वेद विरोधी, वेदों को न मानने वाले नास्तिक जैन भी अनीति और अनाचार को दोष मानते हैं। इसलिए जैन ग्रन्थों में सदाचार और नैतिकता को आवश्यक माना है।
वेदों के प्रति तटस्थ और वेद निरपेक्ष बुद्ध (न कि बौद्ध) भी सदाचार और नैतिकता अनिवार्य मानते थे। इसलिए विनय पिटक और सुत्त पिटक में सदाचार और नैतिकता को आवश्यक माना है।
वैदिक काल में अनीश्वरवादी होते थे। चार्वाक भी अनीश्वरवादी थे।
वे वैदिक व्यवस्था को मान्यता देते थे या न देते थे केवल इसपर विवाद है।
चाहे व्यक्तिवादी राज्य को आवश्यक बुराई मानते हों, लेकिन राज्य विहीन व्यवस्था नहीं चाहते।आज तक भी अराजकता वाद बुरा ही माना जाता है।
अनैतिकता, अनाचार का व्यवहार करने वाले तान्त्रिक भी अनैतिकता, अनाचार का खुलेआम प्रचार तो नही कर पाते थे। और आज भी नहीं कर पाते हैं; तो चार्वाक यदि अनीति और अनाचार का समर्थन करते तो उनकी बात कोई क्यों मानता।
वेदिक व्यवस्था न मानने वाले तान्त्रिक अनार्य, दास-दस्यु को खराब/ बुरा माना जाता था, अनीश्वरवादी को नहीं।
वैदिक काल से अनीश्वरवादी होना कोई दोष नहीं माना गया। क्योंकि परमात्मा को सर्वोपरि मानते वालों के लिए ईश्वर श्रेणी के देवता कोई महत्व नहीं रखते। महर्षि भृगु लात मार देते हैं, नारद शाप दे देते हैं।
चार्वाक को भी अवतार और ऋषि का पद दिया गया है। चार्वाक दर्शन माना गया है।
लेकिन फिलासफी और फिलासफर लोगों को केवल विचारधारा और विचारक कहते हैं। इसलिए आधुनिक विचारकों से चार्वाक की तुलना नहीं हो सकती।
नास्तिक, अनीश्वरवादी, अनैतिक होने के साथ अनाचारी होना जैसे तान्त्रिक कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन, रावण और कन्स आदि तथा आसुरी वृत्ति का अनाचारवादी होना अलग बात है जबकि दैत्य हिरण्यकशिपु और इब्राहीम एवम् इब्राहीमियों का दुराचारवादी होना अलग बात हैं।
आसुरी वृत्ति का होना यथा हिरण्यकशिपु और इब्राहीम और इब्राहीमी दुराचारवादी होना और अनैतिकता और अनाचार का समर्थक तीनों समान बातें हैं।
चार्वाक की तुलना कभी भी किसी ने आसुरी वृत्ति का होना यथा हिरण्यकशिपु और इब्राहीम इब्राहीमी से नहीं की, न उन्हें असुर-दैत्य-दानव कहा गया।
अनैतिकता और अनाचार का समर्थन समाज कभी स्वीकार नहीं करता। इब्राहीमी यहूदी पन्थ में यीशु को बौद्ध संस्कार जोड़ना पड़े, तब दानव जाति के यूरोपियों नें उसे स्वीकार किया।
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