन दुसरे दिन यदि श्रवण नक्षत्र तीन मुहूर्त (छः घटि अर्थात 02 घण्टे 12 मिनट) से अधिक हो तो दुसरे दिन अन्यथा पहले दिन ही करें।
इस समय संक्रान्ति या ग्रहण हो तो श्रावण शुक्ल पञ्चमी को या श्रावण शुक्ल में हस्त नक्षत्र में श्रावणी करें।
शुक्ल यजुर्वेदीय उपाकर्म श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को करें ।
यदि दुसरे दिन यदि शाकल्यपादिता पूर्णिमा तिथि अर्थात पूर्णिमा तिथि तीन मुहूर्त (छः घटि अर्थात 02 घण्टे 12 मिनट) से अधिक हो तो दुसरे दिन अन्यथा पहले दिन ही करें।
इस समय संक्रान्ति या ग्रहण हो तो श्रावण शुक्ल पञ्चमी को या श्रावण शुक्ल में हस्त नक्षत्र में श्रावणी करें।
कृष्ण यजुर्वेदीय उपाकर्म श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को करें ।
यदि दुसरे दिन यदि पूर्णिमा तिथि तीन मुहूर्त (छः घटि अर्थात 02 घण्टे 12 मिनट) से अधिक हो तो दुसरे दिन अन्यथा पहले दिन ही करें। लेकिन पहले दिन एक मुहूर्त बाद पूर्णिमा लगे और दूसरे दिन पूर्णिमा छः घटि से भी कम हो तो भी कृष्ण यजुर्वेदीय उपाकर्म दुसरे दिन ही करें।
इस समय संक्रान्ति या ग्रहण हो तो श्रावण शुक्ल पञ्चमी को या श्रावण शुक्ल में हस्त नक्षत्र में श्रावणी करें।
सामवेदीय उपाकर्म भाद्रपद शुक्ल पक्ष में हस्त नक्षत्र में करें।
क्या अनुभव सच होता है? नही।
धूप से आने पर घर में अन्धेरा दिखता है।
शकर खाकर मीठी चाय भी फीकी लगती है।
आँवला खाने के बाद पानी पियो तो मीठा लगता है।
हीना का इत्र सुंघने के बाद किसी इत्र की भी सुगन्ध अनुभव नहीं होती।
राग भैरवी सुनने के बाद अच्छे से अच्छे गायन में भी वह रस नहीं मिलता जो होना चाहिए।
ये तो केवल पाँच हैं और भी सेकड़ों उदाहरण हैं।
अब कैसे मान लूँ कि, अनुभव गलत नही होता है।
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