गुरुवार, 7 मार्च 2024

शिवरात्रि कारण और पारण।

शिवरात्रि पर्व का कारण प्रदोष व्रत और शिवरात्रि व्रत साथ होने पर पारण नियम।

 महाभारत और विष्णु पुराण आदि के अनुसार कल्पारम्भ पश्चात और मन्वन्तर आरम्भ के पहले सन्धि काल में अमान्त माघ पूर्णिमान्त फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि (शिवरात्रि) में मध्यरात्रि में हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के रोष से अर्धनारीश्वर स्वरूप एकरुद्र या महारुद्र का प्राकट्य हुआ था।
मैथुनिक सन्तान का जन्म होता है और मानस सन्तान का प्रकटीकरण प्राकट्य कहलाता है। इसलिए इसे जयन्ती नहीं कहते हैं।
नारायण द्वारा हिरण्यगर्भ ब्रह्मा जी को सृष्टि सृजन का दायित्व सोपा था। जिसको प्रारम्भ करने का कोई सुत्र हिरण्यगर्भ ब्रह्मा जी को नहीं मिल रहा था। तब उन्हें रोष हुआ और भृकुटी टेड़ी हो गई। उस वक्र भृकुटियों के मध्य से एकरुद्र/ महारुद्र प्रकट हुए।

इसे वैज्ञानिक भाषा में यूँ समझ सकते हैं कि,कि, हिरण्यगर्भ नामक दीर्घ गोलाकार अण्डाकार सूर्य जैसे गोले में विक्षोभ हुआ और एक टुकड़ा प्रथक हो गया।

आज दिनांक 08 मार्च 2024 शुक्रवार को ही प्रदोष व्रत भी है और शिवरात्रि व्रत भी है। 
प्रदोष व्रत में सूर्यास्त से लगभग दो घण्टा चौबीस मिनट के अन्दर ही भोजन कर पारण करना होता है। लेकिन,  
शिवरात्रि का व्रत दूसरे दिन सूर्योदय पश्चात पूर्ण होता है। तत्पश्चात ही चतुर्दशी तिथि में ही या चतुर्दशी तिथि सूर्योदय के पहले समाप्त हो जाए तो अमावस्या तिथि में प्रातः काल (सूर्योदय से सूर्योदय पश्चात दिनमान का पाँचवा भाग अर्थात लगभग 02 घण्टे 24 मिनट तक) में भोजन कर पारण करना होता है।
इस वर्ष यह धर्म संकट है कि, प्रदोष व्रत कर्ता पारण कैसे करें?
उपाय यह है कि, चूंकि दोनों व्रत एक ही देवता अर्थात रुद्र देव से सम्बन्धित हैं अतः दिन में निराहार रहकर सूर्यास्त पश्चात सूर्यास्त से रात्रिमान का पाँचवा भी अर्थात लगभग 02 घण्टे 24 मिनट के अन्दर प्रदोषकाल में कोई फलाहार लेकर प्रदोष व्रत का पारण करें और उसके पश्चात पुनः निराहार रहकर कल शनिवार को सूर्योदय पश्चात प्रातः काल में चतुर्दशी तिथि में शिवरात्रि व्रत का पारण करें। जब दुसरे दिन सूर्योदय पूर्व ही चतुर्दशी तिथि समाप्त हो जाए तो ही अमावस्या तिथि में सूर्योदय में शिवरात्रि व्रत का पारण करें।
यह नियम केवल एक ही देवता के दो व्रत एक के बाद एक लगातार आने पर ही लागू होगा।
सब जगह नहीं।
यथा एकादशी व्रत और प्रदोष व्रत में लागू नहीं होता है।

विशेष ---
पुराणों की भाषा रूपकात्मक है।
हिरण्यगर्भ ब्रह्मा दीर्घ गोलाकार सूर्य जैसे हैं। गोले के सभी ओर (चारों ओर) मुख होता है। लेकिन अण्डाकार में एक मुख उपर की ओर भी उभरा रहता है। अतः वह पञ्चमुखी हो गया। इससे निकलने वाले एकरुद्र की आकृति भी अण्डाकार है। लेकिन नील लोहित द्विरङ्गी है इसलिए अर्धनारीश्वर हो गया। नील भाग नर का और लोहित (रोहित) या लाल भाग नारी का माना गया।
हिरण्यगर्भ से ही निकले प्रजापति नामक अण्डाकार गोला निकला लेकिन उसके शीर्ष चपटे थे, इसलिए उन्हें चतुर्मुख माना जाता है और कहा गया कि, रुद्र ने ब्रह्मा जी का एक सिर काट दिया। साथ ही उन्हें हमेशा कमल पर बैठा हुआ ही बतलाते हैं। (निचला भाग भी चपटा है ना, इसलिए।) इसके लिए कथा रची कि, रुद्र नें ब्रह्मा के पाँच मुख देखे तो एक गर्दन काट दी। या सद्योजात मुख से ब्रह्मा वेद निन्दा करने लगे तो रुद्र ने ब्रह्मा का उपरी सिर काट दिया। या हिरण्यगर्भ *ब्रह्मा* के पुत्र प्रजापति *ब्रह्मा* के साथ ही प्रकट उनकी शक्ति (हिरण्यगर्भ ब्रह्मा की पुत्री) सरस्वती के प्रति प्रजापति ब्रह्मा को आकर्षित होते देख रुद्र ने प्रजापति ब्रह्मा का उपरी सिर काट दिया। ब्रह्मा का पुत्र ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ *ब्रह्मा की पुत्री सरस्वती* । *प्रजापति ब्रह्मा की बहन सरस्वती* । प्रजापति *ब्रह्मा की शक्ति (पत्नी) सरस्वती।* 
 दक्ष प्रजापति का शिरोच्छ भी इसी कथा का रूपान्तर है।
नृसिंह पुराण में तो नारायण ब्रह्मा लिखा है।
मतलब नारायण ब्रह्मा-नारायणी से हिरण्यगर्भ ब्रह्मा-वाणी, हिरण्यगर्भ ब्रह्मा-वाणी से प्रजापति-सरस्वती।
तीनों ब्रह्मा है। (स्वाभाविक ही है। पिता का सरनेम पुत्र को मिलता ही है।😁) लेकिन तीनों की पत्नी अलग-अलग है। 
ऋग्वेद में ऋचा है, जिसके अनुसार उषा के पीछे-पीछे सूर्य दोड़ा।
मृगशीर्ष नक्षत्र के तीन तारे (हिरणी) के पीछे-पीछे व्याघ का तारा (रुद्र) शिकार करने दोड़ा। 
जिसे रातभर बिल्वपत्र के वृक्ष पर बैठे शिवपुराण के व्याघ (शिकारी) ने रातभर आकाश में व्याघ तारे को मृगशीर्ष नक्षत्र का पीछा करते हुए देखा देखा। (क्योंकि उस समय सूर्य व्याघ तारे और मृगशीर्ष नक्षत्र से १८०° पर था। निरयन धनु ०१° से निरयन धनु २०° पर अर्थात मूल-पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र पर था) और दिनभर से भूखे व्याघ/ बहेलिए नें रात में चारों प्रहर में एक-एक बार मुख मार्जन किया और बिल्वपत्र तोड़ कर नीचे मिट्टी के टीले पर गिराता गया। तो भोले शंकर समझे यह मेरे प्रकटीकरण दिवस शिवरात्रि पर शिवलिङ्ग पर जल चढ़ाकर बिल्वपत्र अर्पित कर मैरी पूजा उपासना कर रहा है। अतः उस बहेलिए पर प्रसन्न होकर उसे दर्शन देकर वरदान देकर अपना गण बना लिया।
पौराणिकों को इनका भाव स्पष्ट करना था, तो कहानी रच दी।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें